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शुक्रवार, 31 मई 2013

सी आई ए का भूत, वर्तमान और एक ‘सु’कवि को सम्पादक का साथ : आभासी दुनिया की एक वास्तविक बहस

  
·         यह लेख समयांतर के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है. पूरी बहस आपने जनपक्ष पर पहले पढ़ी ही है. इस बीच अर्चना वर्मा का भी एक आलेख इस मुद्दे पर कथादेश में छपा है. मजेदार बात यह है कि इस लेख में कमलेश जी की वह आप्त पंक्ति जिस पर सारी बहस केन्द्रित थी ( ‘शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगा. यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमेरिका और सी आई ए ने उपलब्ध कराया. इसके लिए मानव जाति अमेरिका और सी आई ए की ऋणी है.) गायब कर दी है या फिर यों कहें कि तीन बिन्दुओं (...) की 'सांकेतिक' भाषा में व्यक्त की है. उनका सारा ज़ोर इस बात पर था कि 'कम्युनिस्ट विरोधियों को इस विरोध का हक होना चाहिए', उनसे यह पूछा जा सकता है कि आखिर 'कम्युनिस्टों को अपने विरोधियों का जवाब देने का हक है या नहीं? खैर यह लेख ज़ाहिर तौर पर एक स्वतन्त्र आलेख है और इसे उसी रूप में पढ़ा जाना चाहिए.
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पिछला महीना फेसबुक के साहित्यिक समुदाय के बीच काफ़ी हंगामाखेज़ रहा. यों तो इस आभासी दुनिया में गर्मागर्म और मीठी बहसें लगातार चलती रहती हैं और इस रूप में यह कस्बाई नुक्कड़ में तब्दील होता जा रहा है लेकिन यह हंगामा अब तक कि तमाम बहसों से अलग इसलिए कहा जा सकता है कि इसने लम्बे अरसे बाद वामपंथी और वामपंथ विरोधियों को एकदम स्पष्ट दो खेमों में बाँट दिया. एक तरफ मंगलेश डबराल, वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, शिरीष कुमार मैरी, गिरिराज किराडू और इन पंक्तियों के लेखक सहित वाम-लिबरल धारा के तमाम लोग तो दूसरी तरफ की कमान मुख्यतः ओम थानवी ने संभाली तथा उनके साथ ओम निश्चल, अख़लाक़ उस्मानी जैसे लोग रहे. मुआमला शुरू हुआ गिरिराज किराडू के एक स्टेट्स से जिसमें उन्होंने लिखा “भंतेयह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौनसा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक के किया हुआ है.”


ज़ाहिर है यह ‘कारनामा’ स्तब्ध करने वाला था. भारत में शीतयुद्ध काल में सी आई ए द्वारा वित्तपोषित ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ की उपस्थिति और उसमें अज्ञेय और उनके अनुयायियों की सक्रिय भागीदारी से परिचित हिंदी समाज भी अमेरिका की कुख्यात जासूसी संस्था सी आई ए के खुले समर्थन की इस मुद्रा से अब तक अपरिचित था. इसका अंदाज़ा उस पोस्ट के बाद आये कमेंट्स से लग जाता था जिसमें कवि आशुतोष दुबे से लेकर आशीष त्रिपाठी सहित तमाम लोग इस सूचना पर अविश्वास से भरी टिप्पणियाँ करते हुए उस महानुभाव का नाम पूछ रहे थे. वह महानुभाव थे कवि कमलेश! समास पत्रिका में दिए गए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि ‘मानव जाति को सी आई ए का ऋणी होना चाहिए.’ कारण बताया उस संस्था की ‘बुक वेंडर’ की भूमिका जिसके तहत उसने शीत युद्ध काल में तमाम मार्क्सवाद विरोधी पुस्तकें उपलब्ध कराईं. समास -5 के पेज 6 पर जनाब फरमाते हैं ‘शीतयुद्ध के दौरान इस सत्य का सहधर्मी साहित्य धीरे-धीरे उपलब्ध होने लगा. यह सब शीतयुद्ध के दौरान अपने कारणों से अमेरिका और सी आई ए ने उपलब्ध कराया. इसके लिए मानव जाति अमेरिका और सी आई ए की ऋणी है.’ इसके बाद इस लम्बे साक्षात्कार में कम्युनिस्ट विरोधी चिर-परिचित विषवमन है. अमेरिका और सी आई के इस पुण्य काम के पीछे के ‘कारणों’ पर न कोई बात है, न उसके दूसरे मानव जाति विरोधी कारनामों की कोई चर्चा. अभी हाल में विकीलीक्स के एक खुलासे में सी आई ए से कांग्रेस सरकार पलटने में मदद माँगने वाले पूर्व समाजवादी , अज्ञेय के प्रसंशक और इन दिनों अशोक वाजपेयी खेमे के ‘सेलीब्रेटेड’ कवि (हाल में न केवल उनकी दो किताबें आईं बल्कि उनका विमोचन अशोक वाजपेयी रज़ा फाउंडेशन में किया, फिर यह लंबा साक्षात्कार छापने वाली समास तो उनकी पत्रिका है ही)  के कमलेश का यह साक्षात्कार शीत युद्ध काल में लोहियावाद के करीब रहे कुछ साहित्यकारों के सी आई ए के उन दिनों चल रहे वाम-विरोधी अभियान के हाथों संचालित होने की पुरानी आशंका को पुष्ट करने वाला है. खैर, इसके बावजूद अज्ञेय जैसे कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के करीब रहे लोगों ने भी कभी इस तरह खुल्लमखुल्ला सी आई ए का अहसान नहीं जताया था. ज़ाहिर है कि इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई. लेकिन ऐसी परिस्थिति में उनकी रक्षा के लिए आगे आये जनसत्ता संपादक और इन दिनों साहित्य-सत्ता के खेल में संलग्न ओम थानवी!


यों भी ओम थानवी जनसत्ता के पन्नों से लेकर आभासी जगत तक में इन दिनों वाम विरोधी साहित्यिक समूह के सबसे वाचाल प्रवक्ता के रूप में उभरे हैं. पाठकों को याद होगा कि मंगलेश डबराल के सन्दर्भ में उठे एक विवाद में वह फेसबुक की बहस को न केवल जनसत्ता के पन्नों पर ले गए बल्कि इसका प्रयोग वामपंथ पर धूल फेंकने  तथा उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कृत होने की घटना पर  धूल-गर्द डालने के लिए किया. जब उनके उस असत्य तथा अर्धसत्य पर आधारित एकतरफा लेख का जवाब दिया गया तो उन्होंने उसे जनसत्ता में छापने से इंकार कर दिया. साहित्य के कुछ अफसरान और मठाधीशों को अपनी पत्रकार वाली हैसियत से उपकृत करते रहने ( अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक पर बहुत इमोशनल होते हुए उदयप्रकाश ने लिखा था कि ओम थानवी के सहयोग से उन्हें अपने बड़े बेटे की शादी के लिए इंडिया इंटरनेशल सेंटर बहुत सस्ते दामों पर मिल गया जिससे वह शादी ‘अभिजात भव्यता’ के साथ संपन्न हुई. साथ ही उन्होंने इसके लिए थानवी जी के प्रति अपने पूरे परिवार की ‘आभार’ भावना का ज़िक्र किया है. मजेदार बात यह है कि इसके तुरत बाद उन्होंने अपने द्वारा साहित्य अकादमी के एक समारोह में अज्ञेय को वामपंथी कवि बताये जाने और उससे अभिभूत होकर थानवी जी द्वारा उनके खीसे में अपनी कलम खोंस दिए जाने का ज़िक्र किया है. गोया इन दिनों वह अपने नहीं थानवी जी के ‘कलम’ से ही लिख रहे हैं) के अलावा ओम थानवी का हिंदी में कुल जमा योगदान एक लघु यात्रा वृत्तांत और अज्ञेय वंदना की सारी हदें पार कर लेने का ही रहा है. अज्ञेय जन्म शताब्दी वर्ष में दिल्ली से कोलकाता तक उन्होंने जो ‘अभिजात भव्यता’ वाले आयोजन कराये, अपने अखबार (जिसमें इन दिनों जन की नहीं अभिजन साहित्य की चर्चा ही अधिक होती है) के पन्ने भर डाले, उन पर संस्मरणों की भारी-भरकम पोथी तैयार कर दी उसके बावज़ूद साहित्य जगत में अज्ञेय को लेकर किसी सकारात्मक हलचल की अनुपस्थिति ने उनमें कुंठा का एक भाव पैदा किया हो तो किमाश्चर्यम? आखिर छोटे शहरों, कस्बों और महानगरों तक में नागार्जुन, शमशेर और केदार नाथ अग्रवाल पर अक्सर संस्थाओं की मदद के बिना सामूहिक पहलों से जो कार्यक्रम हुए, पत्रिकाओं के अंक निकले, उनकी कविताओं के पुनर्पाठ हुए, अशोक वाजपेयी और थानवी जी के भरपूर प्रयास के बावजूद वह अज्ञेय को कहाँ नसीब हुआ?

खैर, बात हो रही थी सी आई ए के सम्बन्ध में कमलेश जी के बयान की. ओम थानवी ने इस बहस में भागीदारी करते हुए कहा कमलेश के ‘अच्छे कवि’ होने की बात की और कहा कि हमें उनकी कविता पर बात करनी चाहिए, न कि उनके विचारों पर क्योंकि वह मूलतः विचारक नहीं कवि हैं. यहाँ तक कि अगर वे सी आई ए के समर्थन में भी कविता लिख दें तो मैं देखूँगा कि वह कैसी कविता है. ज़ाहिर है उनकी किसी बात की तरह यह बात भी ‘राग अज्ञेय’ के बिना पूरी कैसे हो सकती थी, तो उन्होंने अज्ञेय जन्मशताब्दी वर्ष में शिरकत करने वालों का नाम भी गिनाया और मार्क्सवादियों की आलोचना का धर्म भी निभाते हुए लोकतंत्र और आवाजाही के कुछ सबक दिए. यहाँ तक कि अपनी बात में वज़न डालने के लिए विजयदेव नारायण साही का वह वक्तव्य भी दुहराया कि मैं नीत्शे की किताब जरथुस्त्र उवाच को समाज विरोधी मानता हूँ लेकिन साहित्य के दृष्टि से महान रचना मानता हूँ और उसकी एक प्रति अपने पास रखता हूँ. बार-बार पूछे जाने पर पहले तो वह सी आई एक पर कुछ बोलने को तैयार न होते हुए उसे एक गौण मुद्दा बताने पर तुले रहे और फिर कहा “उनका यह कहना गलत नहीं कि एक दौर में सीआइए ने अनेक महान लेखकों को (प्रताड़ित रूसी लेखकों पास्तरनाक, सोल्जेनित्सीन, जोजेफ ब्रोड्स्की आदि के अनेक नाम तो जगजाहिर हैं) मदद की. और सीआइए ने दुनिया का महान साहित्य (नोबल रचनाओं सहित) भी सस्ती दरों पर दुनिया में उपलब्ध करवाया. मगर यह काम तो केजीबी भी तो करती थी. चेखव-तोल्स्तोय सस्ते में उपलब्ध कराते-कराते कौड़ियों के मोल स्तालिन के विचार भी सुन्दर जिल्दों में परोस दिए जाते थे! ....बहरहाल, मेरे इस बहस में पड़ने का एक ही सबब है कि कमलेशजी ने क्या कहा उस पर इतना कुढेंगे तो एक वक्त के बाद उनकी कविता का आनंद कभी नहीं ले पाएंगे जो सचमुच अच्छा काव्य है. एक रचनाकार के मामले में वही महत्त्वपूर्ण है. वे सीआइए की नौकरी करने लगें तब भी मैं यह बात इसी तरह कहूँगा... मेरा तो इतना निवेदन ही था की कमलेश जी मूलतः कवि हैं, विचारक या दार्शनिक आदि नहीं. तो उनकी रचना से ही उन्हें नापा जाना चाहिए, विचारों से नहीं. ” 

ज़ाहिर है यह बहस दो व्यक्तियों या समूहों भर की नहीं रह गयी थी. यह उस पुरानी बहस की पुनरावृत्ति थी जिसमें एक पक्ष जीवन और रचना के बीच में गहरे अंतर्संबंध की बात को स्वीकार करता है तो दूसरा पक्ष वास्तविक जीवन में ली गयी पक्षधरताओं को दरकिनार कर रचना को उसके विशुद्ध सौंदर्यवादी नज़रिए से प्राप्त निकष के आधार पर देखने को कहता है. ये स्पष्ट रूप से दो भिन्न विश्व दृष्टियों का सवाल है. कविता को उसके सौन्दर्य के आधार पर देखने की इस ज़िद के पीछे भी आलोचना का कितना स्वीकार था यह तब समझ में आ गया जब मंगलेश डबराल ने कमलेश के कवि रूप पर केन्द्रित होते हुए कहा कि  कमलेश जी कुल मिलाकर एक रूमानी कवि हैं, जिनकी कविता पर विदेशी कवियों का बहुत साफ़ असर रहा है. उनका प्रारम्भिक दौर काफी अच्छा था और उत्तर छायावादी, रोमांचक भाषा और विन्यास उन्होंने विकसित किया था. एक भाषाई सवर्णात्मकता , जो कुछ रोमांचित करती थी. लेकिन परवर्ती कमलेश बेहद निराशाजनक हैं. मार्क्सवाद के बारे में उनका सोच और उनकी समझ, दोनों बहुत पिछड़े हुए हैं और शीतयुद्धकालीन हैं, उनका आज के पूंजीवाद और मार्क्सवाद की वैचारिकी में आये बदलावों से कोई दूर का भी रिश्ता नहीं. अब उन्हें कोई महाकवि कहे या महा विचारक,इससे कविता और विचार, दोनों पर आज कोई फर्क नहीं पडता, हाँ कुछ तात्कालिक चर्चा वगैरह तो हो सकती है. या कुछ धुंधलका फ़ैल सकता है, जैसे भगवान सिंह की किताब के बहाने डी डी कोशाम्बी पर उनके बचकाने और अतार्किक प्रहार या कुलदीप कुमार को दिए गए कुंठित जवाब से चंद लम्हों के लिए फैली. (२) पोलिश कवि मिलोश के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम 'खुला घर' है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम 'खुले में आवास' है, और फिर अगला कमज़ोर संग्रह है 'बसाव'. और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के 'रेसीडेन्स आन अर्थ' --- रेसिदेंसिया एन ला तियेरा - के फालआउट्स हैं, तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर.”  इसे एक स्वस्थ आलोचना की तरह लेने या फिर उनकी कविताओं के आधार पर इसका सम्यक प्रतिउत्तर देने की जगह इसे  विचारधारा से इतर कवि को खारिज़ करने की साजिश की तरह प्रसारित किया गया. ज़ाहिर है कि ओम थानवी की आवाजाही और उनके  लोकतंत्र का एकमात्र अर्थ उनके कहे का अप्रश्नेय स्वीकार है.  इसका सबसे बड़ा उदाहरण फेसबुक का ही है जहाँ अज्ञेय पर ज़ारी बहस में असहमति के कारण उन्होंने वीरेन्द्र यादव, हिमांशु पंड्या और प्रियंकर पालीवाल जैसे लोगों को उन्होंने ब्लाक कर दिया तो भाषा सम्बन्धी के विवाद में अपना झूठ पकडे जाने पर (आशुतोष कुमार का प्रतिवाद न छापने के लिए ओम थानवी ने सफाई दी थी कि वह तय शब्द सीमा से अधिक का है, जबकि कम्प्युटर से गिने जाने पर वह तय शब्द सीमा में ही निकला और अंततः एक आधे-अधूरे जवाब के साथ उसी स्पेस में प्रकाशित हुआ) उन्होंने गिरिराज किराडू, अमलेंदु उपाध्याय, आशुतोष कुमार और मुझ सहित अनेक लोगों को ब्लाक कर दिया.

सी आई एक वाले मुद्दे पर बहस आगे चली. लगभग डेढ़ महीने चली यह पूरी बहस जनपक्ष ब्लॉग पर है और हू-ब-हू पुनर्प्रस्तुत करना स्थानाभाव में संभव न होगा. किताबें छापने की सी आई ए की भूमिका पर दिगंबर ओझा ने पद्मा सचदेव द्वारा संकलित इब्ने इंशा के लेखों की किताब ‘दरवाज़ा खुला रखना’ के हवाले से लिखा, ‘"बेऐब ज़ात तो खुदा की है, लेकिन अफसानातराजी कोई हमारे मगरबी मुसन्निफों से सीखे. चीन के मुतल्लिक अकेले अमरीका में इतनी किताबें छप चुकी हैं कि ऊपर-तले रखें तो पहाड़ बन जाए. लेकिन अक्सर उनमें से वासिंगटन और न्यू यार्क में बैठ कर लिखी गयी हैं. वहाँ ऐसे रिसर्च के अदारे हैं, ज्यादातर सी.आई.ऐ. के ख्वाने-नेमत से खोशा चीनी करनेवाले जो आपकी तरफ से वाहिद मुतकल्लिम में चश्मदीद हालात लिखकर देने को तैयार हैं. आप फकत इस पर अपना नाम दे दीजिए. बाज़ पब्लिशिंग हाउस (मसलन प्रायगर) तो चलते ही सी.आई.ए. के पैसे से हैं. मशहूर रिसाला एनकाउण्टर भी इन्हीं इदारों से सांठ-गाँठ रखता है. कीमत इसकी ढाई-तीन रूपए है लेकिन कराची के बुकस्टालों पर एक रुपए में मिल जाता है. मालूम हुआ कि पाकिस्तान में इल्म का नूर फ़ैलाने के लिए इसकी कीमत खास तौर पर रखी गयी है. हम चाहते हैं कि चीजें सस्ती हों लेकिन ऐसा भी नहीं कि कलकलाँ अफीम सस्ती हो जाए तो खाना शुरू कर दें और जहर की कीमत चौथाई रह जाए तो मौका से फायदा उठाकर ख़ुदकुशी कर लें. आठ-आठ दस-दस आने की किताबों का सैलाब भी आया और बराबर आ रहा है. जिनको स्टूडेंट एडिशन का नाम दिया जाता है. प्रोपेगंडे की किताबों में चंद किताबें बेजरर किस्म की भी डाल दी जाती हैं कि देखिये हमारा मकसद तो फकत इसाअते तालीम है.’  आशुतोष कुमार ने ओम थानवी के एक सवाल के जवाब में कहा कि ‘ कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सी आइ ए के ऋणी हैं , अच्छा होता कि पिछली सदियों में , एशिया -अफ्रीका से ले कर - लातीनी अमरीका में -- दुनिया भर में-- लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने , नेताओं और लेखकों को खरीदने , उनकी हत्या कराने , से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां /जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते . सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है . सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है . सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती . उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं , जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूत थी . वो चाहे जहां से मिले , जैसी मिले . वे जो यों तो किसी विचार के 'पश्चिमी' होने मात्र से आशंकित हो जाते हैं , और भारत पर उस का प्रभाव पड़ते देख पीड़ित , लेकिन हर उस पश्चिमी लेखक के मुरीद हो जाते हैं , जो कम्युनिस्ट विरोधी हो . इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं , बल्कि कम्युनिस्ट -विरोध के कारण है . उन्हें अपनी कृतज्ञता जाहिर करने से कौन रोक सकता है , लेकिन उसे '' मानवजाति की कृतज्ञता '' के रूप में स्थापित करने की कोशिश पाखंडपूर्ण तो है ही , हास्यास्पद भी है .” लेकिन इन सवालों का कोई जवाब देने की जगह पूरी बहस को पटरी से उतारने , कम्युनिस्टों को लोकतंत्र के खिलाफ कहने, एजरा पाउंड तथा ज्यां जेने के बहाने लेखन और जीवन को दो लग-अलग खांचों में देखने की वक़ालत की गयी. जब मंगलेश डबराल, गिरिराज किराडू और वीरेन्द्र यादव ने एजरा पाउंड को महान बताने वालों पर सवाल उठाये और खुद एजरा के फासीवाद समर्थन को लेकर अपराधबोध से ग्रस्त होने की बात की तो ज़ाहिर है जवाब इसका भी नहीं था. गिरिराज किराडू का यह सवाल कि ‘एक फासिस्ट को महत्वपूर्ण लेखक कौन और कैसे मानता है,मनवाता है इसे समझे बिना, एजरा पाउंड को एक बड़ा लेखक न मानने की लम्बी अकादमिक और वैचारिक परंपरा को समझे बिना (पाउंड के फासिज्म पर अब तक लगातार अध्ययन हो रहे है और उनके जितना पहले समझा जाता था उससे कहीं ज्यादा संगीन फासिस्ट और रेसिस्ट - एंटी-सेमेटिक, यहूदी-विद्वेषी - होने के प्रमाण सामने आये हैं,उनकी बेटी अभी दो साल पहले यह लड़ाई लड़ रही थी कि पाउंड के नाम से ही एक नवफासीवादी समूह ने अपना नाम रख लिया है) एक नजीर की तरह उनके मामले को उद्धृत करना जानकारी व अध्य्यन की कमी के साथ समझ का भी कुछ पता देता है. ज्यां जने जिनके अपराधों में चोरी, बदलचलनी, हेराफेरी के साथ साथ समलैंगिकता भी शामिल थी को सार्त्र द्वारा कैननाईज (दोनों अर्थों में) करने का मामला पाउंड के मामले से अलग है और दोनों को मिलाना एक गैर-डायलेक्टिकल समझ का ही प्रमाण है . जेल से छुड़ा लिये जाने के बाद जने कभी अपराध की तरफ नहीं गये. डाकू से लेखक बनना स्वीकार्य है अपने यहाँ भी. और पत्रकार से लेखक बनना भी.”  औरमंगलेश डबराल का यह सवाल एजरा पाउंड ने करीब ७० वर्ष पहले मुसोलिनी के रेडिओ से प्रसारण किये थे. क्या हम इतिहास के अँधेरे से कुछ नहीं सीख पाए, जो आज मानवता के शत्रुओं के ऋणीहो रहे हैं ? पाउंड के कुकृत्य के कारण भी परिचित हैं - एक, अर्थशास्त्री डगलस के विचारों का प्रभाव जो सूदखोरी और वित्तीय पूँजी को अपराध की जड़ मानता था. पाउंड बैंक्स के विरोधी थे और मानते थे कि इंग्लैण्ड की डेमोक्रेसी बैंक और सूदखोरी पर प्रभुत्व रखने वाले ज्यूज के हाथ में है. लेकिन क्या हम भूल जाते हैं कि पाउंड के 'anti-antisemitism' का कितना तीखा, उग्र विरोध हुआ, पाउंड खुद पागल होकर जेल, हास्पीटल में वर्षों तक रहे और अंत में भयानक पश्चाताप में गले. उनके कुछ जाने-माने वाक्य हैं --'i was stupid, suburban anti-semaiic,.. i spoiled everything i touched.. i've always blundered..i was not a lunatic, but a moron." इस विलाप को देखते हुए पाउंड के काम को आज के किसी वक्तव्य को उचित ठहराने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? जब पाउंड जैसी प्रतिभा की निंदा हुई तो कमलेश जी की थोड़ी सी आलोचना उनका वध करार दी जायेगी? किस तर्क से? अनुत्तरित ही रहा. इसके बदले में इस पूरी बहस को चरित्र हनन बताने का शोर मचता रहा.    
     
 सवाल यह है कि आखिर वह कौन सी वजूहात हैं कि आज शीत युद्ध के इतने वर्षों बाद कमलेश जैसा व्यक्ति सी आई ए के प्रति समर्थन जताता है और ओम थानवी जैसे अज्ञेय भक्त उसके बचाव में सारी सीमाएं पार करते हैं? शीत युद्ध के दौरान सी आई ए की सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रियता अब सर्वज्ञात तथ्य है. कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के साथ साम्यवाद विरोधी लेखकों की एक टोली अज्ञेय के नेतृत्व में सक्रिय थी ही. उसी के एक सदस्य के हवाले से लिखा शंकर शरण का कुत्सा प्रचार का अनमोल नमूना ओम थानवी जनसत्ता के सम्पादकीय पन्नों पर पेश कर ही चुके हैं. ज़ाहिर है कि अपने उस पुराने आका के प्रति कृतज्ञता का भाव बार-बार सामने आता ही है. बहुत संभव यह भी है कि दुनिया भर में छाये आर्थिक संकटों और योरप सहित अलग-अलग जगहों पर सामने आये जन उभारों के मद्देनज़र सी आई ए को एक बार फिर अपने पुराने झंडाबरदारों की ज़रुरत महसूस हो रही हो. व्यक्तिगत तौर पर देखें तो ओम थानवी अपनी इकलौती साहित्यिक ‘उपलब्धि’ अज्ञेय वंदना को लेकर सी आई ए का नाम आने भर से असुरक्षित महसूस कर रहे हों तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. आखिर बरास्ता  कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम सी आई ए का भूत अज्ञेय वन्दकों को सताता तो होगा ही न?        

   

8 टिप्‍पणियां:

  1. अनुपम, अद़भुद, अतुलनीय, अद्वितीय, निपुण, दक्ष, बढ़िया बहस
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  2. फेसबुक से ...

    Aditya Dubey वैसे जिस प्रकार की व्याख्या ॐ थानवी ( Om Thanvii) ने आज जनसत्ता में की हैं उससे एक बात तो साफ़ हैं की संपादक होते हुए भी उन्हें तथ्यों का ज्ञान नहीं हैं. और उस पर तुर्रा ये की हर बात में स्वयंसिद्ध भी चाहते हैं. सी आई ए के ऋण का भक्तिभाव से तर्पण भी कर...See More
    3 hours ago · Unlike · 4

    Tiwari Keshav Thanwi sahab apni khaber nawisi se us sangthan ko jayaj thahra rahe han. Jis ne samast manusyata k khilaf apradh kiya ha. Logon ko block kerna ye usi tansahi awdharada ka posad ha. Marx wad k liye ye kuchh naya nahi ha. Wo bar bar is se majboot huwa ha. Kas aaj prabhs josi hote. Thanwi sahab aap apni muhim jari rakhiye.ham apni jari rakhenge. Aap k kahne se apradh maf nahi ho jate han.
    2 hours ago via mobile · Edited · Unlike · 3

    Satyanand Nirupam गिरिराज पर पत्रिका की थोक खरीद संबंधी आरोप जिस तरह लगाया गया है, वह अविश्‍वसनीय है.
    3 hours ago · Unlike · 4

    शरद श्रीवास्तव कभी प्रभाष जोशी इस अखबार के संपादक थे। उनके समपादकीय को पढ़ पढ़ कर मैंने अखबार पढ्ना सीखा। अब सोचता हूँ तो बड़ा आश्चर्य होता है एक साथ इतने महापुरुष या साहित्यकार जो एक साथ पढे लिखे एक शहर इंदौर के थे एक दूसरे के अच्छे दोस्त थे शरद जोशी, प्रभाष जोशी और र...See More
    2 hours ago · Unlike · 4

    Aditya Dubey Satyanand Nirupamनिरुपम दादा एक बात और बताएं ...भारत भूषण पुरस्कृत कवि असाहित्यिक हैं और शमशेर सम्मान ( सब जानते हैं क्यूँ और कैसे मिला हैं ) साहित्यिक हो गए हैं... ये अविश्वसनीय नहीं लग रहा हैं क्या ?
    2 hours ago · Edited · Unlike · 5

    Virendra Yadav कहने की जरूरत नहीं कि 'जनसत्ता 'को अब ओम थानवी ने अपना चीथड़ा बना डाला है .आज के अपने लेख में १२ मई को लखनऊ में संपन्न 'शमशेर सम्मान ' का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि ,"..वीरेन्द्र यादव कार्यक्रम में तो नहीं बोले ,पर घर लौटकर फेसबुक पर शमशेर सम्मान के संस्थापक प्रतापराव कदम को उन्होंने इस तरह कोसा -.'.क्या कोई साझा मंच साम्प्रदायिकों औए सी आई ए के समर्थकों का भी बनना चाहिए ?'"..अब 'सत्ता'धीश से कोई कैसे पूछ सकता है कि क्या दो किलोमीटर की दूरी तेरह दिन में तय की जाती है .यानि मेरी टिप्पड़ी को इस तरह उधृत किया जैसे कि मैं कार्यक्रम में तो नहीं बोला लेकिन घर जाते ही प्रतापराव कदम को कोसने लगा .जबकि यह चर्चा कार्यक्रम के १३ दिन बाद २५ मई की उस फेस्स्बूक बहस का हिस्सा है जिसमें मनसे के मंच पर अशोक वाजपेयी के काव्यपाठ को प्रश्नांकित किया जा रह था .प्रताप राव कदम द्वारा साझा मंच पर अपनी बात कहने की दलील के बाबत मैंने जो टिप्पड़ी की जिसकी मात्र आधी पंक्ति को उधृत करने की उदारता 'सत्ता'धीश ने दिखाई वह अपनी सम्पूर्णता में इस प्रकार है-"साझा मंचों पर अक्सर शालीनता की दरकार होती है जैसा की आपके मंच पर लखनऊ में मैंने स्वयं महसूस किया .था. जरा सोचिये कि जब आप अपने मंच पर ओम थानवी का सम्मान कर रहे थे और जब वे मंच से अपने पिता जी का हवाला देकर स्वयं को वाम मित्र बता रहे थे और जब हमारे मित्र रमेश दीक्षित थानवी जी की जनतांत्रिकता की पताका लहरा रहे थे ,तब यदि मैं उसी मंच का सहभागी होने के कारण "अपनी बात " कहते हुए उनकी जनतांत्रिकता की धज्जियां उड़ा देता ,तो क्या होता आपके कार्यक्रम का ? मैं यह कर सकता था क्योंकि वे वहां सोसल मीडिया पर अपनी आलोचना की चर्चा कर रहे थे .और उसके पहले ही अज्ञेय पर बहस के चलते मुझे ब्लाक कर चुके थे .इसलिए यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए की साझा मंचों की अपनी सीमाएं हैं .फिर क्या कोई साझा मंच सम्प्रदयिकों और सी आई ए के समर्थकों से भी बनाना चाहिए ?".....'सत्ता' के जनतंत्र में अर्धसत्य और मिथ्यातथ्यों का क्या गिला ?
    2 hours ago · Unlike · 9

    जवाब देंहटाएं
  3. Satyanand Nirupam बंधु, मुझे जो प्रथमत: अविश्वसनीय लगा, वह मैंने लिखा है. Aditya Dubey
    2 hours ago · Edited · Unlike · 4

    Ashok Kumar Pandey Giriraj Kiradoo की पत्रिका पूरी तरह से आन डिमांड छपती है. वह अभी बाहर है, घंटे भर में जवाब देगा. उस घटिया लेख का जवाब जनसत्ता को १२५० शब्दों में भेजा जाएगा. आप जानते हैं, वह 'डेमोक्रेटिक' हैं, जैसे Ashutosh भाई का छापा , हमारा भी छापेंगे ही
    2 hours ago · Like · 6

    Bhagwandass Morwal पता नहीं पिछले कुछ समय से जनसत्ता का आचार और व्यवहार इतना लिजलिजा हो गया है कि जिस जनसत्ता के बिना अपन का इतवार सूना-सूना सा लगता था अब मानो कोई अंतर नहीं पड़ता है. इसकी दूसरी वज़ह यह भी है कि आप अखबार वाले से जनसत्ता मांगने के लिए कहो , वह आँखें तरेरने ...See More
    2 hours ago · Unlike · 5

    दिनेशराय द्विवेदी बौद्धिक दिवालियापन अब नंगा हो कर सामने आ रहा है। ये वही आदमी है जो बरसों से ब्लाग पोस्टें चुरा चुरा कर छापता रहा और जब पिछले दिनों उस पर उंगली उठाई गई तो अब नीचे दो पंक्तियाँ छाप रहा है कि जिस ब्लागर को अपनी पोस्ट छपवानी हो वह हमें इस मेल पते पर भेजे। ऐसे जैसे पुराने पाप इस से धुल जाएंगे। इस व्यक्ति का कोई दीन और ईमान नहीं।
    2 hours ago · Edited · Unlike · 4

    Aditya Dubey यहाँ पढ़िए: http://epaper.jansatta.com/121399/Jansatta.com/2-June-2013#page/6/1

    Jansatta, 2 June 2013 :readwhere
    www.readwhere.com
    Jansatta is a leading Hindi daily belonging to the Indian Express Group. Establi...
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    2 hours ago · Like · Remove Preview

    Ashok Kumar Pandey पढ़ा - वह इतने सारे झूठ बोल रहे हैं कि हंसी भी नहीं आ रही. खैर जवाब दिया जाएगा..विस्तार्र से '१२५०' शब्दों में.
    2 hours ago · Like · 1

    Ashok Kumar Pandey अज्ञेय का पत्थर उछालकर "पहचान" बनाने वाला "साहित्यकार" हमसे हमारी पहचान पूछ रहा है इस मूर्ख और धूर्त व्यक्ति ने उनका फ़ुटबाल बना दिया है.
    2 hours ago · Edited · Like · 3

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  4. Yadav Shambhu शब्द बलवंत श्री ओम थानवी क्या खुद अपने कहे की जांच पड़ताल करते हैं या जो उन्होंने कहा उचित है या किसी तरह की भड़ास वादी बीमारी के शिकार हो गए हैं . और सनसनी बाज़ हो जाने का तो उन्होंने ठेका ही ले लिया है शायद नहीं तो 'दामनी' मार्मिक दुर्घटना में हुए व्यापक प्रदर्शन में एक राष्ट्रीय अखबार में वामपंथी लेखक संघों पर अनुचित टीका -टिप्पणी न करते , जिस पर उन्होंने मुंह की खाई ..
    about an hour ago · Unlike · 2

    Yadav Shambhu अर्चना जी अपने सुविचारित लेख में कमलेश जी लेखिकीय अवदान तक ही सीमित रहती तो मेरे ख्याल में बायस होने से बच पाती , लेकिन उनका मूल उदेश्य भी वाम को लतियाना ही था . और लतियाया भी वाम के उस दौर को जिसका खुद वाम एक क्रिटिक रच रहा है .. और उससे खुद अपने क...See More
    about an hour ago · Unlike · 2

    Yadav Shambhu सी आईए की पूरी भूमिका मानव जाति के विनाश में भागीदारी की रही है .. और लगभग सारा विश्व जन मानस उनकी खिलाफत करता है ... तो आप लेखक होकर उसके लिए 'ऋणी' होने का शब्द कैसे बोल सकते हैं ... चाहे उससे किसी रणनीति के तहत कुछेक साहित्य सस्ता उपलब्ध हो जाय .. अगर केजीबी भी ऐसा करती रही है तो क्या आज तक किसी लेखक ने कहा है कि मैं केबीजी का ऋणी हूँ ...
    about an hour ago · Unlike · 3

    Yadav Shambhu ऐसे ही कुछ दिन पहले श्री उदय प्रकाश ने अपनी एक पोस्ट में वाम को गरियाया था ...खुद को गाय जाहिर किया ...भूत मे हुई अपनी एक छीजन को भी सही का जामा पहना गए ....
    about an hour ago · Unlike · 4

    Lalit Shukla बड़े लोंगों की बड़ी बातें .....सुनो और सीखो .
    about an hour ago · Like

    Himanshu Pandya एक सवाल है : 'अनंतर' से पहले ओम थानवी जी का क्या कुछ किसी ने पढ़ा है. ज्ञानवर्धन करें.
    about an hour ago · Unlike · 1

    Aditya Dubey Himanshu Pandya सी आई ए को लगा दिया गया हैं इस काम पर ..वैसे भी मानव जाती उनकी ऋणी हैं. जैसे ही कुछ मिलेगा सूचित किया जाएगा.
    47 minutes ago · Unlike · 2

    Yadav Shambhu पर अचानक ऐसा क्यों हो रहा है ? इसके मूल को तो तलाश करना ही होगा ..
    शायद नई आर्थिक नीतियाँ इसकी जड़ में है ....और इसका मुख्य केंद्र अमरीका है और सुना है वहां के फाउंडेशन से बहुत सा पैसा भारत में ' फ्रीडम फार ,,,,,' की अगली कड़ी के रूप में विस्तार पा...See More
    47 minutes ago · Like

    Yadav Shambhu मैं चाहूंगा ओम थानवी ने आज के जनसता वाले लेख में जिन जिन वामपंथियों के नाम शमशेर सम्मान देने के शौर्ये स्वरूप गिनाएं है अपनी स्थिति स्पष्ट करें और जिनको कट्टर लेफ्ट का तमगा लगा कर विभूषित किया जा रहा हैं उनके बारे में उनकी क्या राय है और इन तथाकथिक कट्टर मगजबाज वामपंथियों की ओम थानवी के साथ जो वैचारिक बहस चल रही है उस पर अपनी मत व्यक्त करें ...हिम्मत दिखा दें तो अच्छा है .
    46 minutes ago · Like

    Ashok Kumar Pandey Himanshu भाई : अनंतर के बाद ही क्या पढ़ा है?
    19 minutes ago · Like

    Pankaj Mishra हमे तो रोटी खाने और उसके स्वाद से मतलब होना चाहिए इससे क्या कि वह रोटी किसी गरीब ने अपना पेट काट के आपको परोसी हो या फिर किसी फाइव स्टार दावत में किसी की जूठन का हिस्सा हो .......रोटी रोटी है , रचना रचना है आदमी आदमी है सब की प्रकृति एक जैसी होती है औ...See More
    13 minutes ago · Unlike · 1

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  5. हमने इस पूरी बहस को इस मंच पर पढ़ा और देखा है । आपने इसे व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत किया है , इसके लिए बधाई ।

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  6. 'कला कला के लिये' या 'कला परिवर्तन की प्रेरणा के लिये' अथवा 'साहित्य केवल समाज का दर्पण है' या 'समाज के पुनर्सृजन का वैचारिक वाहक' - इस परम्परागत बहस को इस लेख ने साधिकार आगे बढ़ाया है.
    इसे पढ़ कर मुझे मुक्तिबोध का कथन "पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?" या गोर्की का प्रश्न "साहित्य के महारथियों, आप किसकी ओर हैं?" याद आ रहा है. इस लेख को आप सभी मित्रों को अवश्य ही पढना और सोचना चाहिए कि सी.आई.ए. ने कब-कब, किसको-किसको और क्यों ख़रीदा!

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  7. प्रिय मित्र, आपके इस लेख ने 'कला कला के लिये या कला परिवर्तन की प्रेरणा के लिये' अथवा 'साहित्य समाज का दर्पण मात्र है या समाज-परिवर्तन के प्रयासों के लिये वैचारिक सम्बल' वाली परम्परगत बहस को ज़ोरदार तरीके से आगे बढाया है.
    इसे पढ़ कर मुझे गोर्की का प्रश्न "साहित्य के महारथियो, आप किसकी ओर हैं?" और मुक्तिबोध का सवाल "पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?" सहज ही याद आ रहा है.
    मेरा अनुरोध है कि सारे ही मित्र इसे पढ़ें और अवश्य सोचें कि सी.आई.ए. ने कब-कब, किसे-किसे और क्यों ख़रीदा है! - गिरिजेश

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  8. अशोक जी, जनकी पुल पर अशोक वाजपेयी का मेल देखा आपने?

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…