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शनिवार, 20 मार्च 2010

गांव में ही नहीं रहते हैं ग़रीब







ग़रीबी की बहस हमारे देश में बहुत पुरानी है।

औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति के बाद से ही हमारे विकास की तमाम योजनाओं में ग़रीबी हटाने और देश के भीतर व्याप्त सामाजार्थिक विषमता को दूर करने की बातें की जाती रहीं। लोकतांत्रिक प्रणाली और शायद गांधी के ग्राम स्वराज से प्रभावित तत्कालीन कांग्रेसी और समाजवादी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने गांवो के विकास और वहां की व्यापक ग़रीब आबादी की समस्याओं को केन्द्र में लाने के महती प्रयास किये। उदाहरण के लिये समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख नेता चौधरी चरण सिंह ने अपनी किताब – ‘भारत के आर्थिक दुःस्वप्न – कारण और निवारण ’ में गावों के विकास और वहां रह रही ग़रीब बहुसंख्या के विकास में असफल रहने का आरोप लगाते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए विकल्प के रूप में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के समग्र विकास के लिये लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास तथा सहकारिता के विस्तार का प्रस्ताव किया था। वहीं वामपंथी आंदोलन भी ग़रीबों के प्रति अपनी स्पष्ट पक्षधरता के बावज़ूद मुख्यतः संगठित क्षेत्र के कामगारों तक ही सीमित रहा। गांव तथा उसकी समस्यायें हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील धारा पर भी हावी रहीं और एक दौर तो ऐसा आया था कि लेखक के लिये अपनी जनपक्षधरता साबित करने के लिये ग्रामीण परिवेश पर लिखना आवश्यक माना जाता था, और यह एक हद तक अब भी है।

भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या तथा कृषि पर इसकी निर्भरता को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था। लंबे औपनिवेशिक शासन के दौर में जिस तरह पारम्परिक अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया था और पूरी दुनिया में हुए शहरीकरण के विपरीत भारत में नगरों से गावों की तरफ़ हुए पलायन ने स्थिति को बद से बद्तर बना दिया था। एक तरफ़ कृषि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा था तो दूसरी तरफ़ इस क्षेत्र की उत्पादकता भी काफ़ी कम थी। इसके साथ भू-वितरण में भयावह असमानता और गावों में पुरोगामी सामाजिक संरचनाओं की उपस्थिति ने गावों को, ख़ासतौर पर, वहां रहने वाली गरीब दलित-पिछड़ी आबादी के लिये नर्क में तब्दील कर दिया था। इसीलिये आज़ादी के बाद जब नेहरुवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में औद्योगीकरण आरंभ हुआ तो बड़ी संख्या में गावों से शहरों की तरफ़ माईग्रेशन हुआ। नये विकसित हो रहे शहरों में गावों की तलछट पर रह रहे ये लोग बेहतर रोज़गार, समानतापूर्ण व्यवहार और प्रगति के सपनों के साथ आये। महानगरों में व्यापक स्तर पर हो रहे निर्माण कार्यों और नई-नई फ़ैक्ट्रियों के लिये श्रमिकों की यह फ़ौज़ एक आवश्यकता भी थी। अपने बेहद सस्ते श्रम से इस विस्थापित सर्वहारा आबादी ने नये भारत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अब भी निभा रहे हैं। लेकिन विकास की सारी चमक-दमक के बावज़ूद यह तबका अपने बसाये शहरों में भी रहा अजनबी की ही तरह। जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें अब भी उसके लिये एक सपना ही रहीं। शहरों की नई-नई बस्तियों में इनके लिये जगह नहीं थी। मज़दूरी के बेहद निचले स्तर और अक्सर आय की अनिश्चितता के कारण यह तबका, और ख़ास तौर पर इस आबादी का वह हिस्सा जो दैनिक वेतनभोगी में तब्दील हुआ या जिसने रिक्शा खींचने, सब्ज़ी बेचने, ठेले-खोमचे लगाने जैसे काम अपनाये, शहर में भी उतना ही बेगाना रहा जितना वह गांव में था, बल्कि शहरों की विशिष्ट संरचना के कारण अक्सर उससे भी ज़्यादा। इसे रहने की जगह मिली शहरों के बाहरी और निचले भागों में बसी झोपड़पट्टियों में और बिज़ली, साफ़ पानी, सैनिटेशन जैसी सुविधायें कभी इन तक पहुंची ही नहीं। शहर के संभ्रांत वर्ग के लिये यह ख़ूबसूरती पर लगे धब्बे की तरह अवांछनीय रहा तो राजनैतिक दलों के लिये एक वोटबैंक के रूप में अपनी अनुपयोगिता के कारण महत्वहीन। वैसे यह नियति तो मंत्र की तरह जाप किये गये ‘ भारत गावों में बसता है’ के बावज़ूद गावों की भी रही ही।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि शहरी और ग्रामीण ग़रीबी आपस में विरोधाभासी या प्रतियोगी नहीं अपितु पूरी तरह से एक दूसरे के पूरक हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के निरंतर बदहाल होते जाने के कारण हीं लोग गांव से शहरों की ओर रोज़गार की तलाश में आने पर मज़बूर होते हैं और शहरी ग़रीबों की संख्या बढ़ती चली जाती है।

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के सहयोग से भारत सरकार के भवन निर्माण तथा शहरी विकास मंत्रालय द्वारा ज़ारी पहली ‘शहरी ग़रीबी रिपोर्ट’ में प्रस्तुत आंकड़े तथा तथ्य स्थिति की भयावहता ही बयान नहीं करते अपितु इस संदर्भ में फैले तमाम दुष्प्रचारों की कलई भी उतारते हैं।

इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि
भारत में जिस जनसंख्या वृद्धि को सबसे बड़ी समस्या के रूप में निरूपित किया जाता है शहरों में वह दूसरे एशियाई देशों से कम है इसके अनुसार पिछले दिनों भारत की संवृद्धि दर एशिया की कुछ सबसे तेज़ विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं के समकक्ष 8 फ़ीसदी रही लेकिन यहां शहरीकरण की वृद्धि दर 28 फ़ीसदी रही जो एशिया की औसत शहरीकरण वृद्धि दर से कम रही। लेकिन इसके बावज़ूद यहां गरीबों का अनुपात 25 फीसदी है। रिपोर्ट का यह भी मानना है कि पिछले दो दशकों में ग्रामीण और शहरी ग़रीबी के बीच का अंतर कम हुआ है। साथ ही संवृद्धि दर के तेज़ होने का असर शहरी ग़रीबी के कम होने के रूप में नहीं हुआ है। जिसके चलते शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या बढ़ी है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत के शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या 42 करोड़ छह लाख है जो कि लगभग स्पेन की कुल जनसंख्या के बराबर है। यही नहीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या में वृद्धि के बावज़ूद झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि न होने के कारण इनका स्तर और भी बद्तर हुआ है। इन जगहों पर सुविधाओं का भयावह अभाव है। ऐसी लगभग 55 फीसदी बस्तियों में शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं है और ये पानी, बिज़ली, जैसी चीज़ों से भी महरूम हैं। इसके अलावा इसी जनगणना के अनुसार अब भी शहरों में सात लाख अठहत्तर लोगों के पास अपनी कहने को कोई छत नहीं है और ये फुटपाथों , रेल की पटरियों के किनारे, खुले मैदानों तथा सड़कों के इर्द-गिर्द रात बिताने को मज़बूर हैं। इनके लिये रैन बसेरों का इंतज़ाम कितना नाकाफ़ी है यह देखने के लिये दिल्ली का उदाहरण काफ़ी होगा जहां लगभग एक लाख निराश्रितों के लिये बस 2937 लोगों की क्षमता वाले 14 रैन बसेरे हैं यानि सिर्फ़ तीन फीसदी लोगों के लिये शेष या तो खुले आसमान के नीचे सोते हैं या फिर निजी ठेकेदारों के रहमोकरम पर रिपोर्ट में एक अध्ययन का भी ज़िक्र है जिसके अनुसार महानगरों के निराश्रित मर्द, औरत और बच्चे अक्सर पुलिस के दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। रईसजादों द्वारा इनको कुचले जाने के किस्से तो आये दिन अख़बारों में आते ही रहते हैं।

दरअसल, जैसा कि पूर्व में उद्धृत रिपोर्ट से स्पष्ट है, नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से यह समस्या और गंभीर हुई है। श्रम क़ानूनों में ढील, सरकारी संस्थानों का निजीकरण और कल्याणकारी सरकारी ख़र्चों की कमी ने इस बदहाली को नये आयाम दे दिये हैं। रिसाव के जिस सिद्धांत के तहत माना गया था कि उच्च संवृद्धि दर से अपनेआप व्यापक ग़रीब आबादी का जीवन स्तर सुधरेगा, वह पिछले बीस सालों में कहीं लागू होता नहीं दिखता। इस प्रक्रिया में अगर कुछ बढ़ा है तो वह है आर्थिक वैषम्य। ऐसे में इस रिपोर्ट में मूलभूत सुविधाओं के आवंटन में बराबरी, छोटे तथा मध्य आकार के कस्बों को विशेष सहायता, विकेंद्रीकरण हेतु संविधान में सुधार, गरीब लोगों तथा झुग्गी-झोपड़ियों के लिये सब्सीडियों का विस्तार, सैनिटेशन तथा पेयजल उपलब्ध कराने के प्रयास जैसे जो उपाय सुझाये गये हैं उनके लागू हो पाने की उम्मीद शायद ही किसी को हो।

अशोक कुमार पाण्डेय

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात से मैं भी सहमत हूँ. शहरी गरीबों की हालत गुणात्मक रूप से ग्रामीण गरीबों से अधिक बदतर होती है. आँकड़ों के अलावा अगर बिल्कुल व्यावहारिक उदाहरण से देखें, तो सर्दियों में जहाँ ग्रामीण गरीब कौड़ा (तपता या अलाव) जलाने के लिये थोड़ी बहुत लकड़ी पा जाते हैं और उसके सहारे अपना जाड़ा काट देते हैं, वहीं हर बार सर्दियों में न जाने कितने गरीब ठंड से टिठुरकर मर जाते हैं. गाँव में अपने रहने के लिये माँगकर ही सही पुआल और छप्पर डालने के लिये फूस मिल जाती है और शहरों में जैसा कि आपने बताया रैनबसेरे भी पर्याप्त नहीं होते. उत्तर भारत की कड़कती ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने के लिये मजबूर गरीबों को देखने के लिये एक संवेदनशील मन ही बहुत है.

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

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