मनोगत
आग्रहों से रंगों की व्याख्या करना ही कलावाद है
- विजय गौड़
रंगों को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये और उसी भाषा में व्याख्यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों
की एक निश्चित दैर्ध्य ही रंग है। श्वेतप्रकाश का प्रिज्मेटिक विखण्डन का प्रयोगात्मक
साक्ष्य उनकी भिन्नतओं का समुच्य है। देख सकते हैं कि प्रिज्म के पार एक स्पैक्ट्रम
बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्त हो जाता है। स्पैक्ट्रम
साबित करता है कि रंगों की भिन्नता तरंगों की दैर्ध्य है। खास दैर्ध्य की तरंग
ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के
गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्न दैर्ध्य
की तरंगों ने चमक और ध्वनि की उत्पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज
बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि
घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से
उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्कमल
करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्पादों ने
उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्वतंत्र
अस्तित्व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक
अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति
से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों
की भिन्न भिन्न व्याख्याओं ने भी कलाकारों को विशिष्टता प्रदान की है। जरूरी
नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार
अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्तार उदासी में या मृत्यू
तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्दगी
की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है। यानि रंगों के आधार पर एक
निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और
परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर
प्रतिकात्मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन
राजनीति का स्पष्ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय
किया जा सकता है।
भिन्न भिन्न रंगों के प्रकाश
के संयोजनों से पूजा पण्डालों की भव्यता, कोलकाता के पूजा महोत्सव को जश्न में
बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्युत्पत्ति का जश्न पूरे कोलकाता को तीन.चार
रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्यरात्रि में भी लग जाने वाले
ट्रैफिक जाम को कन्ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध
व्यवस्था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस
पार के पण्डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर
प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति
का सार्वजनिन रूप बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की
गयी पूजा पण्डालों की ठेठ अनुष्ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन रूप दिया है।
यह मायके आयी बेटी के स्वागत
का उत्सव है। उत्तराखण्ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्दाजात
है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्थाओं का सिंदूर और पूजा
प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्तराखण्ड
में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित
दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्परिक प्रतिक हैं। बंगाली
भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्कृतिक विशिष्टता का सालाना आयोजन है, जिसे
दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्खी पूजा (लक्ष्मी पूजा), काली पूजा और
सरस्वती पूजा इसके अन्य पड़ाव है।
बुद्धि और विवेक के लिए
जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्कृतिक
विरासत की तार्किकता से व्याख्यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव
के प्रतिकात्मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही
''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्ट कलात्मक प्रयोगों का दर्जा
माना। पूजा कमेटियों के स्वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्ट अंदाज में नियंत्रण
बनाये रखा। पूजा पण्डालों में इंक्लाबी किताबों के स्टाल उनकी प्रत्यक्ष उपस्थतियों
के साक्ष्य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों
वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्डाल में साक्षात
देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के
समर्थन से पोषित पूजा पण्डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं
कि दो भिन्न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्डालों का जिम्मा
निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्डाल समान
है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्यता
के रूप में है तो दूसरा बिल्डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति
वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले
पण्डाल की खूबी है कि सांस्कृतिक दिखने की अतिश्य कोशिश में वहां जगह जगह इस्तेमाल
किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्ट राजनैतिक विचार के
साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्डाल के बाहर इंक्लाबी
कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्प्रदायिकता के
मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने
धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्डों को आधार
मानकर रचा गया साम्प्रदायिकता विरोध का साहित्य बदली हुई परिस्थितियों में साम्प्रदायिक
लोगों का हथियार होता रहा।
कलावादी नजरिये से बात की
जाये तो दोनों ही पण्डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।
यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा
झटका देते हुए पण्डालों का जिक्र करना भी ज्यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्डल,
नाकतल्ला का पूजा पण्डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्डाल।
पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती
है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्तशिल्प की कारीगरी को स्थापित
करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्ड से एक हद तक किनारा करते से
लगते ये थीम आधारित पण्डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्ड मुक्त नहीं। यहां तक कि
कुमारटूली का पण्डाल जो शिल्प वैशिष्टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और
चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्मीदों
की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्द
नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्छवास में इन शब्दों की
उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक
अनुष्ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो
नहीं किया जा सकता न !
सांस्कृतिक विरासत के
संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्ठानिक कर्मकाण्ड ने
पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार
जैसी ठेठ धार्मिक स्थली में भी उनकी आनुपतिक संख्या पिछड़ जाये। बाजूओं में
मंत्राये धागे और नग्न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को
देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी
हिमायती रही है। पुलिसिया व्यवस्था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्चर्य
में डालता है।
उपरोक्त पर बिना कोई अन्य
टिप्पणी किये, यह कहना ज्यादा उचित समझाना चाहिए कि मनोगत आग्रहों से रंगों की
व्याख्या करना ही कलावाद है।
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विजय गौड़
सुपरिचित कथाकार, उपन्यासकार तथा कवि
संपर्क : फ्लैट संख्या- 91, 12वां
तल, टाइप-3, टालीगंज, ग्राहमरोड़, कोलकाता- 700040
+919474095290
सुन्दर अद्भुद फोटो के साथ सुन्दर लेख ..
जवाब देंहटाएंऔर भी फोटो देखने की इच्छा जाग गयी ..
कोलकाता तो प्रसिद्ध है माँ काली की पूजा के लिए