आसिया बीबी के साथ सलमान तासीर |
‘’फासीवादी और ग़ैरफासीवादी दक्षिणपंथ में असली अंतर यह है कि फासीवाद निचले तबके की भीड़ को आंदोलित करके अस्तित्वमान होता है। यह निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और लोकलुभावन राजनीति के युग से जुड़ा हुआ है। पारंपरिक प्रतिक्रियावादी इन राजनैतिक व्यवस्थाओं का फ़ायदा उठाते हैं और ‘जैविक राज्य’ के समर्थक इनके अतिक्रमण का प्रयास करते हैं। फासीवाद अपने पीछे जनता को भारी संख्या में ले आने में गौरवान्वित महसूस करता है… फासिस्ट समाज के उस तबके को संबोधित करते हुए जो ख़ुद को सामाजिक नीतियों का शिकार समझते हैं, समाज के पूर्ण रूपांतरण की मांग करते हुए, यहां तक कि अपनी संस्थाओं के नाम और चिन्ह सामाजिक क्रांतिकारियों के तर्ज पर रखते हुए ( ध्यान रहे कि हिटलर की पार्टी का नाम ‘सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी’ और झंडा लाल था तथा सत्ता में आने पर इसने 1933 में पहली मई को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया था) प्रतिक्रांति के क्रांतिकारी होते हैं। - ( एरिक हाब्सबाम, द एज आफ़ एक्सट्रीम्स, पेज़ 117-118)’’
ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ में एक प्रसंग है। देश में सर उठा रहे दक्षिणपंथ के दौर में एक छोटे से कस्बे में ‘हिज़ाब पहनने वाली लड़कियों को कालेज में प्रतिबंधित करने’ वाले सरकारी आदेश का सख़्ती से पालन करने वाले कालेज के निदेशक की हत्या के इरादे से आया एक धर्मांध युवा उनसे पूछता है – ‘क्या संविधान के बनाये नियम ख़ुदा के बनाये नियम से ऊपर हैं?’ निदेशक के तमाम तर्कों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उसकी हत्या कर देता है। पिछले दिनों दिल्ली की एक पत्रकार निरुपमा पाठक के अपने विजातीय प्रेमी से विवाह के फैसले से नाराज़ उसके पिता ने भी अपने पत्र में लिखा था कि ‘संविधान तो बस 60 वर्ष पुराना है, हमारा जीवन तो हज़ारों वर्ष पुरानी मनुस्मृति तथा पुराणों से संचालित होता है।’ बाद में निरुपमा की भी रहस्यपूर्ण स्थितियों में मृत्यु हो गयी। सलमान तासीर की हत्या के विवरण पढ़ते हुए ये संदर्भ मुझे बेहद मानीख़ेज लगे। 1947 में उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के साथ जिन उदारवादी मूल्य-मान्यताओं के आधार पर हमारी राजनैतिक संरचना निर्मित हुई थी, आधी सदी बीतने के साथ-साथ उन आधारों में बड़ी गहरी और स्पष्ट दरारें साफ़ देखी जा सकती हैं। पाकिस्तान में जिया उल हक़ के समय जिस तरह उदारवाद को निर्णायक रूप से तिरोहित कर इस्लामी कट्टरवाद को स्थापित किया गया उसके परिणाम आज साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं और भारत के लिये, ख़ासतौर पर आर एस एस के नेतृत्व में पिछली सदी से उभरे आक्रामक दक्षिणपंथ के मद्देनज़र इस परिघटना के गंभीर निहितार्थ हैं।
सलमान तासीर और आशिया बीबी वाले प्रकरण पर पहले थोड़ा विचार कर लेते हैं। 31 मई, 1944 को शिमला में जन्में सलमान तासीर पाकिस्तान के एक उदारवादी प्रगतिशील परिवार से ताल्लुक रखते थे। पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील नेता तथा कवि डा एम डी तासीर उनके पिता थे, जिन्हें उपमाद्वीप से इंगलैण्ड जाकर अंग्रेज़ी में परास्नातक करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में भी जाना जाता है। उनकी मां बिलकिस तासीर एक ब्रिटिश थीं और फैज अहमद फैज की पत्नी एलिस फैज की सगी बहन। पिता की मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन फैज अहमद फैज की सरपरस्ती में ही हुआ। इसका असर उनकी मानसिक बनावट पर भी पड़ा और वह शुरु से उदारवादी विचारों के रहे। वियतनाम के हमले के समय वे अमेरीकी दूतावास पर पत्थर फेंकने वालों में शामिल रहे तो अयूब खान की तानाशाही के ख़िलाफ़ उन्होंने लाहौर की दीवारों पर नारे लिखे। उनका राजनैतिक कैरियर ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के साथ 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में शुरु हुआ और जिया उल हक़ ने जब भुट्टो को गिरफ़्तार किया तो उसके ख़िलाफ़ चले आंदोलन में सलमान तासीर ने प्रमुख भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने भुट्टो की राजनीतिक जीवनी भी लिखी और बेनजीर भुट्टो के साथ मिलकर पीपुल्स पार्टी का आधार फिर से खड़ा करने में प्रमुख भूमिका निभाई। इस दौरान वह कई बार नज़रबंद और गिरफ़्तार किये गये तथा एक बार उन्हें लाहौर क़िले में छह महीनों तक जंजीरों में जकड़ कर भी रखा गया। 1988 के आम चुनावों में वह पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लाहौर से चुनाव जीते और फिर 2007 में वह केंद्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाये गये। 5 मई 2008 को उन्हें पीपुल्स पार्टी गठबंधन सरकार में पंजाब प्रांत का गवर्नर बनाया गया। राजनीति के साथ-साथ उन्होंने व्यापार में भी काफ़ी सफलतायें प्राप्त कीं और वह कई चैनलों तथा अंग्रेजी दैनिक पीपुल्स डेली के मालिक थे। पाकिस्तान की राजनीति में वह एक उदारवादी नेता के रूप में जाने जाते थे जिन्होंने हमेशा कट्टरपंथ का विरोध किया और देश के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की खुल के वक़ालत की। इसकी वज़ह से वह हमेशा ही कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे। आशिया बीबी के मसले से पहले भी वह अहमदियों को गैर मुस्लिम क़रार देने वाली संवैधानिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा चुके थे। लेकिन आशिया बीबी के मसले पर उन्होंने एक टीवी चैनल पर दिये साक्षात्कार में जिस तरह कुख्यात ‘ईशनिंदा क़ानून’ की मुखालफ़त की वह कट्टरपंथियों को बेहद नागवार गुजरा। जिस समय पाकिस्तान में इस मुद्दे पर कट्टरपंथियों ने पूरे देश में एक पागलपन का माहौल बना रखा था और वहां के राजनैतिक दल तथा तमाम प्रगतिशील तबकों ने होठ सिले हुए थे, उस दौर में सलमान तासीर का आशिया बीबी के पक्ष में खुलकर सामने आना, उससे मिलने के लिये जेल में जाना तथा उसकी प्राणरक्षा के लिये क़ानूनी पहल करना इन ताक़तों के लिये असहनीय था। माहौल का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि दक्षिणी वजीरिस्तान के एक तालिबानी कमाण्डर ने अपने बयान में कहा कि ‘अगर तासीर की हत्या क़ादरी ने न की होती तब भी उनका जल्दी ही मारा जाना तय ही था’ और कभी तालिबान के कट्टर शत्रु रहे बरेलवी संप्रदाय के प्रतिनिधि संगठन ‘जमात अहले सुन्नत’ ने तासीर को काफ़िर क़रार देते हुए न केवल उनके हत्यारे को ‘इस्लाम के नायक’ के रूप में महिमामंडित किया बल्कि उनकी शवयात्रा तथा अंतिम प्रार्थना में शामिल होने से रोकने के लिये फ़तवा भी ज़ारी किया। आश्चर्य है कि इन सबके खिलाफ़ पाकिस्तान के संवैधानिक शासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। इन हालात में राबर्ट मैकनामरा की वह बात याद आती है कि ‘लोकतंत्र को असली ख़तरा आवश्यकता से अधिक प्रबंधन से नहीं बल्कि इससे कम प्रबंधन से है। वास्तविकता का आवश्यकता से कम प्रबंधन इसे स्वतंत्र रखना नहीं है। इसका बस इतना मतलब है कि आप तर्क के अलावा कुछ दूसरी ताक़तों को वास्तविकता गढ़ने का काम दे देते हैं…अगर लोग तर्कों से संचालित नहीं होंगे तो वे अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पायेंगे…यह लोकतंत्र के लिये घातक होगा। ( देखें नोम चाम्सकी की किताब ‘फार रीजन्स आफ़ स्टेट का पेज़ xxxix)’
आसिया बीबी का क़िस्सा भी हैरतअंगेज है और यह पाकिस्तान की क़ानून व्यवस्था के खोखलेपन के साथ-साथ धर्म के राजनीति के नेतृत्वकर्ता होकर उभरने या फिर तर्क के ऊपर आस्था को सम्मान देने से पैदा हो सकने वाली स्थितियों की ओर साफ़ इशारा करता है। अब जबकि भारत में भी आस्था घरों की दहलीज लांघकर न्यायालय के बार रूम से न्यायधीश के फैसलों के पन्नों तक पहुंच चुकी है तो इसे समझना तथा इसके ख़तरों से आगाह होना हमारे लिये एक नष्ट होते पड़ोसी की निंदा का पड़ोसी धर्म निभाना नहीं बल्कि अपने भविष्य को उस जैसा होने से रोकने की तैयारी का हिस्सा है।
आसिया बीबी एक ईसाई महिला है। एक ग़रीब खेतिहर मज़दूर। जून-2008 में एक दिन काम के दौरान उसकी किसी साथी ने पानी लाने के लिये कहा। वह ले आई। लेकिन उसकी कुछ मुस्लिम मज़दूर साथियों ने उसे ग़ैर मुस्लिम होने के नाते नापाक कहकर उसके हाथ से पानी पीने से मना कर दिया। इस बात पर उनकी आपस में कुछ कहा-सुनी हो गयी और उसके विरोधी पक्ष ने उसके ऊपर पैगम्बर के अपमान का आरोप लगा दिया। मामले ने सांप्रदायिक रूप ले लिया, भीड़ ने उसके साथ मारपीट की, निर्वस्त्र करके गांव में घुमाया तथा बलात्कार भी किया गया। लेकिन पुलिस ने संरक्षण देने की जगह उसे गिरफ़्तार कर लिया और पाकिस्तान की शेखपुरा अदालत ने उसे ‘ईशनिंदा क़ानून’ के तहत फांसी की सज़ा दे दी। मामला अभी लाहौर हाईकोर्ट में है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा हुई है। मज़ेदार बात यह है कि आशिया ने अपनी कथित ‘ईशनिंदा’ में कहा क्या था, यह किसी को नहीं मालूम। क्योंकि उन शब्दों को दुबारा कहने वाला भी उस क़ानून की जद में आ जाता है। लेकिन इसके बावज़ूद दूसरे पक्ष के आरोप को सही तथा पर्याप्त मानते हुए ज़िला अदालत ने उसे सज़ा दी है।
यहां यह जान लेना ज़रूरी है कि ‘ईशनिंदा क़ानून’ पाकिस्तान में भुट्टो के तख़्तापलट के बाद जिया उल हक के शासनकाल में बनाये गये थे। जिया उल हक़ ने पाकिस्तान को एक इस्लामी मुल्क़ बनाने के लिये संविधान में व्यापक तब्दीलियाँ कीं। ग़रीबी, अशिक्षा, बेकारी और आर्थिक तबाही से जूझते लोगों के आक्रोश को दबाये रखने के लिये धर्म का बेतहाशा प्रयोग किया गया। स्कूली पाठ्यक्रमों में इस्लामी शिक्षा को शामिल करने से लेकर देश के प्रगतिशील तबकों की आवाज़ दबाने के लिये मध्यकालीन बर्बर क़ानूनों की पुनर्स्थापना तक की गयी और पाकिस्तान के पूरे राजनैतिक-सामाजिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया गया। अफगानिस्तान की रूस समर्थित उदारवादी सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रहे तालिबान कट्टरपंथियों को पाकिस्तान का समर्थन इसी दौर में शुरु हुआ जिसके फलस्वरूप ‘जिहाद’ जैसी धार्मिक शब्दावली के सहारे वहां ग़रीब-बेरोज़गार पाकिस्तानी युवाओं को लड़ने के लिये भेजा गया, इसकी धमक अफगानिस्तान से कश्मीर तक सुनाई दी। आज तासीर की हत्या का उत्सव मनाते युवा उसी दौर की ट्रेनिंग और कण्डिशनिंग की उपज हैं। इसे पढ़ते हुए आपको आर एस एस द्वारा संचालित शिशु मंदिरों में बच्चों की की जा रही कण्डिशनिंग, समाज में आस्था के शोर के बरक्स तार्किकता के स्पेस के लगातार घटते जाने, हिन्दू धर्म की रक्षा के उन्मादी नारों और प्रज्ञा ठाकुर से लेकर असीमानंद तक की याद आना स्वाभाविक है। सत्ता में होने पर वह किस तरह सारी संस्थाओं को नष्ट करके उनका धार्मिककरण करना चाहता है उसकी झलक भाजपा शासित राज्यों में लागू की गयी तमाम नीतियों में साफ़ देखी जा सकती है। बावज़ूद इसके कि भारत का लोकतंत्र पाकिस्तान की तुलना में अधिक प्रौढ़ और परिपक्व है, केन्द्रीय सत्ता पर अनन्य अधिकार आर एस एस को अपनी योजनायें फलीभूत करने का मौका प्रदान कर सकता है तथा यहाँ भी उसके वैसे ही भयावह प्रतिफल देखे जा सकते हैं।
ख़ैर, बात ‘ईशनिंदा क़ानून’ की हो रही थी। पाकिस्तान के संविधान में ईशनिंदा के विभिन्न प्रावधानों में आर्थिक दंड से लेकर मौत की सज़ा तक के प्रावधान हैं। इस क़ानून में सरकारी धर्म की किसी भी तरह की निंदा दण्डनीय है। धारा 295 के तहत क़ुरान के अपमान के लिये आजीवन कारावास तक की सज़ा दी जा सकती है और 295-सी के तहत मुहम्मद साहब का अपमान करने पर सज़ा ए मौत दी जा सकती है। धारा 298 में अहमदियाओं को मुसलमानों की तरह व्यवहार करने पर भी सज़ा का प्रावधान है। अन्य धाराओं में धार्मिक स्थलों को नुक्सान पहुंचाने, किसी व्यक्ति की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने आदि आरोपों में अलग-अलग सज़ाओं का प्रावधान है। साथ ही पाकिस्तान के संविधान का आर्टिकिल - 45 राष्ट्रपति को न्यायालय या किसी ट्रिब्यूनल द्वारा दी गयी ऐसी सज़ा को कम करने या माफ़ी देने का भी अधिकार देता है। वैसे अब तक इन क़ानूनों के तहत किसी को भी सज़ा ए मौत नहीं दी गयी है लेकिन 1986 से 2007 के बीच में 647 लोगों पर इस क़ानून के तहत मुक़दमा चलाया गया। इनमें से आधे से अधिक पाकिस्तान के 3 फीसदी अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे। यहां यह चौंकाने वाला तथ्य भी है कि इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है तथा मुक़दमें का फ़ैसला आने से पहले ही इनमें से बीस को क़त्ल कर दिया गया। ऐसे ही एक घटनाक्रम में 2010 के जुलाई महीने में फैसलाबाद के एक व्यापारी ने अपने एक कर्मचारी को मुहम्मद साहब की निंदा करते हुए पर्चे मिलने की शिक़ायत कराई। पुलिस के अनुसार उन पर्चों पर दो सगे ईसाई भाईयों के हस्ताक्षर थे। उन्हें जब गिरफ़्तार करके ले जाया जा रहा था तभी उनकी हत्या कर दी गयी। बताया जाता है कि मामला व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा का था। जब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी ने इसकी निंदा की तो पाकिस्तान के एक मौलाना ने उन पर ही ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए उनका सर कलम कर दिये जाने की मांग की। ऐसे ही 4 अगस्त 2009 को नजीबुल्लाह नामक एक व्यापारी की एक भीड़ ने यह आरोप लगाकर हत्या कर दी कि उसने अपनी मेज़ पर एक पुराना कैलेण्डर बिछाया हुआ है जिस पर क़ुरान की आयतें लिखी हुई थीं। इस मामले की जड़ में भी व्यक्तिगत रंजिश थी। ऐसे ही तमाम मसलों में अल्पसंख्यकों की संपत्ति कब्ज़ाने तथा व्यक्तिगत दुश्मनियाँ निकालने के लिये इस क़ानून का भारी पैमाने पर दुरुपयोग किया गया।
तासीर बुद्धिजीवियों तथा उदारवादियों के उस तबके का प्रतिनिधित्व करते थे जो इस क़बीलाई, मध्यकालीन और बर्बर क़ानून का पुरज़ोर विरोध कर रहा था। उनका कहना था कि इसका व्यापक दुरुपयोग हो रहा है और इसे संविधान से हटा दिया जाना चाहिये। ज़ाहिर है कि किसी आधुनिक लोकतांत्रिक देश में ऐसे क़ानूनों की कोई जगह नहीं होनी चाहिये। आसिया बीबी के संदर्भ में दिये गये इस निर्णय के ख़िलाफ़ भी वहाँ का प्रगतिशील तबका तथा अल्पसंख्यक संगठन अभियान चला रहे थे। इसी के तहत तासीर ने भी उसे बचाने तथा पूर्वोद्धृत आर्टिकल-45 के तहत उसकी सज़ामाफ़ी का प्रयास किया था। वह उससे मिलने लाहौर ज़ेल में भी गये थे और उसके साथ एक प्रेस कांफ्रेंस भी की थी। लेकिन आमतौर पर पाकिस्तानी शासक वर्ग में इस मसले पर एक गहरी चुप्पी है। जब यह मसला सामने आया तो राष्ट्रपति जरदारी सहित पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी तासीर का कतई साथ नहीं दिया। क़ानून मंत्री बाबर अवान ने तो साफ़ तौर पर कहा कि किसी को भी ईशनिंदा क़ानून में किसी तब्दीली की इजाज़त नहीं दी जा सकती। सरकार के भीतर सलमान तासीर के अलावा देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्री शेरी रहमान और वहां के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी ही ऐसे शख़्स हैं जिन्होंने खुले तौर पर इन क़ानूनों की मुख़ालफ़त की हिम्मत की है। तासीर की तरह उन्हें भी लगातार धमकियाँ मिल रही हैं और कट्टरपंथी संगठनों ने उन्हें ‘काफ़िर’ तथा ‘वाजिब-उल-क़त्ल’ घोषित किया हुआ है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन क़ानूनों का ख़ुलेआम समर्थन कर रहा है तथा जो कुछेक अख़बार अपने प्रगतिशील नज़रिये के लिये जाने जाते हैं वे कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। तासीर को अपनी इसी इंसाफ़ पसंदगी के लिये जान देनी पड़ी। गत 4 जनवरी को इस्लामाबाद के अपने घर के पास कोहसर बाज़ार में अपने एक मित्र के साथ दोपहर का भोजन करके लौटते समय उन्हें उनके ही एक अंगरक्षक मलिक मुमताज़ क़ादरी ने मार डाला। पंजाब के रहने वाले क़ादरी ने उनकी हत्या के बाद स्वीकार किया कि इसके पीछे तासीर द्वारा ईशनिंदा क़ानून का विरोध किया जाना ही था। डान में छपी एक ख़बर के अनुसार क़ादरी के संबंध बरेलवी आंदोलन से जुड़े एक धार्मिक संगठन ‘दावत-ए-इस्लामी’ से थे।
सबसे परेशान करने वाला वाकया उनकी हत्या के बाद का है जब पूरे पाकिस्तान में हत्यारे क़ादरी को ‘इस्लाम के नायक’ के रूप में पेश करने की क़वायदें शुरु हो गयीं। तालिबानों के विरोधी रहे और उनके ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने सर्वोच्च नेता सहित तमाम महत्वपूर्ण लोगों की जान गंवा चुके बरेलवी संप्रदाय के मौलवियों सहित देश के 500 से अधिक धार्मिक नेताओं ने क़ादरी के समर्थन में बयान ज़ारी किया। कभी लोकतंत्र की वापसी के लिये निर्णायक लड़ाई लड़ने वाले वक़ीलों के बड़े तबके ने क़ादरी के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान में शिरक़त की। देश भर के ब्लाग्स और दूसरे माध्यमों पर तासीर के ख़िलाफ़ घृणा अभियान चलाया गया और क़ादरी के कृत्य को सही साबित करने का प्रयास किया गया। क़ादरी को आतंकवाद विरोधी अदालत में ले जाने से रोका गया और कुछ लोगों ने तो रास्ते में उस पर ग़ुलाब की पंखुड़ियां भी बरसाईं। उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने तक पर प्रतिबंध लगाया गया और तमाम मौलवियों ने उनकी अंतिम प्रार्थना पढ़ने से इंकार कर दिया। यह पाकिस्तान के भीतर धार्मिक उन्माद से उपजी घृणा की चरम अभिव्यक्ति थी। इन हालत के बरक्स शेक्सपीयर के उपन्यास जूलियस सीजर में भीड़ का वह उन्मादी आचरण याद आता है जिसमें उन्मादी भीड़ एक षड़यंत्रकारी कास्का की तलाश करते हुए उसके हमनाम एक सीधे-साधे कवि की हत्या जानते-बूझते कर देती है! ख़ैर इसके बावज़ूद पूरे पाकिस्तान में सलमान तासीर के पक्ष में आवाज़ें उठीं और सारी धमकियों के बावज़ूद प्रधानमंत्री गिलानी सहित हज़ारों लोग उनकी शवयात्रा में शामिल हुए। ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी मीडिया ने भी उनके पक्ष में स्टैण्ड लिया। इतने मुश्किल दौर में भी पाकिस्तान के भीतर एक उदारवादी सिविल सोसाइटी की उपस्थिति थोड़ा संतोष तो देती ही है।
भारत के लिये इस पूरे वाकये के बेहद महत्वपूर्ण मायने हैं। पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार हामिद मीर जब तासीर की तुलना अरुंधती राय और बिनायक सेन से करते हैं तो यह साफ़ हो जाता है। हमारे देश में स्थितियाँ तुलनात्मक रूप से काफ़ी बेहतर होने के बावज़ूद पिछले कुछ समय से एक ऐसे ही कट्टरपंथी फासीवाद की आहट साफ़ सुनाई दे रही है। नब्बे के दशक में नव उदारवादी नीतियों के लागू होने के साथ ही लगातार बढ़ती जा रही गरीबी और बेरोज़गारी के साथ-साथ लोकतंत्र से होते जा रहे मोहभंग जैसी स्थितियों ने देश के भीतर दक्षिणपंथी ताक़तों को फलने-फूलने के लिये ज़रूरी खाद-पानी उपलब्ध कराया है। आज़ादी के बाद से ही समाज के भीतर वैमनस्यता भरने के अपने धीमे अभियान को इस दौर में आर एस एस को आक्रामक आंदोलन में तब्दील करने का पर्याप्त अवसर मिला। वामपंथ तथा अन्य प्रगतिशील तबकों के जनता को आंदोलित कर पाने में भयावह असफलता ने उसे बेरोज़गार नौजवानों की ‘पीली बीमार फ़ौज़’ को धार्मिक कट्टरपंथ के हाथों का खिलौना बनाने कि अतिरिक्त सुविधा प्रदान की। परिणाम स्वरूप न केवल उसके सामाजिक आधार का विस्तार हुआ बल्कि चुनावी राजनीति में भी वह एक ताक़तवर राजनैतिक इकाई के रूप में उभरी। अपने सत्ताकाल में उसने लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करने के पूरे प्रयास किये तथा न्यायपालिका से लेकर प्रशासन, पुलिस से लेकर सेना तक में घुसपैठ की। अयोध्या फैसले से लेकर तमाम दूसरी जगहों पर इसके असर साफ़ देखे जा सकते हैं और किसी सक्रिय प्रतिरोध के अभाव में यह आज भी बदस्तूर ज़ारी है। बहुसंख्या के इस सांप्रदायिक उभार के प्रतिक्रियास्वरूप धार्मिक अल्पसंख्यकों के भीतर के कट्टरपंथियों को भी सर उठाने का भरपूर मौका मिला है। इन तबक़ों के भीतर व्याप्त भय और असुरक्षा ने उनके उदारवादी बुद्धिजीवियों तथा नेताओं की आवाज़ को कमज़ोर किया है। कभी बंबई में रोहिंटन मिस्त्री की किताब जलाकर, कभी केरल में शिक्षक के हाथ काटकर, कभी बुरक़ा न पहनने पर शिक्षिका को कालेज़ से प्रतिबंधित करके और सेकुलर जैसे तमाम शब्दों को एक घटिया मज़ाक में तबदील करके धार्मिक कट्टरपंथ ने आने वाले समय की आहट सुनानी शुरु कर दी है। ग़ैर भाजपाई सरकारों का भी इनके दबाव में आकर समर्पण करते जाना स्थितियों को और विकट तथा जटिल बना रहा है।
कुल मिलाकर हमारा देश एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है कि अगर उदारवादी तथा प्रगतिशील ताक़तों ने समय रहते ज़रूरी क़दम नहीं उठाये तो पाकिस्तान की ही तरह यहां भी कट्टरपंथ कभी भी सामाजिक तथा राजनैतिक सत्ता पर काबिज़ हो पूरे लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट कर सकता है। हत्या से थोड़े समय पहले सलमान तासीर द्वारा ट्विटर पर लिखा गया शक़ील बंदायूनी का यह शेर आज बहुत मौजूं लग रहा है –
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे
मेरा अज़्म इतना बलंद है के पराये शोलों का डर नहीं
एक जरूरी विमर्श।सलमान तासीर की हत्या के मायने क्या हैं,यह बेहतर तरह से सामने आता है।
जवाब देंहटाएंदोनों पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के दमन का विश्लेषण और उनके लिए आवाज़ उठाने वालों का हमेशा के लिए मुंह बंद कर देना वास्तव मे एक खोफ्नाक भविष्य की कल्पना करने को मजबूर करता है... कैसे बच पायेंगे इस पतन से! राजनीति और मानवता की आँखे खोने के प्रयास में एक महत्वपूर्ण लेख!
जवाब देंहटाएंashok bahut hi mehanat se aapne is aalekh ko likha hai, yah achchhi baat hai. aapke tarko se asahmat hone ka swaal hi nahi ho sakta. yakeenan samajik maslo par likhte hue aap sahsik hastkshep karte hain. badhai mitr is mahtwpurn aalekh ke liye.
जवाब देंहटाएंआपके जन पक्ष के लेख से बहुत हद तक सहमत हूँ ! आपने बहुत मेहनत से और लाजिकली लिखा है ! उसकी बधाई स्वीकार करें
जवाब देंहटाएंbahut achha lekh hai.... aapko badhai aur shukriya....
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिदृश्य पर सधी हुई सार्थक टिप्पणी।
जवाब देंहटाएं