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गुरुवार, 19 मई 2011

अज्ञेय प्रसंग - भाग २


(समयांतर मंगाने के लिए ९८७१४०३८४३ पर संपर्क करें. वार्षिक चन्दा - १५० रु, छात्रों के लिए  १०० रु.)


(समयांतर में छपे पंकज बिष्ट के लेख अज्ञेय की विधवाएं और उनका क्रंदन का पहला भाग आप यहाँ पढ चुके हैं...ब्लॉग के आंकड़े बताते हैं कि इसे पढ़ा लगभग पांचेक सौ सुधि जनों ने लेकिन शायद कुछ कहना उचित नहीं समझा. वैसे फेसबुक पर मनीषा कुलश्रेष्ठ, विमल कुमार और हिमांशु पांड्या ने लेख को तो अच्छा बताया लेकिन शीर्षक पर आपत्ति की. हिमांशु ने लिखा 'लेख तो अच्छा है पर शीर्षक काफी असंवेदनशील है विधवाओं की समाज में स्थिति के प्रतिबहरहाल इससे लेख का महत्त्व कम नहीं हो जाता .जब भले लोग आई.सी.एस.एस.आर. की राजनीति से मुहं चुराना चाहते हैं और प्रत्येक आलोचना को 'कीचड उछाल ' की शब्दावली में बाँध रहे हैं और जब एक अखबार अपनी तमाम वस्तुनिष्ठता छोड़कर संपादक के व्यक्तिगत आस्थाओं का भोंपू बन गया है और जब तमाम वाम विरोधी अपनी तमाम नयी पुराणी कुंठाओं का वमन एक साथ कर रहे हों , ऐसे लेख का महत्त्व असंदिग्ध है. पंकज बिष्ट इसी साहस के लिए जाने जाते हैं.' लेख का दूसरा हिस्सा पेश है. अगली कड़ी में अज्ञेय का इंटरव्यू भी)


जहां तक कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम का सवाल है यह सदा से ही स्पष्ट था कि यह कम्युनिस्ट विरोधी विचारधारा से प्रचालित है। उसे सीआईए का पैसा मिलता था, यह दीगर बात है। इसका खुलासा 1967 में अमेरिकी पत्रिका रैंपार्ट ने किया था जिसके बाद दुनिया भर में बवाल मच गया। सवाल यह नहीं है कि उससे जुड़े सारे लोगों को पैसा मिलता था, पर यह निश्चित है कि उससे जुड़े चुनिंदा लोगों को अवश्य पैसा मिलता था। इसका एक उदाहरण लंदन से निकलनेवाली पत्रिका एनकाउंटर है, जिसका उन दिनों बौद्धिक जगत में जबर्दस्त बोलबाला था और उसके संपादक प्रसिद्ध ब्रितानवी कवि स्टिफे न स्पैंडर थे। जैसे ही यह खुलासा हुआ कि एनकाउंटर सीआईए पोषित पत्रिका है, स्पैंडर ने इस्तीफा दे दिया और वह मुंह छिपाने आस्ट्रेलिया भाग गए। साफ है कि सीआईए डीएमके या अण्णा डीएमके की तरह हर किसी को नोट नहीं बांटता था, न बांटता है। वह अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करता है अपने विश्वस्त एजेंटों के माध्यम से, इसमें कला और संस्कृति की संस्थाओं के अलावा, विश्वविद्यालय और फोर्ड फाउंडेशन जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं का भी इस्तेमाल होता है। एनकाउंटर के अलावा पार्टीजन रिव्यू, कामेंट्री, सिवान रिव्यू  को भी सीआईए का पैसा मिलता था। बदले में ये पत्रिकाएं लेखकों से अच्छा पारिश्रमिक देकर मनचाहे लेख लिखवातीं थीं।

यह कैसे होता था, इस बारे में एडवर्ड सईद ने बतलाया है: ''... दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुआती सालों में कुछ मुखिया होते थे जिनके हाथ में सूत्र होते थे, वे बुद्धिजीवियों को काम में लगाते थे, पैसा बांटते थे या सम्मेलनों और यात्राओं की व्यवस्था करते थे...सेंडर्स ने लिखा है कि दूसरे विश्वयुद्ध के कई जासूसों, जैसे कि मैकाले, आर्थर श्लींजर, कॉस कैन फील्ड, मैल्कम मैगरिज, विक्टर रॉथ्सचाइल्ड आदि का जमावड़ा मिल-जुल कर काम किया करता था। ...सेंडर्स का अनुमान है कि अमेरिका का समर्थन करने के लिए बुद्धिजीवियों को जहां तक संभव हुआ खरीदने, अमेरिका और उसकी नीतियों की आलोचना करनेवाले स्वरों को हल्का करने, इस देश के मूल्यों को फैलाने और साथ ही साथ सोवियत संघ को बदनाम करने में बीस करोड़ डालर खर्च किए गए।'' (विस्तृत जानकारी के लिए देखें समयांतर, जनवरी, 2000)

स्पैंडर को आलीशान तनख्वाह और अन्य सुविधाएं दी जाती थीं। इसी तरह औरों को भी दी जातीं थीं, अच्छा पारिश्रमिक, पार्टियों और यात्राओं के तौर पर। इसलिए मात्र इस बात से कि कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम से, ''जयप्रकाश नारायण, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, जैनेंद्र कुमार, सुमित्रानंदन पंत, जी. शंकर कुरुप्प, के.एम मुंशी, रायकृष्ण दास, रामवृक्ष बेनीपुरी'' आदि  कई जाने-माने नाम जुड़े थे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि इस संगठन को सीआइए का पैसा नहीं मिलता था और यह उसे आगे बांटने का काम नहीं करता था। निश्चय ही इनमें से कई लोग इस संगठन से इसलिए जुड़े होंगे कि वे परंपरावादी, रूढि़वादी, धार्मिक और गांधीवादी थे और मार्क्सवाद उन्हें रास नहीं आता था। पर रैंपार्ट के खुलासे के बाद बड़े पैमाने पर लोगों ने कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम से नाता तोड़ लिया था। इसके बाद भी जो उससे जुड़े रहे उन्हें क्या कहा जाएगा? एक सवाल और है, इस दौरान अमेरिका की यात्राओं और वहां विभिन्न विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, जैनेंद्र कुमार, सुमित्रानंदन पंत, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि में से कौन-कौन गया था?

जहां तक दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले सप्ताहिक थॉट का सवाल है उसके बारे में लगातार शंकाएं रही हैं। अज्ञेय उसके साहित्य संपादक थे। यही नहीं वह इस पत्रिका के मालिक संपादक राम सिंह द्वारा दिल्ली से निकाले जानेवाले अंग्रेजी दैनिक के सहायक भी होनेवाले थे पर वह योजना पूरी नहीं हो पाई। पहले क्वेस्ट और फिर न्यू क्वेस्ट से अज्ञेय संपादक के तौर पर नहीं बल्कि लेखक और ए.बी शाह के सहयोगी के तौर पर जुड़े थे। जहां तक क्वेस्ट और न्यू क्वेस्ट का सवाल है ये पत्रिकाएं एनकाउंटर की 'ट्रू कॉपीÓ थीं, अपनी विषय वस्तु में ही नहीं साज-सज्जा में भी।

इधर वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस ने अपने साप्ताहिक स्तंभ में अज्ञेय विवाद पर टिप्पणी की है जो अज्ञेय के कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के संबंधों की पुष्टि के साथ उनकी रामभक्ति पर भी प्रकाश डालती है। मुद्राराक्षस के अनुसार, ''... अज्ञेय जितने के हकदार हैं उससे ज्यादा ही उन्हें मिला है और पश्चिम के वामपंथ विरोधी संगठन कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के में शरीक हो जाने के बाद सुखों का तो जिक्र ही क्या। एक बार खुद डा. लोहिया (राममनोहर) ने मेरे अज्ञेय विरोध पर सवाल किया था - 'क्या तुम अज्ञेय को विदेशी यानी अमेरिकी एजेंट मानते हो?' मैंने कहा- 'अज्ञेय जब कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के लिए काम करते हैं तो और क्या हो सकते हैं?''

यह संदर्भ 1960 से 1967 के बीच का होना चाहिए।

मुद्राराक्षस ने उनकी रामभक्ति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, ''डाक्टर लोहिया के घर साप्ताहिक जन गोष्ठी (जन लोहिया संपादित मासिक पत्रिका थी - सं.) में अज्ञेय कभी नहीं बुलाए गए थे। लेकिन अज्ञेय की देवपूजा करनेवाला हिंदी समाज रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के साथ ही जानकी यात्रा करता है, इसको सामने क्यों नहीं रखा जाना चाहिए? उनकी कविताओं और उपन्यासों के साथ इस बात की चर्चा भी क्यों नहीं होनी चाहिए कि जानकी यात्रा पर संपादित उनकी पुस्तक में उन्होंने  जो लिखा है वह कितने बड़े अंधविश्वास को ठीक विहिप की भाषा में दुहराता है? एकाध उदाहरण ही सिद्ध करने के लिए काफी होंगे - 'जिसके अंत में विष्णु स्वरूप राम एक प्रभादीप्त तेजोमंडल में आत्मस्थ हो जाते हैं। ... इसी के साथ सब देव-देवता, यक्ष-नाग, ॠषि, सिद्ध और मानुष मात्र हैं जो ऐसे अवसरों पर अगत्या उपस्थित होते हैं और सम्मोहित से ताकते रह जाते हैं। ... राम और सीता ऐसे ही अवतारी सनातन चरित्र हैं जिनका जीवन नियति का निर्धारण करने वाले क्षणों की सतत परंपरा है।'' (राष्ट्रीय सहारा, 24 अप्रैल) 

अज्ञेय पर बड़ी पूंजी मेहरबान रही इसका उदाहरण मात्र ज्ञानपीठ नहीं है बल्कि दिनमान, नवभारत टाइम्स और एवरीमैन्स भी है। पर असली मसला उनके वत्सल निधि की स्थापना करने से जुड़ा है। जहां तक ज्ञानपीठ की राशि का अपनी जेब में नहीं रखने का सवाल है हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वत्सल निधि वास्तव में अज्ञेय जी के अपने ही नाम पर बनाई गई संस्था थी।  वत्सल उन्हीं का बचपन का नाम है। दूसरे शब्दों में यह निधि स्वयं को उसी तरह अमर करने के लिए बनाई गई थी जिस तरह से हिंदुस्तान टाइम्स के मालिक ने अपने जीते जी अपने नाम पर केके बिड़ला फाउंडेशन बनाया। अज्ञेय ने ज्ञानपीठ पुरस्कार का पैसा किसी दूसरी सामाजिक संस्था या जरूरतमंद लोगों को नहीं दिया था। और हां, पैसा कहां से आया इसका एक मजेदार जवाब अज्ञेय ने अपने साक्षात्कार में दिया है जो मुद्राराक्षस की बात की ही पुष्टि करता है।

रघुवीर सहाय ने उनकी यात्राओं विशेष कर 'जानकी-यात्राÓ के बारे में प्रश्न किया था। इस लंबे जवाब के अंत में उन्होंने कहा है, '' ... पहली यात्रा जानकी जीवन से जोड़ी गई इसलिए भी मैंने सोचा कि बाहर से सहयोग इस यात्रा को अपेक्षया अधिक मिल सकेगा और यह विश्वास सही साबित हुआ। बहुत उत्साह से लोगों ने इस यात्रा में तरह-तरह की सहायता की।'' यानी अपनी योजनाओं और महत्वाकांक्षाओं के कार्यान्वयन केलिए संसाधन जुटाने के लिए धार्मिक भावनाओं को भुनाने में भी उन्हें कोई उज्र नहीं था। अगर अजय सिंह ने इस यात्रा को लेकर प्रश्न किया है कि   ''इस यात्रा का मकसद क्या था, यह क्यों निकाली गई, और इसके लिए धन कहां से और कैसे जुटा?'' तो गलत क्या है?

यहां यह बतलाना भी गलत नहीं होगा कि साहित्य को लेकर वह कितने महत्वाकांक्षी थे। खुशवंत सिंह ने आठवें दशक में दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार में, संभवत: स्टेट्समैन , साहित्य के नोबेल पुरस्कारों के संदर्भ में अज्ञेय से संबंधित एक प्रसंग लिखा है। सन 1966 में इजराइली लेखक सेमुअल एगनान को साहित्य का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई। एगनान नाम से परिचित न होने के कारण किसी उत्साही उपसंपादक के कारण एक अंग्रेजी अखबार ने यह छाप दिया कि हिंदी कवि अज्ञेय को इस बार का पुरस्कार दिया गया है। इससे हल्ला मच गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद किसी भारतीय को मिलनेवाला साहित्य का यह दूसरा नोबेल पुरस्कार होता। खुशवंत सिंह का कहना था कि अज्ञेय ने जानबूझ कर इसका खंडन नहीं किया और गलत-फहमी को बनाए रखा। अगले दिन जाकर मामला साफ हुआ। इसलिए यह कहना भी कठिन है कि वास्तव में कभी अज्ञेय का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए गया था। पर इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि नोबेल अनिवार्य रूप से उत्कृष्टतम रचनाओं के लिए ही मिलता है। इसी तरह उन दिनों एक और अफवाह भी उड़ा करती थी कि साहित्य अकादमी के अंग्रेजी के एक संकलन या पत्रिका के लिए अज्ञेय पर एस.एच. वात्स्यायन ने लेख लिखा था।  

अंत में, मेरे विचार में किसी व्यक्ति, विशेषकर लेखक, का मूल्यांकन अंतत: इस बात से नहीं हो सकता कि उसने शुरू में क्या किया? किस विचारधारा को समर्पित रहा और क्या लिखा, बल्कि इस बात से होना चाहिए कि उसने अपनी गलतियों से क्या सीखा? माना यशपाल ने औपनिवेशिक सरकार के लिए जासूसी का काम किया था, माना फैज फासीवाद का विरोध करने के लिए अंग्रेजी सेना में शामिल हुए पर सवाल यह है कि उन्होंने उस गलती को किस तरह सुधारा और उनका बाद का उनका लेखन किस तरह से जनता का पक्ष लेता है?

इसके एक पैमाने के तौर पर भारत विभाजन को लिया जा सकता है। अज्ञेय, यशपाल और फैज तीनों ही इसके गवाह थे और तीनों ही उस पंजाब क्षेत्र से थे जिसने विभाजन की विभीषिका देखी। तीनों का ही लेखकीय व्यक्तित्व आजादी के बाद निखरा। अज्ञेय के लेखन में भारत विभाजन हाशिये पर है। न ही उनका उस जनता के प्रति कोई सरोकार नजर आता है जो दो सौ वर्षों से अंग्रेजी औपपनिवेशिक शोषण से ध्वस्त हो चुकी थी। यशपाल ने भारत विभाजन और सांप्रदायिकता पर हिंदी का सबसे बड़ा उपन्यास झूठा सच लिखा है। उनका पूरा लेखन कुल मिला कर समाजोन्मुख है। फैज का लेखन भी सामाजिक बदलाव, तानाशाही और सांप्रदायिकता विरोधी है। जब कि अज्ञेय के लेखन में व्यक्ति महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा भी है, ''स्वाधीन समाज और कम स्वाधीन समाज में अंतर यही है कि एक में व्यक्तित्व के समग्र विकास की गुंजाइश होती है और दूसरे में नहीं होती। ÓÓ साफ है कि यह पूंजीवादी विचारधारा हैऔर आजादी के बहाने शोषण को सही ठहराती है। यह समझ यह नहीं देखती कि समाज में गहरी असमानता हैऔर इस असमानता को खत्म किए बगैर स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं आ सकती। क्योंकि समता के बिना समाज के एक बड़े हिस्से का न तो आर्थिव व सामाजिक विकास हो पाता है और न ही व्यक्तित्व का। हर समाज में आदमी अपनी प्रतिभा में 19-20 के अंतर का ही होता है। एक आदमी जो डाक्टर है वह पढऩे का अवसर न मिलने पर चपरासी या मजदूर हो सकता है और एक मजदूर अवसर मिलने पर डाक्टर या इंजीनियर या अध्यापक हो सकता है। यहां तक कि कोई लोक गायक अवसर मिलने पर किसी बड़े कवि या लेखक में बदल सकता है। असल में व्यक्तित्व का विकास एक छद्म धारणा है जो समाज के एक बड़े हिस्से को बेहतर जीवन की संभावना से बाहर कर देती है। कुछ लोगों के हाथ में पूंजी के केंद्रीयकरण को ही सही नहीं ठहराती है बल्कि शोषण और गरीबी को जस्टिफाई करती है। क्या यह अजीब नहीं है कि जो व्यक्ति योरोप के फासीवाद से उद्वेलित हो अंग्रेजी सेना में सेवा के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर देता हो वह विभाजन की विभीषिका से न के बराबर प्रभावित हो। तब उसकी मानवता कहां गई? उनके उपन्यास चाहे शेखर एक जीवनी हो, अपने अपने अजनबी हो या नदी के द्वीप उन में तात्कालिक समय की उथल-पुथल क्यों नजर नहीं आती है। हां, व्यक्ति की निजी पीड़ा की ये रचनाएं इलैक्ट्रोग्राफ जरूर हैं

इसलिए समयांतर के लेखक और हमारे मित्र अजय सिंह के इस प्रश्न से हमारी पूरी सहमति है कि आखिर अज्ञेय की जन्मशती को वामपंथी क्यों मनाएं? न तो वामपंथी संगठन सरकारी हैं और न ही वामपंथी सरकारी कर्मचारी कि हर तरह के लेखक की जन्मशती मनाने की रस्मअदायगी करना उनकी मजबूरी हो। विवेक का इस्तेमाल करना फासिवाद नहीं है विवेक को दरकिनार करना जरूर अवसरवाद है। 
जिन्हें मनाना चाहिए वे मना ही रहे हैं।

इस विवाद का सबसे ज्यादा जुगुप्सा पैदा करनेवाला प्रसंग है लक्ष्मीधर मालवीय नाम के सज्जन का लेख। मात्र इसलिए नहीं कि उन्होंने हमारी मखौल उड़ाने की कोशिश की है बल्कि वृहत्तर संदर्भ में यह बुद्धिजीवीय बेईमानी का भी निकृष्टतम उदाहरण है। उन्होंने लिखा है, ''समयांतर पता नहीं क्या चीज है, जबकि मैं इस शब्द का अर्थ ही नहीं बूझ पाता।'' लगता है मालवीय जी सिर्फ उन्हीं शब्दों के अर्थ बूझ पाते हैं जिनसे उन्हें कुछ सधता नजर आता है। उनका भी दोष नहीं है। बेचारे जिस उम्र में हैं स्मृति लोप से पीडि़त हो जाना बहुत संभव है। पर उनकी यह स्मृति लोप की बीमारी अवसरानुकूल है, जिसे अंग्रेजीवाले कहते हैं 'सलैक्टिव एमनेशिया',पर है पुरानी यानी 'क्रॉनिक'। जो व्यक्ति अपना परिवार ही भूल जाए अगर वह समयांतर भूल गया हो तो क्षम्य है। समयांतर में उनके लेखों को छपे हुए हो भी तो दशक  गया है। कहीं उनके 'एमनेशिया' का कारण यह तो नहीं है कि बाद में समयांतर ने उन के प्रलापों को छापने लायक नहीं पाया। अपने को लेखक कहनेवाले इस आदमी की अमानवीयता का सबसे खराब उदाहरण यह है कि यह ऐसे समय जापान में है जब वह देश अपने इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी झेल रहा है और यह लालबुझक्कड़ ढींग मार रहा है कि मैंने अज्ञेय को जापान बुलाया था? क्या उन्होंने अपनी जब से टिकट दिया था? इस झूठी आत्म प्रशंसा और बड़बोलेपन से क्या यह बेहतर नहीं होता कि वह उस देश की पीड़ा पर हिंदी अखबारों के लिए दो शब्द ही लिख कर अपना ॠण चुकाने की कोशिश करते, जिसकी (घी चुपड़ी) रोटी इन्होंने आजीवन खाई है और जिसके बारे में वह लिखते हैं कि उस देश में इन्होंने सड़क पर पड़ी किसी लाश को नहीं देखा। पर महोदय आज तो पूरा जापान 20 हजार लाशों से पट गया है। अब तो लिख सकते थे। भारत को तो चलो वह 45 साल पहले ही छोड़ गए थे।

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी टिप्पणी का उल्लेख करने के लिए शुक्रिया अशोक भाई . मैं बेध्यानी में आई.सी.सी.एफ. को आई.सी.एस.एस.आर. लिख गया था जिसे मैंने वहाँ ध्यान जाने पर सुधार भी लिया था . बस फिलहाल यही !

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  2. मेरी टिप्पणी को स्थान देने के लिए शुक्रिया अशोक भाई . मैंने ( फेसबुक पर ) बेध्यानी में एकबारगी आई.सी.सी.एफ. को आई.सी.एस.एस.अआर. लिख दिया था , थोड़ी देर बाद ध्यान आया तो वहीं सुधार भी दिया था . फिलहाल इतना ही . :)

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  3. बढ़िया ,दमदार लेख ! स्वार्थान्धों को करारा जवाब !

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  4. अज्ञेय की जीवनी से सम्बंधित इस बहस के (असंदिग्ध ) महत्व पर अपना संदेह मैं पहले भी जनपक्ष पर जाहिर कर चुका हूँ. अब इस लेख के बाद कुछ और सवाल उठ खड़े हुए हैं .
    १)''किसी व्यक्ति, विशेषकर लेखक, का मूल्यांकन अंतत: इस बात से नहीं हो सकता कि उसने शुरू में क्या किया? किस विचारधारा को समर्पित रहा और क्या लिखा, बल्कि इस बात से होना चाहिए कि उसने अपनी गलतियों से क्या सीखा? ''
    इस वाक्य का क्या मतलब है ?
    कोई अपनी 'गलतियों' से तब सीखेगा , जब वह पहले उन गलतियों को गलतियों के रूप में पहचान चुका होगा. गलतियों से सीखना उन्हें पहचान लेने में ही निहित है. अब क्या ऐसा नहीं हो सकता की हम किसी लेखक की जिस विचारधारा को एक गलती मानतें हो , वह लेखक उसे वैसा न मानता हो , अंत तक न मानता हो ?तब क्या हम किसी लेखक का मूल्यांकन इस आधार पर करेंगे की हम उस की जिस विचारधारा को एक गलती मानते हैं , उसे आखिरकार उस ने खुद भी गलत माना की नहीं. माना तो महान , नहीं तो शैतान. माफ़ कीजिये , मूल्यांकन का यह तरीका न तो साहित्यिक तर्क से जायज है न राजनैतिक तर्क से. जब की इस सारी बहस के पीछे मूल्यांकन का यही फटाफट फार्मूला सक्रिय है.
    मेरा मानना है की इस सारी बहस में इस कठिन सवाल की अनदेखी की जारही है की क्या विचारधारा किसी लेखक के मूल्यांकन का पर्याप्त और निर्णायक आधार हो सकता है.
    अगर हो सकता है , तो स्त्रीविरोधी कबीर,ब्राहमण- पूजक तुलसी,तुलसीपूजक निराला , निरालापूजक रामविलास शर्मा और रामविलास पूजक तमाम मार्क्सवादी लेखकों का महत्व भी संदिग्ध हो जाएगा , अज्ञेय किस खेत की मूली हैं..
    लेकिन यह सब संदेह हमारे ही हिस्से में आयेगा , जो हमारे पाले से बाहर हैं , उन के मन में अज्ञेय प्रभृति के रचनातमक मूल्य के प्रति संदेह जगाने की दृष्टि से केवल विचारधारा और सी आई ए के पैसे का तर्क नाकाफी होगा , क्योंकि वह हमारे लिए भी नाकाफी है ,क्योंकि अन्यथा उपरोक्त वाक्य के लिखे जाने की जरूरत नहीं पड़ती.क्योंकि यह वाक्य चीख चीख कर कह रहा है की हम स्वयं विचारधारा और जीवन व्यवहार के आधार पर लेखक के मूल्यांकन को ले कर आश्वश्त नहीं हैं.
    २''माना यशपाल ने औपनिवेशिक सरकार के लिए जासूसी का काम किया था, माना फैज फासीवाद का विरोध करने के लिए अंग्रेजी सेना में शामिल हुए पर सवाल यह है कि उन्होंने उस गलती को किस तरह सुधारा और उनका बाद का उनका लेखन किस तरह से जनता का पक्ष लेता है? ''
    तो क्या हम ने मान लिया है की यशपाल ने अंग्रजों की जासूसी की थी ?क्रांतिकारी साथियों से गद्दारी की थी ? उन्हें मरवाया था ?किस आधार पर हम ने ऐसा मान लिया , जब की दुश्मनों नेभी खुल कर ऐसा मान लेने की हिम्मत अब तक नहीं की है , केवल संदेह का माहौल बानाने के सिवा ?
    और अगर यशपाल ने गद्दारी की तो क्या उन्हों ने इस गलती को स्वीकार किया ? माफी माँगी ?मेरे जानते जीवन के अंत तक उन्हों ने इस दुष्प्रचार का दृढ़ता से मुकाबला किया , और उन के रहते किसी की हिम्मत न पडी उन के खंडन को चुनौती देने की .
    तब अचानक अब हम ने ऐसा कैसे मान लिया ?यशपाल को अज्ञेय की ढाल बनाने की नामाकूल कोशिश करने वालों के दबाव में हम कैसे आ गए ?
    क्या एक गड़बड़ सी बहस शुरू कर के हम ने बहुत सारे गड़बड़ तत्वों को यह मौक़ा मुहैया कर दिया है की वे हमें लगातार गड़बड़ियों में फंसाते चले जाएँ ?

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. मैं अज्ञेय के कृतित्व अथवा व्यक्तित्व में कुछ भी सराहनीय नहीं पाता. वे अच्छी हिन्दी लिख लेते थे. बस. इस लेख के लिए धन्यवाद.

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…