यह लेख अभी नेशनल बुक ट्रस्ट से आये शांतिमय रे की किताब के मेरे अनुवाद का हिस्सा है. 10 मई को हमने इस महान भारतीय विप्लव की वर्षगाँठ मनाई है. यह उसी महान परम्परा की याद में
1857 का महान विद्रोह जो मेरठ में 10 मई को सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ
था, वह एक महान ऐतिहासिक महत्व की घटना है. हालांकि, जहाँ तक भारतीय मुसलमानों के
संदर्भ का सवाल है यह अलग से विवेचना की मांग करता है, यहाँ यह जिक्र करना ज़रूरी
है कि यह तथाकथित बलवा उस समय के कुछ अपदस्थ देशी भारतीय शासकों के प्रेरणादायी
नेतृत्व में जल्द ही भारतीय जन के एक शक्तिशाली विद्रोह में तब्दील हो गया और कई
जगहों पर “स्थानीय नेतृत्व निरपवाद रूप से वहाबियों के बीच से
आया”[1]
“ब्रिटिश शासन की पारम्परिक मुखालिफत की पराकाष्ठा 1857 के विद्रोह के रूप में
सामने आई जिसमें लाखों किसानों, शिल्पकारों और सैनिकों ने भाग लिया. 1857 का
विद्रोह अंग्रेजी शासन की जड़ों को हिला देने वाला था”
वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेह जैसे
इलाकों और साथ में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र तथा पूर्वी भारत के हिस्सों के भी
लोगों का वह महान शक्तिशाली उभार था.”[2] ब्रिटिश सेना से
सीधी लड़ाई में हजारों देशभक्तों ने अपने प्राण गंवाए. मुकदमों के बाद या फिर बिना
मुकदमें के ही लगभग 10000 लोग फांसी के फंदों पर चढ़ा दिए गए या तोपों के मुंह से
बांधकर उड़ा दिए गए. उनमें से बड़ी संख्या मुस्लिम समुदाय से आती थी – नवाबों से लेकर किसानों तक ; स्वाभाविक रूप से उन्हें भी अपने हिन्दू
बंधु-बांधवों के साथ-साथ उत्पीड़न झेलना पड़ा.
इसलिए, यह “ गुलामी के खिलाफ लगभग एक राष्ट्रीय विद्रोह था, जैसा
कि उन परिस्थितियों में हो सकता था”[3] पारम्परिक
इतिहासकार नाना साहब, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और कुंअर सिंह का नाम
वीर योद्धाओं के रूप में लेते हैं. जाहिर तौर पर उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. मंगल
पांडे को, जिन्होंने बंगाल में विद्रोह का झंडा उठाया था, उन्हें भी याद किया जाता
है. लेकिन बहुत कम लोग फैजाबाद के शहरकाजी मौलवी अहमदुल्लाह को याद करते हैं
जिन्होंने 1857 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह संगठित करने में प्रमुख भूमिका
निभाई. उनके नेतृत्व में क्रांतिकारी सेनाओं ने अंग्रेजों को इतना गहरा नुक्सान
पहुँचाया कि उन्होंने उनके ज़िंदा या मुर्दा पकडवाने पर 50,000 रुपये का ईनाम घोषित
कर दिया. पंवई के राजा ने एक बड़ी धनराशि के लिए उन्हें धोखा दिया. उन्हें मार दिया
गया और उनका सर काट के राजा ने अपने अँगरेज़ मालिक के पास भिजवा दिया.
एक और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व महान राजनीतिज्ञ अजीमुल्लाह खान थे जिन्होंने 1834 में कानपुर के नाना साहब के लिए वकील की भूमिका निभाई. भारत में लौटने के बाद
पश्चिमी राजनीति के पाने ज्ञान के साथ उन्होंने भारतीयों के बीच ब्रिटिश-विरोधी
भावनाओं का प्रचार किया और 1857 के महान विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वह
नाना साहेब के साथ नेपाल के जंगलों में भाग गए लेकिन 1859 में भयावह अभावों में
बीच मौत के शिकार हुए.
रानी लक्ष्मीबाई का साहस हिन्दुस्तान भर में घर-घर में जाना जाने लगा वैसा ही
अवध के अपदस्थ शासक वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल का भी होना चाहिए था. रानी
लक्ष्मीबाई जैसी ही परिस्थिति में वह 1857 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में
उठ खड़ी हुईं और बहुत जल्दी फौजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह, तात्या टोपे और नाना साहब
के साथ प्रमुख नेताओं में शामिल हो गयीं. शासक (रीजेंट) के रूप में वास्तविक सत्ता
हासिल करने के बाद वह क्रांतिकारी फौजों को संगठित करने में सर्वाधिक सक्रिय थीं. उन्होंने
महारानी विक्टोरिया की घोषणा के जवाब में राजकुमारों और बहुसंख्यक समुदाय के
सम्मान और अधिकार की रक्षा के बाबत जवाबी घोषणा जारी की. उन्होंने न्यायालय चलाया
और नाना साहब और अहमदुल्लाह के साथ अपनी रणनीति के संयोजन द्वारा उन्नीसवीं सदी के
सामंती ढाँचे की सीमाओं के भीतर युद्ध के प्रयासों को सघन किया.
उन्होंने बेहतर शक्ति-संपन्न ब्रिटिश सेना के खिलाफ लखनऊ की रक्षा के महान
युद्ध में व्यक्तिगत रूप से हिस्सेदारी की. पराजय के बाद वह लखनऊ से भाग गयीं और
फैजाबाद के अहमदुल्लाह की सेना के साथ मिल गयीं और शाहजहांपुर की लड़ाई में शामिल
रहीं. चारों तरफ से ब्रिटिश सेना से घिर जाने के बाद उन्होंने नेपाल की तराई की
तरफ पलायन का हिम्मत भरा कदम उठाया जहाँ नाना साहब की बची-खुची क्रांतिकारी सेना
पुनर्गठित होने की प्रतीक्षा कर रही थी. कठोर कष्टों और परेशानियों से जूझते हुए
उन्होंने शायद नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र में अपनी अंतिम साँसें लीं. उनकी स्मृति आज
भी गीतों और लोकगीतों के माध्यम से पूरे उत्तर-प्रदेश में बूढ़े और जवान सभी लोगों
में जीवित है और वह आज भी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के महान शहीदों में से एक की
तरह मानी जाती हैं.
पुस्तक ही पढ़नी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंमुझे बेसब्री से इस पुस्तक का इंतजार है। - रीटू खान
जवाब देंहटाएं