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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

मीडिया और विश्वसनीयता का संकट - प्रांजल धर

प्रांजल धर हमारे समय के न केवल महत्त्वपूर्ण कवि हैं बल्कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने बेहद गंभीर काम किया है. उनकी एक किताब 'समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अखबार' प्रकाशित और चर्चित हुई है. वह नया ज्ञानोदय में इस विषय पर मासिक कालम भी लिखते हैं जिसे बड़े गौर से पढ़ा जाता रहा है. हमारे अनुरोध पर अब वह कालम उन्होंने नियमित रूप से जनपक्ष को भी देने का वादा किया है जो हर महीने की पहली तारीख़ को प्रकाशित होगा.  इस क्रम की शुरुआत करते हुए हम उनके प्रति आभारी हैं.




साख ही है समाचार माध्यमों की जान
... प्रांजल धर

           हमारे प्रधानमन्त्री ने हाल ही में कहा है कि छानबीन करना मीडिया का स्वभाव है लेकिन उसे आरोपों के जाल में नहीं फँसना चाहिए। उन्होंने बेहद गम्भीरता से कहा कि अंधेरे में तीर चलाना खोजी पत्रकारिता का विकल्प नहीं है। इतना ही नहीं, विश्वसनीयता यानी साख को मीडिया की पूँजी बताते हुए एक बात उन्होंने बहुत शानदार कही है कि मीडिया संगठन अपने प्राथमिक लक्ष्य को भूलें नहीं, जो समाज को दर्पण दिखाने और सुधार लाने में मदद करने का है। इन बातों की प्रासंगिकता इसलिए और भी ज्यादा है क्योंकि ये बातें दिल्ली के रायसीना रोड पर बने राष्ट्रीय मीडिया केन्द्र के उद्घाटन के मौके पर कही गईं हैं।

           मीडिया की साख पर विचार करना पिछले कुछ वर्षों या दशकों से कुछ अधिक ज़रूरी होता चला गया है। भूमंडलीकरण और सूचना क्रान्ति के इस विकसित दौर में समाचार माध्यमों का विस्तार हुआ है और उनकी पहुँच भी बढ़ी है। इसमें कारोबार के पश्चिमी सिद्धान्तों के साथ-साथ मुनाफे के दबावों की भी महती भूमिका रही है। एक ही समाचार आज कई समाचार माध्यमों से अलग-अलग ढंग से दिखाया और सुनाया जाता है। फिर भी एक अहम सवाल जो आम पाठक या दर्शक से लेकर बड़े-बड़े मीडिया दिग्गजों को सोचने के लिए मजबूर करता है, वह यह है कि आख़िर ये समाचार माध्यम कितने भरोसेमंद हैं और इनकी साख क्या है? क्या समाचार माध्यमों की प्रामाणिकता और निष्पक्षता या उनका संतुलितदृष्टिकोण विश्वसनीय है? यदि हाँ, तो किस सीमा तक इन माध्यमों पर भरोसा किया जा सकता है? निजी मीडिया चैनलों की बाढ़ के इस युग में इस सवाल का जवाब खोजना आसान नहीं है। सबसे तेज़ और सबसे जल्दी पेश करने के नाम पर अक्सर ऐसे समाचार पेश कर दिए जाते हैं जो सच से न सिर्फ़ अलग होते हैं बल्कि कोसों दूर होते हैं। नित नए स्टिंग ऑपरेशनों और इंटरनेट पत्रकारिता के उन्नत दौर में जब हैकिंग जैसी समस्याएँ मौजूद हों तब यह बात और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

           समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता यानी साख ही उनकी जान है। कभी राजनीतिक पूर्वग्रह तो कभी धार्मिक पूर्वग्रह, इन सबके चलते भी समाचार को उसकी समग्रता में न दिखाकर केवल चयनित पहलुओं को ही दिखाया या सुनाया जाना उचित नहीं कहा जा सकता। तमाम ज़रूरी समाचारों को अनावश्यक रूप से सनसनीखेज़ और मनोरंजक बनाया जाता है, उनकी पैकेजिंग पर असल अन्तर्वस्तु से कई गुना ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। कुछ चैनल तो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए महज मसाला ख़बरों के सिर्फ़ चयनित पहलुओं को ही दिखाते हैं। इससे पाठक या दर्शक के मन में भ्रांत सूचना छवियाँ बन जाती हैं जो कि किसी उद्देश्यपूर्ण समाचार माध्यम का लक्ष्य कभी नहीं हो सकतीं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि क्षेत्रीय स्तर पर कुछ वर्षों पूर्व के कुंजीलाल जैसे मामलों या हाल-फिलहाल के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े प्रकरण ने, राष्ट्रीय स्तर पर तहलका जैसे सनसनीखेज मामले ने या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इराक़ पर थोपी गयी अमेरिकी कार्रवाई ने कुछ ऐसे असन्तुलित कवरेज पेश किये कि इन सबकी रिपोर्टिंग पर सवालों का उठाए गये। इन महत्वपूर्ण समाचारीय सवालों का उठना आख़िर क्या दर्शाता है? सर्वप्रथम तो समाचारको समझने की ही ज़रूरत है। क्या चीज़ समाचार है और क्या समाचार नहीं है, इनके बीच का अंतर जानना भी किसी समाचार माध्यम के लिए ज़रूरी है।

           हम सब तमाम समाचार पढ़ते, देखते और सुनते हैं और रोज़ सुबह अख़बारों के लिए व्याकुल भी रहते हैं कि जल्दी से फेरीवाला हमें अख़बार दे जाए और हम देश-दुनिया की ज़रूरी सुर्खियों से वाकिफ हो सकें। इसी तरह किसी महत्वपूर्ण समाचार को टेलीविजन में देखते समय अगर एक मिनट के लिए भी बिजली चली जाए तो किसी को भी अच्छा नहीं लगता। अख़बारों की महत्ता बनी हुई है फिर भी आज ऐसे पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक है जो समाचारों के लिए केवल अख़बार पर ही निर्भर नहीं रहते। अनेक अन्य समाचार माध्यमों के ज़रिये वे अपनी समाचारीय जिज्ञासा को शान्त करते हैं, चाहे वह रेडियों हो या टेलीविज़न या फिर इण्टरनेट। भूमण्डलीकरण की तेज़ चलने वाली प्रक्रिया ने इन अन्य संचार माध्यमों को नई तकनीकों के साथ नए और अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक तरीके से दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है। पर समाचारों और समाचार माध्यमों की इस आभासी बहुलता के बीच खुद समाचारों की परिभाषा भी अक्सर सवालों के घेरे में आती रहती है। कौन-सी घटना समाचार है, कौन-सी नहीं, इनके बीच की विभेदक रेखा कैसी है और कैसी होनी चाहिए, समाचार और मनोरंजन में क्या फ़र्क होना चाहिए जैसे अनेक सवालों से आज मीडिया की साख को जूझना पड़ रहा है। क्या समाचार वह है जिसमें लोगों की रुचि हो या फिर वह है जिसे अधिक से अधिक लोग पसन्द करें? फिर मनोरंजन और समाचार में क्या अन्तर रह जाएगा? जाहिर है कि मनोरंजन कुछ अलग चीज़ है जो किसी भी हार्ड न्यूज़ की तरह अपरिहार्य या अत्यावश्यक नहीं है। इसीलिए फीचर समाचारों या धारावाहिकों से बुनियादी रूप में भिन्न हाता है।

           आज तो समाचारों की एक परिभाषा यह भी दी जाती है कि समाचार वह है जिसे मीडिया मालिक समाचार मानें। ऐसे तमाम समाचारीय विचलनों, दबावों और बदलावों पर बहस और विश्लेषण अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है। यह ठीक है कि नव-उदारवादी नीतियों में आर्थिक पक्ष का महत्व स्वयमेव कुछ बढ़ा हुआ ही मिलता है और मीडिया भी इसमें समय-समय पर खाद-पानी डालता ही रहता है। फिर भी, किसी भी मीडिया को केवल कारोबारी गतिविधि तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए क्योंकि उसे समाज के हर तबके का आईना माना जाता है, न कि केवल सेलिब्रिटीज़ या कारोबारी लोगों का।

           मीडिया की साख पर भूमण्डलीकरण ने भी अपना असर छोड़ा है। समाज की जिन संस्थाओं पर भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है, उनमें अर्थशास्त्र या जीवन शैली के अलावा पत्रकारिता भी एक है। आज जहाँ ज्यादातर विकासशील देशों में उनकी आर्थिक नीतियों को वैश्विक बताया जा रहा है, वहीं जीवन शैली के मामले में भी परिधान और बातचीत के तमाम आयामों को ग्लोबल बताना जारी है। और जो यह सब बताती है, वह संस्था पत्रकारिता ही है। जैसाकि हम सभी जानते भी हैं कि शायद इस ग्लोबल प्रभाव ने ही पत्रकारिता के स्थान पर मीडिया शब्द के चलन को बढ़ा दिया है। जो पत्रकारिता पहले मिशन थी, बदलते वक्त के साथ बाद में वह व्यवसाय बनी और आज उसकी हालत या उसके विचलन किसी से छिपे नहीं हैं। ये विचलन पाठकों के लिए या जनसरोकार के लिए उचित नहीं कहे जा सकते। आज अन्तर्वस्तु विश्लेषण आनी कण्टेण्ट एनालिसिस पर अनेक कोणों से सोचने-समझने की जरूरत है, मसलन; स्त्रियों के कोण से या फिर साहित्य, अर्थव्यवस्था, किसान, मज़दूर और हाशिये के लोगों के कोण से। इस सन्दर्भ में पिछले कुछ वर्षों और दशकों में तमाम नवीन विकास दर्ज़ किये गए हैं जिनका वस्तुनिष्ठ लेखा-जोखा प्रस्तुत करना किसी भी ज़िम्मेदार मीडिया का फर्ज है। भूमण्डलीकरण की वर्तमान अवस्था में उभरे पितृसत्ता के नए रूपों की छवि अखबारों में किस तरह दिखाई पड़ती है? क्या यह छवि बाजार में बिकने वाली स्त्री-छवि से मेल खाती है। अगर नहीं, तो मीडिया की साख के विशेष परिप्रेक्ष्य में इस विसंगति के क्या अर्थ हैं जबकि मीडिया स्वयं नारी के वस्तूकरण के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है? पिछले बीस-पच्चीस साल के कुछ अख़बारों से अगर आज के अख़बारों की तुलना की जाए तो कोई भी पाठक यह समझ सकता है कि पहले महिलाओं से जुड़ी हुई ख़बरें किस पेज पर आती थीं, उनका समाचारीय पहलू क्या होता था, वे कितने कॉलम की होती थीं और आज की हालत क्या है।

           मीडिया की इस साख का पूरा जायजा लेना हो तो पत्रकारों से की गयी निजी बातचीत काफी मददगार होती है। इससे हमें ख़बरों के पीछे की ख़बरों का पता चलता है जिसे बेहद आमफ़हम भाषा में न्यूज़ बिहाइण्ड द न्यूज़ कहा जाता है। इन्हीं विचार-विमर्शों के लिए हमारे देश में तमाम प्रेस क्लब मौजूद हैं जहाँ तमाम ज़रूरी ख़बरों पर ज्वलन्त चर्चाएँ होती हैं। सुखद है कि ऐसे दो प्रेस क्लबों ने इधर मीडिया के सन्दर्भ में बेहतरीन काम किया है। पहला तो इन्दौर का प्रेस क्लब है जो नियमित रूप से अपनी खुद की पत्रिका प्रकाशित कर रहा है। इसके अलावा इस प्रेस क्लब ने हाल ही में पुस्तक की शक्ल में तमाम वरिष्ठ और कटिबद्ध पत्रकारों के विचारों और लेखों को समाहित करते हुए एक संकलन निकाला है जिसका नाम है मीडिया खड़ा बाज़ार में। इसमें बाज़ार और लोकतंत्र के तमाम पहलुओं को मीडिया और उसकी साख के बीच और बरअक्स बड़ी गहराई से रेखांकित किया गया है। दूसरा प्रेस क्लब गोरखपुर जर्नलिस्ट प्रेस क्लब है जिसने अनिल राय के बेहद कुशल सम्पादन में समकालीन माध्यम नाम की एक पत्रिका प्रकाशित की है। न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के तमाम चर्चित विचारों से लेकर मीडिया के हालिया परिदृश्य और दृष्टिकोणों तक का पूरा विश्लेषण यहाँ मिलता है। सबसे बड़ी बात कि इसमें माध्यम विशेष और अन्तःकथ्य के रूप में मीडिया और उसकी साख से जुड़ी इतनी सारगर्भित बातें बतायी गयीं हैं कि इनकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही है। उदाहरण के लिए ऑनलाइन पत्रकारिता में चूँकि कोई भी व्यक्ति सम्पादन करके ख़बरों आदि को बदल सकता है इसलिए इण्टरनेट की ख़बरों पर पूरी तरह विश्वास करने के पहले उनकी बाकायदा पुष्टि आवश्यक हो जाती है। यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों में ही नहीं, बल्कि स्वयं पश्चिमा यूरोप और अमेरिका में भी मीडिया साक्षरता की दरकार निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में हिन्दी भाषा में सार्थक अध्ययन सामग्री की कमी भी अखरती है। बेहतर है कि इधर हिन्दी में तमाम मीडिया-विश्लेषण आरम्भ किए गये हैं जो पाठकों को अनेक नवीन जानकारियाँ मुहैया कराते हैं।

           इस पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है कि किसी माध्यम की साख एक दिन या कुछ महीनों में ही नहीं बन जाती। यह एक दीर्घकालिक विषय है जिसमें एक-एक क्षण विश्वसनीयता की एक-एक बूँद को जोड़ता जाता है। इसी प्रक्रिया से किसी माध्यम की साख का वह महासमन्दर तैयार होता है जिस पर पाठक या दर्शक आँख मूँदकर भरोसा कर लिया करते हैं। इस महासमन्दर की रचना में अनवरत फील्ड वर्क करने वाले अनेक समझदार संवाददाताओं और कटिबद्ध पत्रकारों की ज़रूरत होती है। चैनल या समाचार माध्यम की सम्पादकीय नीतियाँ भी ऐसी होनी चाहिए कि उन पर प्रबन्धन का अनावश्यक असर न हो और मीडिया की साख पर किसी तरीके का कोई ग्रहण न लगे। पश्चिम में ही नहीं, खुद भारत या पाकिस्तान जैसे देशों में भी, आज भी, ऐसे समाचार माध्यम या ऐसे रेडियो अथवा टेलीविज़न चैनल मौजूद हैं जिनके समाचारों को सुनने या देखने के बाद पाठक, श्रोता या दर्शक किसी पुष्टि की ज़रूरत महसूस नहीं करते। यह वास्तव में उस माध्यम या चैनल द्वारा दशकों में कमायी गयी विश्वसनीयता है, कई वर्षों में जीता गया दर्शकों के हृदयों का विश्वास है। किसी समाचार या घटना की भलीभाँति पुष्टि करने के पश्चात ही उसे प्रसारित करना उचित है। पर क्या कहा जाए! पुष्टि में तो समय और परिश्रम लगता है और अर्थशास्त्रीय दबाव शार्टकट सिखाकर समय और परिश्रम बचाने का ज्ञान देता है। यह ठीक है कि प्रत्येक चैनल की अपनी चैनल नीति होती है, फिर भी मात्र सनसनी या उत्तेजना फैलाने के लिए समाचारों में विकृति उत्पन्न करना या तथ्यों में हेरफेर करना दर्शकों या श्रोताओं के साथ अन्याय ही कहा जाएगा। निष्पक्षता और सच्चाई के साथ-साथ समाचारों के स्रोत को भी बताया जाना ज़रूरी है। पर हर स्रोत को बताना भी उचित नहीं होता। कई बार पत्रकारीय नैतिकता किसी भी रिपोर्टर को इस बात की सुरक्षा और गारण्टी देती है कि वह अपने समाचारीय स्रोतों का खुलासा न करे। वाटरगेट काण्ड का कवरेज इसका सबसे उम्दा उदाहरण रहा है। ऊँचे स्तर के समाचारों में ऐसी विकृति जिसे सिद्धांतविदों ने डेफीनेशनल कंट्रोलया एपीसोडिक जर्नलिज़्मजैसा नाम दिया है, ठीक नहीं है। हमें याद रखना होगा कि यदि साधन पवित्र होंगे, उद्देश्य रचनात्मक होगा और पेशे के प्रति समर्पण होगा तो साध्य और परिणाम स्वयं ही बेहतर होंगे। संदेहों और भ्रांतियों की भीड़ में इस महत्वपूर्ण बात को जो माध्यम रेखांकित कर पाने में समर्थ होगा, वह निश्चित ही भरोसेमंद होगा। यही नहीं, भरोसा जीतने के लिए बाक़ी माध्यम भी धीरे-धीरे ही सही, उसी का अनुसरण करने लगेंगे जो सर्वाधिक भरोसेमंद है। इस प्रक्रिया में विज्ञापनबाज़ी और यशलोलुपता से बचने का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारे यहाँ मीडिया से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है, इसीलिए हमारे देश में मीडिया की साख का मुद्दा सबसे ज़्यादा प्रासंगिक भी है।

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प्रांजल धर
2710, भूतल
डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009
मोबाइल - 9990665881


8 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍छा है। नया ज्ञानोदय तो अब पढ़ते नहीं, यहां पढ़ लिया करेंगे। फांट के साइज़ को रिव्‍यू करो एक बार, ज्‍़यादा छोटा है।

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    1. साइज़ नार्मल ही रखा है शिरीष भाई...

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    2. अशोक थोड़ा बड़ा। 13 साइज़, नार्मल 12 होता है यहां। पहले अनुनाद पर भी ऐसा होता था पर अब 13 में छापने पर बहुत अंतर हो जाता है।

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  2. दशकों से पढ़ता आ रहा हूँ पत्रकारिता पर श्री प्रांजल धर को। बहुत अच्छा, गहरा और गम्भीर लेखन रहा है उनका इस विषय पर। पं. रामचन्द्र शुक्ल जी के शब्दों को उधार लें तो, यह और भी अच्छा है कि प्रांजल जी का गद्य उनकी ही कविताई की कसौटी है। बहुत मज़बूत शैली में सुविचारित गद्य-लेखन रहा है उनका। यह लेख भी उनके तमाम लेखों की तरह मुझे बहुत पसन्द आया। आपको बधाइयां और प्रांजल जी को भी। आपके प्रति आभार भी।
    सादर आपका आशुतोष शुक्ल

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  3. दशकों से पढ़ता आ रहा हूँ पत्रकारिता पर श्री प्रांजल धर को। बहुत अच्छा, गहरा और गम्भीर लेखन रहा है उनका इस विषय पर। पं. रामचन्द्र शुक्ल जी के शब्दों को उधार लें तो, यह और भी अच्छा है कि प्रांजल जी का गद्य उनकी ही कविताई की कसौटी है। बहुत मज़बूत शैली में सुविचारित गद्य-लेखन रहा है उनका। यह लेख भी उनके तमाम लेखों की तरह मुझे बहुत पसन्द आया। आपको बधाइयां और प्रांजल जी को भी। आपके प्रति आभार भी।
    सादर आपका आशुतोष शुक्ल

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  4. पत्रकारिता की गिरती जा रही 'साख' यानी 'विश्वनीयता' पर इसी क्षेत्र से जुड़े हुए अनुभवी पत्रकार श्री प्रांजल धर ने अपने इस आलेख को सही ही शीर्षक दिया है -"साख ही है समाचार माध्यमों की जान". अपने इस आलेख में प्रांजल जी ने सच ही कहा है - ' कुछ चैनल तो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए महज मसाला ख़बरों के सिर्फ़ चयनित पहलुओं को ही दिखाते हैं। इससे पाठक या दर्शक के मन में भ्रांत सूचना छवियाँ बन जाती हैं जो कि किसी उद्देश्यपूर्ण समाचार माध्यम का लक्ष्य कभी नहीं हो सकतीं। ----- कौन-सी घटना समाचार है, कौन-सी नहीं, इनके बीच की विभेदक रेखा कैसी है और कैसी होनी चाहिए, समाचार और मनोरंजन में क्या फ़र्क होना चाहिए जैसे अनेक सवालों से आज मीडिया की साख को जूझना पड़ रहा है। क्या समाचार वह है जिसमें लोगों की ‘रुचि’ हो या फिर वह है जिसे अधिक से अधिक लोग पसन्द करें? फिर मनोरंजन और समाचार में क्या अन्तर रह जाएगा?' मिशनवादी-पत्रकारिता को बाजारवादी-पत्रकारिता में बदलने वाले को चेतावनी अंदाज में सलाह देते हुए इस आलेख का समापन प्रांजल जी ने सही शब्दों में किया है - 'हमें याद रखना होगा कि यदि साधन पवित्र होंगे, उद्देश्य रचनात्मक होगा और पेशे के प्रति समर्पण होगा तो साध्य और परिणाम स्वयं ही बेहतर होंगे। संदेहों और भ्रांतियों की भीड़ में इस महत्वपूर्ण बात को जो माध्यम रेखांकित कर पाने में समर्थ होगा, वह निश्चित ही भरोसेमंद होगा। यही नहीं, भरोसा जीतने के लिए बाक़ी माध्यम भी धीरे-धीरे ही सही, उसी का अनुसरण करने लगेंगे जो सर्वाधिक भरोसेमंद है। इस प्रक्रिया में विज्ञापनबाज़ी और यशलोलुपता से बचने का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारे यहाँ मीडिया से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है, इसीलिए हमारे देश में मीडिया की साख का मुद्दा सबसे ज़्यादा प्रासंगिक भी है।' हम इस आलेख के लिए श्री प्रांजल धर जी का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं.
    - जीनगर दुर्गा शंकर गहलोत, संपादक, "समाचार सफ़र" (पाक्षिक), सत्ती चबूतरे की गली, मकबरा बाज़ार, कोटा - 324 006 (राज.) ;
    Mob.: 098872-32786

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