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रविवार, 9 फ़रवरी 2014

वसन्‍त एक कविता - शिरीष कुमार मौर्य



सत्‍यानन्‍द निरूपम के लिए


वसन्‍त




हर बरस की तरह

इस बरस भी वसन्‍त खोजेगा मुझे

मैं पिछले सभी पतझरों में

थोड़ा-थोड़ा मिलूंगा उसे

उनमें भी

जिनकी मुझे याद नहीं



प्रेम के महान क्षणों के बाद मरे हुए वसन्‍त

अब भी मेरे हैं

मिलूंगा कहीं तो वे भी मिलेंगे



द्वन्‍द्व के रस्‍तों पर

सीधे चलने और लड़ने के सुन्‍दर वसन्‍त

लाल हैं पहले की तरह

उनसे ताज़ा रक्‍त छलकता है तो नए हो जाते हैं

मेरे पीले-भूरे पतझरों में

उनकी आंखें चमकती हैं



वसन्‍त खोजेगा मुझे

और मैं अपने उन्‍हीं पीले-भूरे पतझरों के साथ

मिट्टी में दबा मिलूंगा



साथी, 
ये पतझर सर्दियों भर

मिट्टी में

अपनी ऊष्‍मा उगलते

गलते-पिघलते हैं



महज मेरे नहीं

दुनिया के सारे वसन्‍त

अपने-अपने 
पतझरों पर ही पलते हैं।

***  
-शिरीष कुमार मौर्य

2 टिप्‍पणियां:

  1. महज मेरे नहीं
    दुनिया के सारे वसन्‍त
    अपने-अपने
    पतझरों पर ही पलते हैं...

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  2. महज मेरे नहीं

    दुनिया के सारे वसन्‍त

    अपने-अपने
    पतझरों पर ही पलते हैं।

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