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शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

एम एम कलबुर्गी की हत्या के बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ नोट्स

सुमन केशरी

पिछले दिनों कन्नड़ लेखक और तर्कवादी प्रो. एम एम कलबुर्गी की हत्या उनके घर में ही घुस कर कर दी गई। कारण अंधविश्वास और धार्मिक कर्मकांडों के विरुद्ध उनका तर्क प्रधान अभियान। यह कोई पहली घटना न थी। उसके भी पहले सन् 2010 में केरल के टोडुपूझा में महात्मागांधी यूनिवर्सिटी के न्यूमैन कॉलेज में अध्यापक टी.जे.जोसेफ़ का कथित ईश-निंदा के लिए दाँया हाथ काट दिया गया था और विडंबना यह कि शुरु में जोसेफ़ को ही अपराधी ठहराते हुए उसे कॉलेज से निकाल दिया गया, जिसके चलते उसकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। बाद में कुछ लोगों को सजा मिली जरूर (आज कितनों को याद है यह घटना और जोसेफ़ का नाम तक)   अभी कुछ ही दिनों पहले ही दाभोलकर और पंसारे की आवाजों को खामोश कर दिया गया था। यू आर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान का टिकट भेजा जा चुका था। एम एफ़ हुसैन को तो शब्दशः दो गज जमीन भी न मिली कूचे यार में...
और उससे भी पहले गांधी की अहिंसा की आवाज को गोलियों की धायं धायं में दबाने की कोशिश से कौन नहीं अवगत!

यूँ इतिहास में जाएँ तो इस तरह की कोशिशों का अंत नहीं, किंतु यहाँ प्रश्न पर विचार, आज के संदर्भ में ही करना उचित है।  आखिर, यह कौन-सी सोच है जो किसी भी तरह के विरोध और तर्क को स्वीकार नहीं कर पाती? जो सारी दुनिया को अपने ही रंग में रंग डालने को यूँ बेतरह आमादा है?...और फिर रंग एक हो तो कहें...यहाँ तो सबका अपना रंग है और सभी रंगरेजों के लिए उनका वाला रंग ही सबसे ज्यादा सफेद है। उसकी धुलाई मेरी धुलाई से सफेद कैसी पूछ कर अपनी धुलाई की कमजोरियों को तो जानने समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। यहाँ तो बस अपनी धुलाई की चमक से ही आँखें ऐसी चकाचौंध हैं, कि सबको सिरे से अँधा कर देने के लिए ही सभी अपनी अपनी तरह से सन्नद्ध हैं।

यह घोर अस्मितावादी सोच का समय है, जिसमें आपस में स्पेस के लिए ऊपर से लड़ती दिखती विभिन्न धर्म आधारित, क्षेत्र आधारित, जाति आधारित, भाषा आधारित अस्मिताएँ वस्तुतः एक दूसरे को खून पिला कर, अपनी अपनी दुकाने चमका रही हैं, और अंततः लोकतांत्रिक स्पेस को कम कर रही हैं।

आम आदमी के सोच की, जीवन अपने ढंग से जीने की आजादी की जगह को कम कर रही हैं।  यह बहुत विकट समय है। अधिकांश तो कहेंगे कि समय की यह विकटता खासतौर से पढ़ने-लिखने, सोचने और रचने वालों के लिए है क्योंकि जाने कौन-से शब्द किसकी आत्मा को छलनी कर दें और जाने कौन-सी रेखाएँ किसी की भावना को आहत कर दें। पर अगर ध्यान दें तो क्या यह समय केवल बुद्धिजीवियों, कलाकारों, रचनाकारों के लिए कठिन है? क्या ऐसे समय में तथाकथित आम आदमी किसी भी तरह की मार से बचा रहता है? अथवा सबसे ज्यादा परोक्ष पिटाई उसी की होती है? उसको मारा जाना  इतना खामोश होता है कि सामने दिखाई नहीं देता और वह रूई की तरह धुना जाने को, फिर किसी गिलाफ़-रजाई का हिस्सा बनकर गुम मौत मर जाने को अभिशप्त होता है? दुनिया की आबोहवा, उसकी रंगत बदल जाती है और इसका अहसास तक नहीं होता।

याद करें आज से पंद्रह साल पहले हम कितनी बार ‘खाप’ और ‘खाप पंचायत’ जैसे शब्द सुनते थे और वह भी प्रेम के संदर्भ में! खापें बैठती जरूर थीं पर उनके काम का दायरा इतना बड़ा और प्रभावी न होता था कि उसका असर महानगरों में होने वाले विवाहों तक हो जाए। आज गाँव तो गाँव महानगर में भी जाति बाहर या बिरादरी भीतर शादियाँ इतनी सहज नहीं रह गईं।

अब जरा सोचें, कोई लेखक किसी धर्म, जाति, भाषा-भाव के बारे में कुछ तीखा या प्रश्नवाचक लिख कह देता है, कोई चित्रकार किसी देवी या पैगंबर का चित्र या कार्टून अपने हिसाब से बना देता है, किसी फिल्म में किसी देवता या रसूल के नाम पर लेकर कोई गीत बना दिया- गा दिया जाता है तो कुछ लोग इतना हाहाकार करते हैं कि उन शब्दों को, उन गीतों को, उन चित्रों को तुरंत हटाने की मांग, वे लोग यानि सत्ता में बैठे लोग करने लगते हैं, जिनका बुनियादी काम, ज्ञान और समझ को बहुआयामी बनाने का है, और इस तरह से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का है जो अपनी अपनी समझ के मुताबिक किसी भी धारणा को व्याख्यायित या प्रश्नांकित करने का साहस और योग्यता रखते हैं। यहाँ योग्यता में ज्ञान ही नहीं, कल्पना, रचना और पुनर्सृजन भी शामिल है। विष्णु के दशावतार की कथा क्या कल्पना और सर्जना के बिना संभव थी ? सीता के महादुख और पीड़ा को साकार करने के लिए ही तो उनका भूमिसात् होना कल्पित-सृजित किया गया होगा?

कर्बला का दुख आज भी तो अपने को प्रताड़ित करने में व्यक्त होता है! मेरी मैगद्लीन और जीसस के संबंध पर सोचना ही तो मनुष्य को ‘द लास्ट टैंपटेशन ऑफ़ जीसस क्राइस्ट’ और ‘द विंची कोड’ जैसी कृतियों की रचना करने को प्रेरित करता है।

मनुष्य का स्वभाव ही है कुछ भी सोचना, कल्पना करना और सृजित करना। अगर यह न होता तो आज भी हम पेड़ों पर लटक रहे होते! या वहाँ से मनुष्य योनि में प्रवेश कर भी गए होते तो जंगलों में रह रहे होते, कच्चा फल माँस खा रहे होते। पर ऐसा हुआ तो नहीं। दूर क्यों जाएँ, सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में स्वयं गैलीलियो को सूर्य केन्द्रित ब्रह्माण्ड बताने के लिए नजरबंद कर दिया गया था। यदि उन्हें मार दिया गया होता तो आज जिस रूप में हम काइनेमेटिक्स और मैकेनिक्स को जानते हैं, उसे जानना क्या असंभव नहीं हो जाता, क्योंकि तब खाली एक गैलीलियो थोड़े ही मारा जाता? जो भी उस राह पर चलता, यानी कि जो भी पृथ्वी की बजाय सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र साबित करने का प्रयास करता उसे मार दिया जाता। कल्पना और ज्ञान की सीमाएँ बाँध दी जातीं। उससे आगे जाना हैरेसी होती!

यह कैसी सोच है? मेरा तो अपने देश के सत्रहवीं सदी के एक शासक के संदर्भ में एक सवाल पूछने का मन हो रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही उस शासक का नाम सुर्खियों में आया है। ठीक समझे आप- औरंगजेब- दिल्ली में जिसके नाम की सड़क का नया नामकरण हुआ है- ए पी जे अब्दुल कलाम रोड। औरंगजेब की कुख्याति या बदनामी किस संदर्भ में है? अब इस संदर्भ में तो नहीं ही होगी कि उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया, या व्यापार को इतना बढ़ाया कि विश्व का  लगभग पच्चीस प्रतिशत व्यापार पर भारत का कब्जा हो गया। इसके लिए तो शर्तिया नहीं कि उसमें इतनी हिम्मत थी कि 1686 में  चटगांव पर कब्जा करने की नियत रखने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर सर चाइल्ड के सदके बंगाल के तमाम कारखानों से अंग्रेजो को उसने बेदखल कर दिया और गुजरात में भारतीय व्यापारियों और मक्का जाने वाले यात्रियों  को नुकसान पहुँचाने वाले अंग्रेज व्यापारियों पर डेढ़ लाख रुपयों का जुर्माना लगा कर र उन्हें सबक सिखाकर  अगले पचास सालों के लिए उन्हें शांत कर दिया।

औरंगजेब की भर्त्सना की जाती है उसकी अनुदारवादी नीतियों के लिए। इसके लिए कि उसने धर्म के नाम पर इस्लामेतर धर्मावलंबियों को परेशान किया। उसके कारणों की पड़ताल व व्याख्याएँ संभव हैं, पर चेतना में औरंगजेब की छवि कट्टर शासक की तो है ही। अब इसके विरुद्ध ए पी जे अब्दुल कलाम की छवि को देखें- एक उदार व्यक्ति की छवि!

तो इससे निष्कर्ष क्या निकला- यही न कि हम उदार छवि के एक व्यक्ति को, कट्टर छवि के शासक से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं, तभी तो रास्ते का नाम बदल रहे हैं। पर यहीं यह सवाल और जोरों से उभरता है कि क्या हम अपने आचरण में भी उदार हैं? यदि हाँ तो ऐसा कैसे हो जाता है कि जब खाप दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने का फ़रमान जारी करता है तो हम गूंगे बहरे हो जाते हैं! जब पार्क में बैठे दो प्रेमियों को सरेआम पीटा जाता है तो आसपास के लोग या तो तमाशाई बन जाते हैं, अथवा छिटक जाते हैं। जब टाइट जींस पहने किसी लड़की के पैरों पर मारा जाता है या उसके जींस को फाड़-काट दिया जाता है तो हम खामोश रह जाते हैं। जब कश्मीर में लड़कियों के बैंड को बजाने नहीं दिया जाता तो हम इस आधार पर चुप रहते हैं कि यह धर्म-संस्कृति, तहजीब का मामला है। और जब हुसैन का सर काटने की धमकी देकर उन्हें देश निकाला दे दिया जाता है, अनंतमूर्ति को पाकिस्तान का टिकट भेज उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, धमकाया जाता है, जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रुश्दी को शामिल नहीं होने दिया जाता, आशीष नंदी को प्रताडित किया जाता है,  और अब हाल के दिनों में तर्क करने और अंधविश्वास के खिलाफ़ लड़ने के लिए  पंसारे, दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्या कर दी जाती है तो भी हम आवाज शायद इस यकीन से नहीं निकालते कि यह तो चंद बुद्धिजीवियों का मामला है, हमें इससे क्या? बेकार की बाते मरोड़ेंगे तो कोई क्या करे!

पर सोचने की, विचारने की बात यह है कि क्या यह सचमुच चंद सिरफिरे बुद्धिजीवी-कलाकार कहलाने वाले लोगों का मामला है या फिर डर का ऐसा माहौल बनाने की तैयारी है कि लोगों के दिमाग कुंद हो जाएँ और वे जुबान खोलने से पहले ही डर जाएँ कि कहीं कोई ऐसी बात उनके मुँह से न निकल जाए, जिसकी कीमत सिर्फ जान ही हो सकती है...या फिर हुक्का बंदी, देशनिकाला...

आम आदमियों में से ही पैदा होते हैं ये चंद बुद्धिजीवी और कलाकार..पर उनमें खास यह होता है कि वे मन में आने वाले सवालों का हल खोजने लगते हैं, कल्पना करते हैं, उसे साकार करने में लग जाते हैं और सपने देखते हैं...और सपने केवल और केवल मनुष्य ही देखते हैं, कल्पना भी केवल और केवल मनुष्य ही करते हैं।  यह दरअसल मनुष्य को कल्पनाओं और सपनों से दूर रोबोट बनाने की तैयारी है- हुक्म का गुलाम, भाव-संवेदनाहीन रोबोट...जो मनुष्याभासी तो होगा पर मनुष्य नहीं क्योंकि प्रश्न करना, कल्पना करना, नया सृजन करना मनुष्य का स्वभाव है, ऋत है...

(श्री विजय शंकर व्यास एवं डॉ. श्रीलाल मेहता के संपादन में बीकानेर से प्रकाशित पत्रिका “विकल्प” के सितंबर 2015 अंक में छपा साहित्‍यकार सुमन केसरी का लेख)

6 टिप्‍पणियां:

  1. कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
    बहुत कठिन है डगर पनघट की।
    गंभीर विचारशील प्रस्तुति हेतु आभार!

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  2. सुमन केशरी जी,आपका यह लेख निश्चय ही बेहद सामयिक है ।लेकिन, पीछे मुड़कर देखने पर लगता है लंबे समय से यह सब कुछ घटित हो रहा है- मान बहादुर सिंह,सफदर हाशमी के अतिरिक्त सत्ता-संपोषित शक्तियों के खिलाफ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में डॉ.सेन जैसे लोगों के विरुद्ध यह सशक्त सा़जिश जड़ें जमाती अब बरगद की तरह असंख्य जड़ों का मतिभ्रम पैदा करने की कोशिश में लगी है ।
    कांग्रेस के शिला -पूजन का अंत ऐसे ही होना तय है ।मकबूल फिदा हुसैन और तसलीमा नसरीन के निष्कासन को भी हम कहां रोक पाये । इस अंत के लिए कहीं वाम की पारस्परिक फूट भी और हम सब भी कम जिम्मेदार नहीं हैं ।
    फिर भी इस आलेख के सवालों के साथ हम हैं ।

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  3. गजब का तीखा और शानदार लेख ।।।

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  4. बिलकुल सही , पर कश्मीरी पंडितों के कत्ले आम और खदेड़े जाते समय यह सोच कुंद क्यों हो जाती है ?

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  5. बिलकुल सही , पर कश्मीरी पंडितों के कत्ले आम और खदेड़े जाते समय यह सोच कुंद क्यों हो जाती है ?

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