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बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

बाज़ार और टीवी सीरियल : प्रांजल धर

अँधेरा इन दिनों सबको नया-सा लगता है
बाज़ार की माँग के हिसाब से तय होते हैं टीवी सीरियलों के विषय और चरित्र

  • प्रांजल धर 


कोई सात साल पहले की मेरठ की एक ख़ूबसूरत रात की बात है। ख़ूबसूरत यानी सन्नाटे भरी। माघ महीने के अँजोर पाख की रात। शब्दों से नशा पैदा करने वाले शायर शबाब मेरठी से अचानक मेरी मुलाकात हुई। बातों-बातों में उन्होंने मुझसे कहा कि आप तो मीडिया पर लिखते हैं, आप यह बताइये कि आपको आज तक का सबसे पसन्दीदा टीवी सीरियल कौन-सा लगा? मैंने अपने दिल की बात तपाक से कह दी कि फिर वही तलाश। तब उन्होंने बताया कि इस सीरियल के टाइटिल सांग और डायलॉग्स को लिखने से लेकर इसकी रचना तक के अन्य अनेक चरणों में भी उनका योगदान रहा है। मेरे पास शब्द नहीं हैं, उस पल को बयाँ करने के लिए कि अपने सर्वाधिक प्रिय टीवी धारावाहिक की मुख्य टीम में शामिल रहे किसी महत्वपूर्ण शख्स से बहुत लम्बी बात करने का मौका मुझे मिला है। मैंने उनकी चर्चित किताब लोहे का जायका पढ़ी थी। यह किताब मेरे पैदा होने के तीन बरस पहले यानी सन 1979 में दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और नब्बे के दशक में मुझे मेरे एक पत्रकार मित्र ने उपहार में दी थी। शबाब मेरठी अच्छे शायर हैं, यह बात तो मुझे मालूम थी। पर सीरियल वाली बात से मैं बिल्कुल अनजान था। तभी सोचा था, और उन्होंने कहा भी था कि धारावाहिकों के बदलाव और विश्लेषण पर कुछ लिखो प्रांजल। इस बदलाव का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अपना एक शेर कहा था, किसी को दर्द, किसी को दवा-सा लगता है/ अँधेरा इन दिनों, सबको नया-सा लगता है। मैंने उनसे हाँ कहा था। उस लेखन की शुरूआत करते हुए मैं शबाब मेरठी साहब को धन्यवाद दे रहा हूँ।

जहाँ पिछली शताब्दी के सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन अकेला चैनल था, वहीं आज ज़ी टीवी, सोनी, कलर्स, स्टार प्लस, लाइफ़ ओके, सहारा वन और सब टीवी जैसे अनेक चैनल ऐसे धारावाहिकों को प्रसारित कर रहे हैं जिनसे हमारे देश का मिडिल क्लास बहुत लगाव महसूस करता है। हम लोग और बुनियाद के बाद आया रामायण और महाभारत जैसे टीवी सीरियलों का दौर। इसके बाद ब्योमकेश बख्शी और देख भाई देख जैसे सीरियलों ने अपना जलवा बिखेरा और उस समय के यथार्थ को परदे पर पेश करके इण्डियन सोप ओपेरा की नई इबारत लिखी। जहाँ ब्योमकेश बख्शी वकील से लेखक बने शरदिन्दु बन्द्योपाध्याय की साहित्यिक कृति का टेलीविज़न संस्करण था, वहीं देख भाई देख ने जया बच्चन के प्रोडक्शन और आनन्द महेन्द्रू के लेखन और निर्देशन के अन्तर्गत हल्की-फुल्की कॉमेडी टीवी शो के रूप में अपनी खूब पहचान बनाई। देख भाई देख पहले तो डीडी मेट्रो पर 1993 से 1997 के दौरान दिखाया गया और बाद में सोनी सब टीवी और दूरदर्शन पर इसका पुनर्प्रसारण किया गया। फ़रीदा जलाल, शेखर सुमन, नवीन निश्चल और उर्वशी ढोलकिया जैसे कलाकारों के अभिनय ने दीवान परिवार की तीन पीढ़ियों की समानताओं-असमानताओं को नये तरीके से दर्शकों के सामने रखा था। बहरहाल, आज के सीरियल नई देहभाषा के साथ-साथ नये किस्म के संवादों को पेश करके बदलाव की नई बयार का रुख़ नापने की कोशिश करते नज़र आते हैं। यह ठीक है कि न सिर्फ़ सीरियलों के मुद्दे बदले हैं, बल्कि उनकी थीम, करेक्टर, भाषा और बारीकी की मात्रा में भी बहुत परिवर्तन आए हैं। इनमें से काफी कुछ तो बाजार ही तय कर रहा है ताकि लोगों का टाइम पास आराम से हो सके। फिर भी तमाम दर्शकों को आज की तकनीकों से लैस धारावाहिक अँधेरे की तरह ही लगते हैं। किरदारों के चेहरों पर लगातार लम्बे समय तक कैमरे को फोकस कर-करके दर्शकों को बोर करना मानो आज शगल ही बन चुका है। ऊपर से कानफोड़ू ध्वनियाँ तंग करती हैं, जिन्हें कम से कम संगीत कहने से तो परहेज ही करना उचित होगा। इन सवालों पर सीरियल निर्माताओं को सोचना चाहिए।

समय के साथ पहनावे, फैशन, सोच-विचार और राजनीतिक यथार्थ में बदलाव आए। यह राजनीतिक यथार्थ में आई बदलाव की लहर को पकड़ने की ही कोशिश है कि ज़ी टीवी के सीरियल कुबूल है ने धर्म और रिश्तों के आपसी उलझाव की व्यापक पड़ताल की। ज़ोया और असद की तय शादी के बार-बार टूटने का यथार्थ हमें बताता है कि आज समय किस कदर बदल चुका है। असद का छोटा भाई इस सीरियल में अपने पहनावे का बहुत खयाल रखता है। वैसे इस सीरियल ने इस्लामी कल्चर को बेहद रवानी के साथ पेश किया है और आज धारावाहिकों की भीड़ में भी यह शायद अकेला ऐसा सीरियल है जो मुसलमानों में हो रहे वैचारिक परिवर्तनों को बेहद गहराई से रेखांकित करता है। पर एक अँधेरा पहलू यह भी है कि आज के धारावाहिकों में कुछ खास टाइप्ड फ़ार्म्यूलों और कुछ स्पेशल स्टाइल के उबाऊ दोहरावों के कारण दर्शकों का एक बड़ा तबका इनसे भाग भी रहा है। इसीलिए सीरियलों में व्याप्त अँधेरे को दूर करने के लिए सीरियल इण्डस्ट्री पर एक दबाव यह है कि किस तरह इस दूर भागते दर्शक वर्ग को नज़दीक लाया जाए?

भारतीय समाज का एक पुराना मिथक है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। क्या किसी कामयाब स्त्री के पीछे किसी मर्द का हाथ नहीं हो सकता! हमारे नये समय की नई सोच को देखना हो तो दिया और बाती हम का नाम लिया जा सकता है। स्टार प्लस के इस सीरियल में कम पढ़ा-लिखा सूरज अपनी टॉपर पत्नी सन्ध्या के सपनों को पूरा करने के लिए अनेक मुसीबतें झेलता है। यह सीरियल वैचारिक बदलाव का बैरोमीटर है। पुष्कर की एक मारवाड़ी फैमिली से जुड़े ढेर सारे पहलुओं को दिखाकर दर्शकों का मन मोहने वाला यह सीरियल परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करता है। हमारे समय की आधुनिकता के तापमान को मापते हुए यह सीरियल परम्पराप्रेमी सास भाभो को दर्शकों के सामने लाता है और उनके संवादों के ज़रिये प्रेम में मगन एक ऐसे जोड़े को पेश करता है जिनकी शैक्षिक योग्यताएँ बहुत अलग हैं, जिनमें बहुत ज्यादा ऐसे डिफ़रेंसेज़ हैं, जिसे हम मनोविज्ञान की चलताऊ भाषा में ईडियोसिनक्रेसीज़ कह सकते हैं।
 प्रेम फिल्मों के लिए ही नहीं, बल्कि सीरियलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय रहा है। सवाल है कि इस घिसे-पिटे विषय में नया क्या है? हाँ, नया है प्रेम को पेश करने का तरीका, चाहे वह एसएमएस की सुविधा का लाभ लेते हुए किया जाए या फिर वैलेण्टाइन कार्ड देकर। उदारीकरण और सैटेलाइट चैनलों की बाढ़ के बाद प्रेम की व्यूअरशिप में जो बदलाव आए उन्होंने सीरियल-निर्माताओं पर यह दबाव डाला कि वे प्रेम के ऐसे पक्षों को प्रसारित करें जो या तो अब तक अछूते रहे थे या फिर जिनका ग्लोबल करेक्टर रूपायित नहीं हो पा रहा था। पर इस ग्लोबल करेक्टर में सामाजिक सरोकार खोजना रेगिस्तान में पानी खोजने के बराबर कठिन हो सकता है। पहले भी प्रेम के सीरियल बने और दिखाए गये थे। उदाहरण के लिए हम प्रेम के गुनगुने और शरबती आयाम को दिखाने वाले दूरदर्शन के दो दशक पुराने सीरियल फिर वही तलाश का नाम ले सकते हैं। यह सीरियल जब शुरू होता था तो शबाब मेरठी के लिखे टाइटिल सांग की ये पंक्तियाँ अनिल बिस्वास के संगीत के अन्तर्गत चन्दनदास की मीठी आवाज़ में गूँजती थीं-

     यूँ निकल पड़ा हूँ सफ़र पे मैं, मुझे मंजिलों की तलाश है,     नए रास्ते, नए आसमाँ, नए हौसलों की तलाश है।     जहाँ बन्दिशों की हो हद ख़तम, उस हसीं सहर की तलाश है,     जहाँ रंग-ओ-ख़ुशबू का हो मिलन, मुझे उस उफ़क़ की तलाश है।

पर इस टाइटिल सांग का वह हिस्सा भी कुछ कम मज़ेदार नहीं जो इस सीरियल में नहीं गाया गया था। वह यों है-
     मुझे याद है तेरे इश्क में कभी फूल बनके हँसा था मैं,     मेरी उस हँसी पे जो हँस सके, उन्हीं कहकहों की तलाश है।     कोई मुझसे दूर भी जाए तो, जिन्हें अपनी रूह में सुन सके,     मुझे ज़िन्दगी तेरी नब्ज़ में उन्हीं आहटों की तलाश है।     वो जो मुद्दतों मेरे साथ था, वो जो मेरा दाहिना हाथ था,     मेरी ज़िन्दगी से निकल गया, मुझे आसरों की तलाश है।


इनके बरअक्स आज प्रेम को केन्द्र में रखने वाले सीरियलों का मिजाज अलग ही है। कॉस्मेटिक उत्पादों से लबरेज। कई बार तो कॉरपोरेटिया प्यार भी और अक्सर प्रोफेशनल। मसलन, मधुबाला – एक इश्क, एक जुनूँ की बात करें तो एक ब्यूटीशियन का काम करने वाली और फिल्म इंडस्ट्री के इर्द-गिर्द पलने-बढ़ने वाली इसकी नायिका मधु और उसके प्रेमी आरके के बीच आने वाले नए-नए अड़ंगे दर्शकों को काफी पसन्द आए। आज इश्क से जुड़ी चीजें प्यार का दर्द है मीठा-मीठा, प्यारा-प्यारा(स्टार प्लस पर) और बड़े अच्छे लगते हैं(सोनी पर) जैसे सीरियलों के ज़रिये अपने बदले हुए रूपों में दिखाई जा रही हैं। बानी – इश्क द कलमा जैसे सीरियलों ने उन भारतीय परिवारों पर अपना फोकस किया है जो अपनी बेटियों के लिए एनआरआई यानी कोई विदेश में बसा भारतीय या भारतीय टाइप का लड़का खोजते हैं। बैकग्राउण्ड में पंजाबी जीवनशैली को रखने वाले इस सीरियल का नाम शुरू-शुरू में गुरबानी था लेकिन सिखों की कुछ आपत्तियों के चलते इसका नाम बदल दिया गया। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए लोकेशन अब ड्राइंगरूम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आउटडोर शूटिंग, हरियाली और पेड़ों की प्रस्तुति पर भी खासा ध्यान दिया जाने लगा है। तमाम सीरियल तो जान-बूझकर गाँव-जवाँर की सोंधी माटी, खेतों और फसलों के आंचलिक नज़ारों का मद्धिम छौंक लगाते नज़र आते हैं।

 बड़े अच्छे लगते हैं ने सास बहू जैसी किसी स्टोरी की बजाय चालीस की उम्र के आस-पास के एक जोड़े की भावनाओं को समग्रता में दिखाया है। युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएँ ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बढ़ी हैं और लिव-इन, होटल कल्चर या करियर की तरफ ध्यान देने के कारण आज विवाह की उम्र बढ़ी है। राम कपूर और प्रिया पहले शत्रुता का भाव रखते हैं, फिर दोस्त बनते हैं और वक्त के साथ यह दोस्ती प्यार में बदल जाती है। इस सीरियल में, और प्रकारान्तर से कहें तो आज के अनेक सीरियलों में भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते भी पार्श्व में चलते रहते हैं। यह सब एक भव्य सेट के साथ आज के सीरियलों में दिखाया जा रहा है। हालाँकि क्योंकि सास भी कभी बहू थी जैसे सीरियलों ने भी संयुक्त परिवार की विकृतियों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और दर्शकों ने इसे खूब पसन्द भी किया है। आज के सीरियलों ने हमारे समाज का चित्र खींचने के साथ-साथ उसे यह प्रेरणा भी दी है कि उसे कैसा होना चाहिए। उदाहरण के लिए प्यार का दर्द है मीठा-मीठा, प्यारा-प्यारा की अवन्तिका के फ़ैशन सेंस ने बहुत प्रशंसक पैदा किये हैं और मेट्रोपॉलिटन्स में ही नहीं, गाँवों में भी इस तरीके के फ़ैशन का असर देख सकते हैं। यहाँ आदी और पंखुरी के दोस्ताना रिश्ते में प्यार का मसालेदार छौंक भी मिला हुआ है। ज़ाहिर है कि आज का समाज नीम का पेड़ वाले समाज से काफी आगे का है और आज के व्यूअर्स परिधान और गहनों के साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि उनके प्रिय सीरियल में किरदारों के पास किस कम्पनी के मोबाइल फोन्स, आई पॉड्स या कारें हैं या फिर उनके घरों की, उनके किचन की सजावट भला किस तरह की गयी है। इण्टीरियर डेकोरेशन वाले समय में आज खाने से ज्यादा जोर खाना परोसने के और खाना खाने के तरीकों पर है। अधिकतर सीरियलों के परिवार आर्थिक रूप से सम्भ्रान्त दिखते हैं, लम्बी-लम्बी विदेशी गाड़ियाँ दिखाते हैं या फिर गाँव-गँवई के फुटेज लाकर रूरल-अरबन डिवाइड का रेखांकन करते हैं।

 सोचने वाली बात है कि आज के सीरियलों की स्क्रिप्ट भला किस किस्म के लोग लिख रहे हैं? एक दौर था जब शबाब मेरठी जैसे लोगों ने यह काम किया था, गरीबी के ऐसे दिन देखे थे कि पेट भरने के लिए अपने तमाम लेखों और स्क्रिप्ट को रद्दी में कबाड़ी वाले को बेच दिया मजबूरी में। आज भी मेरठी साहब (जिनका मूल नाम दिनेश कुमार स्वामी है) कहते हैं कि मैं सोचता था कि गीत और स्क्रिप्ट मैं किसी को दिखाकर क्या करूँगा प्रांजल! जिसको मेरा लेखन अच्छा लगेगा, वह मुझे खुद खोज लेगा। उसके बाद वे बताते हैं कि किस प्रकार कमलेश्वर जी ने अपनी कथा यात्रा नामक पत्रिका में उनकी रचनाओं को प्रमुखता से स्थान दिया था, कि किस तरह बेनज़ीर भुट्टो उनसे तब सम्पर्क रखती थीं, जब वे निर्वासन में थीं और अख़बार निकाला करती थीं, कि किस प्रकार मेरठी साहब कितनी गहराई तक कम्युनिस्ट बने रहे...। ये संस्मरणात्मक बातें लिखने का औचित्य यहाँ नहीं बनता इसलिए इन चीज़ों पर कभी बाद में विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतनी प्रासंगिकता इन बातों की यहाँ ज़रूर है कि अगर स्क्रिप्ट राइटर काफी पढ़ा-लिखा होगा, हाशिये के लोगों के प्रति उसमें कोई संवेदना होगी तो कहानी में दम अपने आप आ जाएगा और कोई भी सीरियल उतना ही कामयाब या लोकप्रिय होता है जितनी कि उसकी कहानी। आर.के. नारायण की लघु कथाओं पर आधारित मालगुडी डेज़ इस बात की एक उम्दा मिसाल है।



 चाहे वह नैतिक और अक्षरा सिंघानिया के रिश्तों को लेकर दिखाया जाने वाला सीरियल यह रिश्ता क्या कहलाता है हो या फिर कच्ची उम्र के पक्के रिश्तों का खाका खींचने वाला सीरियल बालिका वधू, इन सबमें मानवीय सम्बन्धों की भीतरी तहों तक पहुँचने की कोशिश की गयी है। उन तहों की जिन्हें हमारे देश का मध्य वर्ग देखना चाहता है, जब वह टाइम पास कर रहा होता है। शुद्ध मनोरंजन को केन्द्र में रखकर बनाये जाने वाले इन सीरियलों में समाज तो खूब दिखता है लेकिन सामाजिक सरोकार उतने नहीं दिखाई देते। इनकी सारी संवेदनाएँ बनावटी लगती हैं, स्त्रियों की छवियों को भी ये कोई अच्छे तरीके से नहीं पेश करते, ये प्रायः बाज़ार के बोझ तले दबे-से नज़र आते हैं और समानता जैसे सामाजिक मूल्यों से इनका कोई वास्ता भी नहीं होता। शबाब मेरठी के ही शब्दों में कहें तो कुछ लोग जिनके पास चरागों के ढेर हैं/ वो लोग चाहते हैं बड़ी लम्बी रात हो। वैसे भी फेसबुक और इण्टरनेट से जुड़ी हमारी युवा पीढ़ी अपने घर के पड़ोस में रहने वाले लोगों की तुलना में उनकी फिक्र ज्यादा करती है जो उससे फेसबुक पर जुड़े हुए हैं, कहीं थाईलैण्ड या अमरीका में बैठे हैं और जिनसे न पहले कभी उनकी मुलाकात हुई होती है और न ही आगे होने की कोई सम्भावना बनती है। तो क्या मदर्स डे, फ़ादर्स डे और वैलेण्टाइन डे वाली टेलीविजन धारावाहिकीय संस्कृति ही हमारे समाज का पूरा सच है? अगर नहीं, तो मालगुडी डेज़ जैसे सीरियल आज क्यों कोई बना नहीं पा रहा?
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प्रांजल धर 
मई 1982 में  उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में जन्मे  प्रांजल की  कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में  प्रकाशित और प्रकाशित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर ' समर शेष है ' पुस्तक का संपादन। ' नया ज्ञानोदय ' और ' जनसंदेश टाइम्स ' समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार । वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार, वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान तथा  पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। हाल ही में कविता के लिए प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित 

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

मीडिया और विश्वसनीयता का संकट - प्रांजल धर

प्रांजल धर हमारे समय के न केवल महत्त्वपूर्ण कवि हैं बल्कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने बेहद गंभीर काम किया है. उनकी एक किताब 'समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अखबार' प्रकाशित और चर्चित हुई है. वह नया ज्ञानोदय में इस विषय पर मासिक कालम भी लिखते हैं जिसे बड़े गौर से पढ़ा जाता रहा है. हमारे अनुरोध पर अब वह कालम उन्होंने नियमित रूप से जनपक्ष को भी देने का वादा किया है जो हर महीने की पहली तारीख़ को प्रकाशित होगा.  इस क्रम की शुरुआत करते हुए हम उनके प्रति आभारी हैं.




साख ही है समाचार माध्यमों की जान
... प्रांजल धर

           हमारे प्रधानमन्त्री ने हाल ही में कहा है कि छानबीन करना मीडिया का स्वभाव है लेकिन उसे आरोपों के जाल में नहीं फँसना चाहिए। उन्होंने बेहद गम्भीरता से कहा कि अंधेरे में तीर चलाना खोजी पत्रकारिता का विकल्प नहीं है। इतना ही नहीं, विश्वसनीयता यानी साख को मीडिया की पूँजी बताते हुए एक बात उन्होंने बहुत शानदार कही है कि मीडिया संगठन अपने प्राथमिक लक्ष्य को भूलें नहीं, जो समाज को दर्पण दिखाने और सुधार लाने में मदद करने का है। इन बातों की प्रासंगिकता इसलिए और भी ज्यादा है क्योंकि ये बातें दिल्ली के रायसीना रोड पर बने राष्ट्रीय मीडिया केन्द्र के उद्घाटन के मौके पर कही गईं हैं।

           मीडिया की साख पर विचार करना पिछले कुछ वर्षों या दशकों से कुछ अधिक ज़रूरी होता चला गया है। भूमंडलीकरण और सूचना क्रान्ति के इस विकसित दौर में समाचार माध्यमों का विस्तार हुआ है और उनकी पहुँच भी बढ़ी है। इसमें कारोबार के पश्चिमी सिद्धान्तों के साथ-साथ मुनाफे के दबावों की भी महती भूमिका रही है। एक ही समाचार आज कई समाचार माध्यमों से अलग-अलग ढंग से दिखाया और सुनाया जाता है। फिर भी एक अहम सवाल जो आम पाठक या दर्शक से लेकर बड़े-बड़े मीडिया दिग्गजों को सोचने के लिए मजबूर करता है, वह यह है कि आख़िर ये समाचार माध्यम कितने भरोसेमंद हैं और इनकी साख क्या है? क्या समाचार माध्यमों की प्रामाणिकता और निष्पक्षता या उनका संतुलितदृष्टिकोण विश्वसनीय है? यदि हाँ, तो किस सीमा तक इन माध्यमों पर भरोसा किया जा सकता है? निजी मीडिया चैनलों की बाढ़ के इस युग में इस सवाल का जवाब खोजना आसान नहीं है। सबसे तेज़ और सबसे जल्दी पेश करने के नाम पर अक्सर ऐसे समाचार पेश कर दिए जाते हैं जो सच से न सिर्फ़ अलग होते हैं बल्कि कोसों दूर होते हैं। नित नए स्टिंग ऑपरेशनों और इंटरनेट पत्रकारिता के उन्नत दौर में जब हैकिंग जैसी समस्याएँ मौजूद हों तब यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

           समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता यानी साख ही उनकी जान है। कभी राजनीतिक पूर्वग्रह तो कभी धार्मिक पूर्वग्रह, इन सबके चलते भी समाचार को उसकी समग्रता में न दिखाकर केवल चयनित पहलुओं को ही दिखाया या सुनाया जाना उचित नहीं कहा जा सकता। तमाम ज़रूरी समाचारों को अनावश्यक रूप से सनसनीखेज़ और मनोरंजक बनाया जाता है, उनकी पैकेजिंग पर असल अन्तर्वस्तु से कई गुना ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। कुछ चैनल तो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए महज मसाला ख़बरों के सिर्फ़ चयनित पहलुओं को ही दिखाते हैं। इससे पाठक या दर्शक के मन में भ्रांत सूचना छवियाँ बन जाती हैं जो कि किसी उद्देश्यपूर्ण समाचार माध्यम का लक्ष्य कभी नहीं हो सकतीं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि क्षेत्रीय स्तर पर कुछ वर्षों पूर्व के कुंजीलाल जैसे मामलों या हाल-फिलहाल के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े प्रकरण ने, राष्ट्रीय स्तर पर तहलका जैसे सनसनीखेज मामले ने या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इराक़ पर थोपी गयी अमेरिकी कार्रवाई ने कुछ ऐसे असन्तुलित कवरेज पेश किये कि इन सबकी रिपोर्टिंग पर सवालों का उठाए गये। इन महत्वपूर्ण समाचारीय सवालों का उठना आख़िर क्या दर्शाता है? सर्वप्रथम तो समाचारको समझने की ही ज़रूरत है। क्या चीज़ समाचार है और क्या समाचार नहीं है, इनके बीच का अंतर जानना भी किसी समाचार माध्यम के लिए ज़रूरी है।

           हम सब तमाम समाचार पढ़ते, देखते और सुनते हैं और रोज़ सुबह अख़बारों के लिए व्याकुल भी रहते हैं कि जल्दी से फेरीवाला हमें अख़बार दे जाए और हम देश-दुनिया की ज़रूरी सुर्खियों से वाकिफ हो सकें। इसी तरह किसी महत्वपूर्ण समाचार को टेलीविजन में देखते समय अगर एक मिनट के लिए भी बिजली चली जाए तो किसी को भी अच्छा नहीं लगता। अख़बारों की महत्ता बनी हुई है फिर भी आज ऐसे पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक है जो समाचारों के लिए केवल अख़बार पर ही निर्भर नहीं रहते। अनेक अन्य समाचार माध्यमों के ज़रिये वे अपनी समाचारीय जिज्ञासा को शान्त करते हैं, चाहे वह रेडियों हो या टेलीविज़न या फिर इण्टरनेट। भूमण्डलीकरण की तेज़ चलने वाली प्रक्रिया ने इन अन्य संचार माध्यमों को नई तकनीकों के साथ नए और अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक तरीके से दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है। पर समाचारों और समाचार माध्यमों की इस आभासी बहुलता के बीच खुद समाचारों की परिभाषा भी अक्सर सवालों के घेरे में आती रहती है। कौन-सी घटना समाचार है, कौन-सी नहीं, इनके बीच की विभेदक रेखा कैसी है और कैसी होनी चाहिए, समाचार और मनोरंजन में क्या फ़र्क होना चाहिए जैसे अनेक सवालों से आज मीडिया की साख को जूझना पड़ रहा है। क्या समाचार वह है जिसमें लोगों की रुचि हो या फिर वह है जिसे अधिक से अधिक लोग पसन्द करें? फिर मनोरंजन और समाचार में क्या अन्तर रह जाएगा? जाहिर है कि मनोरंजन कुछ अलग चीज़ है जो किसी भी हार्ड न्यूज़ की तरह अपरिहार्य या अत्यावश्यक नहीं है। इसीलिए फीचर समाचारों या धारावाहिकों से बुनियादी रूप में भिन्न हाता है।

           आज तो समाचारों की एक परिभाषा यह भी दी जाती है कि समाचार वह है जिसे मीडिया मालिक समाचार मानें। ऐसे तमाम समाचारीय विचलनों, दबावों और बदलावों पर बहस और विश्लेषण अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है। यह ठीक है कि नव-उदारवादी नीतियों में आर्थिक पक्ष का महत्व स्वयमेव कुछ बढ़ा हुआ ही मिलता है और मीडिया भी इसमें समय-समय पर खाद-पानी डालता ही रहता है। फिर भी, किसी भी मीडिया को केवल कारोबारी गतिविधि तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए क्योंकि उसे समाज के हर तबके का आईना माना जाता है, न कि केवल सेलिब्रिटीज़ या कारोबारी लोगों का।

           मीडिया की साख पर भूमण्डलीकरण ने भी अपना असर छोड़ा है। समाज की जिन संस्थाओं पर भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है, उनमें अर्थशास्त्र या जीवन शैली के अलावा पत्रकारिता भी एक है। आज जहाँ ज्यादातर विकासशील देशों में उनकी आर्थिक नीतियों को वैश्विक बताया जा रहा है, वहीं जीवन शैली के मामले में भी परिधान और बातचीत के तमाम आयामों को ग्लोबल बताना जारी है। और जो यह सब बताती है, वह संस्था पत्रकारिता ही है। जैसाकि हम सभी जानते भी हैं कि शायद इस ग्लोबल प्रभाव ने ही पत्रकारिता के स्थान पर मीडिया शब्द के चलन को बढ़ा दिया है। जो पत्रकारिता पहले मिशन थी, बदलते वक्त के साथ बाद में वह व्यवसाय बनी और आज उसकी हालत या उसके विचलन किसी से छिपे नहीं हैं। ये विचलन पाठकों के लिए या जनसरोकार के लिए उचित नहीं कहे जा सकते। आज अन्तर्वस्तु विश्लेषण आनी कण्टेण्ट एनालिसिस पर अनेक कोणों से सोचने-समझने की जरूरत है, मसलन; स्त्रियों के कोण से या फिर साहित्य, अर्थव्यवस्था, किसान, मज़दूर और हाशिये के लोगों के कोण से। इस सन्दर्भ में पिछले कुछ वर्षों और दशकों में तमाम नवीन विकास दर्ज़ किये गए हैं जिनका वस्तुनिष्ठ लेखा-जोखा प्रस्तुत करना किसी भी ज़िम्मेदार मीडिया का फर्ज है। भूमण्डलीकरण की वर्तमान अवस्था में उभरे पितृसत्ता के नए रूपों की छवि अखबारों में किस तरह दिखाई पड़ती है? क्या यह छवि बाजार में बिकने वाली स्त्री-छवि से मेल खाती है। अगर नहीं, तो मीडिया की साख के विशेष परिप्रेक्ष्य में इस विसंगति के क्या अर्थ हैं जबकि मीडिया स्वयं नारी के वस्तूकरण के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है? पिछले बीस-पच्चीस साल के कुछ अख़बारों से अगर आज के अख़बारों की तुलना की जाए तो कोई भी पाठक यह समझ सकता है कि पहले महिलाओं से जुड़ी हुई ख़बरें किस पेज पर आती थीं, उनका समाचारीय पहलू क्या होता था, वे कितने कॉलम की होती थीं और आज की हालत क्या है।

           मीडिया की इस साख का पूरा जायजा लेना हो तो पत्रकारों से की गयी निजी बातचीत काफी मददगार होती है। इससे हमें ख़बरों के पीछे की ख़बरों का पता चलता है जिसे बेहद आमफ़हम भाषा में न्यूज़ बिहाइण्ड द न्यूज़ कहा जाता है। इन्हीं विचार-विमर्शों के लिए हमारे देश में तमाम प्रेस क्लब मौजूद हैं जहाँ तमाम ज़रूरी ख़बरों पर ज्वलन्त चर्चाएँ होती हैं। सुखद है कि ऐसे दो प्रेस क्लबों ने इधर मीडिया के सन्दर्भ में बेहतरीन काम किया है। पहला तो इन्दौर का प्रेस क्लब है जो नियमित रूप से अपनी खुद की पत्रिका प्रकाशित कर रहा है। इसके अलावा इस प्रेस क्लब ने हाल ही में पुस्तक की शक्ल में तमाम वरिष्ठ और कटिबद्ध पत्रकारों के विचारों और लेखों को समाहित करते हुए एक संकलन निकाला है जिसका नाम है मीडिया खड़ा बाज़ार में। इसमें बाज़ार और लोकतंत्र के तमाम पहलुओं को मीडिया और उसकी साख के बीच और बरअक्स बड़ी गहराई से रेखांकित किया गया है। दूसरा प्रेस क्लब गोरखपुर जर्नलिस्ट प्रेस क्लब है जिसने अनिल राय के बेहद कुशल सम्पादन में समकालीन माध्यम नाम की एक पत्रिका प्रकाशित की है। न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के तमाम चर्चित विचारों से लेकर मीडिया के हालिया परिदृश्य और दृष्टिकोणों तक का पूरा विश्लेषण यहाँ मिलता है। सबसे बड़ी बात कि इसमें माध्यम विशेष और अन्तःकथ्य के रूप में मीडिया और उसकी साख से जुड़ी इतनी सारगर्भित बातें बतायी गयीं हैं कि इनकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही है। उदाहरण के लिए ऑनलाइन पत्रकारिता में चूँकि कोई भी व्यक्ति सम्पादन करके ख़बरों आदि को बदल सकता है इसलिए इण्टरनेट की ख़बरों पर पूरी तरह विश्वास करने के पहले उनकी बाकायदा पुष्टि आवश्यक हो जाती है। यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों में ही नहीं, बल्कि स्वयं पश्चिमा यूरोप और अमेरिका में भी मीडिया साक्षरता की दरकार निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में हिन्दी भाषा में सार्थक अध्ययन सामग्री की कमी भी अखरती है। बेहतर है कि इधर हिन्दी में तमाम मीडिया-विश्लेषण आरम्भ किए गये हैं जो पाठकों को अनेक नवीन जानकारियाँ मुहैया कराते हैं।

           इस पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है कि किसी माध्यम की साख एक दिन या कुछ महीनों में ही नहीं बन जाती। यह एक दीर्घकालिक विषय है जिसमें एक-एक क्षण विश्वसनीयता की एक-एक बूँद को जोड़ता जाता है। इसी प्रक्रिया से किसी माध्यम की साख का वह महासमन्दर तैयार होता है जिस पर पाठक या दर्शक आँख मूँदकर भरोसा कर लिया करते हैं। इस महासमन्दर की रचना में अनवरत फील्ड वर्क करने वाले अनेक समझदार संवाददाताओं और कटिबद्ध पत्रकारों की ज़रूरत होती है। चैनल या समाचार माध्यम की सम्पादकीय नीतियाँ भी ऐसी होनी चाहिए कि उन पर प्रबन्धन का अनावश्यक असर न हो और मीडिया की साख पर किसी तरीके का कोई ग्रहण न लगे। पश्चिम में ही नहीं, खुद भारत या पाकिस्तान जैसे देशों में भी, आज भी, ऐसे समाचार माध्यम या ऐसे रेडियो अथवा टेलीविज़न चैनल मौजूद हैं जिनके समाचारों को सुनने या देखने के बाद पाठक, श्रोता या दर्शक किसी पुष्टि की ज़रूरत महसूस नहीं करते। यह वास्तव में उस माध्यम या चैनल द्वारा दशकों में कमायी गयी विश्वसनीयता है, कई वर्षों में जीता गया दर्शकों के हृदयों का विश्वास है। किसी समाचार या घटना की भलीभाँति पुष्टि करने के पश्चात ही उसे प्रसारित करना उचित है। पर क्या कहा जाए! पुष्टि में तो समय और परिश्रम लगता है और अर्थशास्त्रीय दबाव शार्टकट सिखाकर समय और परिश्रम बचाने का ज्ञान देता है। यह ठीक है कि प्रत्येक चैनल की अपनी चैनल नीति होती है, फिर भी मात्र सनसनी या उत्तेजना फैलाने के लिए समाचारों में विकृति उत्पन्न करना या तथ्यों में हेरफेर करना दर्शकों या श्रोताओं के साथ अन्याय ही कहा जाएगा। निष्पक्षता और सच्चाई के साथ-साथ समाचारों के स्रोत को भी बताया जाना ज़रूरी है। पर हर स्रोत को बताना भी उचित नहीं होता। कई बार पत्रकारीय नैतिकता किसी भी रिपोर्टर को इस बात की सुरक्षा और गारण्टी देती है कि वह अपने समाचारीय स्रोतों का खुलासा न करे। वाटरगेट काण्ड का कवरेज इसका सबसे उम्दा उदाहरण रहा है। ऊँचे स्तर के समाचारों में ऐसी विकृति जिसे सिद्धांतविदों ने डेफीनेशनल कंट्रोलया एपीसोडिक जर्नलिज़्मजैसा नाम दिया है, ठीक नहीं है। हमें याद रखना होगा कि यदि साधन पवित्र होंगे, उद्देश्य रचनात्मक होगा और पेशे के प्रति समर्पण होगा तो साध्य और परिणाम स्वयं ही बेहतर होंगे। संदेहों और भ्रांतियों की भीड़ में इस महत्वपूर्ण बात को जो माध्यम रेखांकित कर पाने में समर्थ होगा, वह निश्चित ही भरोसेमंद होगा। यही नहीं, भरोसा जीतने के लिए बाक़ी माध्यम भी धीरे-धीरे ही सही, उसी का अनुसरण करने लगेंगे जो सर्वाधिक भरोसेमंद है। इस प्रक्रिया में विज्ञापनबाज़ी और यशलोलुपता से बचने का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारे यहाँ मीडिया से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है, इसीलिए हमारे देश में मीडिया की साख का मुद्दा सबसे ज़्यादा प्रासंगिक भी है।

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