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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

कोलकाता के पूजा पंडालों के बहाने

मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है
  • विजय गौड़



रंगों को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये और उसी भाषा में व्‍याख्‍यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों की एक निश्चित दैर्ध्‍य ही रंग है। श्‍वेतप्रकाश का प्रिज्‍मेटिक विखण्‍डन का प्रयोगात्‍मक साक्ष्‍य उनकी भिन्‍नतओं का समुच्‍य है। देख सकते हैं कि प्रिज्‍म के पार एक स्‍पैक्‍ट्रम बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्‍त हो जाता है। स्‍पैक्‍ट्रम साबित करता है कि रंगों की भिन्‍नता तरंगों की दैर्ध्‍य है। खास दैर्ध्‍य की तरंग ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्‍न दैर्ध्‍य की तरंगों ने चमक और ध्‍वनि की उत्‍पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्‍तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्‍कमल करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्‍पादों ने उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों की भिन्‍न भिन्‍न व्‍याख्‍याओं ने भी कलाकारों को विशिष्‍टता प्रदान की है। जरूरी नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्‍तार उदासी में या मृत्‍यू तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्‍म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्‍दगी की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है। यानि रंगों के आधार पर एक निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर प्रतिकात्‍मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन राजनीति का स्‍पष्‍ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय किया जा सकता है।        

भिन्‍न भिन्‍न रंगों के प्रकाश के संयोजनों से पूजा पण्‍डालों की भव्‍यता, कोलकाता के पूजा महोत्‍सव को जश्‍न में बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्‍युत्‍पत्ति का जश्‍न पूरे कोलकाता को तीन.चार रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्‍यरात्रि में भी लग जाने वाले ट्रैफिक जाम को कन्‍ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध व्‍यवस्‍था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस पार के पण्‍डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्‍डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति का सार्वजनिन रूप बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की गयी पूजा पण्‍डालों की ठेठ अनुष्‍ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन  रूप दिया है।

यह मायके आयी बेटी के स्‍वागत का उत्‍सव है। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्‍दाजात है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्‍थाओं का सिंदूर और पूजा प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्‍परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्‍तराखण्‍ड में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्‍परिक प्रतिक हैं। बंगाली भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता का सालाना आयोजन है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्‍खी पूजा (लक्ष्‍मी पूजा), काली पूजा और सरस्‍वती पूजा इसके अन्‍य पड़ाव है।


बुद्धि और विवेक के लिए जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्‍डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्‍कृतिक विरासत की तार्किकता से व्‍याख्‍यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव के प्रतिकात्‍मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही ''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्‍ट कलात्‍मक प्रयोगों का दर्जा माना। पूजा कमेटियों के स्‍वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्‍ट अंदाज में नियंत्रण बनाये रखा। पूजा पण्‍डालों में इंक्‍लाबी किताबों के स्‍टाल उनकी प्रत्‍यक्ष उपस्‍थतियों के साक्ष्‍य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्‍डाल में साक्षात देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्‍डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के समर्थन से पोषित पूजा पण्‍डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं कि दो भिन्‍न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्‍डालों का जिम्‍मा निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्‍डाल समान है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्‍यता के रूप में है तो दूसरा बिल्‍डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले पण्‍डाल की खूबी है कि सांस्‍कृतिक दिखने की अतिश्‍य कोशिश में वहां जगह जगह इस्‍तेमाल किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्‍ट राजनैतिक विचार के साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्‍डाल के बाहर इंक्‍लाबी कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्‍प्रदायिकता के मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्‍डों को आधार मानकर रचा गया साम्‍प्रदायिकता विरोध का साहित्‍य बदली हुई परिस्थितियों में साम्‍प्रदायिक लोगों का हथियार होता रहा। 

कलावादी नजरिये से बात की जाये तो दोनों ही पण्‍डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।

यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा झटका देते हुए पण्‍डालों का जिक्र करना भी ज्‍यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्‍डल, नाकतल्‍ला का पूजा पण्‍डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्‍डाल। पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्‍तशिल्‍प की कारीगरी को स्‍थापित करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्‍ड से एक हद तक किनारा करते से लगते ये थीम आधारित पण्‍डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्‍ड मुक्‍त नहीं। यहां तक कि कुमारटूली का पण्‍डाल जो शिल्‍प वैशिष्‍टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्‍मीदों की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्‍द नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्‍छवास में इन शब्‍दों की उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्‍दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक अनुष्‍ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो नहीं किया जा सकता न !

सांस्‍कृतिक विरासत के संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्‍ठानिक कर्मकाण्‍ड ने पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार जैसी ठेठ धार्मिक स्‍थली में भी उनकी आनुपतिक संख्‍या पिछड़ जाये। बाजूओं में मंत्राये धागे और नग्‍न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी हिमायती रही है। पुलिसिया व्‍यवस्‍था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्‍चर्य में डालता है।

उपरोक्‍त पर बिना कोई अन्‍य टिप्‍पणी किये, यह कहना ज्‍यादा उचित समझाना चाहिए कि मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है।
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विजय गौड़ 
सुपरिचित कथाकार, उपन्यासकार तथा कवि 
संपर्क : फ्लैट संख्‍या- 91, 12वां तल, टाइप-3, टालीगंज, ग्राहमरोड़, कोलकाता- 700040

+919474095290  

रविवार, 10 जून 2012

बागी टिहरी गाये जा

  • विजय गौड़ 


ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्यासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघर को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।

विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल के षष्ठिपूर्ति  कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।   

    
 देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजीकरण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    

1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।