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बुधवार, 27 नवंबर 2013

जहाँ नहीं पहुंचती विकास की कोई किरण - रामजी तिवारी

                                


विज्ञान और प्रकृति के नियम विविधताओं को जीवन की आवश्यक दशाओं के रूप में स्थापित करते हैं | उनके अनुसार यह संभव ही नहीं है कि इस धरा पर केवल और केवल मनुष्य ही रहे , और तब भी यह अपनी धुरी पर घूमती रहे , चलती रहे | मतलब प्रकृति का विविध होना , न सिर्फ आवश्यक है , वरन वांछनीय भी है | जाहिर तौर पर , यह हमारी खुशकिस्मती है कि इस देश को प्रकृति ने विविधताओं के साथ करीने से सजाया है , और उसकी यह नेमत अपने सारे आयामों , सारे रूपों में दिखाई देती है | आप चाहें तो यह कहने के लिए मेरा ‘अति-राष्ट्रवादी’ कहकर मजाक भी उड़ा सकते हैं , तो भी मैं अपनी बात कहने से पीछे नहीं हटूंगा | क्योंकि जिस समय जैसलमेर और बाड़मेर में रेत के टीलों की कटीली झाड़ियाँ अपनी नुकीली पत्तियों में पानी की आखिरी बूँद को बचाने का संघर्ष कर रही होती हैं , उस समय ‘चेरापूंजी’ और ‘मासिनराम’ की धरती पर बादलों द्वारा निसदिन प्रेम-गीत लिखा जाता है | जब मध्य-भारत की जमीन ‘विषुवत-रेखीय’ तापमान को छूने की तरफ बढ़ रही होती है , तब हिमालय की वादियों का तापमान ‘साइबेरियाई’ गहराईयों में डूबने के लिए बेकरार रहता है | जब चेन्नई की उमस आपकी ‘एड़ियों’ को ‘सर’ के पसीने से नहला रही होती हैं , उस समय दिल्ली की होठों पर परी ‘फेफरी’ को सुखाने के लिए जीभ पर पानी तलाशना पड़ता है | 

धर्म , भाषा , रंग-रूप , खान-पान , त्यौहार , रहन-सहन और पहनावे जैसी अन्य कई विविधताओं को याद दिलाते हुए मैं आपको आश्वस्त कर देना चाहता हूँ , कि यह अपने देश की हकीकत है , और इन तथ्यों को आप मेरे ‘अति-भावुक राष्ट्रवाद’ के रूप में परिभाषित करने से पहले , आगे बढ़कर समग्रता में देखे , समझें और तब निर्णय करें | लेकिन विविधताओं पर इतराने की कहानी प्रकृति की इन नेमतों तक ही सीमित है और जहाँ से उसमें मानवीय हस्तक्षेप आरम्भ होता है , वहीँ से शर्मिंदगी की दास्ताने भी आरम्भ हो जाती हैं | अब जरा इस तथ्य पर विचार कीजिए कि यह देश एक साथ ‘मैनहट्टन’ और ‘इथियोपिया’ क्यों है ? ऐसा कैसे हो सकता है , कि जिस मुंबई में लाखो-लाख लोग ‘स्लम’ के नरक में दिन रात घिसटने के लिए मजबूर रहते हैं , उसी मुंबई में चार आदमियों वाले परिवार के घर में २७ मंजिले , चार स्वीमिंग पूल और हेलीपैड तक की सुविधाएं हैं ? कि , जिस प्रदेश में ढाई लाख किसानों ने कर्ज में डूबने के कारण अपने जीवन को कपास के महीन और मुलायम धागों पर टांग दिया हो , उसी प्रदेश में हजार करोड़ की सम्पति वाले लोगों की संख्या हजारों और लाखों में है ? कि,  एक ही शहर में ‘मरीन-ड्राइव’ और ‘धारावी’ कैसे हो सकते हैं ?

तो क्या इन्हें भी विविधताएँ मानकर इतराया जाए कि हमारे देश में कुछ लोगों के सपने में ही केवल बिजली कटती है , और कुछ लोगों के सपने में ही केवल वह आती है ? इन जैसे सवालों की फेहरिश्त इतनी लम्बी है कि ऐसे कई लेख उनकी कहानी कहते-कहते थक जायेंगे , और वे फिर भी अपने अंत तक नहीं पहुँच पाएंगे | इसलिए विश्वास मानिए ,कि हमारा इरादा यह कत्तई नहीं है , कि इन सारी कहानियों को सुनाकर हम आपको ‘अवसाद’ से भर दें , वरन हम तो सिर्फ इशारा भर करना चाहते हैं कि इस देश के ‘अव्वल संस्थानों’ से निकले ‘अव्वल दिमागों’ के द्वारा कल को यह न प्रचारित किया जाने लगे , कि जिस तरह से प्रकृति ने हमें विविधताओं से नवाजा है , उसी तरह हमारे मानवीय नियंताओं ने भी इस देश में बड़ी मेहनत से इतनी विविधताएँ पैदा की हैं , और इसके लिए हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए | आप इसे बिलकुल ही अतिशयोक्ति के रूप में मत लीजिये कि ‘ नहीं नहीं ....ऐसा कैसे हो सकता है ”  ? अजी साहब .... जब देश के प्राकृतिक संशाधनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौपने के लिए अपने ही देश के नागरिकों के विरूद्ध अपनी ही सेना को लगाया जा सकता है , और उसे विकास की आवश्यक शर्त के रूप में परिभाषित भी किया जा सकता है , तो ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है ? इसलिए हमारा फर्ज है कि उन ‘अव्वल दिमागों’ द्वारा ‘विषमताओं’ को ‘विविधताओं’ के रूप में परिभाषित करने से पहले ही हम उन्हें समझ लें और इस देश को सबके जीने लायक बनाने का अपना सघर्ष जारी रखें |

मैं आज आपको अपने देश के एक ऐसे ही हिस्से में ले जाना चाहता हूँ , जो भौगोलिक दृष्टि से बिलकुल ही सामान्य सा इलाका है , और जिसकी कुल आबादी लगभग तीस-चालीस हजार है | इसे मैं इसलिए चुन रहा हूँ कि ‘आज़ादी के साठ साल बाद’ वाले जुमले से इतर जाते हुए अपने देश के एक निहायत ही सामान्य हिस्से की पड़ताल की जाए , कि हम इसके आईने में उस लोकतंत्र की पायदान पर आज कहाँ खड़े हैं , जिसमें सबके लिए कम से कम जीवन की मूलभूत दशाएं मौजूद हों | यह इलाका लद्दाख , लाहौल-स्फीति , माणा और अरुणांचल प्रदेश जैसे दुर्गम वादियों में बसा हुआ नहीं है , और न ही यहाँ पर बस्तर और अबूझमाड़ के दुर्गम जंगल हैं | यह लक्ष्यद्वीप और अंडमान जैसे भारत की मुख्य भूमि से कटा हुआ भी नहीं है , और न ही इस पर कश्मीर , मणिपुर , नागालैंड , असम या ‘लाल गलियारे’ जैसा ही कोई देश पर आया ‘आसन्न खतरा’ मौजूद है | यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जब भी देश की तरक्की को नापने के लिए किसी ऐसे पिछड़े और दुर्गम इलाके को चुना जाता है , तो सरकार यह कहकर उस पूरे सवाल को खारिज करने लगती है , कि यहाँ तक विकास को पहुँचाने के लिए हम पूरी तरफ कटिबद्ध हैं , और उसके लिए हम बहुत सारी लड़ाईयां भी लड़ रहे हैं | यहाँ तक कि अपने देश के हजारों जवानो की आहुति भी दे रहे हैं | मसलन सरकार के अनुसार आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पा रहा है , क्योंकि उन इलाकों में सक्रिय माओवादी यह जानते हैं , कि यदि इन इलाकों में विकास की धारा पहुँच जायेगी , तो उनका वर्चस्व समाप्त हो जाएगा , और इसलिए वे इसे होने देना नहीं चाहते | ऐसे में इस पूरी व्यवस्था की नीतियों और उनकी दिशा पर खड़ा किया गया सवाल हवा में उड़ जाता है , और लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन मानव कहलाने की परिभाषा के दायरे से बाहर ही रह जाता है |

हकीकत तो यह है कि इस देश में जो भी विकास हुआ है , वह निहायत ही एकांगी और कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए हुआ है | दावों और प्रतिदावों तथा आंकड़ों और उनकी बाजीगिरियों में नहीं उलझते हुए , हम तो सिर्फ यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि किताबों के पन्नों पर ‘अंतिम आदमी के दरवाजे तक पहुँचने’ का दावा करने वाले हमारे जनतंत्र के कदम अभी कहाँ पर ठिठके हुए हैं | इसीलिए हम एक ऐसे इलाके को चुन रहे हैं , जो न सिर्फ विशुद्ध मैदानी इलाका है वरन हमारे देश के केंद्र में स्थित भी है | उत्तर-प्रदेश और बिहार की दक्षिण-पूर्वी सीमा पर स्थित इस इलाके की दास्तान इस कदर कारुणिक है कि वह शहराती और महानगरीय लोगों को चकित भी कर सकती है | खासकर उन लोगों के लिए , जो ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘देश निर्माण’ जैसे नारों को गाने में मशगूल हैं |

आईये उस दास्तान से रूबरू होते हैं , जो पूर्वी उत्तर-प्रदेश के एक जिले बलिया के कुछ गाँवों की है , और जिसकी सीमा तीन तरफ से बिहार प्रांत से मिलती है | दक्षिण में बक्सर , दक्षिण-पूर्व में आरा , पूरब में छपरा और उत्तर में सिवान | हम आपको इसके दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी हिस्से की ओर ले जाना चाहते हैं , और भूगोल के साथ इतिहास को ध्यान में रखते हुए इसे बांचते हैं | आजादी से पहले जब उत्तर-प्रदेश और बिहार की सीमा का बंटवारा किया जा रहा था , तब इस ईलाके में गंगा की धारा को इन दोनों राज्यों की सीमा रेखा के रूप में तय कर दिया गया था | यह विभाजन लगभग सही भी था , और गंगा के बीचोबीच की धारा लम्बे समय तक उत्तर-प्रदेश और बिहार को अलगाती रही | समस्या तब शुरू हुयी , जब गंगा ने अपना रूख बदलना आरम्भ कर दिया | और यह बदलाव कुछ मीटर का नहीं होकर किलोमीटर में फैलता चला गया | जब गंगा ने ऊत्तर दिशा में बढ़ना आरम्भ किया , तो बलिया जिले में गंगा के उत्तरी किनारे पर बसे हुए सैकड़ों गावों की आबादी इसके चपेट में आ गयी | घर-द्वार , खेत-खलिहान सब गंगा में समाने लगे | लाखों की आबादी विस्थापित होने पर मजबूर हुयी | अधिकतर लोगों ने उत्तर दिशा का रूख किया , क्योंकि राज्य विभाजन के सिद्धांतों के अनुसार गंगा के दक्षिण में बिहार की सीमा पड़ रही थी | अब भले ही गंगा ने अपने उत्तरी हिस्से को काटते हुए दसियों किलोमीटर तक उस सीमा रेखा को बलिया जिले में घुसा दिया था | और गंगा की यह आवाजाही सिर्फ उत्तर दिशा में ही नहीं हुयी , वरन उसने बिहार की सीमा में कई जगहों पर अपना रूख दक्षिण की तरफ भी मोड़ा था |

सामान्यतया यह हुआ , कि उत्तर दिशा में कटान के कारण बलिया के लोग और उत्तर की तरफ भागे , और जब गंगा ने अपने कटान का रूख दक्षिण की तरफ किया , तब बिहार के लोगों ने भी दक्षिण दिशा की तरफ ही भागने का विकल्प चुना | मतलब इस आपाधापी में भी लोगों ने सरकार द्वारा खींची गयी राज्य की सीमाओं को याद रखा | भले ही उनकी सारी जमीने    गंगा के इस या उस पार चली गयी हों , उन्होंने अपने बसने का आधार गंगा की धारा को देखकर ही चुना | यूं तो तमाम सही नियमों के भी अपवाद हो जाया करते हैं , इसलिए यहाँ के कृत्रिम विभाजन द्वारा पैदा की गयी इस काल्पनिक रेखा को लांघने के अपवाद भी सामने आये | मसलन बलिया के कुछ गाँवों – जिनमें जवहीं दियर और शिवपुर दियर जैसे बड़े गाँव भी शामिल हैं – ने उत्तर की तरफ कुछ सालों तक भागने के बाद यह पाया कि उनकी सारी जमीनें तो गंगा के दक्षिण में चली गयी हैं , और गंगा ने उत्तर की तरफ बढ़ते हुए इसी धारा को अब अपना स्थायी बहाव तय कर लिया है , तो उन्होंने अपनी पुरानी जमीन की ओर लौटने का फैसला किया | कहें तो एक तरह से उनके लिए यह विकल्पहीनता की स्थिति भी थी | पूरी आर्थिक व्यवस्था कृषि पर आधारित थी , और गंगा ने कुछ सालों तक उन जमीनों पर रेत छोड़ने के बाद अब कृषियोग्य नयी मिट्टी दाल दिया था | एक तरफ उनके सामने वर्तमान का खानाबदोश जीवन था , और दूसरी तरफ अपनी हजारों एकड़ की जमीन का आकर्षण | बस दूसरे विकल्प को चुनने में राज्य की सीमा का पेंच फंस रहा था | उन्होंने उसे चुनौती देने का फैसला किया और धीरे-धीरे लगभग पूरा गाँव अपनी पुरानी स्थिति की ओर लौटने लगा | यह प्रक्रिया दशकों में पूरी हुयी | लेकिन अकेले नहीं | इसके साथ भविष्य के संघर्ष की पटकथा भी लिख दी गयी |

गंगा जब बलिया के गाँवों को ढाहते हुए उत्तर की तरफ बढ़ रही थी , उसी समय सीमावर्ती बिहार के लोग गंगा के साथ – साथ अपनी सीमा रेखा को उत्तर की तरफ खिसकाते चले जा रहे थे | चुकि यह प्रक्रिया दशकों में चली और पूरी हुयी , इसलिए उनका कब्जा भी दशकों पुराना हो गया था | जवहीं दियर और शिवपुर दियर जैसे बड़े गाँव तो गंगा के दक्षिण में जाकर बस गए , लेकिन उनकी कृषियोग्य भूमि विवादों में फंस गयी | खूनी संघर्षों का एक लंबा सिलसिला आरम्भ हो गया , और जो आज भी किसी न किसी रूप में चलता आ रहा है | बाद में जब देश आजाद हुआ , तब इस सीमा रेखा को निर्धारित करने के लिए ‘त्रिवेदी आयोग’ का गठन किया गया | आयोग की देख-रेख में सीमा पर पत्थर गाड़े गए , लेकिन जैसा कि ऐसे आयोगों में सामान्यतया होता है , कि वे दिल्ली में बैठकर लद्दाख की सीमा तय करने लगते हैं , वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ | बहरहाल वह सीमांकन हुआ | और उस होने के मुताबिक राज्य बदलने पर भी काश्तकारी के मालिकाना हक़ में किसी भी तरह के परिवर्तन नहीं होने की बात की गयी थी | अर्थात जिसकी जमीन थी , वही उसका मालिक माना गया , भले ही उसकी सीमा दूसरे प्रदेश में चली गयी हो | बाद में ‘नायर आयोग’ ने भी कुछ-कुछ वैसा ही फैसला दिया , लेकिन जमीन पर वह विवाद सुलझ नहीं पाया | आजादी के बाद शायद ही ऐसा कोई साल गुजरा होगा , जब इस विवाद के कारण , इस क्षेत्र की जमीन इंसानी लहू से लाल नहीं हुयी होगी |

यह वह जड़ थी , जिस पर इस समस्या का विकराल पेड़ पैदा हुआ | कालांतर में जब रक्तपात अधिक तीव्र होता चला गया , और कृषि पर निर्भरता भी कम होती चली गयी , तब इन गाँवों से पलायन भी तेजी से होने लगा | वैसे तो पहले ही यहाँ के लोग गंगा द्वारा ढाहने के बाद अपने गाँव का मोह छोड़कर अन्यत्र पलायित हो चुके थे , लेकिन बाद में यह पलायन अत्यंत तीखा हो गया | जिसके पास भी यहाँ से भागने की लेश मात्र भी गुंजाईश थी , उसने अपनी ‘चौखट’ उखाड़ ली | और यह संख्या सैकड़ों में नहीं , वरन कई हजारों की थी | लेकिन जो लोग फिर भी वहां पर जमें रहे , उनकी संख्या भी , दो बड़े और दर्जनों छोटे – मोटे गाँवों को मिलाकर तीस-चालीस हजार के आसपास बैठती है |  

प्रशासन के लिए खीची गयी लकीरों ने इन हजारों लोगों के जीवन में एक गहरा और कभी नहीं ख़त्म होने वाला अँधेरा बो दिया है , और वह सीमा-रेखा इनकी गर्दन पर जकड़ गयी है | त्रासदी यह हुयी है , कि उत्तर-प्रदेश में इन्हें बिहार का समझा जाता है , और बिहार इन्हें उत्तर-प्रदेश के अवांछित नामाकुलों के रूप में देखता है | उत्तर में बहने वाली गंगा नदी इस समूचे क्षेत्र को बलिया से काटकर अलगा देती है , और दक्षिण में बिहार की सीमा रेखा इन गावों के साथ इस तरह से बर्ताव करती रही है , कि जीवन को संभव बनाने वाली सारी सुविधाएं इन सीमाओं तक पहुँचते-पहुँचते सूख जाएँ | स्थिति यह हुयी है , कि ये हजारों लोग आधुनिक युग के ऐसे ‘टोबा टेक सिंह’ बन गए है , जो इन दोनों राज्यों के बीच ‘नो मैन्स लैंड’ में फंसे हुए हैं | बिहार में पड़ने वाले सभी सीमावर्ती गाँवों वे सारी सुविधाएँ पहुँच गयी हैं , जिन्हें उस प्रदेश के अन्य गाँवों में देखा जा सकता है | चाहें पश्चिम में पड़ने वाले गाँव केशोपुर , राजपुर , नियाजिपुर , सेमरी , एकौना, सिंघनपुरा , खरहाटार , गंगौली , परंपुर और चक्की हो , या फिर दक्षिण में पड़ने वाले ब्रह्मपुर , निमेज , देवकली , गायघाट , भरौली , योगिया , कुंडेसर और रानीसागर हों , या फिर पूरब में पड़ने वाले वाले बिहार के गाँव माहुर , नैनीजोर , ईश्वरपुरा , करमानपुर , सोनबरसा , बंशीपुर और निमिया हों | सड़कों से लेकर बिजली तक , या फिर शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्द्धता तक | सबके कदम इन गाँवों तक पहुँचते तो हैं , लेकिन वे उत्तर-प्रदेश में पड़ने वाले इन पड़ोसी गाँवों तक आते-आते लडखडा जाते हैं | गंगा नदी के दक्षिण में बसे होने के कारण , बिहार राज्य के मन में बलिया के इन गाँवों के प्रति जिस तरह की कटुता पायी जाती है , उसे यहां की सड़कों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है | ये सड़कें इस तरह से बनायी जातीं हैं , कि वे अपने ईलाके को तो जोड़ें , लेकिन बलिया के इन गाँवों का संपर्क कटा रहे |

लेकिन इसके लिए हम बिहार को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते | जाहिर है , यह उत्तर-प्रदेश और बलिया जिले की जिम्मेदारी है , कि वह इन गाँवों को देश की मुख्यधारा के साथ जोड़े | सबसे पहली बात संपर्क मार्ग की आती है | बलिया शहर मुख्यालय से मात्र बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर बसे इन गावों को आज भी इस बात का इन्तजार है , कि वे सड़क मार्ग से बलिया से जुड़ें | लगभग तीस-चालीस हजार की आबादी वाले इस क्षेत्र का विस्तार बीस-पच्चीस किलोमीटर में है , और यहाँ के लोग साल के छः-सात महीने – जून से लेकर दिसंबर तक - देश दुनिया से कटे रहते हैं | पीपा का एक अस्थाई पुल प्रतिवर्ष गंगा नदी पर बनता है , जिसके बनने का तय समय अक्टूबर में निर्धारित है , लेकिन वह खींचते-खींचते जनवरी में चला जाता है , और हटने का तय समय मध्य जून से पहले अप्रैल या मई में आने वाली किसी भी बड़ी आंधी द्वारा तय कर दिया जाता है | मतलब कागज में छः महीने का काम जमीन पर चार से पांच महीने ही चल पाता है | और वह भी तमाम दुश्वारियों  , बाधाओं के बीच से होते हुए | मसलन जनवरी से मई के बीच भी , जब यह पीपे का अस्थाई पुल बना होता है , तो भी बाकि रास्ता तो कच्चा ही होता है , जो दियारे के बीचो-बीच से होकर निकलता है , और हर साल गंगा की छाड़न और उसके द्वारा डाली गयी मिट्टी के आधार पर तय होता है | यह रास्ता  बलुई , काली और पीली मिट्टी से होकर गुजरता है , और त्रासदी देखिये कि एक तरफ अप्रैल और मई की तपन इसको जैसलमेर बना देती है , और खुदा-न-खाश्ता जब कभी इन चार-पांच महीनों में बारिश हो जाती है , और आप उस रास्ते में फंस जाते हैं , तो साइकिलों मोटरसाइकिलों तक को रास्ते के सूखने तक उसी स्थान पर छोड़ना पड़ता है |  

बारिश का मौसम इस इलाके के लिए जानलेवा मौसम होता है | कृषि और पशुपालन के मुख्य आधारों पर टिकी इनकी अर्थव्यवस्थाएं यहाँ के लोगों को प्रतिदिन बलिया शहर में ला पटकती हैं , और जो किसी भी तरह से चार अंको वाली संख्या से कम नहीं होती है | इनमे कुछ तो काम की तलाश में आने वाले दैनिक मजदूर होते हैं , और बाकि अधिकांश दूधिये , जिनके लिए प्रतिदिन दूध लेकर शहर पहुँचना अनिवार्य होता है , चाहे उस रास्ते पर चलने की चुनौती युद्ध लड़ने जितनी ही भयावह क्यों न हो |

संपर्क मार्ग से नहीं जुड़े होने के कारण यहाँ पर समस्यायों का अम्बार लगा हुआ है | मसलन क़ानून व्यवस्था , शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ | सबसे पहले कानून व्यवस्था की बात करते हैं , जो पूरी तौर से प्रकृति के सिद्धांतों पर आधारित है | इस विषय को लेकर सारा दियारा अपने पैरों पर खड़ा है | और यह आत्मनिर्भरता उस समूचे दियारे को एक अराजक क्षेत्र में तब्दील कर देती है | गंगा के उत्तर में पड़ने वाले हल्दी और दुबहड़ थानों के ऊपर इस क्षेत्र को सँभालने की जिम्मेदारी दी गयी है | और आपको जानकर यह आश्चर्य होगा , कि खून-खराबे की स्थिति में पहुँचने वाले झगड़े भी इन थानों तक नहीं पहुँच पाते हैं | ‘क्यों .....? का सवाल मत उठाईयेगा , अन्यथा रिकार्ड देखकर यह बताना पडेगा कि कितने महीने पहले इस क्षेत्र में कोई दरोगा , या उससे बड़ा अधिकारी गया था | और फिर जाएगा भी कैसे ...? अपराध मौसम देखकर तो होगा नहीं , कि भाई आजकल रास्ता बना हुआ है , तो आइये इसे कर ही लिया जाए | और फिर यदि वह बारिश के महीने में हुआ , या फिर तब , जब पगडंडिया कीचड़ से सनी हुयी हों , तो कोई भी पुलिस वाला वहां पहुंचेगा कैसे ? स्थिति तो इतनी भयावह है , कि झगड़ों में जाने वाली लाशों तक भी प्रशासन की पहुँच कुछ दिनों के बाद ही हो पाती है | संपर्क मार्ग से कटे होने के कारण बलिया शहर मुख्यालय से लेकर पूरब में लगभग पचास किलोमीटर , अर्थात छपरा जिले की सीमा तक का यह इलाका अपराधियों की यह शरणस्थली रहा है | और यह तब रहा है , जब इस इलाके में न तो कोई जंगल है , और न ही छिपने के हिसाब से कोई पहाड़ियां ही |

शिक्षा के नाम पर सरकारी कागजों में हाईस्कूल तक की दास्तान लिखी गयी है , और यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यह पूरी तरह से कागजों पर ही सीमित है | अजी साहब .... जब इन गाँवों में डी.एम. , एस.पी. , विधायक और सांसद पंचवर्षीय योजनाओं जैसे दौरे करते हों , तो फिर प्राइमरी और मिडिल स्कूल का अध्यापक क्यों नहीं करेगा | इन इलाकों में उसे रहना मंजूर नहीं , और बलिया से आना-जाना संभव नहीं | हालत तो यह है कि इस इलाके के लगभग सभी प्राइमरी और मिडिल स्कूलों के भवनों में निजी विद्यालयों की कक्षाएं लगती हैं , और उन्ही के सहारे यहाँ के लड़के-लड़कियां अक्षरों , शब्दों और संख्याओं की इबारतें सीखते हैं | सबसे ख़राब स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं की है | सरकारी और निजी , दोनों ही स्तरों पर स्वास्थ्य सेवाएँ अपने अस्तित्व के होने का अभी इन्तजार कर रही हैं | यहाँ न तो कोई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है और न ही कोई निजी चिकित्सालय | इलाज की सारी जिम्मेदारी ‘झोला छाप डाक्टरों’ के भरोसे चलती है , जो किसी भी बिमारी का इलाज ‘एंटी-बायोटिक’ देकर या फिर ‘पानी चढ़ाकर’ करने का ‘मौलिक हुनर’ जानते हैं | अब यदि इस दौरान कोई भगवान को प्यारा हो जाता है , तो उसे नियति मान लिया जाता है , या परिजनों द्वारा उस ‘झोला-छाप’ डाक्टर की पिटाई करके सतुष्ट हो लिया जाता है | आपात स्थिति में बलिया के जिला चिकित्सालय में तभी पहुँचा जा सकता है , जब मौसम आपके साथ हो | मतलब , बीमारियों के लिए भी दिन और मुहूर्त निर्धारित है , कि वे इसी समय पर आयें | और जो असमय दस्तक देती हैं , उन्हें लोग ‘काल’ मान लिया करते हैं | मसलन यदि किसी को ‘सांप’ ने काट लिया , जो कि इस इलाके की एक सामान्य दुर्घटना है , और यदि मौसम विपरीत हुआ , तो बजाय ‘जिला चिकित्सालय’ जाने के लोग यह प्रार्थना करने लगते हैं कि काटने वाला वह सांप जहरीला नहीं हो | और यदि वह जहरीला हुआ , तो फिर उसे ‘काल’ ठहरा देने के अलावा उनके सामने दूसरा और कौन सा विकल्प बचता है |

इस इलाके में प्रतिवर्ष सांप काटने से मरने वाले लोगों की संख्या , कुछ नहीं तो दहाई में तो होती ही है | और वही स्थिति कमोबेश गर्भवती महिलाओं की भी है | हालाकि आजकल लोगों ने अपने घरों की उन गर्भवती महिलाओं को गर्भ के आठवे महीने के बाद बलिया शहर के आसपास रखना आरम्भ कर दिया है , जिसमे किसी भी आपातकालीन स्थिति से निबटा जा सके | इसके अलावा दो प्राकृतिक विपत्तियाँ भी इस इलाके को प्रतिवर्ष झकझोरती रहती हैं | एक तो बरसात के मौसम में यहाँ आने वाली बाढ़ , और दूसरे गर्मियों के मौसम में लगने वाली आग | यहाँ के साठ-सत्तर फीसदी घर ‘घास-फूस’ के बने हुए हैं , और वे इन आपदाओं की चपेट में लगभग प्रतिवर्ष आते रहते हैं | फायर-ब्रिगेड की गाड़ी ने पिछली बार इस इलाके में कब कदम रखा था , इसके लिए उस विभाग का गजेटियर देखना पड़ेगा |

इस कारुणिक कहानी का वैसे तो कोई अंत नहीं है , लेकिन यहाँ पर इस दास्तान को बांचते हुए चलना जरुरी समझता हूँ , कि यहाँ के लोगों ने प्रधानमंत्री की उस घोषणा को बहुत गम्भीरता से लिया है , जिसमें उन्होंने सन २०२० तक सबको बिजली देने का वादा किया है | वैसे इनके पास इस आशावादिता में जीने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है | नेहरू से लेकर गांधी तक , और गोलवरकर से लेकर लोहिया और अम्बेडकर तक के नाम पर चलने वाली तमाम योजनाओं में से एक के द्वारा भी , इस इलाके में अभी तक रोशनी नहीं हो पायी है | लगभग एक सदी पूर्व ‘एडिसन’ द्वारा आविष्कृत ‘बल्ब’ को यहाँ के लोगों ने – जलते या बुझते – किसी भी रूप में नहीं देखा | अजी साहब .....देखने के लिए तो इनके जीवन में बिजली के तार और खम्भे भी बचे हुए है | वैसे चाहें तो आप मेरी बात को झुठलाने के लिए , उन ऊँचे-ऊँचे विशाल डैनो वाले खम्भों का हवाला दे सकते हैं , और उन पर पर तने हुए पचीसों तारों के समूहों का भी , जिन्होंने पूर्व-प्रधानमंत्री चद्रशेखर जी के गाँव में स्थित बिद्युत केंद्र तक पहुँचने के लिए इस इलाके में गंगा नदी को चार जगह से पार किया है | अब आप ही बताइये , कि ऐसे में प्रधानमंत्री के शब्दों पर जतायी गयी उनकी आशावादिता का आधार बनता है या नहीं | भले ही उन भलेमानुस ने , मजाक के तौर पर ही यह कह रखा हो |

ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं , कि इस इलाके के लोग इन परिस्थितियों में आखिर रहते कैसे हैं ...? और उससे भी आगे बढ़कर ये कि ‘ये लोग यहाँ रहते ही क्यों हैं ...?’ |  जाहिर है कि ऐसे सवाल उठाने वाले लोगों को अपने देश की जमीनी हकीकत का अन्दाजा नहीं है | क्या उन्हें यह पता है कि ‘कनाट-प्लेस’ के भीतरी घेरे में बने शो-रूम में सजे एक शर्ट , एक पैंट , एक साड़ी या फिर एक जोड़ी जूते की कीमत को महीने भर की पगार के रूप में हासिल करने के लिए लोग-बाग़ जौनपुर , मोतिहारी  , कोडरमा और जगतसिंहपुर से क्या कुछ छोड़ते हुए , इसी दिल्ली में कैसे घिसटते हैं ? दरअसल ये लोग तो इन घिसटने वाले लोगों के दुनिया में आने से ही चिढ़ते हैं , किस इस बन्दे ने इस धरा का बोझ बाधा दिया , तो आगे और क्या कहा जाय ...| खैर ...बात यह हो रही थी कि ‘ये लोग इन परिस्थितियों में रहते कैसे हैं ..?’ तो उत्तर भी साफ़ है ...| केवल और केवल प्रकृति पर , और जिनके पास थोड़ा भी अवसर है , वे पलायन पर |

अब खुदा के लिए यह मत समझाईयेगा , कि मनुष्य को प्रकृति की गोद में रहना चाहिए | अजी साहब ... हम आपके दुश्मनों के लिए भी यह कामना नहीं करेंगे कि उन्हें अपने जीवन में प्रकृति की ऎसी कोई गोद मिले | वैसे आप चाहें तो इन सच्चाईयों को दो तरीकों से हवा में उड़ा सकते हैं | पहला यह कहकर कि आजादी के छः दशक बाद देश का कोई इलाका इतना पिछड़ा कैसे हो सकता है , और इस पर विश्वास करना संभव नहीं है ? और दूसरा कि इसमें नया क्या है , और इतने बड़े देश में यह तो होता ही रहता है | तो मैं पहले तर्क के लिए आपसे निवेदन करूंगा कि एक बार इस इलाके को देख जाइए , और दूसरे कि ‘बेगानापन’ अच्छा होता है , और उससे जीवन में तनाव को कम भी किया जा सकता है , लेकिन ध्यान रखियेगा कि इस दुनिया में हमने समाज में रहने का विकल्प चुना है , जो हमारे और आपके अलावा अन्य लोगों से मिलकर ही बनता है |

यह एक तस्वीर है , जिसमें हम अपने देश के विकास को देख-परख सकते हैं | यह चौपाटी , लुटियन जोन्स और साइबर सिटी के समानांतर रहने वाली हमारी ही दुनिया है , जिसे मनुष्य कहलाने की आवश्यक दशाओं का आज भी इन्तजार है | देश के बीचोबीच में बसे इस सामान्य इलाके में , दुःख की बात है , कि देश ही दिखाई नहीं देता | और यदि छः दशक में यह देश अपने ही शरीर के अंगों के प्रति इतना अनजान है , तो फिर उसकी सेहत के लिए इससे बुरी बात और क्या हो सकती है | क्या वह अपने इन अंगों में किसी घाव होने का इन्तजार कर रहा है , और जिसकी तभी देखभाल करेगा , जब वे सड़ने लगेंगे , उसे कष्ट देने लगेंगे | इसके अपने शरीर पर वैसे भी कम जख्म तो नहीं हैं , कि वह किन्ही और नए जख्मों के होने का इंतजार कर रहा है ? लोग कहते हैं कि सरकार तो आदिवासियों का विकास करना चाहती है , और माओवादी उसे रोककर आदिम समाज ही बनाए रखना चाहते हैं , क्योंकि वे विकास से डरते हैं और उन्हें लगता है , कि उनका प्रभुत्व खतरे में पड़ जाएगा | लेकिन इन इलाकों में तो कोई माओवादी नहीं रहता | हजारों – हजार की आबादी सड़क चाहती है , बिजली चाहती है , स्कूल चाहती है , अस्पताल चाहती है और मनुष्य होने की आवश्यक दशाएं चाहती हैं | लेकिन सरकार ....?

सोचियेगा ...... चाँद-तारों पर पहुँचने की ख्वाहिश रखने वाले इस मुल्क में क्या यह इतनी बड़ी मांग है ....?



संपर्क

रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र
मो.न. 09450546312     




  







5 टिप्‍पणियां:

  1. पड़ोसी हूँ. इस विभीषिका से परिचित हूँ लेकिन इस कदर भयावह तस्वीर है, रोंगटे खड़ा करने वाला.. ओह! युवा तुर्क प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के संसदीय क्षेत्र की यह दुर्दशा!!

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  2. रामजी भाई, दिल दुखी हो जाता है, या कहूं रहता ही है। एक भयानक सच आपने बयान किया है। यह कहते हुए और भी शर्म आती है कि आपने बेहतरीन लिखा है। इस त्रासदी का क्या कोई अंत है? अब तो विकास के नए दौर में इन गांवों की वैसे भी कोई क्यूं सुनेगा

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  3. बहुत अच्छा लेख है जिसमें बलिया की विभिन्न समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया गया है.आपने एक भुक्तभोगी की पीड़ा व्यक्त की है जिससे यह पठनीय और प्रमाणिक बन गया है. आजकल शम्सुर्रहमान फ़ारूकी की कानियाँ पढ़ रही हूँ. उनकी सेटिंग इतिहास के अलग अलग कालों में है. आप अपने इलाके पर बढ़िया उपन्यास या कहानियां लिख सकते हैं क्योंकि आपकी शैली जीवंत है.

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  4. 'शलभ' श्री राम सिंह की याद आ गयी, मित्र !
    "घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए;
    जवाब-दर-सवाल है कि इन्कलाब चाहिए !
    इन्कलाब ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद इन्कलाब !!"

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  5. 'शलभ' श्री राम सिंह की याद आ गयी, मित्र !
    "घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए;
    जवाब-दर-सवाल है कि इन्कलाब चाहिए !
    इन्कलाब ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद इन्कलाब !!"

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