यह एक अजीब विडम्बना है कि ठीक
जिस वक़्त मैं यह लेख लिख रहा हूँ एक कारपोरेट निजी चैनल का समाचारवाचक चीख-चीख कर
पेट्रोल की कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि की है और उस पर प्रतिक्रिया देते हुए
सत्तापक्ष के नेता कह रहे हैं कि जनता की क्रयशक्ति बढ़ गयी है और वह इसे आराम से
झेल सकती है, असल में यह वृद्धि जनता के हित में की गयी है तो मुख्य विरोधी दल के
नेता सरकार से अपने खर्च कम करने के कुछ हास्यास्पद सुझाव दे रहे थे – जो
बात कोई नहीं कह रहा है वह यह कि सरकार कारपोरेटों को दी जाने वाली सब्सीडीयाँ कम
करे. २०१०-२०११ के बजट में कार्पोरेट्स को दी गयी 4,18,095 करोड़ रुपयों की सब्सीडी उस
विशाल धनराशि का बस एक छोटा सा हिस्सा है जो हर साल कार्पोरेट्स के हित में खर्च
करती है. आज सत्ताधारी वर्ग की सभी पार्टियाँ अपनी दूसरी नीतियों में भले कितनी भी
अलग दिखाई दें, आर्थिक नीतियों के मामले में सबके बीच एक आम सहमति का माहौल है. नब्बे
के दशक के आरम्भ में देश-दुनिया की सारी मुसीबतों के इकलौते रामबाण की तरह जोर-शोर
से शुरू की गयीं उदारीकरण की नीतियाँ उसके बाद की सभी सरकारों ने थोड़े-बहुत ऊपरी फेरबदल
के साथ लगातार जारी रखीं, विकास दरों के शोर में समय-समय पर यह तर्क सभी सरकारों
ने दिया कि कार्पोरेट्स की आय में हुई वृद्धि धीरे-धीरे रिस कर नीचे तक पहुंचेगी
और लगातार उनके कारोबार को आगे बढ़ाने वाली नीतियों को इस देश के आमजन की कीमत पर
आगे बढ़ाया गया. एक दशक होते-होते इन नीतियों के परिणाम भी सामने आने लगे और
2008-2009 में पूरी दुनिया के साथ भारत भी आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया. उस समय
भी सच को स्वीकार कर नीतियों पर पुनर्विचार करने की जगह सारा जोर पहले तो मंदी को
मिथक साबित करने पर और फिर यह साबित करने पर दिया गया कि भारत पर इसका कोई विशेष
प्रभाव नहीं पड़ा. नतीजा यह कि देश की आर्थिक हालत सुधारने की जगह और बिगड़ती गयी. भारत की हालिया आर्थिक
स्थिति का अंदाजा अर्थशास्त्री टेलर कोवेन के उस ट्वीट से लगाया जा सकता है जिसमें
वह कहती हैं कि ‘इन दिनों की सबसे ज़रूरत से कम कही गयी ज़रूरी कहानी है भारत की
मौजूदा आर्थिक गिरावट की कहानी’, और इसके पुख्ता आधार हैं.
पिछले वर्ष आर्थिक संवृद्धि में
कमी आई, घरेलू और विदेशी दोनों तरह के निवेशों में कमी आई है, रुपये की कीमत
लगातार नीचे गिरती गयी, व्यापार घाटा बढ़ गया, चालू खाते पर घाटा लगातार बढ़ता गया,
स्टाक मार्केट में लगातार गिरावट आई और मुद्रास्फीति लगातार बढ़ती गयी. यही नहीं
पिछले साल जो सबसे चौंकाने वाली खबर थी पिछले लंबे अरसे से औद्योगिक उत्पादन का
लगातार घटते जाना. पहले से ही भयावह संकट की
शिकार कृषि अर्थव्यवस्था के साथ औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन में यह कमी
विकास के दावे को पूरी तरह से हिलाकर रख देती है. आखिर केवल सेवा क्षेत्र के भरोसे
देश कब तक विकास कर सकता है? इसके अलावा निवेशों में आ रही कमी उम्मीदों को और
धुंधला करने वाली है. निवेश को बढ़ाने के लिए इतनी सारी सुविधाएँ देने के बावजूद
वर्ष 2011 में नए निवेश प्रस्तावों में 45 फीसदी तक की कमी आई. इस दौर में बिजनेस
इनसाइडर में छपे एक लेख के अनुसार हमारा बाम्बे स्टाक एक्सचेंज दुनिया में सबसे
खराब प्रदर्शन करने वाला स्टाक एक्सचेंज रहा. मंहगाई की दर नौ फीसदी के आसपास रही
जिसके नियंत्रण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में लगातार बढोत्तरी की.
इससे मंहगाई पर तो कुछ खास असर नहीं पड़ा, लेकिन यह औद्योगिक संवृद्धि और निवेश के
रास्ते की रुकावट ज़रूर बना. मंहगाई के चलते आम आदमी की ज़िंदगी लगातार मुश्किल होती
गयी और एक रिपोर्ट के अनुसार देश के भीतर कुपोषण और गरीबी में इस दौर में अभूतपूर्व
वृद्धि हुई है. गिरीश मिश्र की हालिया किताब में उद्धृत कोई सौ साल पहले कही
पोलान्यी की बात कि ‘‘श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर उन्हें बाज़ार तंत्र के
हवाले करने के परिणाम समाज के लिए विध्वंसकारी होंगे.” आज सही
साबित होती लग रही है.
इस सारे संकट को लेकर सरकार और
पूंजीवादी अर्थशास्त्री दो तरह की वजूहात बताते हैं – पहली यह कि
पश्चिमी देशों में जारी संकट के चलते भारतीय अर्थव्यस्था भी बुरे दौर से गुजर रही
है और दूसरा यह कि देश के भीतर ग़रीबों के लिए जो विभिन्न योजनाओं में पैसा दिया जा
रहा है उसके चलते आर्थिक सुधार की प्रक्रिया बाधित हो रही है. पहले तर्क में कुछ
दम है. 2008-2009 में जो मंदी का दौर आया था वह दरअसल खत्म ही नहीं हुआ था, पश्चिम
की सरकारों ने भारी बेल-आउट पैकेज देकर किसी तरह से यह माहौल बनाया था कि मंदी
समाप्त हो गयी. लेकिन वह संरचनात्मक संकट भीतर ही भीतर गहरा रहा था. सरकारी खर्च
में कटौती के नाम पर पूरे योरप में कल्याणकारी योजनाओं के खर्चे में कटौती का जो
नुस्खा अपनाया गया उससे स्थितियाँ तो नहीं बदलीं लेकिन ग्रीस और फ्रांस सहित कई
सारी सरकारें ज़रूर बदल गयीं. आज यह विडंबना ही कही जायेगी की एसोचैम से लेकर तमाम
पूंजीवादी अर्थशास्त्री वही पिटा हुआ नुस्खा भारत में आजमाने की सलाह दे रही हैं.
पूंजीवादी विकास के इस तरीके की
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह विकास की पूरी अवधारणा को कारपोरेट विकास तक सीमित कर
देता है. आर्थिक संवृद्धि का पूरा फल कारपोरेट सेक्टर के हाथों में सिमट जाता है.
देश के उच्च वर्ग और उसके लिए काम करने वाले एक छोटे से मध्य तथा उच्च मध्यवर्गीय
तबके की समृद्धि बढ़ती जाती है लेकिन विशाल आम जनता लगातार और अधिक वंचना की स्थिति
में चलती चली जाती है. ज़ाहिर है कि ऐसे में उत्पादन की सतत वृद्धि के बावजूद
बहुसंख्या की क्रयशक्ति घटते चले जाने के कारण बाज़ार का असंतुलित होना स्वाभाविक
ही होता है. जल-जंगल-जमीन की लूट-खसोट के बीच, जिसके हिस्से के बटवारे की अंधी हवस
सत्ता वर्ग के बीच भ्रष्टाचार की दैत्याकार ख़बरों के रूप में आती है, आम आदमी दो
जून की रोटी और मूलभूत ज़रूरतें ही पूरी नहीं हो पाती तो वह उस बाज़ार से क्या
खरीदेगा जो उसकी ज़रूरतों की कीमत पर रईसों के भोग-विलास के लिए उत्पादन करता है?
ज़ाहिर है कि यह संकट कोई दो-चार
दिनों, महीनों या वर्षों का नहीं है. हमारी अर्थव्यस्था एक गहरे आर्थिक संकट में
फंस चुकी है और हर नए नुस्खे के साथ यह मर्ज़ बढ़ता ही चला जा रहा है. नई आर्थिक
नीतियों के नाम पर जिस मुक्त अर्थव्यवस्था और संरचनात्मक समायोजन वाली नीति को
अपनाया गया था वह अपने पहला दशक पूरा करते-करते ही अपने विकराल परिणामों के साथ
सामने आ चुकी है. उसके ख़ूबसूरत दिखने वाले चेहरे से मेकअप उतर चुका है और उसकी
डरावनी शक्ल सामने आ चुकी है. यह न केवल दुनिया भर के गरीब लोगों की जिंदगी तबाह
कर रहा है बल्कि राबर्ट ओवेन के कहे ‘अगर बाज़ार अर्थव्यस्था को अपने
खुद के नियमों के अनुसार विकसित होने दिया गया तो वह बड़ी और स्थाई बुराइयों को
जन्म देगी’ को भी चरितार्थ कर रहा है.
ऐसे में छोटे-मोटे उपायों की जगह अब बकौल दुष्यंत झील का पानी बदलने की
शुरुआत करनी होगी.
कारपो को दी गयी 'सब्सीडी' मात्र चार लाख अठारह हज़ार रुपये ? कृपया इस आंकड़े को जांच लीजिए .
जवाब देंहटाएंचार लाख अठारह हजार करोड़ रुपये..सुधार दिया आशुतोष भाई...गलती के लिए क्षमा...
जवाब देंहटाएंअशोक भाई, कभी इंदिरागांधी ने संविधान के आमुख में समाजवाद शब्द जुड़वाया था तो इस का मतलब ये तो नहीं था कि भारत समाजवादी हो गया। भाई! जिन का राज है उन्हीं को सबसिडी नहीं मिले तो फिर राज होने का मतलब ही क्या हुआ?
जवाब देंहटाएंअर्थव्यवस्था का संकट हो या कोई और संकट झेलना आम जनता को ही है ! खास लोगों ने अपने खास इंतज़ाम कर लिए हैं ! इतना धन बटोर लिया है कि अगर देश छोड़ना भी पड़े तो कोई फर्क नही पड़ेगा ! आगामी वर्षों में आने वाली तबाही के लिए हम आमजन को सोंचना होगा ! एक भयानक खबर देता और खबरदार करता लेख !
जवाब देंहटाएंनव-उदारवादी नीतियों से संचालित यह वैश्विक अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों से जिस तरह से अपने घुटनों पर घिसट रही है , वह अपने आप में इसके खोखलेपन की कहानी बयान करता है | पुरी दुनिया में अजीब किस्म की मुर्दानगी छाई हुई है , जिसे आजकल मंदी करार दिया जा रहा है | आज से बीस वर्ष पूर्व तो इस बात की धूम मची थी कि जब तक पुरी दुनिया एक साथ व्यापार में जुड नहीं जाएगी , तब तक उसका भला नहीं हो सकता | हर देशों में इसके प्रवक्ता भी खड़े हो गए थे , जिन्हें बड़े और नामी अर्थशास्त्री के रूप में प्रचारित किया गया था | फिर ऐसा समय भी आया कि इन्ही कथित नामी अर्थशास्त्रियों के हाथों में दुनिया भर के देशों की सत्ताए भी सौंप दी गयी | और इसके शीर्ष पर बैठे लोगों ने लोभ, छल , कपट और लूट का खुला खेल खेलना आरम्भ कर दिया | लेकिन इस तरह का खेल , इतिहास गवाह है , कि कभी भी लंबे समय तक नहीं खेला जा सकता | और वही हुआ भी | विकास और प्रगति का गुब्बारा उनके लोभ और लालच के दबाव में आकर अंततः फूट ही गया | पुरी दुनिया जो एक साथ जुडकर प्रगति और विकास के सपने देख रही थी , एक साथ ही मंदी की चपेट में आ गयी |
जवाब देंहटाएंतो ऐसा कैसे हो गया कि अमेरिका या यूरोप के बाजारों के ढहने से पुरी दुनिया ही ढह जाए ..? हमें तो यह बताया गया था कि इससे सबको लाभ होगा और जो इस वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा वह दुनिया में अलग-थलग पड़ जाएगा , लेकिन यहाँ तो सारे के सारे लोग ही घाटे में हैं | सबके होठों पर फेफरी पड़ी हुई है कि अब क्या किया जाए | दरअसल यह पूरा खेल उस पूंजी के महाजाल से शुरू हुआ था , जिसमे बड़े और विकसित देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में पैदा हुए अवरोध को दूर करने के लिए दुनिया को जोड़ने का फलसफा रचा था | आज जब भौतिक रूप से एक देश को गुलाम बनाना असंभव और अव्यावहारिक है , यह नुस्खा तात्कालिक रूप से बड़े काम का साबित हुआ | लेकिन जहा सम्पूर्ण नीतिया लूट और धोखे की बुनियाद पर टिकी हो ,वहा ऐसे कोई भी नुस्खे कितने समय तक कारगर साबित हो सकते है | पुरी दुनिया तो जुड गयी लेकिन खेल कुछ बड़े और ताकतवर लोग ही खेलते रहे | सट्टेबाजी और जुएबाजी के इस खेल का भांडा आज से पांच साल पहले जब फूटा , तो इन बड़े और ताकतवर लोगों के साथ पुरी दुनिया ही घुटनों पर आ गयी | चुकि ये लोग पुरी दुनिया को जोड़ चुके थे , इसलिए जिसने यह पाप किया , के साथ, जिसने इसमें कोई भूमिका नहीं निभायी , वे सभी लोग भी इसके शिकार हो गए |
एक आम आदमी भारत जैसे देश में जब यह सवाल करता है ,कि अमेरिका में आई इस मंदी को हम क्यों झेलें , या उसका हमारे ऊपर ऐसा क्यों असर पड़ रहा है , तो इन बातो को समझे बिना आप कोई भी माकूल उत्तर कैसे दे पायेंगे | आप यही कहेंगे कि पुरी दुनिया आजकल जुडी हुयी है , इसलिए ऐसा हो रहा है | तो यह सवाल खड़ा हो जाएगा , कि पुरी दुनिया को इस तरह से जोड़ा ही क्यों गया | अब ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे गांव के ऐय्याश और जुआरी अपने लोभ और लालच में सारा कुछ हार जाए , और पूरा गांव उसकी सजा भुगते ..? यदि हमने गलती की है , तो हमें यह सजा भी मिले , लेकिन उनके ऐय्याशियों की सजा हम क्यों भुगते ..? और ये सवाल किसी के भी मन में उठ सकते है , वरन यह कहना उचित होगा कि उठ रहे हैं | हम तो उस समय भी यही मानते थे कि ऐसी नीतियों का अनुसरण करके हम अपनी संप्रभुता को एक तरह से गिरवी रख रहे हैं | लेकिन दुर्भाग्यवश उस आंधी में हमारी यह महत्वपूर्ण बात उड़ गयी | आज जब यह मंदी पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले चुकी है और सब लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं तथा किसी को भी इससे निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा है , तब शायद हमारी बाते अब दुनिया के लोगो को याद आ रही हैं |
लेकिन यह समझना गलत होगा कि इन नीतियों से उपजी इस मंदी से इस दुनिया के संचालकों ने कुछ सबक भी लिया है , वरन इसके उलट उन्होंने इसके परिणामों को आम सामान्य जनता के सर मढ़ने का ही काम किया है | अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है | बेल आउट और सहयोग के द्वारा अरबो और खरबों डालर की सहायता उन संस्थाओ ,व्यक्तियों और बैंको को प्रदान की गयी है , जो इस मंदी के लिए जिम्मेदार हैं | और ऐसा आम सामान्य जनता के लिए आवंटित किये जाने वाले बजट में कटौती करके किया गया है | सामाजिक सुरक्षा के निमित्त रखे गए इस पैसे के इस दुरुपयोग और चंद लोगों की गलतियों की सजा को पूरे समाज पर थोपने की यह कार्यवायी सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं है , वरन उसका विस्तार भारत सहित दुनिया के हर देश तक हुआ है | निश्चित तौर पर इसका समाधान इन विनाशकारी नीतियों को सम्पूर्णता में बदलकर ही खोजा जा सकता है , एक मरी हुई व्यवस्था में स्टेयोराईड डालकर नहीं ...|
वैभव सिंह - जब देश की आर्थिक गतिविधियों के संचालन में पूंजीपतियों का ही दबदबा हो जाता है तब पूंजीपतियों का नुकसान देश का नुकसान और उनका लाभ देश का लाभ बन जाता है। देखने में यह भी आया है कि अत्यधिक होड़ के दर्शन ने भी अर्थव्यवस्थाओं को हानि पहुंचाई है। अर्थव्यवस्था की विभिन्न इकाइयां होड़ के कारण श्रम, उत्पादन तथा उपभोग को विकृत कर रही हैं और वही वित्तीय घाटे, करेंसी संकट और लोन डिफाल्टिंग के रूप में सामने आ रहा है।
जवाब देंहटाएंअर्थव्यवस्था के चकाचौंध को परत दर परत उधेड़ कर रख दिया आपने.. बढ़िया आलेख।
जवाब देंहटाएं101….सुपर फ़ास्ट महाबुलेटिन एक्सप्रेस ..राईट टाईम पर आ रही है
जवाब देंहटाएंएक डिब्बा आपका भी है देख सकते हैं इस टिप्पणी को क्लिक करें
भैया आँखे खोलने वाला लेख है.
जवाब देंहटाएंतस्वीर बहुत विचलित करने वाली है !