अपनी वाम विरोधी और अब तो कहा जा सकता है कि दक्षिण समर्थक मुहिम में जनसत्ता नामक अखबार के महत्त्वाकांक्षी, दम्भी और अलोकतांत्रिक सम्पादक ने पत्रकारिता के तमाम मानक बिसरा दिए हैं. वह बिना ठोस सबूतों के घटिया और व्यक्तिगत हमले करते हैं और फिर जवाब छापने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. ऐसा पिछले कुछ महीनों में कई बार हुआ है. शंकर शरण को दिया नन्द किशोर नीलम का जवाब नहीं छापा गया, झूठे आरोपों की धज्जीयाँ उड़ाता गिरिराज किराडू का ज़वाब नहीं छापा गया, मेरा खुद का जवाब मिलने पर उसे 'चार सौ शब्दों' में संक्षिप्त करने की मांग की गयी (जबकि उनका खुद का लेख आधे पन्ने का था) और कुछ अन्य मित्रों के साथ भी यही हुआ. ज़ाहिर है कि उनकी रूचि बहस में नहीं सिर्फ अपने आकाओं की नज़र में कुछ प्वाइंट्स हासिल कर लेने में है जिसका फ़ायदा उस पार्टी के सत्ता में आने पर लिया जा सके जिसके पक्ष में थोड़ा माहौल फेसबुक जैसी साइट्स पर बनता देख सम्पादक महोदय ने अपने धर्मनिरपेक्षता के दावों को ताक पर रख दिया है. कुछ छपास की बीमारी और कुछ दूसरे स्वार्थों से अंधे खुद के वाम होने का दावा करने वाले और अब तक बिला शक़ धर्मनिरपेक्ष रहे लोग भी उनकी इस मुहिम में जाने-अनजाने शामिल ही नहीं हो रहे बल्कि उसे खाद पानी भी उपलब्ध करा रहे हैं.
खैर, जनपक्ष ने लगातार इस मुहिम की मुखालिफ़त की है. पहले के प्रतिवाद आप यहाँ पढ़ सकते हैं. आज इसी क्रम में जनवादी लेखक संघ के महासचिव चंचल चौहान जी का प्रतिवाद.
खैर, जनपक्ष ने लगातार इस मुहिम की मुखालिफ़त की है. पहले के प्रतिवाद आप यहाँ पढ़ सकते हैं. आज इसी क्रम में जनवादी लेखक संघ के महासचिव चंचल चौहान जी का प्रतिवाद.
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प्रेमचंद पर एक और झूठमिश्रित टिप्पणी
प्रेमचंद पर एक और झूठमिश्रित टिप्पणी
चंचल चौहान
जनसत्ता के 25 अगस्त 2013 के दिल्ली संस्करण में एक धुरदक्षिणपंथी सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के भगवे रंग में रंगे लेखक की झूठमिश्रित टिप्पणी के साथ प्रेमचंद के एक बहुत ही यथार्थपरक लेख, "राज्यवाद और साम्राज्यवाद" की पुनर्प्रस्तुति कुछ इस तरह की गयी थी गोया प्रेमचंद उन्हीं की तरह घोर कम्युनिस्ट- विरोधी रचनाकार थे। मैंने जब झूठ का पर्दाफाश करते हुए अपनी टिप्पणी ओम थानवी के पास ईमेल से भेजी तो उन्होंने उसे छापना उचित नहीं समझा, संपादक भी ‘सांच कहौ तो मारन धावै’, इसलिए उस टिप्पणी को मैंने 1 सितंबर को अपने ब्लाग पर डाल दिया। 8 सितंबर को एक और झूठमिश्रित टिप्पणी एक लोहियावादी पत्रकार की लिखी छपी। ये महाशय तो कम्युनिस्टविरोध की मुहिम में उस संघी लेखक से भी दो कदम आगे निकल गये। उन्होंने मुक्तिबोध को भी प्रेमचंद वाली बहस में घसीट लिया और पाठकों को यह बताया कि मुक्तिबोध ने एक पत्र अंग्रेजी में ई एम एस नंबूदिरीपाद को लिखा था जिसका जवाब उन्हें नहीं मिला। इस 'मुदियापे' को क्या कहा जाये। मुक्तिबोध का लिखा यह पत्र कहां है, मिस्टर खोजीपत्रकार? उनकी रचनावाली के खंड 6 में एक पत्र अंग्रेजी में लिखा भारत भूषण अग्रवाल के नाम से छपा है, एक पत्र अमृतपाद डांगे के नाम है जिसमें हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर सटीक टिप्पणी और नयी कविता के रचनाकारों के प्रति कुछ मार्क्सवादी आलोचको के संकीर्णतावादी रवैये की ओर उनका ध्यान दिलाया गया है, और कुछ प्रलेस के बारे में रचनात्मक सुझाव दिये गये हैं, कहीं भी उसमें वह सब नहीं है जिसे इस खोजीपत्रकार ने झूठ का सहारा लेकर दिखाने की कोशिश की है। ये पत्रकार महोदय कहते हैं कि प्रेमचंद अगर कम्युनिस्ट होते तो मुक्तिबोध की तरह अपनी पार्टी से पूछते 'कि कामरेड आपकी पालिटक्स क्या है'। मुक्तिबोध ने यह सवाल पार्टी से नहीं, उन तमाम मध्यवर्गीय अवसरवादी रचनाकारों से पूछा था जो उस दौर में तय नहीं कर पा रहे थे कि "पथ कौन सा है"। आज की ही तरह उस समय भी बहुत से लेखक सर्वनिषेधवादी विचारों की जकड़बंदी में फंसे थे, जो ‘कोउ नृप होउ हमहिं का हानी’ की मंथर बुद्धि के शिकार थे।
इसके बाद इस खोजी पत्रकार के झूठ को देखिए, वे फरमाते हैं : ' कुछ इसी विह्वलता से मुक्तिबोध ने उस समय के उच्चतम कम्युनिस्ट नेता ईएमएस नंबूदरीपाट को एक सुदीर्घ पत्र लिखा था - अंग्रेजी में, ताकि वे समझ सकें।----' क्या समझ सकें, यह बताना वे भूल गये या उन्हें उस पत्र में कहीं मिला नहीं। शरारतन हरकिशन सिंह सुरजीत का नाम भी घसीट लिया है जिसका लेख से कोई ताल्लुक नहीं है। क्या खोजीपत्रकार महोदय ईएमएस नंबूदिरिपाद के नाम लिखे उस पत्र की फोटोकापी हम पाठकों को दिखा सकते हैं, मूल तो वे भला कहां से लायेंगे, या अपने झूठ पर शर्मशार हो कर पाठकों से माफी मांगेंगे कि उन्हें खामख्वाह गुमराह किया। हम जानते हैं कि ऐसी हिम्मत ओछे और बोदे जिगरे में नहीं होती। कायराना हमले करना ऐसे दिमागों की फितरत ही होती है। ईएमएस और सुरजीत, दोनों मार्क्सवादी पार्टी के नेता जरूर थे, उनके प्रति इस तरह का रवैया दिखाने और उन्हें इस बहस में घसीट लेने के पीछे क्या मंशा है? लेख के शुरू में खोजी पत्रकार महोदय ने “कम्युनिस्ट नैतिकता” के बरक्स जो उपदेश पाठक को दिया कि ‘हम व्यक्तियों से घृणा नहीं करते, उनकी विकृतियों से जरूर घृणा करते हैं,’ पैराग्राफ के अंत तक झूठ पर आधारित व्यक्तिगत घृणा पर ही खुद उतर आते हैं। नसीहत दूसरों के लिए, अपने आचरण के लिए नहीं।
लेख के अंत तक इस खोजीपत्रकार ने अपना छिपा एजेंडा जाहिर कर दिया, 25 अगस्त के संघी लेखक के झूठ को ज्यों का त्यों उधार ले कर इन महाशय ने भी लिख दिया कि प्रेमचंद ने “बोल्शेविक उसूलों'” के कायल होने की बात बाद में ‘एक बार भी नहीं दुहरायी, बल्कि कम्युनिस्टों की आलोचना ही की।‘ हे खोजी पत्रकार महोदय, यह ‘कम्युनिस्टों की आलोचना’ आपने प्रेमचंद के लेखन में कहां पढ़ ली, प्रेमचंद के लेखन में से कोई मनगढंत सबूत ही पेश कर देते तो आपके इस झूठ पर पाठक विश्वास कर भी लेते, जैसे ईएमएस के नाम लिखे पत्र का झूठ गढ़ लिया, आप क्या नहीं कर सकते, कवि हुए बगैर भी वहां पहुंच सकते हैं जहां न पहुंचे रवि। धन्य हैं आप, आपको धिक्कार है, सब जान गये हैं आपको झूठ पर आश्रित “महाजनी सभ्यता” से ही प्यार है।
मुंशी प्रेमचंद के समय में भारत के कम्युनिस्ट एक पार्टी के रूप में संगठित हो ही रहे थे, मजदूरवर्ग की उभरती हिरावल राजनीतिक शक्ति बनते ही 1920 से 1925 के दौर में उसने मजदूरों के बीच काम करना शुरू किया कि तभी ब्रिटिश हुकूमत ने मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से पार्टी के नेतृत्वकारी साथियों को जेल में डाल दिया जो 1929 से 1933 तक सजा भुगतते रहे, उसके बाद पूरे देश मे वामपंथ की लहर दौड़ गयी, मजदूरों से ले कर किसान, महिलाएं, युवक, छात्र, कवि, रचनाकार, कलाकार,सभी संगठित होने लगे। सज्जाद जहीर तथा मुल्कराज आनंद ने लेखकों को संगठित करने की जो पहल की, उसका स्वागत प्रेमचंद ने किया, उन्होंने उनके दस्तावेज प्रलेस के गठन से पहले ही हंस में छापे। रेखा अवस्थी की पुस्तक, "प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य" में मुंशी प्रेमचंद के सहयोग के तमाम सबूत मौजूद हैं जिन्हें पढ़ कर कोई भी इस झूठ को पहचान सकता है कि "प्रेमचंद ने कम्युनिस्टों की आलोचना ही की"। सच्चाई यह है कि उस दौर मे कम्युनिस्टों की आलोचना केवल ब्रिटिश सरकार के फरमानों में ही दर्ज है, जो उपलब्ध हैं, किसी भारतीय लेखक की कलम से लिखी हुई नहीं मिलेगी, तो यह आलोचना प्रेमचंद के किस लेखन में इस खोजी पत्रकार को मिल गयी। सन् 1930 से 1936 तक का दौर तो पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारों के प्रसार और वैचारिक सैलाब का दौर था, इसी उभार ने संसार को महानतम उपन्यासकार, कवि, लेखक, आलोचक, कलाकार, नाटककार दिये। मगर जब झूठ ही प्रसारित करना हो, तो इस सब को देखने जानने की जरूरत ही कहां रह जाती है।
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चंचल चौहान
जाने माने आलोचक और जलेस के राष्ट्रीय महासचिव. 'नया पथ' का संपादन
यह लेख उनके ब्लॉग से साभार.
बढ़िया आलेख है. ध्यान देने की बात यह है कि अखबार अपने सुनिश्चित अजेंडे को सुनियोजित तौर पर आगे बधा रहा है. वाम-विरोध किन शक्तियों को लाभ पहुंचाता है, यह बात सब समझते हैं. यह पत्रकारिता के पराभव का काल है.वह निजी हिसाब-किताब के लिए किसी का चरित्र-हनन तक कर सकते हैं, और प्रतिवाद दर्ज़ करने पर उसे "चोर की दाढ़ी में तिनका" भी कह सकते हैं.
जवाब देंहटाएंक्या चाहते हैं ये और इनके दक्षिणपंथी आका ?...यही कि जितने भी साहित्यकार,बुद्धिजीवी आज तक हुए सब कम्युनिस्ट विरोधी थे ,कम्युनिज्म का विरोध इसलिए करना चाहिए ,सबका यह एक नैतिक उत्तरदायित्व है ,कम्युनिस्टों को कुचल दो और कम्युनिस्म को उखाड़ फेंको .......इतना डर समाया है इनके भीतर ...कमाल है |
जवाब देंहटाएंजरूरी, समुचित और हस्तक्षेपमूलक उत्तर।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद को निशाना तब से बनाया जाता रहा जब से उन्होंने अपनी लेखनी से साम्राज्यवादी एवं प्रतिरोधक ताकतों की खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया। इसीलिए हर युग में प्रेमचंद सबके निशाने पर होते हैं....राजकिशोर जैसे लेखक हमेशा से होते रहे हैं जो समाज में मिथ्यावाद फैलाते रहे हैं।
जवाब देंहटाएंदरअसल मुक्तिबोध ने श्रीपाद अमृत डांगे को पत्र लिखा था ई एम् एस नम्बूदरीपाद को नहीं .भारत भूषण अग्रवाल के नाम भी मुक्तिबोध का पत्र मुक्तिबोध रचनावली के खंड ६ में शामिल है .
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