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मंगलवार, 16 अगस्त 2011

दोराहे के तरफ़ सरकता भारत: अन्ना हजारे आंदोलन और जनवादी शक्तियों के ऐतिहासिक कार्यभार




                                                                                                   -शमशाद इलाही अंसारी


कोई भी जनवादी व्यक्ति अथवा संगठन; अभिव्यक्ति की आज़ादी, आंदोलन,राजनीतिक प्रदर्शन आदि का विरोध नहीं कर सकता. कांग्रेस सरकार लगातार अपनी जनविरोधी प्रवृति को उजागर करते हुये जन आंदोलनों को नृशंसता पूर्वक पुलिस और फ़ौज के जरिये दबा रही है. तमाम जनवादी ताकतों को इसका प्रबल और मुखर विरोध करना ही होगा. लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे और उनकी सिविल सोसाइटी के प्रति केन्द्र सरकार का रुख उसकी तानाशाही प्रवृतियों का जीता जागता उदाहरण है, उसकी मज़्जमत हर विवेकशील जनमानस को करनी चाहिये.केन्द्र सरकार जिस तरह पूजींवादी एकाधिकार को भारतीय संसाधनों पर थोप रही है और उसके परिणाम स्वरुप उत्पन्न हो रहे जनाक्रोश को लाठी गोली के बूते दबाने का प्रयास कर रही है, अन्ना का गिरफ़्तारी उसी स्वरुप का एक हिस्सा है. हमें समस्या के मूल पर चोट करनी है, सरकार के चरित्र को बेनकाब करते हुई भारत को मौलिक क्रांति की ओर ले जाना है, शोषण के हर पुराने अस्त्र को नेस्तेनाबूद करना है, हमारे उद्देशय किसी कानून को लाकर इस सडी हुई भ्रष्ट्र व्यवस्था को अभयदान देना नही है.अत: इस व्यवस्था को ढोना किसी क्रांतिकारी का काम नहीं है. क्रांतिकारी ताकतों का अपना कार्यक्रम है,ऐजेण्डा और अपनी नीतियां भी, उन्हें अपने तरीके के निज़ाम का स्थापित करने के लिये जनसंघर्षों का नेतृत्व करना है. आज पूरे देश में जिस सामाजिक आर्थिक असंतोष को अन्ना स्वर दे रहे है उससे साफ़ पता चलता है कि तमाम परंपरागत राजनैतिक दलों के प्रति जनता में भारी निराशा है. पूरा देश विभिन्न समाजिक समूहों में विभक्त भी है, जातिय असंतोष ब्राहमणवादी, मनुवादी शोषणकारी बेडियों की निशान देही कर रहा है, बढते आर्थिक संकट ने वर्गीय विभाजन को और गहरा किया है, भूख और कुपोषण की संख्या में असामान्य गति से जहां उछाल आया है और वहीं देश में करोडपतियों की संख्या भी रिकार्ड स्तर पर पहुंच चुकी है.

क्या अन्ना का मीडिया आरोपित आंदोलन इन तमाम समस्याओं के प्रति अपना कोई नज़रिया रखता है? खुद सिविल सोसाइटी में जिस तरह के व्यक्तियों को थोपा गया है क्या वह देश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है? इरोम के अनशन, कश्मीर, उत्तर पूर्व,बस्तर, छत्तीसगढ, पोस्को, जल, जंगल और जमीन के समान वितरण, रोज़गार, स्वास्थय, शिक्षा, आरक्षण, पानी, बिजली, सडक, सांप्रदायिकता, आदिवासियों के विस्थापन, मनुवादी जातिवादी बेडियाँ, आर्थिक विसंगतियां आदि समस्याओं के प्रति इस सिविल सोसाइटी का रुख अगर अभी स्पष्ट नही है तो कुछ दिनों मे आगे हो जायेगा, और यह कैसा होगा, इसे समझने में किसी राकेट साइंस की आवश्यकता नहीं होगी.

अन्ना के प्रश्न को जनता के बीच में ले जाकर जनवादी शक्तियों को अपना ऐजेण्डा परिभाषित करना होगा, अन्ना एक पडाव है मंजिल नहीं, लोकपाल कानून की संजीवनी देकर इस व्यवस्था को बचाना जनवादी ताकतों का दायित्व नहीं, यह राजनीतिक जिम्मेदारी एक दुधारी तलवार है जिसमें एक तरफ़, कुछ दूर तक अन्ना और उनकी समर्थक शक्तियां साथ दिखाई देंगी और जब मौलिक बदलावों की लडाई का वक्त आयेगा तब यही शक्तियां आपके विरुद्ध खडी मिलेंगी.

इस धटनाक्रम को संक्षेप में अगर कहें तब, हम भारत में तमाम लोकतंत्र, जनवादी शक्तियों पर हो रहे सरकारी दमन का विरोध करते हैं, अन्ना की गिरफ़्तारी का विरोध करते हैं, भारत में जनवादी शक्तियों को एकताबद्ध करके भारत में जनवादी क्रांति का आह्वान करते हैं. भगत सिंह, अंबेडकर,पेरियार, फ़ूले के अधूरे सपनों को साकार करना जनवादी ताकतों का अनफ़िनिश्ड ऐजेण्डा है जिसे अन्ना, केजरीवाल, भूषण,बेदी के हवाले करने का भ्रम मीडिया द्वारा किया जा रहा है, इसी कोशिश को बेनकाब भी करना है. देश भर में फ़ैल रहे हू- हू के महौल में पहले की गयी गलतियों से सबक लेकर आगे बढना होगा. जयप्रकाश और जनता पार्टी और फ़िर वी.पी. सिंह के समय में भी कमोबेश यही हालात थे..तब भी किसी जनवादी शक्ति ने आगे बढकर साहसी पहलकदमी न की थी, खासकर सरकारी वामपंथी पार्टियों ने देश को निराश किया था और अपने वजूद को जनसंघ/ संघ/भाजपा के साथ झौंक दिया जिसका फ़ायदा संघियों को संसद में अपनी सीटें २ से बढा कर ८८ और फ़िर केन्द्र में  मिलीजुली सरकार बनाने के रुप में हुआ. आज इतिहास एक बार फ़िर हिल्लोरे ले लेकर आमंत्रित कर रहा है कि आगे बढो और देश का नेतृत्व करने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी का ऐलान करो. सफ़लता भले ही अभी न मिले लेकिन असफ़लता का ठीकरा देश की जनता तुम्हारे सिर न फ़ोडेगी, इस बार नहीं तो कल तुम्हारी आवाज़ जरुर सुनी जायेगी, आखिर इतिहास के क्रम को तुम्हारी ही रगों से गुज़रना है. देश को बाहरी हमलावरों से छुटाना आसान था, क्योंकि दुश्मन खुला था, दिखाई देता था, इस बार हमें अपने भीतर के ही दुश्मन का सामना है जिसे धर्म, संस्कृति, समाज, राजनीति, तंत्र, व्यवस्था, जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्ट्राचार,छुआछूत के विभिन्न संस्करणों में हमारे जीवन में जगह जगह गूंथ दिया गया है. इन तमाम बेडियों से मुक्ति दिलाना अन्ना के बसका काम नहीं, इसे नवजनवादी क्रांति ही पूरा करेगी..इंकलाब ज़िदाबाद.

1 टिप्पणी:

  1. बेहद उपयोगी जानकारी प्रस्तुत की है ,इसे अमल मे लाया जाना चाहिए।

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