भगवान सिंह की इस किताब के आने के बाद से ही इस पर बहस ज़ारी है. लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान और टिप्पणीकार कुलदीप कुमार का यह आलोचनात्मक आलेख इसकी वैचारिक अवस्थिति और उस तक पहुँचने के लिए गैर-अकादमिक तरीकों का पर्दाफ़ाश करता है.
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हड़प्पा
सभ्यता और वैदिक सभ्यता को एक ही मानने वाले भगवान सिंह ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति
के गणितज्ञ, विद्वत
समाज में समादृत संस्कृतज्ञ एवं प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार दामोदर धर्मानंद
कोसंबी पर एक पुस्तक लिखी है ‘कोसंबी: कल्पना से
यथार्थ तक’। 401
पृष्ठों की इस पुस्तक को आर्यन बुक्स इन्टरनेशनल, पूजा
अपार्टमेंट्स, 4 बी, अंसारी
रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2
ने इसी वर्ष छापा है और इसका मूल्य 795 रु॰ है।
पुस्तक
के ब्लर्ब में कहा गया है: “कोसंबी का नाम दुहराने वालों की कमी नही, उन्हें
समझने का पहला प्रयत्न भगवान सिंह ने किया। वह कोसंबी के शिष्य हैं परंतु वैसे
शिष्य जैसे ग्रीक परंपरा में पाए जाते थे।” इन दो
वाक्यों में दो दावे किए गए हैं। पहला यह कि भगवान सिंह से पहले किसी ने भी कोसंबी
को समझने का प्रयास नहीं किया, और दूसरा यह कि वह
कोसंबी के शिष्य हैं, वैसे ही जैसे ग्रीक परंपरा में
हुआ करते थे। कोसंबी के इस स्वघोषित शिष्य के अपने “गुरु”
के बारे में क्या विचार हैं, यह जानना
दिलचस्प होगा। भगवान सिंह कोसंबी के बारे में श्रद्धा से भरे अपने उद्गार कुछ यूं
व्यक्त करते हैं: “...वह आत्मरति के शिकार थे, उन्हें अपने सिवाय किसी से प्रेम न था, न अपने
देश से, न समाज से, न भाषा
से, न परिवार से। उनका कुत्ता अवश्य अपवाद रहा हो सकता
है। इसीलिए लोग उनसे डरते भले रहे हों, उन्हें कोई भी
प्यार नहीं करता था। उनके अपने छात्र, पत्नी और बच्चे
तक नहीं।” (पृ॰ 120)
कोई
भगवान सिंह से पूछे कि जिस व्यक्ति को न अपने देश से प्यार था, न समाज से, न भाषा से और न परिवार से, आप ऐसे विलेन सरीखे
व्यक्ति के चेले क्यों और कैसे बन गए जो अगर किसी
को प्यार करता भी था तो शायद अपने कुत्ते को! ज़रा सोचिए, क्या ऐसा व्यक्ति किसी का भी गुरु बनने लायक है? संदेह का लाभ देते हुए कहा जा सकता है कि भगवान सिंह कोसंबी के ज्ञान, इतिहासलेखन और प्रतिभा के प्रशंसक हैं और इसलिए उन्हें अपना “गुरु” मानते हैं। लेकिन इस अनुमान को भी इसी पृष्ठ
पर ध्वस्त करते हुए कहा गया है (और ऐसे लालबुझक्कड़ी निष्कर्ष इस किताब के लगभग हर
पृष्ठ पर मिल जाएंगे): “कोसंबी अपनी यशोलिप्सा के
लिए इतिहास लेखन कर रहे थे, इतिहास में न तो स्वतः उनकी
रुचि थी, न इतिहास की समझ।” चलिये मान लिया कि कोसंबी तो यशोलिप्सा के कारण इतिहास लेखन कर रहे थे पर
आपने किस लिप्सा के कारण एक ऐसे व्यक्ति पर चार सौ पृष्ठों की पुस्तक लिख मारी
जिसे न इतिहास में रुचि थी और न उसकी समझ? और, आपने ऐसे नासमझ व्यक्ति को अपना ‘गुरु’ क्यों घोषित कर दिया?
ज़रा
यह भी देखते चलें कि ग्रीक परंपरा में शिष्य कैसे होते थे। जहां तक इस लेखक की
जानकारी है, वे
वैसे ही होते थे जैसे हमारे उपनिषदों में पाये जाते हैं। वे गुरु के प्रति असीम
श्रद्धा रखते हुए भी उसके विचारों को बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं करते थे। यदि
कोई असहमति हुई तो उसे खुलकर व्यक्त करते थे, गुरु से
प्रश्न करते थे, गुरु के विचार का खंडन करते थे और इस
प्रक्रिया में ज्ञान का संवर्धन और विस्तार भी करते जाते थे। प्लेटो और उनके शिष्य
अरस्तू के विचार परस्पर विरोधी हैं। लेकिन अरस्तू ने कभी भी प्लेटो के प्रति किसी
प्रकार का अनादर प्रदर्शित नहीं किया। प्राप्त प्रमाणों के अनुसार अरस्तू ने हमेशा
प्लेटो के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट की। हाँ, यह ज़रूर
कहा: “मुझे प्लेटो बहुत प्रिय हैं, लेकिन सत्य उनसे भी अधिक प्रिय है।” और प्लेटो अपने
इस विद्रोही शिष्य के बारे में क्या कहते थे? वे बहुत
स्नेह के साथ कहा करते थे: “अरस्तू मुझे लात मार रहा है, वैसे ही जैसे नवजात घोड़ा अपनी माँ को मारता है।” अरस्तू
18 वर्ष की उम्र में प्लेटो की अकादेमी में भर्ती हुए थे जब प्लेटो साठ साल के थे।
उनके बीच स्नेह संबंध इतना प्रगाढ़ था कि अरस्तू ने अकादेमी तभी छोड़ी जब प्लेटो का
निधन हो गया। क्या भगवान सिंह वाकई इसी परंपरा वाले शिष्य हैं?
दरअसल
हकीकत यह है कि अपने को कोसंबी का शिष्य कहना भगवान सिंह की मार्क्सवाद-विरोधी
रणनीति का अंग है। इसी रणनीति के तहत भगवान सिंह मार्क्सवादी होने का दावा करते
हैं और हिन्दी कवि कमलेश और आलोचक अजय तिवारी जैसे उनके प्रशंसक ‘जनसत्ता’ और ‘नया ज्ञानोदय’ में
लंबी पुस्तक समीक्षाएं लिखकर उन्हें मार्क्सवादी होने का प्रमाणपत्र भी देते हैं। यह सब ढोंग रचने के बाद कोसंबी का यह स्वघोषित “मार्क्सवादी
शिष्य” उनके बारे में नितांत घृणा से भरी हुई एक ऐसी पुस्तक
लिखकर अपनी भड़ास निकालता है जिसमें उसके पूर्वाग्रह, दुर्भावना
और बदनीयती के प्रमाण भरे हुए हैं। कोसंबी के चरित्रहनन का यह प्रयास इसलिए भी
अत्यधिक घिनौना है क्योंकि उनकी मृत्यु 1966 में हुई थी और तब से अब तक लगभग आधी
सदी बीत चुकी है। भगवान सिंह बताते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गणित
विभाग में शिक्षक के रूप में कार्य करते समय कोसंबी की मित्रता नूर-उल-हसन के साथ
हो गई। “लेकिन कोसंबी तब तक एक इतिहासकार के रूप में
मृत या उपेक्षित थे जब तक नूर-उल-हसन शिक्षामंत्री नहीं बने और उसके बाद सभी
सरकारी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में कोसंबी को प्राचीन भारत का इतिहास और प्राचीन
भारत को कोसंबी बनाने का अभियान-सा आरंभ हो गया।” (पृ॰12)
यह आरोप लगभग वैसा ही है जैसा इस किताब की ‘जनसत्ता’ में अतिशय प्रशंसापूर्ण समीक्षा करते हुए अपने अंध वामविरोध के लिए
कुख्यात हिन्दी कवि कमलेश ने लगाया था। कमलेश का आरोप था कि कोसंबी को संस्कृत
नहीं आती थी (हालांकि भगवान सिंह पुस्तक में स्वीकार करते हैं कि कोसंबी को
संस्कृत, मराठी, कोंकणी और पालि का “आधिकारिक ज्ञान” था)। इसके बावजूद उन्हें “सम्मानित प्रकाशकों” ने अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कृत
ग्रन्थों के सम्पादन का दायित्व सौंपा। कमलेश की राय है कि यह सिर्फ ‘नेटवर्किंग’ का नतीजा था। यानी भगवान सिंह और
कमलेश दोनों इस बात पर सहमत हैं कि यारी-दोस्ती के कारण ही कोसंबी को संस्कृतज्ञ
और इतिहासकार मान लिया गया।
दरअसल
भगवान सिंह और कमलेश जैसों की असली समस्या यह है कि हिन्दुत्व का एजेंडा आगे बढ़ाने
के लिए भारतीय इतिहास के जिस पुनर्लिखित और संशोधित रूप को वे प्रतिष्ठित करना
चाहते हैं, उसमें
कोसंबी आड़े आते हैं। भगवान सिंह कोसंबी का पूरा सच इन शब्दों में उद्घाटित करते
हैं: “पूरा सच यह है कि हिन्दुत्व के कुत्सित चित्रण
के कारण कोसंबी सदा से ईसाइयत के लिए जितने उपयोगी औज़ार रहे हैं उतना दूसरा कोई
इतिहासकार नहीं। विदेशों में उनको प्रचारित किया जाता रहा है, समझने का प्रयत्न नहीं।” (पृ॰ 21) समझने का
प्रयत्न अब भगवान सिंह कर रहे हैं, और अगर ब्लर्ब में
लिखे को मानें तो यह प्रयत्न भारत में भी पहली बार ही हो रहा है। रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, बृजदुलाल चट्टोपाध्याय, सुवीरा जायसवाल, इरफान हबीब और रणजीत गुहा जैसे
शीर्षस्थ इतिहासकारों ने कोसंबी के बारे में जो कुछ भी लिखा, वह तो झख मारने के बराबर था क्योंकि इन अज्ञानियों की क्या बिसात कि ये
कोसंबी को समझ सकें। इसके लिए तो भगवान को स्वयं अवतार लेकर प्रयत्न करना पड़ा
जिसके नतीजे में यह पुस्तक सामने आई। इस भगवानी प्रयत्न के प्रशंसक कमलेश ने
पुस्तक की समीक्षा करते हुए लिखा है: “ कोसंबी (और
उनके अनुयायी इतिहासकार) ब्राह्मणों पर ऐसे आरोप लगाते हैं जो नात्सियों द्वारा
यहूदियों पर लगाए गए आरोपों से समांतर हैं।” यह
कमलेश की मौलिक उद्भावना नहीं है। मौलिक उद्भावना भगवान सिंह की पुस्तक के पृष्ठ
122 पर मिलेगी जिसमें अपने विशिष्ट अंदाज़ में उन्होंने कोसंबी के “ब्राह्मणद्रोह” को ऐंटी-सेमिटिज्म (यहूदीविरोध) के
समतुल्य बताते हुए लिखा है: “उनका इतिहास ब्राह्मणों
और उनके व्याज से हिन्दुत्व की भर्त्सना का औज़ार था...” यानि कोसंबी का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उन्होंने ब्राह्मणद्रोह किया और
हिन्दुत्व का विरोध किया। इसलिए ऐसे व्यक्ति का शिष्य होने का ढोंग रचकर उसका
सुनियोजित तरीके से चरित्रहनन करना अनिवार्य हो गया।
29
जून, 1966 को जब
दामोदर धर्मानंद कोसंबी की मृत्यु हुई, तब वे पूरे साठ साल
के भी नहीं हुए थे। उन्हें एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के गणितज्ञ, इतिहासकार और संस्कृतज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त थी। 9 जुलाई, 1966 को पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में उनकी श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई
जिसकी अध्यक्षता पूना विश्वविद्यालय के कुलपति ड़ी॰ आर॰ गाडगिल ने की। इसके कुछ समय
बाद उनकी स्मृति में एक ग्रंथ निकालने की योजना बनी और इसके लिए गठित समिति की
पहली बैठक 14 मार्च, 1968 को दिल्ली में वी॰वी॰ गिरि की
अध्यक्षता में हुई। उस समय तक गिरि भारत के उपराष्ट्रपति बन चुके थे। हालांकि यह ग्रंथ 1974 में प्रकाशित हुआ लेकिन गिरि द्वारा लिखी गई इसकी
भूमिका पर 28 मई, 1970 की तिथि छपी हुई है। तब तक नूर-उल-हसन
शिक्षामंत्री नहीं बने थे। यह कहना कि कोसंबी नूर-उल-हसन के शिक्षामंत्री बनने के
कारण इतिहासकार माने गए, भगवान सिंह की बदनीयती ही प्रदर्शित
करता है। यहाँ यह याद दिला दें कि न तो डी॰ आर॰ गाडगिल मार्क्सवादी थे और न ही वी॰
वी॰ गिरि।
भगवान
सिंह की यह पुस्तक अजूबों से भरी है। पुस्तक के शीर्षक में भी और पुस्तक के भीतर
भी कोसंबी का पूरा नाम तक नहीं दिया गया है। तेरहवें पृष्ठ पर जब अचानक आचार्य
कोसंबी का ज़िक्र आता है तो पाठक चौंक जाता है। कुछ वाक्यों के बाद धर्मानंद का
उल्लेख होता है और अगले पृष्ठ पर यह कि “आचार्य जी अपने साथ दामोदर धर्मानंद को भी” अमेरिका
ले गए थे। अब यह समझना पाठक की ज़िम्मेदारी है कि आचार्य कोसंबी ही धर्मानंद हैं और
उनके पुत्र दामोदर धर्मानंद ही वह व्यक्ति हैं जिनके बारे में यह पुस्तक लिखी गई
है। इसके बाद पूरी पुस्तक में उन्हें सिर्फ कोसंबी कहकर ही काम चलाया गया है।
दरअसल
भगवान सिंह को इतिहास पर कलम चलाने की प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शाखा से
निकले पुरातत्वविद एवं इतिहासकार स्वर्गीय स्वराज प्रकाश गुप्त से मिली और उन्हीं
के मार्गदर्शन में उन्होंने तथाकथित ‘शोध’ किया और संघ द्वारा गठित इतिहास संकलन समिति की
कार्यशालाओं में सक्रिय हिस्सेदारी की। इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपने को मार्क्सवादी
कहने और कहलाने वाले भगवान सिंह मार्क्सवादी इतिहासलेखन को साम्राज्यवादी
इतिहासलेखन की धारा के अंतर्गत रखते हैं और रामशरण शर्मा, इरफान
हबीब और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों को साम्राज्यवादी इतिहासलेखन का प्रतिनिधि
मानते हैं।
क्या
आपने कभी किसी विद्वतापूर्ण किताब में उद्धरण का स्रोत-संदर्भ ‘इन्टरनेट’ और ‘विकीपीडिया’ पढ़ा है? यदि नहीं पढ़ा तो इस पुस्तक में पढ़ लीजिये। शोध की दुनिया में यह एक ऐसा
कीर्तिमान है जिसे कभी ध्वस्त नहीं किया जा सकेगा। भगवान सिंह भले ही न जानते हों,
पर इन्टरनेट का इस्तेमाल करने वाला बच्चा भी जानता है कि विकीपीडिया
जानकारी का विश्वसनीय स्रोत नहीं है। लेकिन दामोदर धर्मानंद कोसंबी पर प्रहार करने
के लिए जहां से भी हथियार मिले, भगवान सिंह लेने को तैयार
हैं। इसी क्रम में उन्होंने इन्टरनेट से एक संस्मरण उठा लिया। यह संस्मरण आर॰ पी॰
नेने का है जो उन्होंने अरविंद गुप्ता को सुनाया और गुप्ता ने सुने हुए के आधार पर
उसे लिपिबद्ध किया। भगवान सिंह यह बताने की ज़रूरत नहीं समझते कि आर॰ पी॰ नेने और
अरविंद गुप्ता कौन हैं, और नेने का संस्मरण सर्वाधिक
प्रामाणिक कैसे है, क्योंकि संस्मरण तो कोसंबी की
पुत्री मीरा, प्रसिद्ध इतिहासकार ए एल बैशम, कोसंबी के मित्र संस्कृतज्ञ डैनियल एच॰ एच॰ इंगैल्स और वी॰ वी॰ गोखले, रसायनशास्त्री अजित कुमार बैनर्जी, भारतीय पुरातत्वशास्त्र के पितामह एच॰ ड़ी॰ सांकलिया, प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे॰ ड़ी॰ बर्नाल और पाकिस्तान के प्रसिद्ध गणितज्ञ एम॰
रजीउद्दीन सिद्दीकी (1931 से 1950 तक हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के
कुलपति) ने भी लिखे हैं। अपनी आदत के अनुसार भगवान सिंह ने आर॰ पी॰ नेने के इस
भावभीने संस्मरण को भी तोड़मरोड़ कर पेश किया है और मनमाने निष्कर्ष निकाले हैं।
कुपाठ के आधार पर मनमाने निष्कर्ष निकालना उनकी पुरानी आदत है जिसे वही समझ सकता
है जिसने उनकी लालबुझक्कड़ी किताबें पढ़ी हैं। इससे उनकी तथाकथित शोधपद्धति और
बौद्धिक ईमानदारी का भी पता चलता है।
आर॰
पी॰ नेने पूना में पीपीएच की किताबों की दूकान में काम करते थे। कोसंबी वहाँ
किताबें खरीदने जाया करते थे। जब 1949 में शीर्षस्थ कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे की पुस्तक “इंडिया फ्रोम प्रिमिटिव कम्युनिज़्म टू स्लेवरी” की
कोसंबी ने ज़बरदस्त आलोचना करते हुए समीक्षा लिखी, तो
नेने उनकी ओर आकृष्ट हुए। नेने की कोशिशों के कारण ही 1956 में कोसंबी के निबंध
पुस्तकाकार रूप में “एग्ज़ास्परेटिंग एसेज़” नाम से प्रकाशित हुए। 1961 में बाढ़ के कारण पीपीएच की दूकान बर्बाद हो गई
और नेने कोसंबी के सहायक के रूप में काम करने लगे। उनके संस्मरण को आधार बनाकर
भगवान सिंह ने अनेक दुर्भावनापूर्ण बातें लिखी हैं।
इतिहासकार, पुरातत्वविद और
भाषाविज्ञानी होने की गलतफहमी के साथ-साथ भगवान सिंह को अपने मनोविश्लेषक होने की
गलतफहमी भी है। बिना किसी साक्ष्य के उन्होंने अपने “गुरु”
कोसंबी के इतिहासलेखन की ओर प्रवृत्त होने के पीछे यशोलिप्सा को
कारण माना है, लेकिन एकमात्र कारण नहीं। दूसरे कारणों
पर प्रकाश डालते हुए वह लिखते हैं: “वह इतिहासलेखन
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से निकाले जाने के अपमान का बदला लेने के लिए कर रहे
थे, न कि इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने के लिए। उनको
निकाला तो भाभा इंस्टीट्यूट से भी गया था, परंतु उसमें
उन्हें इसे छोडने का अवसर दिया गया था। हिन्दू विश्वविद्यालय से तो उनको सीधे-सीधे
निकाल दिया गया था। शरण मिली थी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में। कोसंबी का जैसा
स्वभाव था, वह अपने अपमान का बदला लेने के लिए तड़पते
रहे होंगे और बदले के तरीके पर ऊहापोह में लगे रहे होंगे। अतः इतिहास में घुस कर
मदनमोहन मालवीय और उनके ब्राह्मणत्व और हिन्दुत्व से बदला लेने पर अमल कुछ विलंब
से आरंभ हुआ।”
लेकिन
तथ्य क्या बताते हैं?
कोसंबी
को अपने जीवन की पहली नौकरी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के गणित विभाग में मिली
थी। चार माह का अनुबंध था जिसे बाद में एक साल के लिए बढ़ाया गया था। 1931 में, जब कोसंबी मात्र 24 वर्ष
के थे, उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गणित
विभाग में कार्यरत युवा फ्रेंच प्रोफेसर आन्द्रे वेल की ओर से वहाँ आकर पढ़ाने का
निमंत्रण मिला। उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया और वह बनारस से अलीगढ़ आ गए। जहां तक “भाभा इंस्टीट्यूट” से निकाले जाने का सवाल है, तो भगवान सिंह को यह पता होना चाहिए कि “भाभा
इंस्टीट्यूट” नाम का कोई इंस्टीट्यूट नहीं है। 1 जून, 1945 को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी और होमी
जहांगीर भाभा को इसका निदेशक बनाया गया था। इसी वर्ष भाभा आग्रह करके कोसंबी को
इंस्टीट्यूट में गणित के प्रोफेसर के पद पर ले आए। अपने काम के सिलसिले में अक्सर
भाभा को देश-विदेश में जाना पड़ता था। उनकी अनुपस्थिति में कोसंबी ही कार्यकारी
निदेशक का दायित्व संभालते थे। टाटा परिवार द्वारा स्थापित और समर्थित इस संस्थान
में एक घोषित मार्क्सवादी का काम करना उस शीतयुद्ध काल में इतना सरल भी न रहा
होगा। धीरे-धीरे कोसंबी विश्व शांति आंदोलन में बेहद सक्रिय होते गए। परमाणु ऊर्जा
के स्थान पर सौर ऊर्जा को वह भारत के लिए बेहतर विकल्प मानते थे। इस बिन्दु पर
उनके और भाभा के बीच मतभेद पैदा हुए। दूसरे, उनके
सहयोगियों में इस बात पर भी असंतोष था कि इस संस्थान का एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति
का गणितज्ञ इतिहास और पुरातत्व में शोध करने में समय क्यों नष्ट कर रहा है। तभी एक
ऐसी घटना घट गई जिसके कारण भाभा ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि चूंकि उनकी दिलचस्पी
अन्य अनेक क्षेत्रों में है, इसलिए उन्हें अवकाश ग्रहण
कर लेना चाहिए। फिर भी वह उनके केबिन में आकर इस विषय पर बातचीत कर सकते हैं।
भगवान
सिंह की बौद्धिक ईमानदारी का आलम यह है कि वह इस प्रसंग के पीछे की घटना का कोई
उल्लेख नहीं करते जबकि आर॰ पी॰ नेने के संस्मरण में इसका विवरण दिया गया है। पृष्ठ
120 पर दी गई एक पाद-टिप्पणी में वह लिखते हैं: “नैतिक दृष्टि से कहें तो कोसंबी को
इस संस्थान में जाना ही नहीं चाहिए था। गए तो यह समझ में आने के बाद ही कि इसके
उद्देश्य ठीक नहीं हैं, उसे छोड़ देना चाहिए था।” कोसंबी ने कब और कहाँ कहा कि संस्थान के उद्देश्य ठीक नहीं थे? जहां तक भारत के परमाणु कार्यक्रम का सवाल है, 1945
में भारत स्वतंत्र भी नहीं था, उसका परमाणु कार्यक्रम
तो क्या होता? यह संस्थान विज्ञान में बुनियादी शोध
करने के लिए स्थापित किया गया था। नेने ने उस घटना का विवरण दिया है जिससे नाराज़
होकर भाभा ने कोसंबी से छह माह के भीतर संस्थान छोडने को कहा और कोसंबी ने बिना
उनसे बात किए तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे दिया। नेने के अनुसार तत्कालीन संसद
सदस्य आर॰ के॰ खाडिलकर के आग्रह पर कोसंबी ने उन्हें परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान के
भारी जल संयंत्र में भारी जल की काफी बर्बादी होने के बारे में इस शर्त पर सूचना
दी थी कि वह सूचना का स्रोत किसी को नहीं बताएँगे और संसद में इस सवाल को उठाएंगे।
लेकिन खाडिलकर ने अपना वचन तोड़कर सीधे भाभा से ही जाकर कह दिया और यह भी बता दिया
कि यह जानकारी कोसंबी ने दी है। भाभा का नाराज़ होना स्वाभाविक था। कोसंबी के
टीआईएफआर छोड़ा। लेकिन भगवान सिंह जिस अपमानजनक लहजे में यह कहते हैं कि कोसंबी को
हर जगह से निकाला गया, उससे उनका अभिप्राय यह साबित
करना लगता है कि कोसंबी या तो अपनी अयोग्यता के या फिर अपने स्वभाव के कारण निकाले
गए। वे आदमी ही ऐसे थे जिन्हें हर जगह से निकाला जाता था।
इस “शिष्य” की
ओर से अपने गुरु के चरणों में एक और श्रद्धासुमन अर्पित किया गया है। उसे भी देख
लें। “प्रदर्शनप्रियता इतनी अधिक थी कि अपने सीमित
आर्थिक साधनों के बाद भी वह रेल के फर्स्ट क्लास में सफर करते थे, जिस पर व्यंग्य करते हुए इंगैल्स ने लिखा था कि वह स्वयं एक अमेरिकी
पूंजीवादी होते हुए भी भारत में दूसरे दर्जे से ऊपर यात्रा नहीं कर पाया पर
मार्क्सवादी कोसंबी ने उसे डकन क्वीन में पहले दर्जे में यात्रा करने के लिए
आमंत्रित किया।” जिन इंगैल्स का ज़िक्र किया गया है, उन्होंने “डी॰ डी॰ कोसंबी के साथ मेरी
मित्रता” शीर्षक से एक बहुत ही आत्मीय संस्मरण लिखा
है जिसमें तथ्यों के प्रति कोसंबी के अंदर नैसर्गिक सम्मान और उनके अनेक मानवीय
गुणों के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इसी में एक जगह चुटकी लेते हुए
(भगवान सिंह को हास-परिहास और व्यंग्य में अंतर पता कर लेना चाहिए) उन्होंने यह
बात भी काही है। लेकिन इंगैल्स ने पूरे संस्मरण में कहीं भी कोसंबी की किसी भी
किस्म की ‘प्रदर्शनप्रियता’ के
बारे में संकेत तक नहीं किया है। यह भगवान सिंह की अपनी कल्पना है जिसका वह पूरी
उदारता के साथ अपने इतिहासलेखन में भी इस्तेमाल करते हैं। इसीलिए इतिहासकारों के
बीच उनकी स्थापनाओं को कोई भी गंभीरता से नहीं लेता।
अगर
भगवान सिंह ने कोसंबी की किताबें पढ़ी होतीं तो उन्हें ‘एन इंट्रोडक्शन टु द
स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ की भूमिका के अंत में
डी॰ डी॰ कोसंबी के नाम के साथ स्थान और तिथि भी छपे नज़र आते। स्थान है डकन क्वीन
और तारीख है 7 दिसंबर, 1956। यह भूमिका डकन क्वीन के
फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में यात्रा करते हुए लिखी गई थी। कोसंबी रोज़ पूना से
बंबई जाते थे। घर से स्टेशन तक पैदल और फिर पूना से बंबई डकन क्वीन के फर्स्ट
क्लास के डिब्बे में पढ़ते और लिखते हुए। उन्हें जानने वाले इस बात से अच्छी तरह
परिचित थे कि वह एक मिनट भी बर्बाद नहीं करते थे। इसलिए पूना से मुंबई तक के सफर
में लगने वाले समय को वे लिखने-पढ़ने के लिए इस्तेमाल करते थे और इसीलिए आर्थिक रूप
से सम्पन्न न होते हुए भी प्रथम श्रेणी में यात्रा करते थे। इसे “प्रदर्शनप्रियता” भगवान सिंह जैसे
दुर्भावनापूर्ण लोग ही मान सकते हैं।
सत्तर-अस्सी
साल पहले के पिता अक्सर अपने बच्चों के प्रति खुलकर स्नेह प्रदर्शित नहीं किया
करते थे और उनके साथ कुछ दूरी बनाकर रखते थे। परिवारों के पितृसत्तात्मक माहौल में
पिता की एक खास किस्म की छवि बनाई जाती थी, जिसकी गिरफ्त में पिता भी होते थे और बच्चे भी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं
था कि उस जमाने के पिता अपने बच्चों से प्यार नहीं करते थे। कोसंबी की पुत्री और
प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफेसर मीरा कोसंबी ने अपने पिता के बारे में जो संस्मरण
लिखा है, उसमें कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि
कोसंबी किसी से भी प्रेम नहीं करते थे। अगर यह सच होता तो मीरा वैसा संस्मरण लिखती
जैसा स्वेतलाना ने स्टालिन के बारे में लिखा था, न कि
वैसा जैसा स्नेह और आदर के साथ उन्होंने वास्तव में लिखा है। लेकिन मीरा कोसंबी के
स्वभाव का यथार्थपरक वर्णन करने से चूकी नहीं हैं, न ही
उन्होंने कोसंबी की कोई मिथकीय छवि निर्मित की है। कोसंबी देवता नहीं थे। लेकिन
भगवान सिंह ने उनका जैसा चित्रण किया है, वह वैसे दानव
भी नहीं थे। वह एक सम्पूर्ण मानव थे---अपनी सभी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ।
मीरा ने लिखा है: “कोसंबी एक विद्वान के रूप में सदा
एक जैसे तेजस्वी थे; एक व्यक्ति के रूप में अप्रत्याशित
रूप से मोहक, उदारमना और कठिन; एक पति एवं पिता के रूप में अनिश्चित रूप से उदार और गर्म स्वभाव वाले।” मीरा ने यह भी लिखा है कि अपनी नातिन नन्दिता के जन्म के बाद कोसंबी एकदम
बदल गए थे और उसके साथ खेलने और उस पर जान छिड़कने वाले नाना बन गए थे।
इस
पुस्तक के पाठक कोसंबी के चरित्रहनन के इतने सुनियोजित अभियान को देखकर दंग रह
जाएंगे। यह भी सोचने का विषय है कि जो लेखक कोसंबी पर इस तरह के निराधार आरोप लगा
सकता है, उसने
उनके इतिहास के साथ क्या सुलूक किया होगा। पहली बात तो यह ही समझ में नहीं आती कि
कोसंबी के इतिहासलेखन पर लिखी पुस्तक में उन पर व्यक्तिगत हमले क्यों किए गए हैं, और वह भी बिना किसी आधार के। भगवान सिंह ऐसे अध्येता हैं जिनके लिए तथ्यों
का कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि कोसंबी ने आर्यों के नासिका सूचकांक का अध्ययन
किया और क्योंकि वह नस्लों की बात करते हैं, इसलिए वह
नस्लवादी हैं। इस आधार पर तो सभी भारतीय समाजशास्त्रियों को जातिवादी मानना पड़ेगा
क्योंकि जातिव्यवस्था का अध्ययन उनका प्रमुख विषय रहा है। इतिहास को अपने मंतव्यों
के अनुसार तोड़ना-मरोड़ना हिंदुत्ववादी खेमे का प्रिय शगल है। भगवान सिंह तो हड़प्पा
सभ्यता और वैदिक सभ्यता को एक बता कर बहुत दिनों से इस खेमे के एजेंडे को इतिहास
के क्षेत्र में लागू करने के लिए प्रयासरत हैं। यही हाल उनके कमलेश और अजय तिवारी
जैसे प्रशंसकों का है। अभी इतना ही। भगवान सिंह के इतिहासज्ञान और उनके बचकाने
निष्कर्षों पर फिर कभी....
(समयांतर के अक्टूबर अंक से साभार, लेखक की अनुमति से)
दुखद ...पर इस तरह के लोग भी है ही
जवाब देंहटाएंसारे व्यक्तिगत आरोप हैं ...उनके कृतित्व को लेकर बहुतों ने आलोचना लिखी है ...पर जिस औसत बुद्धि की यह भाषा है ...उसपर सिर्फ हंसा जा सकता है ...कोई शक नही यह भी तथाकथित राष्ट्रवादी (फासीवादी) सेना का नुमाइंदा है जिसकी भाषा शैली उसका परिचय स्वयं ही दे रही है .
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा! कुलदीप कुमार इस पर विस्तार से लिखेंगे, इसका इंतज़ार था . भगवान् सिंह कोसंबी का पर्दाफ़ाश करने चले थे, अपना ही हो गया . कुलदीप कुमार को साधुवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही निचोड़ है- "इतिहास को अपने मंतव्यों के अनुसार तोड़ना-मरोड़ना हिंदुत्ववादी खेमे का प्रिय शगल है। भगवान सिंह तो हड़प्पा सभ्यता और वैदिक सभ्यता को एक बता कर बहुत दिनों से इस खेमे के एजेंडे को इतिहास के क्षेत्र में लागू करने के लिए प्रयासरत हैं। "
जवाब देंहटाएंभगवा_न सिंह की स्थापनाएँ पहले भी भाजपा के काम आ चुकी हैं. संसद में राम जनम भुमि पर बहस के दौरान उनकी किताब से उद्धरण दिए गये थे.
अपनी स्थापनाएँ देने के लिए कोई भी आजाद है, लेकिन मुखौटा लगा कर भरमाए, तो उसे नोचना ज़रुरी हो जाता है.
समीक्षा की ऐसी भाषा और व्यक्तिगत लांक्षणों को ही काटने में समर्पित तर्क-पद्धति का तो मैं कायल नहीं हूँ लेकिन जहां लेखक ही कुतर्की और बकैती का धुआंधार गंधमार हो, वहाँ कोई चारा बचता ही नहीं है। ऐसे लोगों के मार्क्सवादियों के बीच लोकप्रिय रहने का एक मात्र कारण यही है कि हिन्दी की बौद्धिक दुनिया में 'मार्कस्वाद अब तक व्यक्ति विशेष के ज़ोर का प्रयत्न रहा है।' और वह व्यक्ति विशेष जिसके पुट्ठे पर हाथ मारता रहा वह लेखक-आलोचक कवि होता रहा है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा की ऐसी भाषा और व्यक्तिगत लांक्षणों को ही काटने में समर्पित तर्क-पद्धति का तो मैं कायल नहीं हूँ लेकिन जहां लेखक ही कुतर्की और बकैती का धुआंधार गंधमार हो, वहाँ कोई चारा बचता ही नहीं है। ऐसे लोगों के मार्क्सवादियों के बीच लोकप्रिय रहने का एक मात्र कारण यही है कि हिन्दी की बौद्धिक दुनिया में 'मार्कस्वाद अब तक व्यक्ति विशेष के ज़ोर का प्रयत्न रहा है।' और वह व्यक्ति विशेष जिसके पुट्ठे पर हाथ मारता रहा वह लेखक-आलोचक कवि होता रहा है।
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