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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

दिल्ली विधानसभा चुनावों के आप की जीत पर “दख़ल विचार मंच” तथा “हिंसा के ख़िलाफ़ कला” का सामूहिक बयान



हाल में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत पर सबसे पहले तो हम उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ प्रेषित करते हैं. यह निश्चित तौर पर थैलीशाहों और साम्प्रदायिक ताक़तों पर जन पहल की जीत है.
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“आप” की इस जीत में बड़ा योगदान झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले ग़रीब जन, अल्पसंख्यक समुदाय, निम्न मध्यवर्ग और युवाओं का रहा है. पिछले नौ महीनों में जिस तरह आर्थिक सुधारों की गति तेज़ करने के नाम पर लगातार जनविरोधी नीतियों को बढ़ावा दिया गया, निजीकरण की प्रक्रिया और तेज़ की गयी, लोक खर्चों में कटौती की गई, साम्प्रदायिक गुंडागर्दी बढ़ी, गोडसे जैसे हत्यारे की मूर्तियाँ स्थापित करने की कोशिश से लेकर जनसंख्या बढ़ाने की फतवानुमा सलाहें दी गईं, जनता के बीच एक असंतोष उपजा और पिछली सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन से ऊबी जनता ने इन चुनावों में उपलब्ध सर्वोत्तम विकल्प को चुना. यही नहीं दिल्ली के कुछ इलाक़ों में जिस तरह से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए दंगो का सहारा लिया गया (बवाना में तो दख़ल की फैक्ट फाइंडिंग टीम गयी थी और हमें चौंकाने वाली जानकारियाँ मिलीं) जनता ने उसे ठुकरा कर शान्ति के पक्ष में मतदान किया. हम दिल्ली की सदियों पुरानी रवायत से मुहब्बत करने वाली अमनपसंद जनता को सलाम करते हैं और उनकी बुद्धिमत्ता के समक्ष सिर झुकाते हैं.
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लेकिन इसी के साथ कुछ सवाल भी उठते हैं. क्या आम आदमी पार्टी उन सपनों को पूरा करने में सक्षम है, या कम से कम उन सपनों को को पूरा करने की इच्छा शक्ति है उसमें जिनके वायदे उन्होंने किये हैं? अन्ना आन्दोलन से लेकर पिछली 49 दिनों की सरकार और उसके बाद उनके कुछ महत्त्वपूर्ण सदस्यों के बयानात दुर्भाग्य से इस ओर से आश्वस्त नहीं करते.
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सबसे पहले हम अगर आर्थिक नीतियों की ही बात करें तो बासी पड़ चुके “मानवीय चेहरे वाले पूँजीवाद” और “पब्लिक सेक्टर” वाली कथित “समाजवादी” व्यवस्था के अलावा आप के पास कोई ऐसी नीतिगत समझदारी नहीं दिखती जिससे कारपोरेट कुचक्र में फँसी दिल्ली के ग़रीबों के दुखों का कोई दीर्घकालीन इलाज़ किया जाए. सी आई आई में दिए अपने भाषण में अरविंद केजरीवाल जी जिस ओर इशारा करते दीखते हैं वह दुर्भाग्य से कांग्रेस और भाजपा से अलग राह नहीं. जिस तरह के विषमता और अन्याय से आज दिल्ली का कामगार वर्ग दो चार है उसे कुछ छोटी मोटी रियायतों या घोषणाओं से दूर नहीं किया जा सकता. उसके लिए एक रेडिकल जनपक्षीय गतिशील आर्थिक नीति की आवश्यकता है, जिस दिशा में आम आदमी पार्टी कहीं से चलती नहीं दिखती. देश और दिल्ली के ग़रीबों को वाई फाई से अधिक रोटी और रोज़गार की ज़रूरत है.
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साम्प्रदायिकता की बात करें तो हमारी फैक्ट फाइंडिंग टीम ने बवाना में पाया कि दंगों के दौरान न तो आप के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने कोई प्रतिरोधी भूमिका निभाई न ही इस दल के बड़े नेता वहाँ ऐसी कोई कोशिश करने गए. अब तक कि जो नीतियाँ दिखीं हैं वे भी लचर और हद से हद कांग्रेस जैसे ढीले ढाले सर्वधर्म समभाव के एक छाया भाव सी हैं. आप के बड़े नेताओं ने अपनी धार्मिक आस्थाओं का खुला प्रदर्शन किया है और साम्प्रदायिकता के मामले में गोल मोल बयान देते हुए कोई सख्त स्टैंड लेने से हमेशा ही बचने की कोशिश दिखी है. जाति के मसले पर भी आरक्षण विरोधी अपने अतीत के बरक्स श्री केजरीवाल या उनके कुछ अन्य साथी खुलकर कुछ कहते या पक्ष लेते नहीं दिखे हैं. हम इस नई सरकार से यह उम्मीद करते हैं कि इस मुद्दे पर वह गंभीरता से विचार करे और तेज़ी से सर उठा रहे साम्प्रदायिक कट्टरपन के ख़िलाफ़ वे आवश्यक क़दम उठाये जिससे समाज में सद्भाव कायम रह सके तथा लेखकों/कलाकारों तथा आम जन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरक़रार रहे. अल्पसंख्यक और दलित समुदाय के साथ साथ उत्तर पूर्व के लोगों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता में शामिल की जानी चाहिए.

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स्त्री सुरक्षा का मामला पूरे देश की ही तरह दिल्ली में भी एक बड़ा मामला है. दुर्भाग्य से इस मामले पर भी अन्य राजनीतिक दलों की तरह ढुलमुल सा ही रवैया दिखता है. सी सी टी वी का जो प्रस्ताव है वह एक सीमित प्रभाव ही डाल सकता है, साथ ही उसमें जनता की निजता भंग होने का एक सतत ख़तरा मौजूद है. हमारा मानना है कि इसके लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक, दोनों तरह के गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे एक तरफ़ ऐसी घटनाओं पर अंकुश लग सके और दोषियों को पकड़ा जा सके तो दूसरी तरफ समाज में ऐसे मूल्य विकसित किये जा सकें जिनसे स्त्री-पुरुष असमानता को दूर करने में मदद मिले.
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दिल्ली की जनता, खासतौर पर ग़रीब कामगार और नौजवानों के एक बड़े हिस्से ने दिन रात लगकर ‘आप’ को वह प्रचंड बहुमत दिया है जिसकी कल्पना खुद उनके लिए भी मुश्किल थी. अब यह विपक्षहीन बहुमत उसे एक रेडिकल दल में बदलने की ज़रूरी ताक़त देता है या सत्ता वर्ग का हिस्सा बनने का अहंकार, यह समय बतायेगा. हमने पहले सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के जनता पार्टी शासन में तब्दील होते और फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन द्वारा कांग्रेस सरकार को अपदस्थ करते (जिनका आधार, प्रसार और संघर्ष निश्चित रूप से 'आप' से कहीं अधिक प्रखर था) और फिर धीरे धीरे सत्ताधारी वर्ग का हिस्सा बनते देखा है. सही दिशा का अभाव और पूँजी की जनविरोधी ताक़तों से सतत संघर्ष के लिए आवश्यक प्रतिबद्धता के अभाव में आदर्शों का दम तोड़ना स्वाभाविक है. हम उम्मीद करते हैं कि इस प्रचंड जनसमर्थन से मिली ताक़त का इस्तेमाल "आप" जनता के हित की नीतियाँ बनाने तथा उदारीकरण के वर्तमान माडल का विकल्प खड़ा करने की कोशिश में लगाएगा.
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आज जब कहीं विपक्ष नहीं है, जनविरोधी नीतियों पर सत्ता वर्ग का पूर्ण एका है तो जनता ही विपक्ष है और उसका प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली जनपक्षधर ताक़तें इसका हिरावल दस्ता. हम अपनी बेहद सीमित ताक़त और उपस्थिति के साथ इस ज़रूरी काम को करते रहने की अपनी भूमिका निभाने को संकल्पबद्ध हैं. हम थैलीशाहों और साम्प्रदायिक ताक़तों की इस चुनावी हार से खुश हैं लेकिन इसे न तो थैलीशाहों और न ही साम्प्रदायिकता की अंतिम हार की तरह देखते हैं और न जनता की किसी अंतिम और फैसलाकुन जीत की तरह.  

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