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शुक्रवार, 14 मार्च 2014

कार्ल मार्क्स और कम्युनिस्ट घोषणा पत्र

आज मार्क्स की बरसी है. बीसवीं सदी का वह क्रांतिकारी दार्शनिक जिसने दुनिया को देखने-समझने का नया नज़रिया दिया. उन्हें सलाम करते हुए आज अपनी सद्य प्रकाशित किताब "कार्ल मार्क्स और उनका दर्शन" से कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर लिखा अध्याय यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. 
किताब की कीमत 100/- रुपये है और इसे आधार प्रकाशन से 09417267004 से मंगाया जा सकता है.




कम्यूनिस्ट घोषणा पत्र – सर्वहारा की ऐतिहासिक उपलब्धि


“घोषणा पत्र” मार्क्स और की एक महान उपलब्धि थी जिसने उस समय के मज़दूर आंदोलनों की मूल भावना को स्पष्टतः प्रकट किया. यह सारी दुनिया के सामने एक ऐसे राजनैतिक दृष्टिकोण का प्रमाण था जो अपने समय के भौतिक यथार्थ पर आधारित था तथा अक्सर सतह के नीचे दबे तनावों तथा अंतर्विरोधों की सटीक पहचान भी करता था. घोषणा पत्र की प्रसिद्ध आंरभिक पंक्ति में ही उन्होंने देख लिया था -  

“ यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है... कम्यूनिज्म का भूत ! इस भूत को भगाने के लिए पोप और ज़ार, मेटरनिख और गीज़ो, फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन पुलिस के भेदिये...बूढ़े यूरोप के सारे सत्ताधारी एक हो गए है.” [1]

यह कोई साधारण राजनीतिक पर्चा मात्र नहीं है, यह एक उत्कट घोषणापत्र तथा  एक नवीन दृष्टि है. इक्कीसवीं सदी के उन सभी प्रबुद्ध पाठकों के लिए जो पंक्तियों के बीच की इबारत को पढ़ना जानते है, यह अविश्वसनीय रूप से सामयिक है. यह एक ऐसे विश्व की विवेचना करता है जिसे हम आज भी फौरन पहचान लेते हैं, जबकि जिस समय यह घोषणा पत्र लिखा  गया था, वह बस आकार ही ले रहा था. जिस औद्योगिक पूँजीवाद को मार्क्स ने इतनी गहरी अंतर्दृष्टि से समझा और व्याख्यायित किया है, वह उस दौर में अपने क्रूर विकास की आरंभिक अवस्था में ही था. जब मार्क्स ओर एंगेल्स ने शोषण पर आधारित इस तंत्र तथा मुनाफ़ाखोरी की अंधी दौड़ से पैदा होने वाली अमानवीकरण की प्रवृत्ति पर से परदा हटाया था तो शायद उन्हें यह भान भी नहीं  था कि आने वाली पीढ़ियों के लिए उनके शब्द कितने सही साबित होगें.

“उत्पादन उपकरणों में, लगातार  क्रांति लाये बिना बुर्जुआ वर्ग जीवित नहीं रह सकता इसके विपरीत सभी पुराने औद्योगिक वर्गों के अस्तित्व की पहली शर्त पुरानी उत्पादन विधियों को ज्यों का त्यों बनाए रखना थी. उत्पादन प्रक्रिया का निरंतर क्रांतिकरण, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल पुथल, चिरंतन अनिश्चितता और हलचल - ये चीजें बुर्जुआ युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध अपने सहगामी, प्राचीन व पवित्र पूर्वाग्रहों तथा मतों सहित ध्वस्त हो जाते हैं, सभी नवनिर्मित संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते है जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है, और अंततः मनुष्य को संजीदा दृष्टि से  जीवन की वास्तविक अवस्थाओं तथा पारस्परिक संबंधों को देखने के लिए मजबूर होना पड़ता है.”
“...अपने उत्पादों के लिए निरंतर विस्तारमान बाज़ार की ज़रूरत बुर्जुआओं का दुनिया भर में पीछा करती है हर जगह घुसना, हर जगह पैर जमाना तथा हर जगह संपर्क कायम करना होता है.”
“कम्युनिस्ट अपने दृष्टिकोण और लक्ष्य छिपाने से घृणा करते हैं. वे खुले तौर पर एलान करते हैं कि उनका लक्ष्य सिर्फ समस्त मौजूदा सामाजिक दशाओं को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने से ही हासिल हो सकता हैं. शासक वर्गों को कम्युनिस्ट क्रांति के भय से कांपने दो. सर्वहाराओं के पास अपनी बेड़ियों के सिवाय खोने के लिए कुछ नहीं है. जीतने के लिए उनके सामने सारी दुनिया है.”
            दुनिया के मज़दूरों एक हो ! [2]

इसे पढ़ते हुए पाठक के लिए यह विश्वास कर पाना बेहद मुश्किल होता है कि यह सब मध्यपूर्व में तेल के भंडार मिलने के साथ इस क्षेत्र के दुनिया के दूसरे छोर पर बसे देशों के हितों चलते युद्धक्षेत्र में परिवर्तित हो जाने या फिर कोक और नाइक जैसे बहुराष्ट्रीय उत्पादों के विश्व की हजारों विभिन्न सभ्यताओं को प्रभावित करने या उस परिदृश्य के भी पहले बहुत पहले लिखा गया था जहां बम्बई के शेयर बाजार के एक निर्णय से लाखों करोड़ों लोग प्रभावित हो जाते हैं.

घोषणा पत्र में सटीक विवेचना और पूंजीवादी तंत्र की कार्यप्रणाली तथा प्रभावों का विशद विवरण ही प्रभावशाली नहीं हैं अपितु जिस उत्कट तरीके से उन्होंने इसे बेपरदा किया है, जिस दृढ़ता के साथ इसकी भर्त्सना की है वह भी अद्भुत है. आखिकार यह एक कम्युनिस्ट घोषणा पत्र है जो कि पूँजीवादी तंत्र की आक्रामक गतिकी की पहचान इसकी प्रशंसा के लिए नहीं, इसे दफनाने के लिए करता है प्रश्न यह है कि इसकी कब्र खोदेगा कौन ?

इसका उत्तर हमें घोषणा पत्र में थोड़ा आगे मिलता है. जैसे जैसे पुरानी व्यवस्था से पूँजीवाद विकसित होता है छोटी कार्यशालाएँ औद्योगिक पूँजीपति के विशाल कारखाने में बदल जाती हैं. विकसित हो रहे नगरों को आपूर्ति करने वाले आधुनिक फार्मों के गहन उत्पादन तंत्र में किसान खेत-मज़दूर बन जाते है, चिरंतन विकासमान राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक इकाईयों के चलते छोटे व्यापारी नष्ट हो जाते हैं और बहुराष्ट्रीय निगमों के निर्माण  की प्रक्रिया आरंभ हो जाती हैं. शहरों में और उसके इर्द गिर्द  विकसित उद्योगों में काम करने को मज़बूर कामगार एक नई क्रूरता के शिकार होते है.

“कारखाने में ठुंसे झुंड के झुंड मज़दूरों को सैनिकों की तरह संगठित किया जाता है. औद्योगिक फौज के सिपाहियों की तरह वे बाकायदा एक दरजावार तरतीब में बंटे हुए अफ़सरों और जमादारों की कमान में रखे जाते हैं. वे सिर्फ बुर्जुआ वर्ग या बुर्जुआ राज्य के ही दास नहीं है बल्कि उन्हें घड़ी घड़ी, दिन ब दिन, अधीक्षक और सर्वोपरि खुद बुर्जुआ कारखानेदार द्वारा भी दासता में ले लिया जाता है. यह निरंकुशता जितना ही अधिक प्रच्छन्न तौर पर मुनाफे को अपना लक्ष्य घोषित करती है, वह उतनी ही तुच्छ, घृणित और कटु होती जाती है.[3]                     
“प्रांरभ में जैसे जैसे हताशा बढ़ती जाती है पहले इक्के दुक्के मज़दूर लड़ते हैं, फिर एक कारखाने के मज़दूर मिलकर लड़ते हैं और फिर एक पेशे के, एक इलाक़े के सब मज़दूर एक  साथ उस साझा दुश्मन – बुर्जुआ-  से मोर्चा लेते हैं, जो उनका सीधे सीधे शोषण करते हैं. वे अपने हमले उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं के विरूद्ध नहीं बल्कि उत्पादन के उपकरणों के विरूद्ध लक्षित करते हैं. अपनी मेहनत के साथ होड़ करने वाले आयातित सामानों को नष्ट कर देते हैं, मशीनों को तोड़ देते है, फैक्ट्रियों में आग लगा देते हैं. वे मध्ययुग की खोई हुई हैसियत को बलपूर्वक प्राप्त करने कोशिश करते हैं.”[4]

लेकिन दरअसल विडंबना तो यह है कि मशीन नहीं इनका वास्तविक शत्रु तो वह प्रयोजन है जिसके लिए इनका प्रयोग होता है. यह विरोधाभास ही है जैसा कि मार्क्स  स्पष्टतः रेखांकित करते हैं, कि मनुष्य जितना अधिक उत्पादन करने में सफल होता है मनुष्य को श्रम की दासता से मुक्त कराने की संभावना उतनी ही मज़बूत होती जाती है. लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में यह संभावना नष्ट कर दी जाती है. मानवता को मुक्त करने की जगह मशीन इसकी दासता में और अधिक अभिवृद्धि करती हैं. लेकिन इसके साथ ही एक और  प्रक्रिया होती है- सर्वहारा या श्रमिक वर्ग केवल शहरों की तरफ धकेला ही नहीं जाता बल्कि जैसे जैसे उत्पादन मुनाफे की होड़ में और परिष्कृत तथा यांत्रिक होता जाता है कालांतर में इसकी वजह से मजदूरों की सामूहिक शक्ति भी बढ़ती जाती है. जिससे उनके लिए संगठित होकर मशीनों के मालिकों से लोहा ले पाना संभव हो पाता है.

  इस प्रकार मार्क्स की दृष्टि  में सर्वहारा ही समाजवादी क्रांति का प्रतिनिधि है. वह मज़दूरों का किसी रूप में आदर्शीकरण नहीं करते. न तो वह उन्हों दुसरे संघर्षरत लोगों से मज़बूत या बेहतर घोषित करते हैं और न ही उन्हें पूँजीवाद समाज में पैदा होने वाले अंतर्विरोधो से मुक्त समझते है. एक आम मज़दूर व्यक्तिगत स्तर पर किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह ही स्वार्थी, पतित, पुरुष अहं की ग्रंथि का शिकार कुछ भी हो सकता है लेकिन इस नवीन पूँजीवादी समाज में एक वर्ग के रूप में वह ऐसी विशिष्ट स्थिति में होता है कि एक तरफ इसे बदलना उसके हित में होता है और दूसरी तरफ उसमें ऐसा करने की क्षमता भी होती है. सर्वहारा वर्ग के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता और सामूहिक शक्ति ही उसका इकलौता हथियार होती है.

मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का ज्यादातर हिस्सा ब्रुसेल्स  के ब्लू पैरट रेस्त्रां में लिखा था. 1848 के फरवरी माह में यह छापाखाने में पहुँचा और जब यह छपकर आया तो फ्रांस से विद्रोहों की ख़बर आनी शुरू हो गई थी. वहाँ के अलोकप्रिय प्रधानमंत्री गीजो ने इस्तीफा दे दिया और अगले दिन राजा लुई फिलिप का भी पतन हो गया. कुछ ही हफ्तों में विद्रोह की लपटें बर्लिन तक पहुँच गईं और एक और सरकार गिर गई. एंगेल्स ने उत्साहपूर्वक लिखा “ट्यूलेरिज और शाही महल की लपटें सर्वहारा के उदय की प्रतीक हैं...अब बुर्जुआ शासन हर जगह ध्वस्त हो जायेगा...हमें उम्मीद है कि जर्मनी में भी यही होगा.” फरवरी क्रांति के फलस्वरुप कम्यूनिष्ट लीग की लंदन स्थित केन्द्रीय समिति ने समस्त अधिकार ब्रुसेल्स के उच्च मंडल को हस्तांरित कर दिये। पर जब यह फैसला ब्रुसेल्स पहुंचा तो वहाँ का प्रशासन यूरोप मे फैलते विद्रोह के मद्देनज़र सावधान हो चुका था और घेराबंदी शुरु हो चुकी थी। जर्मन लोगों की बैठकों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। अतः नई केन्द्रीय समिति ने अपने को भंग कर दिया और सारे  अधिकार मार्क्स को सौंप कर उन्हें फौरन पेरिस में एक नई केन्द्रीय समिति गठित करने का निर्देश दिया। यह निर्णय करने वाले पाँच आदमियों ने (3 मार्च 1848 को) अपने अपने अलग रास्ते पकड़े ही थे कि पुलिस मार्क्स के घर में घुस आई और उन्हे गिरफ्तार कर अगले ही दिन फ्रांस जाने को, जहाँ वह ख़ुद ही जाना चाह रहे थे, मज़बूर कर दिया। पेरिस में कम्यूनिष्ट लीग का नया मुख्यालय घोषित किया गया। बाद में एंगेल्स भी वहाँ आ गए और दोनो जन वापिस जर्मनी लौटने की कोशिश मे जुट गये। लेकिन उन दिनो पेरिस मे निर्वासितों के बीच क्रांतिकारी दस्ते कायम करने की एक ख़ब्त सी फैली हुई थी। स्पेनी, इतालवी, बेल्जियम, पोल और ज़र्मन सभी अपने देशों को आज़ाद कराने के लिये ग्रुपों में एकत्र हो रहे थे. हरवे,बोर्न्स्तेड और बर्नस्टीन के नेतृत्व में गठित जर्मन सैन्य दस्ते द्वारा इस काम को अंजाम देने की (जिसमें नई सरकार भी सहयोग की बात कर रही थी) योजना को क्रांति के साथ खिलवाड़ बताते हुये मार्क्स ने इसका पुरज़ोर विरोध किया। उनके अनुसार जर्मनी की तात्कालिक उथन पुथल के मध्य आक्रमण संगठित करने यानी बाहर से संगठित क्रांति का बलपूर्वक आयात करने का अर्थ खुद जर्मनी की क्रांति की जड़ें काटना, सरकारों के हाथ मज़बूत करना और इन सैनिकों को हाथ पैर बांध कर जर्मन फौज के हवाले करना था।

अप्रैल में मार्क्स जर्मनी लौट आये और क्रांतिकारी आन्दोलन में राजनीतिक बहसों द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप के उद्देश्य से एक दैनिक समाचार पत्र नया राईन समाचारनिकालने की तैयारी करने लगे. चार साल पहले जब ‘राईन समाचार’ के पिछले संस्करण निकले थे तो इसे जर्मनी के हताश मध्यवर्ग का व्यापक समर्थन मिला था। लेकिन इस बार वे मार्क्स के दृष्टिकोण का समर्थन करने में उतनी रुचि नहीं दिखा रहे थे। मार्क्स का पूरा ज़ोर पुरानी व्यवस्थाओं क विनाश के बाद उभरी नई विधानसभा जैसी व्यवस्थाओं के आलोचनात्मक विश्लेषण पर था. इन दिनों पूरे जर्मनी में मज़दूरों के ग्रुप बनाए जा रहे थे, हालाँकि उनकी मांग या तो पूरी तरह तात्कालिक आर्थिक लाभों पर केन्द्रित थी या फिर विशुद्ध लोकतांत्रिक सुविधाओं पर. जून में अखबार का पहला अंक प्रकाशित हुआ तो मार्क्स और एंगेल्स ने इस कम्यूनिष्ट ताक़तों के संगठन के केन्द्रीय बिंदु के रुप में देखा।

कम्यूनिष्ट लीग का क्या हुआ ? मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने महसूस किया कि यह इतनी  छोटी थी कि तत्कालीन परिस्थितियों में, जब हज़ारों लोग सड़कों पर आ रहे थे तो आंदोलन पर कोई व्यापक प्रभाव छोडने में सफल नहीं हो पा रही थी। मूलभूत बात तीव्र परिवर्तनो और उफान के समय आंदोलन का हिस्सा बनकर उसको प्रभावित करना था न कि कम्यूनिष्टों को इससे अलग या फिर इसके विरुद्ध खड़ा करना। मार्क्स की इस नवीन विश्वदृष्टि  के केन्द्र में यह विचार था कि चेतना में महान रुपांतरण अपने आप नही अपितु भौतिक परिवर्तनों के संदर्भ में ही आता है। नए विचार केवल उसी सीमा तक  स्वीकार तथा अंगीकार किए जायेंगे जितना वे आंदोलन के भीतर प्रतिबिंबित होगें. इस तर्क ने मार्क्स की एक दूसरे महत्वपूर्ण जर्मन समाजवादी गोथे से उग्र बहस को जन्म दिया। गोथे जर्मन मजदूरों में काफी लोकप्रिय थे लेकिन उनके विचार इस धारणा को मज़बूत करते थे कि ‘मजदूरो को व्यापक क्रांतिकारी आंदोलनों  से  दूर रहना चाहिये.’

सच्चाई यह है कि उन दिनों जर्मन मजदूर आंदोलन अपने विकास की उस मंजिल पर था जहाँ वह जनतांत्रिक अधिकार प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहा था. इसके विपरीत इंग्लैड में चार्टिस्ट आंदोलन का प्रभाव अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका था और मार्क्स एंगेल्स इसे निश्चित तौर पर यूरोपीय मज़दूर आंदोलन के अग्रिम दस्ते के रुप मे देखते थे. साथ ही वे इस बात से भी अवगत थे कि ‘उदार’ तत्वों के साथ संघर्ष में साझा हिस्सेदारी का अर्थ कभी भी उनके हाथ में आंदोलन का राजनैतिक नेतृत्व सौंप देना नही हो सकता।

‘नए राईन समाचार पत्र’ की पहली प्रतियाँ जब गलियों में आई तो यूरोप में एक बार फिर परिस्थितियाँ नए उच्चतर स्तर पर पहुँच रहीं थीं। फ्रांस में राजशाही को  अपदस्थ कर सत्ता में आई उदारवादी सरकार के जनतांत्रिक दावे खोखले साबित हो रहे थे. फरवरी क्रांति से प्राप्त अधिकार पर नव निर्वाचित राष्ट्रीय एसेंबली में प्रभावी दक्षिणपंथियों द्वारा कुठाराघात किया जा रहा था। ज़र्मनी में शहरी मजदूरों को न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी देने वाली राष्ट्रीय कार्यशालाएं बंद कर दिये जाने से मज़दूर एक  बार फिर निराश्रित हो गए। इसके विरोध में लोग पेरिस की सड़कों पर उतर आए। इस बार वे बर्बर दमन का शिकार हुये। जब मार्क्स ने फ्रांस की कायर बुर्जुआजी की इस कारवाई का विरोध किया तो जर्मन प्रशासन ने इसे अपने ख़िलाफ़ भी समझा और उनके अखबार को समर्थन देना बंद कर दिया.

जुलाई में जर्मनी की अपेक्षाकृत उदार सरकार की जगह प्रतिक्रयावादी सरकार ने ले ली. मार्क्स और उनका अखबार उसकी दमनकारी नीति के पहले शिकार हुये और अगले महीने इसके प्रंबधन में एकाधिक बार बाधा पहुँचाई गई लेकिन वियना से बर्लिन तक लोकतांत्रिक अधिकारों पर गहराते जा रहे खतरों के बीच मार्क्स और उनका अखबार पूरी आक्रमकता के साथ मज़दूरों के अधिकारों का पुरज़ोर समर्थन करते रहे. उनकी रणनीति का सबसे प्रमुख उद्देश्य मज़दूरों के बीच अपने वैचारिक दृष्टिकोण का प्रभाव बढ़ाना था जिसे बाद में उन्होने “क्रांति की सततता” कहा. लेकिन साथ ही उन्होंने इस दौरान स्टीफन बोर्न की मज़दूर बिरादरी की पंचमेल वैचारिक खिचड़ी पर आधारित उस कार्यनीति का भी सक्रिय विरोध किया जिसके तहत हड़तालों, ट्रेड यूनियनों, उत्पादकों की सहकारी समितियों का आयोजन किया गया और यह भुला दिया कि सर्वोपरि प्रश्न राजनैतिक जीतों द्वारा वह भूमि विजित करने का है जिस पर चीजें टिकाऊ आधार पर प्राप्त की जा सकती हैं। मार्क्स और एंगेल्स इस आंदोलन की कमज़ोरियों को अच्छी तरह पहचानते थे. इसलिये उन्होने 1848 के उस समय को ‘क्रांतिकारी संयम’ का समय कहा।

वियना में आंदोलन का बर्बर दमन हुआ तो सड़कों पर आस्ट्रियाई मज़दूरों के समर्थन में विशाल जनांदोलन उमड़ पड़ा। अक्टूबर के अंत तक उसे भी  दबा दिया गया लेकिन बर्लिन तथा जर्मनी के दूसरे हिस्सों पर पूर्ण अधिकार करने में प्रतिक्रांतिकारियों को दो और महीने का समय लग गया और तब जाकर फ्रेडरिक चतुर्थ के हाथ में प्रशियाई सत्ता का पूर्ण अधिकार आ गया। इसके बाद के महीनों में मार्क्स और एंगेल्स ने ख़ासतौर पर अपने समाचार पत्र के जरिये जनतांत्रिक ताकतों को एक मंच पर लाने मज़दूरों और किसानों के बीच एकता कायम करने और सबसे महत्वपूर्ण तौर पर जर्मन आंदोलन को अंतराष्ट्रीय परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में समझने तथा व्याख्यायित करने का अथक परिश्रम किया।
जर्मनी के कई असफलताओं के बाबजूद यूरोप के दूसरे हिस्सों में जारी संघर्षों ने मार्क्स के मन में क्रांतिकारी संभावनाओं के प्रति आशा की दीप जलाये रखा और अब भी प्रतिरोध कर रहे बेडेन तथा फैंकफर्ट की अस्थाई प्रतिनिधि सभाओं का समर्थन करने के लिये प्रोत्साहित किया।

लेकिन 13 जून 1849 को रुसी जार द्वारा हंगरी की क्रांति के कुचल दिये जाने के साथ 1848 की क्रांति के महान युग का अंत हो गया। 16 मई को मार्क्स को कोलोन से निष्कासित करने का आदेश थमा दिया गया और अगले ही दिन वह पेरिस के लिये रवाना हो गए। इस बीच एंगेल्स बेडेन के विद्रोहियों के साथ संघर्ष में शामिल हो गए. जर्मनी छोडने से पहले नए राईन समाचार पत्र के अंतिम अंक में, जो पूरा लाल स्याही में निकाला गया था, उन्होंने लिखा ...
“हमें अपना दुर्ग छोडना पड़ रहा है. लेकिन हम अपने हथियारों और साज़-ओ- समान के साथ पीछे हट रहे हैं... युद्धक बैंडों और फहराते हुए झंडे के साथ...  हमारे अंतिम शब्द हमेशा और हर जगह बस एक ही होंगे.... ‘सर्वहारा वर्ग की मुक्ति’.”




[1] देखें, कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, पीपीएच , दिल्ली, 1986
[2] देखें, कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, पेज 34, पीपीएच , दिल्ली, 1986
[3] वही, पेज 39
[4] वही, पेज 40

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