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बुधवार, 16 दिसंबर 2015

अर्थसत्ता : चिली का अनुभव और मुक्त बाज़ार

अमर तिवारी जी का यह स्तम्भ "अर्थसत्ता" हम आज से जनपक्ष पर शुरू कर रहे हैं। अर्थशास्त्र के बाजारू सिद्धांतों की तह मे जाकर उनकी पड़ताल करने और अब तक के अनुभवों के आधार पर उनकी समीक्षा का उनका यह प्रयास मुझे बेहद सकारात्मक और ज्ञानवर्धक लगता है। आप सब इसमें सहभाग करेंगे तो यह और उपयोगी हो सकेगा। 




कल शशिभूषण जी ने ठीक कहा कि जो अपना इतिहास नहीं पढ़ते वे चिली का क्या पढ़ेंगे। मुझे भी इस मूर्खों और धूर्तों की टुकड़ी से कोई उम्मीद नहीं है। जो इनके पहले थे उनसे भी नहीं थी, क्योंकि वे तो अर्थशास्त्र के पंडित थे। ट्रेकिल डाउन और जाने कौन कौन से पोंगा सिद्धांत बघारते थे और फ्री इकॉनमी को वरदान मानते थे कि यही अब हर हिन्दुस्तानी की जिंदगी को जगमग कर देगी।

हमारे हुक्मरान कभी भी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक दबावों के आगे घुटने टेकने के अलावा कोई विकल्प नहीं पेश कर सके। यह उनके बस की बात ही नहीं थी। दरअसल फ्री मार्किट के एजेंट 1975 के पहले ही भारत घुसपैठ कर चुके थे और वे विभिन्न स्तरों पर लॉबीइंग करके या सीधे हस्तक्षेप द्वारा सरकारी निर्णयों को प्रभावित कर रहे थे। याद रखिये कि यही वह जमाना था जब अमेरिका में भी इकनोमिक डेरेगुलशन शुरू हुआ और वहां का अर्थ तंत्र पूंजीवाद के सबसे खतरनाक दौर में प्रवेश कर गया, और उत्पादन, निर्माण और विपणन का नियंत्रण परोक्ष रूप से मेन स्ट्रीट से वाल स्ट्रीट ने हथिया लिया।

अब चिली की बात पर आते हैं और ये देखते हैं की वह क्यों हमारे लिए आज प्रासंगिक है।

1950 -60 में चिली ठीक ठाक तरक्की पर था बिना किसी बाहरी मदद के। शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उद्योग पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में थे। (बताना जरुरी है कि चिली १८१० में आजाद हुआ और स्वशासन के दो प्रमुख काल खण्डों से गुजरते हुए १८९१ से ही संसदीय प्रणाली अपना ली थी और १९२५ से Arturo Alessandri Palma. के सुधारवादी नेतृत्व में मजबूत हो रहा था) वहाँ के सुदृद्ग होते कामकाजी मध्यवर्ग को "ईवोलूशन टू अवॉयड रेवोलुशन" के नारे के तहत संगठित किया जा रहा था। ऐसे दौर में जब उसके पडोसी दक्षिण अमेरिकी देश भी उससे रश्क करते थे; वहां पांव जमाये अमेरिकी कंपनियों को खतरा महसूस होने शुरू हो गया।

इसके पहले ही अमेरिका में १९२९ की भयानक मंदी को मार भागने के लिए रूज़वेल्ट द्वारा "न्यू डील" की घोषणा की जा चुकी थी और अमेरिकी सरकार बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मुहैय्या कराने का बीड़ा न केवल उठा चुकी थी बल्कि करा भी रही थी। इसी वजह से अमेरिकी पूंजीपति और उनके पिछलगुए अर्थशास्त्री भी कनमना रहे थे, जिनमें सबसे प्रमुख थे शिकागो यूनिवर्सिटी के मिल्टन फ्रीडमैन। उन्होंने "न्यू डील" के विरुद्ध और पूंजीपतियों के हक़ के लिए युद्धस्तर पर विरोध शुरू कर दिया।

इसके कुछ पहले यूरोपीय/अमरीकी पूंजीपतियों के पिछलगुए अर्थशस्त्रियों द्वारा एक संगठन की स्थापना भी हो चुकी थी जिसका नाम था --"मोंट पेलेरें सोसाइटी"; इसका उद्देश्य था --समस्त व्य[एरिक और औद्योगिक उपक्रमों से सरकारी नियंत्रण हटवाना। फ्रीडमन उसका सक्रिय सदस्य था और ऑस्ट्रिया का अर्थशास्त्री फ्रेडरिक वोन हायक अध्यक्ष। इस सोसाइटी ने एक पोंगा सिद्धांत निकला और न केवल प्रचारित किया बल्कि उसे संगठित रूप से लागू करने के लिए दुनिया की सभी सरकारों पर परोक्ष दबाव बनाने की भी शुरुआत की। कहना न होगा कि इसके पीछे दुनिया के सभी प्रमुख पूँजी पतियों ने समर्थन और धन लगाया।

यह पोंगा सिद्धांत था कि "यदि सरकार अर्थतंत्र से अपना समस्त नियंत्रण हटा कर उसे पूरी तरह मुक्त कर दें तो अर्थ व्यवस्था स्वयं ही अपने को सन्तुलित करती रहेगी ". ... इसके बाद ही मुक्त बाजार और मुक्त अर्थ व्यवस्था के खेल की शुरुआत कर दी गयी. ....१९५० के शुरूआती विरोध के बाद अयोग्य सरकारों को यह सिद्धांत तुरंत भा गया और दूसरों ने भी इसमें अपनी मुक्ति देखनी शुरू की।

अब पुनः चिली पर आते हैं---- तो चिली के आत्मनिर्भर बनते चले जाने और सरकार द्वारा पोषित उपक्रमों के पुष्ट होते जाने के दौरान वहां पांव पसारे पूंजी पतियों को अपनी तरक्की में बधा महसूस हुयी और उन्होंने अपने एजेंट मिल्टन फ्रीडमन को सक्रिय किया। फ्रीडमन ने अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर अपने लम्बे और सुनियोजित प्लान के तहत चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी से मेधावी छात्रों को जहाज भर भर कर शिकागो यूनिवर्सिटी बुलाया मुक्त बाजार की शिक्षा के लिए। सालों तक चले इस उपक्रम के बाद सैकड़ों की संख्या में मुक्त बाजार के पैरोकार तैयार होकर चिली पहुचने लगे और वहां के सरकारी, अर्ध सरकारी और निजी वसंस्थानो में अपनी जगह बनाने लगे। यही नहीं कैथोलिक यूनिवर्सिटी का अर्थशास्त्र विभाग पूरी तरह से शिकागो यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग का क्लोन बन गया और इसके मुखिया अर्नाल्ड हरबेर्गेर बन गए फ्रीडमन के भक्त.

नतीजा सत्तर के दशक की शुरुआत से सामने आया जब नयी चुनी गयी सरकार (राष्ट्रपति: साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस) को गिराने का प्रयास अमेरिका द्वारा किया जाने लगा। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने सीआईए को चिली में आर्थिक अस्थिरता पैदा करने का साफ़ निर्देश दे दिया। इसका एक मात्र कारण था नयी सरकार द्वारा अमेरिकी पूंजी द्वारा संचालित उपक्रमों का राष्ट्रीयकारण करने का प्रयास (जाहिर है की इससे अमेरिकी पूजी की पकड़ चिली के पर कमजोर होतो या ख़त्म होती)।

उस समय चिली के टेलीकॉम , बैंकिंग, माइनिंग आदि सभी प्रमुख क्षेत्रों का या तो राष्ट्रीय कारन कर दिया गया था या उनमें सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाया जा रहा था जिसके फलस्वरूप नयी सरकार के कार्यकाल के पहले साल में अच्छी आर्थिक प्रगति भी हुयी थी.

इधर अमेरिका के सरकारी पैसे, सीआईए और चिली की कैथोलिक यूनिवर्सिटी के मुक्त बाजार सेवक-शावकों द्वारा एक ५०० पेज का ब्लू प्रिंट तैयार किया गया जिसका नाम था -"ब्रेक "। इसके तहत बड़े पैमाने पर हड़ताल कराना, आम लोगों में भय पैदा करके उन्हें बैंकों से जमा पूँजी निकालने की उकसाना आदि के माध्यम से अस्थिरता/अशांति पैदा की गयी और असफल तख्तपालट की एक कोशिश हुयी। अमेरिकी पूंजीपतियों ने भी अपने पैसे बाजार से निकाल कर कृत्रिम आर्थिक संकट पैदा किया गया जिससे मुद्रास्फीति पहले १४०% और फिर ८००% तक पहुंच गयी।

जिस चिली ने ४० साल शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक शासन के बिताये थे उसकी गलियों में मिलिटरी की संगीनें लहराने लगी और इसकी चरम परिणति राष्ट्रपति भवन पर सीधे हमले द्वारा साल्वाडोर अलेंदे गोसेंस की सरकार को उखाड़ फेंकने में हुयी।

आज भारत में वही अभियान सक्रिय है, बेशर्म समझौतों द्वारा कुशिक्षित राजनेताओं को फुसलाया जा रहा है या तो धमकाया जा रहा है. चिली में तो शिक्ष को प्रायोजित किया गया था, अब तो सीधे हस्तक्षेप कर खरीदा जा रहा है। हमारे कुशासक पहले इसे अपरिहार्य बता रहे थे और आज निहाल हुए जा रहे हैं और हाथ उठा-उठा कर मेक इन इंडिया कर रहे हैं।
ठीक भी है वायरस पहले ठीक दिमाग में घुसाओ, इंसान को पागल करो बाकि बीमारियां वो अपने आप पैदा कर लेगा। धर्म को भ्रष्ट करना है, पंथ चलाना है तो पहले अपने पुरोहित पैदा करो .......

बच्चे है जो इस बात को समझ रहे है और विरोध में जान की बाजी लगा रहे हैं, लाठियां खा रहे है।

हुक्मरान कुशिक्षित हैं, मूर्ख हैं, बिके हुए हैं, बेहया हैं या यह सब होने के साथ क्रूर भी हैं......फिलहाल इस देश के पक्ष में नहीं हैं। ..और अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों को उतना भी नहीं जानते मानते जितना गली का एक व्यापारी अपनी सहज बुद्धि से ही जनता है।

इस बात को शायद छात्र समझ रहे है। थोड़ी बहुत उम्मीद भी उन्ही से है।

2 टिप्‍पणियां:

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…