लब्ध प्रतिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल की यह कविता आलोचना के जनवरी 1988 में प्रकाशित हुई थी. तबकी सरकार ने देश के लिए एक दौड़ आयोजित की थी. तब से अब तक कितना कुछ बदला तो कितना कुछ एकदम वैसा ही रह गया. परिवर्तन के साथ जुड़ी यह जो सततता है, वह नवउदारवादी युग की आलोचना के लिए नए सूत्र देती है. आप देखिये, वास्तविक समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर प्रतीकों में रिड्यूस करने का यह खेल अब किस क़दर सांस्थानिक हो चुका है. इस कविता को सुनते मुझे हठात लगा था कि इसे आज पढ़ना उस कांटीन्यूयिटी को बहुत साफ़ करता है. मैंने उनसे आग्रह किया और उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी जनपक्ष के लिए इसे उपलब्ध कराया.
अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ में लगा धागा
देश निकल कर भागा
जल्दी कर तू धर-पकड़
मुट्ठी में रख इसे जकड़
बढ़ने का अब पाठ पढ़
अन्दर खोखल बाहर अकड़
जो न माने उसमें गोली दो लट्ठ दो
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो
दौड़े हम किस ओर हैें
जो ये पूछें, चोर हैं
जाहिल हैं जी, ढोर हैं
जो भी टोके उसको
धक्का दो गाली दो
दौड़ो प्यारे
ठुमका दो ताली दो
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो
देश के लिए दौड़े हम
देश के लिए दौड़े तुम
देश के लिए दौड़े ये
देश के लिए दौ़ड़े वो
अकक्ड़ बक्कड़ बंबे बो
चालीस की है अपनी दौड़
बुद्धि अब तू पीछा छोड़
बस, आँख
पे पट्टी, गले में कोल्हू
जेब में माल पानी हो
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो
क्या सोचे है प्यारे भाई
कहीं न कोई आफत आई
सोचेगा सो खोएगा
दौड़ेगा सो जोड़ेगा
भोंदू अब मत मौका छोड़
धक्का दे मुक्का दे
लात दे, घूँसा दे,
और
फजीहत थुक्का दे
आगे औरत हो या बुड्ढा हो
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो
देश के तू आगे दौड़
देश के तू पीछे दौड़
देश के तू ऊपर दौड़
देश के तू नीचे दौड़
देश के तू बाहर दौड़
देश के तू अंदर दौड़
चक्कर में घनचक्कर दौड़
रेडी स्टैडी गो
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो।
वाह ...बहुत अच्छी कविता ,बेधक व्यंग्य !
जवाब देंहटाएंकल 11/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत लाजवाब ... रचना के माध्यम से बहुत कुछ कहा है ... अच्छा व्यंग ...
जवाब देंहटाएंलाज़वाब...बहुत सटीक व्यंग...
जवाब देंहटाएंव्यंग्य कसती एक अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंसत्ता के ढीठ विद्रूप पर सार्थक टिप्पणी है, पुरुषोत्तम जी की यह कविता दुबारा पढ़कर और तीखा स्वाद मिला। धन्यवाद अशोक आपका इस वक्त कविता का स्मरण कराने के लिए।
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