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गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

इस भ्रष्टाचार के खिलाफ चुप्पी क्यों?


  • कारपोरेट समाजवाद का नंगा नाच · 
  • पी साईनाथ
  • अनुवाद मेरा 

·        ( द हिन्दू के 7 मार्च के अंक में छपा पी सांईनाथ का यह आलेख क़ानूनी जामे के भीतर ज़ारी सरकारी धन की लूट के एक भयावह किस्से का खुलासा करता है। जिस दौर में भ्रष्टाचार और काले धन की चर्चा ज़ोरों पर है इस लूट पर मीडिया और राजनैतिक वर्ग की चुप्पी इस नवसाम्राज्यवादी समय में सत्ता वर्ग और पूंजीपतियों की नाभिनालबद्धता की और साफ़ इशारा करती है ...यह अनुवाद समयांतर के ताज़े अंक में आया है )   

2005-2006 से 2010-2011 के बीच के बज़टों में भारत सरकार ने कारपोरेट जगत के आयकर का 3,74,937 करोड़ रुपया माफ़ कर दिया – यह रक़म 2 जी घोटाले के दुगने से भी ज़्यादा है। यह राशि हर साल लगातार बढ़ती गयी है, जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं। 2005-2006 में 34,618 करोड़ रुपये का आयकर माफ़ कर दिया गया था, हालिया बज़ट में यह आंकड़ा है – 88,263 करोड़, यानि कि 155 फीसदी की बढ़त! इसका मतलब यह हुआ कि देश औसतन रोज़ कारपोरेट जगत का 240 करोड़ रुपये का आयकर माफ़ कर रहा है। विडंबना यह कि वाशिंगटन स्थित ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी’ की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग इतनी ही राशि औसतन रोज़ काले धन के रूप में देश से बाहर भी जा रही है।

88,263 करोड़ रुपये की यह धनराशि भी केवल कारपोरेट आयकर में दी गयी माफ़ी को इंगित करती है। इस आंकड़े में जनता के एक बड़े हिस्से को ऊँची छूट की सीमाओं के कारण हो रहे नुक्सान की राशि शामिल नहीं है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों या महिलाओं (जैसा कि पिछले बज़टों में प्रावधान था) के लिये कर की ऊंची छूट सीमा के चलते होने वाले नुक्सान भी शामिल नहीं हैं। यह केवल कारपोरेट जगत के बड़े खिलाड़ियों को दी जा रही आयकर राहत है।

प्रणव मुखर्जी के पिछले बज़ट में जहाँ कारपोरेट जगत के  लिये यह विशाल धनराशि माफ़ कर दी वहीं कृषि के बज़ट से हज़ारों करोड़ रुपये काट लिये। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट आफ़ सोशल सांइसेज़ के आर रामकुमार बताते हैं, इस क्षेत्र में कुल वास्तविक ख़र्च 5,568 करोड़ रुपये कम कर दिया गया। कृषि क्षेत्र के भीतर सबसे ज़्यादा कमी फार्म हस्बेन्डरी में की गयी जिसके बज़ट में 4477 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी, जिसका मतलब अन्य चीज़ों के अलावा विस्तार सेवाओं की लगभग मृत्यु है। ‘ दरअसल, आर्थिक सेवाओं के भीतर सबसे ज़्यादा कटौती कृषि और इससे जुड़ी सेवाओं में की गयी है।’

कपिल सिब्बल भी सरकार की आय में होने वाले इस नुक्सान को केवल कल्पित नहीं कह पाते। इसकी वज़ह बिल्कुल साफ़ है कि हर बज़ट में ये आंकड़े ‘आय में नुक्सान का विवरण’ नामक तालिका में अलग से बिल्कुल स्पष्ट रूप में सूचीबद्ध किये जाते हैं। अगर हम इस कार्पोरेट कर्ज़ा माफ़ी, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्कों में दी गयी राहत (इसका सबसे ज़्यादा लाभ भी समाज के धनी तबके और कारपोरेट जगत को ही मिलता है) से होने वाले आय में नुक्सान को जोड़ दिया जाय तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। उदाहरण के लिये यदि यह देखा जाय कि सीमा शुल्क पर सबसे ज़्यादा छूट किन चीज़ों पर दी जा रही है तो वे हैं – सोना और हीरा! अब ये आम आदमी या आम औरत की चीज़ें तो नहीं हैं। लेकिन हालिया बज़ट में इन चीज़ों पर दी गयी छूट के कारण सरकारी आय को हुआ नुक्सान सबसे ज़्यादा है – यह राशि है 48798 करोड़ रुपये! यह राशि सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली के लिये आवश्यक धनराशि की आधी है। इसके पहले के तीन सालों में सोने, हीरे और दूसरे आभूषणों पर सीमा शुल्क में दी गयी छूट से सरकारी ख़जाने को हुआ कुल नुक्सान था – 95, 675 करोड़!

ज़ाहिर तौर पर भारत में निजी पूंजीपतियों के फ़ायदे के लिये सरकारी ख़ज़ाने की हर लूट गरीबों की भलाई के लिये ही होती है। आपको तर्क दिया जायेगा कि सोने और हीरे में यह बम्पर छूट भूमण्डलीय आर्थिक संकट के दौर में ग़रीब कामगारों की नौकरी बचाने के लिये दी गयी थी। भावपूर्ण! लेकिन बस इतना कि इसने कहीं भी एक भी नौकरी नहीं बचाई। गुजरात में इस उद्योग में लगे तमाम कामगार  इसके डूबने पर बेरोज़गार होकर सूरत से अपने घर गंजम लौट आये। बचे हुओं में से कुछ ने निराशा में अपनी जान दे दी। वैसे भी उद्योग जगत पर यह अनुग्रह 2008 के संकट के पहले से ही ज़ारी है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केन्द्र के इस ‘कारपोरेट समाजवाद’ से ख़ूब कमाई की है। इसके बावज़ूद 2008 के संकट के पहले के तीन वर्षों में उस राज्य में कामगारों ने प्रतिदिन औसतन 1800 के करीब नौकरियाँ गवाईं हैं।
आईये बज़ट की ओर लौटेंइसमें एक और मद हैमशीनरीजिसमें सीमा शुल्क की भारी छूट दी गयी है। निश्चित रूप से इसमें बड़े कारपोरेट हस्पतालों द्वारा आयात किये जाने वाले अति आधुनिक चिकित्सा उपकरण भी शामिल हैं जिन पर लगभग कोई ड्यूटी नहीं लगती। इस अरबों के उद्योग में अन्य छूटों के अलावा यह लाभ हासिल करने के पीछे दावा तीस प्रतिशत शैयाओं को ग़रीब लोगों के लिये मुफ़्त उपलब्ध कराने का हैसब जानते हैं कि वास्तव में ऐसा होता कभी नहीं। इस तरह की छूट के चलते सरकारी ख़ज़ाने को लगने वाले चूने की कुल राशि है – 1,74,418 करोड़! और इसमें निर्यात ॠण के रूप में दिये जाने वाली राहतें शामिल नहीं हैं।

उत्पाद शुल्क में छूट दिये जाने के पीछे यह दावा किया जाता है कि इस तरह गंवाई हुई राशि के चलते उपभोक्ताओं को उत्पाद कम क़ीमत में उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इस बात के कोई सबूत उपलब्ध नहीं कराये जाते कि ऐसा वास्तव में होता भी है। तो बज़ट में, ही कहीं और। ( यह तर्क आजकल तमिलनाडु में सुनाई दे रहे इस दावे की ही तरह है कि 2 जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई- जो पैसा गबन हुआ उससे उपभोक्ताओं को सस्ती काल दरें उपलब्ध कराई गयीं।) लेकिन जो स्पष्ट है वह यह कि उत्पाद शुल्कों की माफ़ी का सीधा फायदा उद्योग और व्यापार जगत को मिला है। उपभोक्ताओं तक इसका लाभ स्थानांतरित करने का कोई भी दावा बस एक हवाई अनुमान जैसा ही है, जिसे कभी सिद्ध नहीं किया गया। उत्पाद शुल्कों की माफ़ी के कारण बज़ट में सरकार को हुए नुक्सान की राशि है – 1,98,291 करोड़ (पिछले साल यह राशि थी- 1,69,121 करोड़ रुपये) साफ़तौर पर 2 जी घोटाले के नुक्सानों के उच्चतम अनुमानों से भी अधिक।

यह भी रोचक है कि इन तीनों तरह के अनुग्रहों से एक ही वर्ग विभिन्न तरीकों से लाभान्वित होता है। लेकिन आयकर, उत्पाद कर तथा सीमा शुल्क की माफ़ी के चलते कुल मिलाकर कितनी धनराशि का नुक्सान सरकार को हुआ है? हमने स्पष्ट रूप से कहा है कि 2005-06 से शुरु करें तो उस समय यह धनराशि थी – 2,29,108 करोड़ रुपये। इस बज़ट में यह राशि दुगने से अधिक होकर 4,60,972 करोड़ रुपये हो गयी है। अब अगर 2005-06 से पिछले छह सालों की इन सारी धनराशियों को जोड़ लें तो कुल रक़म होती है – 21,25,023 करोड़ रुपये, यानी लगभग आधा ट्रिलियन अमेरिकी डालर। यह केवल 2 जी घोटाले में गबन की गयी रक़म का 12 गुना ही नहीं है। यह ग्लोबल फ़ाइनेंसियल इंटेग्रिटी द्वारा 1948 से अब तक देश से बाहर गये और अवैध तरीके से विदेशी बैंकों में रखे 21 लाख करोड़ रुपये के कुल काले धन से भी कहीं अधिक है। और यह लूट केवल पिछले छह वर्षों में ही हुई है। वर्तमान बज़ट में इन तीन मदों में दिये हुए बज़ट आँकड़े 2005-2006 के आँकड़ों की तुलना में 101 फीसदी ज़्यादा हैं। (देखें तालिका)

काले धन के प्रवाह के विपरीत इस लूट को वैधानिकता का अवरण पहनाया गया है। उस प्रवाह के विपरीत यह कुछ निजी लोगों का अपराध नहीं है। यह एक सरकारी नीति है। यह केन्द्रीय बज़ट में है। और यह अमीरों तथा कारपोरेट जगत को दिया गया धन तथा संसाधनों का सबसे बड़ा तोहफ़ा है जिस पर मीडिया कुछ नहीं कहता। विडंबना यह कि बज़ट खुद यह स्वीकार करता है कि यह प्रवृति कितनी प्रतिगामी है। पिछले साल के बज़ट में कहा गया था कि – ‘’सरकारी ख़ज़ाने को होने वाला आय का नुक्सान हर साल बढ़ता चला जा रहा है। कुल कर संग्रहण के प्रतिशत के रूप में माफ़ की गयी धनराशि का अनुपात काफ़ी ऊँचा है और जहाँ तक 2008-09 के कारपोरेट आयकर का सवाल है, लगातार बढ़ती हुई प्रवृति प्रदर्शित कर रहा है। परोक्ष करों के मामले में सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में कमी के कारण 2009-2010 के वित्तीय वर्ष के दौराने एक वृद्धिमान प्रवृति दिखाई देती है। अतः इस प्रवृति को पलटने के लिये कर के आधार में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है’’

एक साल और पीछे जायें। 2008-2009 का बज़ट भी बिल्कुल यही चीज़ कहता है, बस उसकी अंतिम पंक्तियाँ अलग हैं जहाँ वह कहता है किअतः इस प्रवृति को पलटना ज़रूरी है जिससे की उच्च कर लोच (अनु- कर के आधार में विस्तार से कर की मात्रा में वृद्धि की दर) बनी रहे वर्तमान बज़ट में यह पैरा गायब है।

यह वही सरकार है जिसके पास सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली, या फिर वर्तमान प्रणाली के सीमित विस्तार के लिये भी पैसा नहीं है, जो दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी के लिये पहले से ही बेहद निम्न स्तर की सबसीडियों में उस दौर में कटौती करती है जब उसका अपना आर्थिक सर्वे बताता है कि 2005-09 के पाँच सालों के दौर में प्रति व्यक्ति प्रति दिन की अनाज़ की उपलब्धता दरअसल आधी सदी पहले 1955-59 के दौर की उपलब्धता से भी कम रही
कारपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमाकर में माफ़ी के चलते हुआ सरकारी ख़ज़ाने को नुक्सान 
सभी राशियाँ करोड़ रुपयों में
मद
2005-06
2006-07
2007-08
2008-09
2009-10
2010-11
2005-06 से 2010-11 के बीच कुल नुक्सान
प्रतिवर्ष वृद्धि दर
कारपोरेट आयकर
34,618
50,075
62,199
66,901
72,881
88,263
37,4937
155.0
उत्पाद शुल्क
66,760
99,690
87,468
12,8293
16,9121
19,8291
74,9623
197.0
सीमा शुल्क
12,77,30
12,3682
15,3593
22,5752
19,5288
17,4418
10,00463
36.6
कुल
22,9108
27,3447
30,3262
42,0946
43,7290
46,0972
21,25023
101.2
     स्रोत – केन्द्रीय बज़टों के सरकारी ख़ज़ाने को हुए नुक्सान के आंकड़ों की तालिकायें       


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