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बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

या इलाही ये माजरा क्या है - विष्णु खरे


 आज दिल्ली विधानसभा के नतीज़ों पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की मुंबई के नवभारत टाइम्स में छपी यह टिप्पणी बहुत गौर से पढ़ी जानी चाहिए. हम इसे वहाँ से साभार प्रकाशित कर रहे हैं.


इंटरनेट से साभार 

एक भारतीय की हैसियत से 1952 से अपने सारे आम और विधान-सभा चुनाव देखता-सुनता आया हूँ,पत्रकार के रूप में उन पर लिखा भी है,जब से मतदाता हुआ हूँ,यथासंभव वोट भी डाला है,दिल्ली में 42 वर्ष रहा हूँ, लेकिन वहाँ  से आज जो नतीज़े आए हैं वह विश्व के राजनीतिक इतिहास में अद्वितीय हैं और गिनेस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में तो दर्ज़ किए ही जाने चाहिए.

एक ऐसी एकदम नई पार्टी, अपनी पिछले वर्ष की राजनीतिक गलतियों के कारण जिसने देशव्यापी क्रोध,मोहभंग और कुंठा को जन्म दिया था और लगता था कि वह कहीं अकालकवलित न हो जाए,अपने जन्मस्थान में एक अकल्पनीय चमत्कार की तरह लौट आई है.पिछले एक वर्ष में ‘आप’ ने वह सब देख लिया और दिखा दिया है जिसके लिए अन्य वरिष्ठ पार्टियों को कई दशक लग गए.भारतीय परम्परा में मृत्यु या उसके मुख से छूट जाने की कई कथाएँ हैं लेकिन ‘आप’ ने ग्रीक मिथक के फ़ीनिक्स पक्षी की तरह जैसे अग्नि से पुनर्जन्म प्राप्त किया है.
निस्संदेह,सारा श्रेय ‘आप’ के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जाता है जिन्होंने इतने उतार-चढ़ाव के बावजूद पार्टी  और अपने-आप में विश्वास बनाए रखा.लेकिन मेरे लिए दिल्ली के मतदाताओं के इस फ़ैसले को समझना बहुत सुखद और आश्चर्यजनक रूप से कठिन है.अभी पिछली मई में ही उन्होंने ‘आप’ को नकार दिया था और दिल्ली ‘भाजपा’ को सौंप दी थी.कहा जाता है कि भारतीय मतदाता के केन्द्रीय चुनाव के दाँत अलग होते हैं और विधान-सभाओं के अलग.लेकिन पिछले सिर्फ़ नौ महीनों में क्या हुआ कि उसने उन्हीं दाँतों से दिल्ली में ही ‘भाजपा’ को इस कदर चबा डाला ?
दिल्ली के मतदाता ने न सिर्फ़ ‘आप’ को लेकर अपने ग़ुस्से को वापस लिया बल्कि असाधारण वयस्कता और क्षमा-भाव का प्रदर्शन करते हुए उसे ऐतिहासिक विजय प्रदान की.लेकिन जो क्रोध अभी कुछ ही महीनों पहले उसे ‘आप’ पर था उससे कई गुना भयावह और क्रूर दंड उसने ‘भाजपा’ और काँग्रेस को दिया.दिल्ली के इतिहास में कोंग्रेस पहली बार नेस्तनाबूद-सी हो गई.लेकिन मुझे लगता है कि उसी अनुपात में उसने ‘भाजपा’ को भी बेवुजूद कर डाला है.इसे किरण बेदी के ग़लत चुनाव,पार्टी की अंदरूनी कलह,खुली बग़ावत आदि के बहानों से नहीं टाला जा सकता.दिल्ली के अवाम ने ‘भाजपा’ को ज़िबह कर दिया है – कोंग्रेस के साथ उसने जो किया है वह सिर्फ़ मरे हुए को मारने की तरह है.

दरअसल दिल्ली में ‘भाजपा’ की इस लज्जातीत पराजय का कूड़ेदान पूरे तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्रह-लाख की ब्रांडेड ‘बराक’ सूट-शैली पर उलटाया जा सकता है.’एनकाउंटर’ विशेषज्ञ अमित शाह की तो कोई दूसरी छवि अभी जनता में बन ही नहीं पाई है और दिल्ली के वोटर उनसे क्यों आतंकित होने लगे ? लेकिन पिछले कुछ महीनों मैं कस्बों में रहा हूँ और देश में हजारों किलोमीटर का सफ़र रेल और बस से किया है और स्पष्ट देखा-सुना है कि आम लोगों का मोहभंग नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार से हो चुका है.दरअसल केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी में बदलाव के अलावा जनता के जीवन में बेहतरी के लिए कोई बदलाव नहीं आया है.यदि बढ़ी है तो कथित हिन्दुत्ववादी ताक़तों की दबंगई और गुंडागर्दी बढ़ी है – भ्रष्टाचार,अपराध,महँगाई,ग़रीबी, नौकरशाही,नेताओं,सेठों और बिल्डरों की माफ़िआओं के साथ अफसरों और पुलिसकर्मियों की मिलीभगत आदि  बदतर हुए हैं .कानून और व्यवस्था को कोई डर किसी को नहीं है.कस्बों और छोटे शहरों में लगभग अराजकता का माहौल है.वहाँ के अखबारों को पढ़ना एक भयावह,आँखें खोल देने वाला अनुभव है.धर्म का सबसे पतित रूप सब जगह काबिज़ हो चुका है.हिन्दुत्ववादी ताक़तों और उनके कट्टर समर्थकों के अलावा कोई खुश नहीं है.लोग खुल्लमखुल्ला नरेंद्र मोदी की आलोचना और ठिठोली करने लगे हैं.इस जीत के साथ अरविन्द केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के हाथों वाराणसी में अपनी हार का हिसाब बराबर से भी ज़्यादा कर लिया है.

दिल्ली के परिणामों ने निस्संदेह मोदीशाही और हिन्दुत्ववादियों की नींद हराम कर दी है.यह तूर्यनाद-सन्देश सिर्फ़ दक्षिण एशिया को नहीं,सारे विश्व को गया है कि ‘’मोदीशाह से कौन डरता है?’’ और यह कि उन्हें एक साल के भीतर ही राष्ट्र की राजधानी में उनके पूरे तंत्र और राजनीतिक हर्बे-हथियारों के जेरे-साये इस बुरी क़दर हराया जा सकता है कि पीने को पानी न मिले.पचास वर्ष काबिज़ रहने के हिटलरी मंसूबे पचास हफ़्ते तक टिक न सके.मोदीशाह  का मुलम्मा इतनी जल्दी उतर जाएगा ऐसी उम्मीद उनके कट्टरतम बुरा चाहने वालों को भी नहीं रही होगी.विचित्र संयोग है कि आज ही यदि विदेशों में करोड़ों रुपए की लूट को छिपा कर रखने वाले डाकू नंगे कर दिए गए हैं तो इसी दिन दिल्ली की जनता ने हमारे राजा का सूट भी एक झटके में मुल्क के सामने उतार दिया है.
‘आप’ की विजय और मोदीशाह की शिकस्त के दूरगामी राष्ट्रीय और वैश्विक परिणाम हासिल किए जा  सकते हैं यदि आगामी चुनावों में ग़ैर-भाजपाई पार्टियाँ अपनी आत्महत्या न दुहराएँ और एक प्रबुद्ध तालमेल,समझौता और रणनीति बनाकर चलें.’आप’ को यथाशीघ्र प्रत्येक राज्य में अपने दफ्तर और काडर खड़े करने होंगे – वह हो भी रहे थे.अब तो ‘आप’ का जनाधार और मज़बूत होगा.दिल्ली के इस चुनाव में जिस तरह ‘आप’ को अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों ने लगभग एकमुश्त वोट दिया है इससे देश की राजनीति में एक अलग ही युग की शुरूआत की संभावना देखी जा सकती है.

‘आप’ की दिल्ली विजय,और ‘आप’ से पहले संसद-स्तर पर भाजपा की विजय – दोनों  का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर कम ध्यान दिया गया है और वह यह कि दोनों चुनाव हिंदी के माध्यम से लड़े और जीते गए.अंग्रेज़ी लगभग पूर्णरूपेण अनुपस्थित थी – हालाँकि यहाँ यह भी देखना होगा कि कौन-सी हिंदी ने पिछले वर्ष भाजपा को जिताया और किस हिंदी ने आज दिल्ली में भाजपा को हराया और ‘आप’ को सत्तारूढ़ किया.’आप’ को चाहिए कि दिल्ली से अपना एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अविलम्ब शुरू करें.मैं समझता हूँ कि कॉंग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों की वर्तमान दयनीय स्थिति का एक बड़ा कारण धीरे-धीरे उनका हिंदी-निरक्षर होते जाना है.ग़ैर-हिंदी प्रदेशों की राजनीति का काम हिंदी के बिना ( भी/ही ) चल सकता है.हिंदी  और समसामयिक प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजनीति के जटिल रिश्तों की गहरी पड़ताल होनी चाहिए.लेकिन यह सही लगता है कि सिर्फ़ अंग्रेजीदाँ पार्टियों और ‘’नेताओं’’ के दिन अब लद चुके.शशि थरूर जैसों को दुःख होता होगा कि राजनीति अब मवेशी श्रेणी से भी पतित होकर गोबरपट्टी-शैली तक गिर चुकी है.

आज के दिल्ली के नतीज़ों के महत्व को अतिरंजित करना जितना नामुमकिन है, उन्हें समझना भी उतना ही कठिन है.वोटरों ने जिस तरह से ‘आप’ को क्षमा ही नहीं पुरस्कृत भी किया है यह उनकी प्रौढ़ता का परिचायक तो है ही,किरण बेदी,अमित शाह,नरेंद्र मोदी और समूची भाजपा पर उन्होंने जिस तरह से कशाघात किया है और उनसे भयमुक्त किया है वह एक ऐसी सूझ-बूझ और निर्भयता का प्रमाण है जो अभी हमारे राजनीतिक विश्लेषकों और आरामकुर्सी-बुद्धिजीवियों के पास नहीं हैं.अण्णा हज़ारे को भी इसमें पुनर्चिन्तन के लिए बहुत-कुछ है. यह यह भी बताता है कि सामान्यजन के मन-मस्तिष्क और देश की सियासत के बारे में भी अखबारों और चैनलों द्वारा अब फ़ौरी फ़तवे नहीं दिए जा सकते.वर्तमान कठिन परिस्थितियों में दिल्ली के वोटर देश के लिए इससे ज़्यादा और क्या कर सकते थे ?

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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

आप का उभार और वाम दल

दिल्ली के चुनावों में अप्रत्याशित सफलता और चुनाव के बाद के समीकरणों के सहारे सत्ता तक पहुँचने के बाद आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविन्द केजरीवाल को लेकर चर्चाएँ  स्वाभाविक रूप से ज़ारी हैं. भ्रष्टाचार के विरोध तथा जन लोकपाल के समर्थन में शुरु हुए आन्दोलन से लेकर राजनीतिक दल के रूप में मुख्यधारा की पार्टियों के एक विकल्प के रूप में उनके उभार ने आगामी लोकसभा चुनावों के समीकरणों को बुरी तरह से प्रभावित किया है. एक ओर दस साल से सत्ताशीन कांग्रेस पार्टी की उम्मीदों को हालिया विधानसभा चुनावों ने बड़ा धक्का लगाया है तो दूसरी तरफ लकड़ी के लाल किले से असली वाले तक के सफ़र के लिए बेक़रार नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भी इस नए उभार के असर को पूरी तरह से समझ नहीं पा रही और कभी कांग्रेस के खिलाफ़ लगने वाले इस आन्दोलन का सहयोग और समर्थन करने वाला संघ गिरोह अब इसे कभी एन जी ओ वादी से लेकर माओवादी बता रहा है तो कभी कांग्रेस से अंदरखाने के गठबंधन का आरोप लगा रहा है. क्षेत्रीय छत्रप अभी भी विभ्रम की सी स्थिति में हैं. यह संकट वाम दलों के भीतर भी है. एक तरफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात इसे गैर बीजेपी-गैर कांग्रेस दलों का हिस्सा बताते हुए तीसरे मोर्चे के लिए ज़रूरी बता रहे हैं तो दूसरी तरफ वाम बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा इनकी जबरदस्त आलोचना में लगा है. इसके अलावा खासतौर पर वाम दलों के हमदर्द लोगों का एक बड़ा हिस्सा इस उभार को इस रूप में सकारात्मक मान रहा है कि इन्कलाब तो जब होगा तब होगा, अभी कम से कम साम्प्रदायिक भाजपा और भ्रष्ट कांग्रेस का एक विकल्प तो मिला जो अपने आउटलुक में जनपक्षधर और आम आदमी जैसा दिखता है.यही नहीं तमाम लोगों को ऐसा लग रहा है कि केजरीवाल मोदी के उस रथ को रोकने में सक्षम हो सकते हैं जो कर पाना अभी अनुपस्थित तीसरे मोर्चे या कांग्रेस के लिए मुश्किल लग रहा था.

देखा जाय तो जिस दौर में जन लोकपाल का आन्दोलन अन्ना के नेतृत्व में शुरू हुआ था, उस समय कमोबेश सभी संसदीय  वाम दलों ने इस आन्दोलन का समर्थन किया था और माले तथा इसकी छात्र इकाई आइसा ने तो इसमें सक्रिय हिस्सेदारी भी की थी और इस पूरे आन्दोलन में हुए इकलौते लाठीचार्ज को इसी संगठन के साथियों ने झेला था. जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण ने उस दौर में लिखे अपने एक लेख में (जो तीन क़िस्तों में मृत्युबोध नामक ब्लॉग और जसम की पत्रिका समकालीन जनमतमें प्रकाशित हुआ) लिखा था– “अमेरिका से बेहतर कोई नही जानता कि यह आन्दोलन महज़ लोकतंत्र के किसी बाहरी आवरण तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें एक साम्राज्यवाद विरोधी संभावना है...आईडेंटिटी पालिटिक्स के दूसरे भी कई अलंबरदार इस आन्दोलन को ख़ास जाति समूहों का आन्दोलन बता रहे हैं. पहले अनशन के समय रघुवंश प्रसाद सिंह के करीबी कुछ पत्रकार इसे वाणी दे रहे थे. अभी कल हमारे मित्र चंद्रभान प्रसाद इसे सवर्ण आन्दोलन बता रहे थे एक चैनल पर. यह वही चंद्रभान जी हैं जिन्होंने आज की बसपाई राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग यानी ब्राह्मण-दलित गठजोड़ का सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत करते हुए काफी पहले ही यह प्रतिपादित किया था कि पिछड़ा वर्ग आक्रामक है, लिहाजा रक्षात्मक हो रहे सवर्णों के साथ दलितों की एकता स्वाभाविक है.  यह यही चंद्रभान जी हैं जिन्होंने गुजरात जनसंहार में पिछड़ों को प्रमुख रूप से जिम्मेदार बताते हुए इन्हें हूणों का वंशज बताया था. अब सवर्णों के साथ दलित एकता के इस 'महान' प्रवर्तक को यह आन्दोलन कैसे नकारात्मक अर्थों में महज सवर्ण दिख रहा हैवफ़ा सरकार और कांग्रेस के प्रति जरूर निभाएं चंद्रभान, लेकिन इस विडम्बना का क्या करेंगें कि मायावती ने अन्ना का समर्थन कर डाला है.”  आश्चर्यजनक तौर पर बाद के दौर में जब किरण बेदी, जेनरल वी के सिंह और रामदेव जैसे लोग अरविन्द केजरीवाल से दूर हो गए और उन्होंने राजनीतिक दल बनाने के बाद न केवल कांग्रेस और भाजपा दोनों पर सामान रूप से हमला बोला बल्कि अपने घोषणापत्र में आरक्षण के समर्थन में स्पष्ट घोषणा की तो धीरे धीरे माले न इस मुद्दे पर एक चुप्पी सी बना ली. जबकि  सबसे स्वाभाविक तो यह होता कि अपनी नीति को ज़ारी रखते हुए ये दल आप के सक्रीय सहभागी की तरह सामने आते और चुनाव में भी गठबंधन करते. खैर, इसकी वज़ह क्या रही यह बता पाना मुश्किल है.

आप के उभार को एक तरफ़ यह साफ़ हो गया है कि जनता तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का विकल्प चाहती है तो दूसरी तरफ यह भी कि नब्बे के दशक के बाद लागू नवउदारवादी नीतियों के दुष्परिणाम अब जब सामने आने लगे हैं तो विकास के बड़े बड़े दावों के बीच जनता की असली ज़रूरतें अब भी वही हैं. साफ़ पानी, सस्ती बिज़ली, रहने को घर और सस्ता अनाज जैसी चीजें मुहैया कराने में असफल रहा विकास जनता नकार रही है यह कहना तो अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है इनके बिना वह किसी विकास माडल को स्वीकार करने को तैयार नहीं. आप जैसी पार्टी ने एक ओर तो बड़ी पार्टियों के दम्भ और हर चुनाव में दुहराए जाने वाले बासी वायदों के समक्ष आम आदमी वाली छवि सामने रखी तो दूसरी तरफ सबको प्रभावित करने वाले भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे को सामने रख जनता को ज़रूरी सुविधाएँ उपलब्ध कराने का जो वादा किया वह जनता के लिए अधिक विश्वसनीय और आश्वस्तिकारक था. हालाँकि विचारधाराहीनता की जो नीति उन्होंने अपनाई है उसको तुरत तो जनता ने तवज्जो नहीं दिया है लेकिन सस्ती बिज़ली जैसी नीतियाँ लागू करते समय कार्पोरेट्स के हितों से जो स्पष्ट टकराव होगा उस समय ‘आप’ के लिए तटस्थता की यह नीति अपना पाना मुमकिन न होगा और देखना होगा कि वह अपना पक्ष कैसे चुनती है.


यहाँ यह सवाल भी बार बार उठाया जा रहा है कि वाम दल, जिनकी जनपक्षधरता असंदिग्ध है और जो जनता के पक्ष में कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ़ लगातार संघर्ष करते रहे हैं, वे जनता के समक्ष खुद को विकल्प के रूप में प्रस्तुत क्यों नहीं कर पाए? आज तमाम लोग न केवल यह सवाल कर रहे हैं बल्कि आप के उदाहरण से भारत के संसदीय वाम की आलोचना भी कर रहे हैं.  

तात्कालिकता से प्रभावित हो कोई अंतिम सत्य कहने के भ्रम पालने से बेहतर होगा कि इस पर थोड़ी देर रुक कर सोचा जाए. क्या आप जैसी कार्यवाही वाम दल कर सकते थे और वैसी ही सफलता हासिल कर सकते थे? क्या आप वाम दलों जैसा ही दल है? क्या आप की यह सफलता हर हाल में दीर्घजीवी है?

उदाहरण के लिए आप के आन्दोलन की मीडिया कवरेज़ को लिया जा सकता है. अखबारों और चैनलों की दुनिया से परिचित लोग जानते हैं कि वाम दलों से जुड़ी ख़बरों को बाक़ायदा ब्लैक आउट करने के निर्देश वाले चैनलों और अखबारों ने किस तरह पहले दिन से इस आन्दोलन को बढ़ा चढ़ा के कवर किया था. कारण स्पष्ट है. जहाँ वाम दल उन नीतियों का ही विरोध करते हैं जो कार्पोरेट्स की लूट को संवैधानिक स्वीकृति देते हैं, अन्ना का आन्दोलन या फिर अब केजरीवाल की पार्टी संविधान द्वारा स्वीकृत नीतियों को ही पूरी ईमानदारी से लागू कराने की बात करते हैं. इनमें किसी आमूलचूल परिवर्तन की कोई बात होने की जगह इसी व्यवस्था को थोड़ा और सहनीय बनाने की कोशिश है जो अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में जनता को ही नहीं कार्पोरेट्स के एक बड़े हिस्से को भी बेहतर लगती हैं. ईमानदार सरकारी तंत्र और कारपोरेट सहयोगी सरकारी नीतियों का जोड़ा लूट के तंत्र को बनाए रखने का सबसे सहज तरीक़ा है जिसके तहत बाक़ायदा सरकारी पुलिस हड़ताली मज़दूरों को गिरफ्तार करती है और मालिकान को सुरक्षा देती है तथा न्यायालय हड़ताल को ग़ैरकानूनी घोषित करते हैं. ज़ाहिर है उन्हीं मज़दूरों को नेतृत्व देने वाले दल न मालिकान की पसंद हो सकते हैं न ही उनके अखबारों या चैनलों के तो जो इमेज बिल्डिंग का पूरा तंत्र है वह उन्हें कभी वह जगह नहीं दे सकता है जो आप या ऐसे किसी अन्य दल को.

ऐसे में आप या उसकी कार्यविधि से वाम दलों की तुलना उचित नहीं होगी. लेकिन सारा ठीकरा कार्पोरेट्स के सर फोड़कर निकल लेना जनता की चेतना के ऊपर अविश्वास तो है ही साथ ही अपनी कमियों को नज़रअन्दाज़ करना भी है. आख़िर जिन कार्पोरेट्स के खिलाफ़ वाम दल आवाज़ उठाते रहे हैं, उनसे सहयोग की उम्मीद भी कैसे और क्यों की जानी चाहिए? उन्हें तो अपना रास्ता ख़ुद बनाना होगा और यदि नहीं बना पा रहे तो यह सही समय है जब अपनी नीतियों और तरीकों पर गंभीर पुनर्विचार करना होगा. वाम दल गिमिक्स के भरोसे सत्ता में नहीं आ सकते. उनका इकलौता सहारा वह जनता है जिसकी रहनुमाई का वे दावा कर सकते हैं. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि उस जनता के बीच उनकी विश्वसनीयता लगातार कम हुई है और उपस्थिति भी. जिन इंडस्ट्रीज़ से ट्रेड यूनियनें आती थी अर्थव्यवस्था के भीतर उनका प्रभाव कम होने के साथ साथ वे ट्रेड यूनियनें, जो पहले ही अर्थवाद में फंस कर अपनी वैचारिक धार खो चुकी थीं, अब लगभग निष्क्रिय और निष्प्रभावी हो चुकीं हैं. नब्बे के बाद प्रभावी हुए उद्योगों में यूनियने बनाना बेहद मुश्किल हुआ है और वहाँ वाम दलों की यूनियनें लगभग अनुपस्थित हैं. छात्र मोर्चे पर भी एस ऍफ़ आई और ए आई एस ऍफ़ जैसे संगठन ज़्यादातर जगहों पर अनुपस्थित हैं तो आइसा की उपस्थिति भी सीमित ही है. यहाँ भी जिन नए तरह के शैक्षणिक संस्थानों (प्रबंधन, इंजीनियरिंग आदि) में बहुतायत छात्र जा रहे हैं, वहाँ छात्र राजनीति की कार्यवाहियाँ नामुमकिन हैं. शोषण के सबसे प्रमुख केंद्र बन चुके गाँवों में वाम दलों के संगठन दिखाई नहीं देते तो कम से कम उत्तर भारत के कस्बों और छोटे शहरों में भी उनकी उपस्थिति हद से हद नाममात्र की है. ऐसे में उनकी किसी आमूलचूल परिवर्तनकारी भूमिका में उभरने की संभावना कहाँ दिखाई देती है? आप जैसा मध्यवर्गीय तथा ‘विचारधाराहीन’ दल अपने लोक लुभावन नारों के साथ दिल्ली में उभर कर देश भर में चर्चित हो सकता है. वह ‘ऊपर से नीचे’ की यात्रा कर सकता है. लेकिन मज़दूरों, ग़रीबों, गावों और परिवर्तन की बात करने वाले वाम दलों के लिए यह संभव नहीं, उन्हें हर हाल में नीचे से ऊपर की यात्रा करनी होगी. जो कहीं अधिक मुश्किल भी है और कहीं अधिक काँटों से भरी भी. वह धारा के विपरीत तैरने जैसा है, लेकिन उसका कोई विकल्प भी नहीं. जनता किसी के पास उसका मैनिफेस्टो पढ़कर नहीं आती, उस वटवृक्ष को हिलाने की ताक़त परिवर्तनकामी शक्तियों को खुद जुटानी होती है और आमूलचूल परिवर्तनों का कोई शार्टकट नहीं होता.

इसीलिए ‘आप’ के उभार को लेकर उसके अति-उत्साहपूर्ण स्वागत या फिर उतनी ही तीव्रता से आलोचना की जगह वाम ताक़तों को अब पूरी गंभीरता से विकल्पहीनता की इस स्थिति में, जहाँ पर आप जैसे भ्रम भी जनता को बहुत दिनों तक बहला नहीं पायेंगे या फिर जनता के पक्ष में खड़े हुए तो शनैः शनैः वाम के करीब आएँगे, उन्हें नीचे से ऊपर की तरफ उठते हुए मज़लूम जनता को गोलबंद कर लम्बी और फैसलाकुन लड़ाई में उतरना चाहिए. शार्टकट तो इसका नहीं होगा लेकिन जनता उस दीर्घ काल तक भी प्रतीक्षा नहीं करेगी जिसके बारे में स्मिथ ने कहा था कि ‘दीर्घ काल में हम सब मर जाते हैं.’