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बुधवार, 25 सितंबर 2013

बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है : सन्दर्भ हंस का सम्पादकीय

यह लेख भोपाल की एक पत्रिका के कहने पर लिखा गया था. छपा या नहीं छपा यह पता नहीं, क्योंकि कोई सूचना नहीं आई. अब इस महीने का हंस का सम्पादकीय पढने के बाद इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.
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हंस और विवादों का रिश्ता नया नहीं है. पत्रिका में लिखे को लेकर तो कभी पत्रिका के बाहर राजेन्द्र जी और उनकी मंडली के कारनामों पर विवाद होते ही रहे हैं. इस बार यह विवाद प्रेमचंद जयंती पर हंस के वार्षिक आयोजन को लेकर है. इस आयोजन में गोविन्दाचार्य, अशोक वाजपेयी, अरुंधती राय और वरवरराव के आने तथा ‘अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता’ विषयक व्याख्यानमाला में उनकी हिस्सेदारी की सूचना थी. लेकिन कार्यक्रम में अरुंधती नहीं आईं और वरवर राव ने दिल्ली आने के बाद भी कार्यक्रम में हिस्सेदारी से इंकार कर दिया. उनके बहिष्कार को लेकर सवाल उठने शुरू हुए तो उन्होंने इंटरनेट पर एक पत्र ज़ारी किया और फिर हिंदी के साहित्यिक विवादों के ‘प्रसंस्करण केंद्र’ जनसत्ता में इसे लेकर उनकी लानत-मलामत करता हुआ एक सम्पादकीय और अपूर्वानंद की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जिसके उत्तर में उन्होंने एक और पत्र ज़ारी किया. संभव है आगे और वाद-प्रतिवाद आयें. फेसबुक और सोशल मीडिया पर अशोक वाजपेयी कैम्प के तमाम स्वनामधन्य साहित्यकार और जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी तो लगातार तलवारें भांज ही रहे हैं.

देखना होगा कि वरवरराव या अरुंधति के हंस के इस सालाना उत्सव में न आने के क्या मानी हो सकते हैं? यहाँ यह याद दिला देना भी बेहतर होगा कि इसके पहले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस प्रमुख विश्वरंजन और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय की उपस्थिति के कारण अरुंधती ने पहले भी हंस के ही एक आयोजन का बहिष्कार किया था. उसकी वजूहात क्या थीं? ज़ाहिर है कि छत्तीसगढ़ में जिस तरह सलवा जुडूम के नाम पर राज्य दमन ज़ारी था (जो अब भी एक भिन्न रूप में रुका तो नहीं ही है) उसकी अगुवाई कर रहे व्यक्ति के साथ मंच शेयर करना आदिवासियों के दमन के खिलाफ लगातार लिख रही अरुंधती ने उचित नहीं समझा था. मुझे नहीं याद कि उसे लेकर तब किसी तरह का कोई विवाद मचा था. आज लोकतंत्र और आवाजाही के सिद्धांत पेश कर रहे लोग तब शायद इसलिए भी चुप थे कि अशोक वाजपेयी खुद विश्वरंजन और विभूति नारायण राय के बहिष्कार (छिनाल प्रकरण के बाद) में शामिल थे. मजेदार बात यह है कि तब वर्धा विश्विद्यालय और छतीसगढ़ के प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान (जिसके सर्वे सर्वा विश्वरंजन थे) के  बहिष्कार को सही बताने वाले और उसमें शामिल होने वाले लोग आज बहिष्कार की पूरी अवधारणा पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं और इसे ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ के ख़िलाफ़ बता रहे हैं. ओम थानवी सवाल उठाते हैं कि ‘अगर ‘लोकतंत्र में सभी मंच एकतान हो गए तो जिस वैचारिक और सांस्कृतिक बहुलता को हम अपने लोकतंत्र का असली आधार मानते हैं, वह समाप्त हो जायेगी’ तो अपूर्वानंद कहते हैं ‘भारत में, जो अब भी एक-दूसरे से बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व वाला देश है , किसी विचार को चाह कर भी सार्वजनिक दायरे से अपवर्जित करना संभव नहीं है.’ सवाल वही है कि यह लोकतंत्र ‘वर्धा’ या ‘प्रमोद स्मृति संस्थान’ में लागू क्यों नहीं होता है? क्यों यह थानवी साहब के अखबार में अपने विरोधियों के प्रतिवाद को स्थान देने के क्रम में लागू नहीं होता? (सी आई ए को लेकर लम्बे चले विवाद में थानवी ने वीरेन्द्र यादव, मेरे या गिरिराज किराडू के प्रतिवाद छापने से शब्द सीमा निर्धारण के नाम पर इंकार कर दिया था) 

सवाल यहाँ यह भी है कि वाकई हंस कोई ऐसा आयोजन कर रहा था जिसमें किसी बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश थी? ज़ाहिर है कि यह कोई पैनल डिस्कशन या परिचर्चा नहीं, व्याख्यानमाला थी. इस व्याख्यानमाला में सबको अपने-अपने भाषण देने थे और किसी तरह की बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. ऐसे में यह तर्क कि वहां वैचारिक विरोधियों से बहस की जानी चाहिए थी, बिना नींव का है. साम्प्रदायिकता के धुर विरोधी अशोक वाजपेयी ने वहाँ कट्टर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य से क्या बहस की? फिर यह हंस का आयोजन था जिसे आमतौर पर एक वामपंथी मैगजीन की तरह जाना जाता रहा है. उसके उत्सव में एक धुर वामपंथ विरोधी बुर्जुआ और एक कट्टर साम्प्रदायिक को मंच पर क्यों होना चाहिए था? और अगर उत्सव में वे शामिल थे तो फिर वहां एक घोषित नक्सलवादी वामपंथी वरवरराव और आदिवासी अधिकारों की प्रवक्ता तथा कार्पोरेट विरोधी अरुंधती राय को क्यों होना चाहिए था? संसद में सबके साथ बैठने का उदाहरण देने वाले बताएँगे कि कौन सी पार्टी अपने घरेलू समारोहों में विपरीत विचारधारा के लोगों को बुलाती है? कब ऐसा होता है कि कांग्रेस के किसी समारोह में मुख्य वक्ता भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी का होता है? समारोह के मंच के भागीदार आपके वैचारिक हमसफ़रों की घोषणा होते हैं. ज़ाहिर है हंस अपने मंच पर इन लोगों को बुलाकर कुछ और साबित करना चाहता था तो फिर किसी वरवर राव को उससे खुद को अलग करने का हक क्यों न हो? क्या भारत और विश्व के साहित्यिक परिदृश्य में बहिष्कार पहले नहीं हुए हैं? क्या सार्त्र ने नोबेल का बहिष्कार नहीं किया था? क्या एक समय में अज्ञेय ने भारत भवन का बहिष्कार नहीं किया था? क्या अरुंधती ने साहित्य अकादमी नहीं ठुकराया? क्या फोर्ड फाउंडेशन जैसे स्रोतों का लम्बे समय तक (और अब भी) तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों और कलाकारों ने बहिष्कार नहीं किया? क्या अमेरिका ने चार्ली चैपलिन जैसे कलाकार को देशनिकाला नहीं दिया? क्या ब्रेख्त को अमेरिकी साम्राज्यवाद और हिटलर के फासीवाद के विरोह की क़ीमतें तमाम देशों से दर-ब-दर होकर नहीं चुकानी पड़ीं? और क्या आज लोकतंत्र की दुहाई दे रहे वाजपेयी कैम्प ने अपने किसी आयोजन में वरवर राव या ग़दर जैसे कलाकारों को बुलाया? क्या यह एक तरह का अघोषित बहिष्कार नहीं था/ है? फिर वरवर राव अगर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य और वाम विरोधी अशोक वाजपेयी के साथ एक समारोह में मंच शेयर नहीं करना चाहते तो इतनी चिल्ल-पों क्यों? बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है और एक लेखक को इसके प्रयोग का पूरा अधिकार है. 

वरवर राव अशोक वाजपेयी को कारपोरेट कल्चर का समर्थक कहते हैं और इस रूप में अपना वैचारिक विरोधी कहते हैं. इसे लेकर बहुत शोरगुल मचाया गया और अशोक वाजपेयी के सेकुलर होने का उदाहरण पेश किया गया. सवाल यह है कि कौन उनके सेकुलर होने पर सवाल खड़ा कर रहा है? लेकिन बुर्जुआ वर्ग सेकुलर होता ही है, इससे उसका कारपोरेट विरोधी हो जाना तो सिद्ध नहीं होता? आखिर कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी सभी पार्टियां ही नहीं हमारी फिल्म इंडस्ट्री के तमाम कलाकार और कारपोरेट भी धर्मनिरपेक्षता का दावा करते हैं और उनमें से काफी हैं भी. एक दौर में राजनीति में कारपोरेट कल्चर के सबसे बड़े प्रतिनिधि के रूप में उभरे अमर सिंह तो उस नरेंद्र मोदी के बेहद कटु आलोचक रहे जिसके खिलाफ लेखकों को इकट्ठा करने के वाजपेयी जी के प्रयास को रेखांकित कर उनके आलोचकों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. साफ है कि साम्प्रदायिकता का विरोध और कारपोरेट का विरोध दो अलग-अलग चीजें हैं. अशोक वाजपेयी का पूरा लेखन और जीवन सबके सामने है और अगर उसमें कारपोरेट कल्चर या पूंजीवाद का विरोध नहीं है तो वरवर राव को उसे रेखांकित करने और उसके आधार पर उन्हें अपना वैचारिक शत्रु घोषित करने का हक है. लगातार शासन और निजी तंत्र के गठजोड़ के हाथों उत्पीडन और दमन झेल रहे लोगों के साथ सक्रिय वरवर राव का नज़रिया आई आई सी और हैबिटाट में बैठकर साहित्यिक षड्यंत्र रचने और पद-पुरस्कार-फेलोशिप-यात्रा की जुगाड़ में लगे लोगों से अलग तो होना ही है.
इस देश के लोकतंत्र और फिर उसमें  ‘बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व’ की बात करने वाले लोग वरवर राव की विचारधारा के साथ सत्ता और उसके प्रतिनिधि साहित्यकारों के सुलूक को किस आसानी से भुला देते हैं. क्या सच में तनावपूर्ण ही सही, उस विचारधारा को किसी तरह का सह अस्तित्व मयस्सर होता है इस लोकतंत्र में? क्या उनके प्रति किसी तरह की कोई सहानूभूति या समानुभूति सत्ता और उसके प्रतिनिधि लेखकों-संपादकों के यहाँ दिखती है? अगर नहीं तो उनसे यह उम्मीद क्यों? और क्या यह सच नहीं है कि क्रांतिकारी वामपंथ के अलावा इस ‘बहुलता वादी’ देश के सभी वैचारिक समूह कारपोरेट लूट के मसले पर नव आर्थिक उदारवाद की विचारधारा के साथ ‘एकतान’ हो चुके हैं और यह सेकुलर और साम्प्रदायिक दोनों विचारों की प्रतिनिधि राजनीतिक संरचनाओं की सामान आर्थिक नीतियों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है.

दरअसल लोकतंत्र की यह दुहाई अक्सर अपने दमनकारी विचारों और अवसरवाद को लोक मानस में स्वीकार्यता दिलाने के लिए दी जाती है. इसका एक उदाहरण हंस से ही. जब हंस ने उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक कहानी हंस में छापी तब ऐसे ही एक सालाना आयोजन में एक युवा पाठक के सवाल उठाने पर राजेन्द्र जी लोकतंत्र की ही दुहाई देते हुए कहानी के छपने का औचित्य साबित किया. खैर..मुख्यमंत्री महोदय ने मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी शायद जिसे अपने भरपूर लोकतंत्र के बावजूद राजेन्द्र जी हंस में छाप पाते!   


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