हिन्दी कविता के हर युग में चार-पांच कवियों को मिलाकार एक भिन्न पीढ़ी बनाने की परम्परा रही है। जैसे बीती सदी के उत्तरार्द्ध में छायावाद के नाम पर चार स्तम्भ खड़े कर दिए गए और उसमें चन्द्रकुंअर बर्त्वाल जैसा महत्वपूर्ण नाम विस्मृत कर दिया गया। सुमित्रानन्दन पन्त महाकवि हो गए और उन्हीं के समकक्ष और एकाध पक्ष में उनसे समर्थ बर्त्वाल उपेक्षित रह गए। इस उपेक्षा एक कारण यह बताया गया कि बर्त्वाल का देहान्त अल्पायु में हो गया था। उन पर आलोचना में थोड़ा बहुत काम हुआ है और नामवर सिंह जैसे आलोचक ने भी अपनी सुपरिचित वाचिक पद्धति के आलोचन में उन्हें याद किया है। ख़ैर मैं इस विस्तार में नहीं जाऊंगा और आगे की बात करूंगा यानी कि आज की बात !
आज अस्सी के दशक की पीढ़ी के कवियों का बड़ा हल्ला है। ध्यान देने की बात ये है कि अब तक की पीढ़ियों का निर्धारण उनके बाद की उम्रों के कवि और आलोचक करते रहे हैं, लेकिन अस्सी के दशक के कवियों ने खुद अपनी पीढ़ी की घोषणा की है - उदाहरण के तौर पर राजेश जोशी के कुछ साक्षात्कार और डायरीपरक आलोचनात्मक लेख पढ़े जा सकते हैं। लेकिन इसमें ख़लल की तरह वीरेन डंगवाल के साहित्य अकादमी वक्तव्य को भी देखा जा सकता है, जिसमें वे इस पुरस्कार को अपनी पीढ़ी की ओर से ग्रहण करने की बात कहते हैं। मज़े की बात ये कि उनकी तथाकथित पीढ़ी समूची ही साहित्य अकादमी पुरस्कृत है (अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल और बाद में ज्ञानेन्द्रपति भी)। हां, उनके ठीक पहले की पीढ़ी (?) में चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, ऋतुराज और आलोक धन्वा ऐसे बड़े नाम हैं, जिन्हें यह पुरस्कार नहीं मिला। आठ-दस साल के अन्तर पर अलग मान ली गई ये पीढ़ी भी अगर वीरेन डंगवाल की पीढ़ी मान ली जाए तो उनके वक्तव्य का पूरा आशय ही बदल जाता है और ज़रूर इसी आशय और इन्हीं छूटे हुए साथियों की शिनाख़्त के मक़सद से यह वक्तव्य लिखा भी गया है। मुझे सबसे कमाल की बात ये लगती है कि वीरेन डंगवाल भी साहित्य अकादमी प्राप्त करने के बाद ही अस्सी के दशक की पीढ़ी में शामिल माने गए हैं, उससे पहले उन्हें या तो बाद का कवि (कारण प्रथम संकलन `इसी दुनिया में´ का प्रकाशन १९९० में होना) मानने की शरारत देखने में आती थी या फिर उनका नाम छोड़ देने की बेहूदा और हिंसक राजनीति। सियाराम शर्मा के पहल के लिए किए गए एक आलोचनात्मक शोध में पहली बार वीरेन डंगवाल के महत्व को कुमार विकल, गोरख पाण्डे और आलोक धन्वा के समकक्ष मानकर रेखांकित किया गया। यहां अगर पीढ़ी निर्धारण का यही सूक्ष्मदर्शी कार्य होने लगता तो वीरेन जी की परख मुश्किल हो जाती। मनमोहन जैसा कवि आज भी इस दंश को कहीं अपने भीतर महसूस करता होगा, जो दरअसल आलोक धन्वा का संगी रचनाकार है।
पीढ़ियों के इस प्रकरण पर कोई एतराज़ नहीं भी किया जाए पर पीढ़ी की व्याख्या अगर `समकालीन´ शब्द के बरअक्स करें तो एक बखेड़ा खड़ा हो सकता है। उम्मीद है मेरी बातों का एक बड़ा हिस्सा आप सब तक ज़रूर पहुंच रहा होगा। अब सवाल यह उठता है कि समकालीन होने की क्या शर्त है? मेरा मानना है कि अलग-अलग उम्रों के कवि अगर एक साथ एक समय में रचनारत हैं तो वे समकालीन हैं। यानी अलिन्द उपाध्याय (जिनके खाते में कुल दस कविताएं हैं) और लीलाधर जगूड़ी (जिनके खाते में दस से अधिक कविता संकलन हैं) समकालीन हैं। जी हां, वे ज़रूर समकालीन हैं, जबकि उनके महत्व और अवदान में ज़मीन-आसमान का अन्तर है ! आज की कविता का आकलन किया जाए तो इस बात पर ग़ौर फ़रमाया जाए कि दो अलग उम्रों और उपलब्धियों वाले कवि अपने एक जैसे समय को एक साथ कैसे परिभाषित करते है? मेरे लिए तो यह कविता का लोकतन्त्र होगा, जहां अलिन्द उपाध्याय जैसी नई घास को भी जगूड़ी जी जैसे वटवृक्ष के साथ खड़ा देखा जा सकता है। क्या लीलाधर जगूड़ी इस पर एतराज़ करेंगे?
बहरहाल, पीढ़ी के ही मसले को और आगे बढ़ाएं तो पाएंगे कि अस्सी के बाद दो-दो, पांच-पांच साल के अन्तराल पर भी पीढ़ियों का निर्धारण होने लगा है और वह भी खुद कवियों द्वारा। यानी हर पांच साल में एक नई पीढ़ी अपने अस्तित्व की घोषणा करती नज़र आती है और ये सीख जाहिर है कि उसे अस्सी के दशक के अग्रज कवियों से मिली होती है। १९९२ से रचनारत रहने/ छपने के बाद २००४ में मुझे पहला अंकुर मिश्र पुरस्कार मिला तो मेरे बाद लिखना शुरू करने वाले पर मुझसे पहले पुरस्कारीय मान्यता प्राप्त कर लेने वाले उम्र में मुझसे कोई पांच साल बड़े एक बहुत प्यारे कवि ने कहा - " शिरीष मैं बहुत ख़ुश हूँ कि मेरे बाद की पीढ़ी में भी कोई समर्थ कवि आ गया...तुम्हें बधाई हो!" इस बात से मुझे जो मज़ा आया वह शब्दातीत है। अब देखिये कि हिंदी कविता में एक पीढ़ी ८५ से ९० की है तो दूसरी ९० से २००० तक और तीसरी २००० के बाद की! इस तरह अब से हर सौ साल में हिन्दी कवियों की बीस पीढ़ियां होंगी - इस तरह की कविता का दस्तावेज़ीकरण कैसे होगा? साहित्येतिहास इस बारे में क्या कहेगा? मुझे तो लगता है इन बीस पीढ़ियों में से कम से कम अठारह को इतिहास खुद अपने कूड़ेदान में फेंक देगा। या फिर हर उम्र का कोई एकाध कवि बचेगा, जो अपने अगले-पिछले के बीच खड़ा रहकर सौ साल की अवधि के आठ-दस प्रतिनिधि कवियों में अपनी जगह बनाएगा। हम नहीं जानते कि भविष्य की इतिहास दृष्टि क्या होगी?
आज अस्सी के दशक की पीढ़ी के कवियों का बड़ा हल्ला है। ध्यान देने की बात ये है कि अब तक की पीढ़ियों का निर्धारण उनके बाद की उम्रों के कवि और आलोचक करते रहे हैं, लेकिन अस्सी के दशक के कवियों ने खुद अपनी पीढ़ी की घोषणा की है - उदाहरण के तौर पर राजेश जोशी के कुछ साक्षात्कार और डायरीपरक आलोचनात्मक लेख पढ़े जा सकते हैं। लेकिन इसमें ख़लल की तरह वीरेन डंगवाल के साहित्य अकादमी वक्तव्य को भी देखा जा सकता है, जिसमें वे इस पुरस्कार को अपनी पीढ़ी की ओर से ग्रहण करने की बात कहते हैं। मज़े की बात ये कि उनकी तथाकथित पीढ़ी समूची ही साहित्य अकादमी पुरस्कृत है (अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल और बाद में ज्ञानेन्द्रपति भी)। हां, उनके ठीक पहले की पीढ़ी (?) में चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, ऋतुराज और आलोक धन्वा ऐसे बड़े नाम हैं, जिन्हें यह पुरस्कार नहीं मिला। आठ-दस साल के अन्तर पर अलग मान ली गई ये पीढ़ी भी अगर वीरेन डंगवाल की पीढ़ी मान ली जाए तो उनके वक्तव्य का पूरा आशय ही बदल जाता है और ज़रूर इसी आशय और इन्हीं छूटे हुए साथियों की शिनाख़्त के मक़सद से यह वक्तव्य लिखा भी गया है। मुझे सबसे कमाल की बात ये लगती है कि वीरेन डंगवाल भी साहित्य अकादमी प्राप्त करने के बाद ही अस्सी के दशक की पीढ़ी में शामिल माने गए हैं, उससे पहले उन्हें या तो बाद का कवि (कारण प्रथम संकलन `इसी दुनिया में´ का प्रकाशन १९९० में होना) मानने की शरारत देखने में आती थी या फिर उनका नाम छोड़ देने की बेहूदा और हिंसक राजनीति। सियाराम शर्मा के पहल के लिए किए गए एक आलोचनात्मक शोध में पहली बार वीरेन डंगवाल के महत्व को कुमार विकल, गोरख पाण्डे और आलोक धन्वा के समकक्ष मानकर रेखांकित किया गया। यहां अगर पीढ़ी निर्धारण का यही सूक्ष्मदर्शी कार्य होने लगता तो वीरेन जी की परख मुश्किल हो जाती। मनमोहन जैसा कवि आज भी इस दंश को कहीं अपने भीतर महसूस करता होगा, जो दरअसल आलोक धन्वा का संगी रचनाकार है।
पीढ़ियों के इस प्रकरण पर कोई एतराज़ नहीं भी किया जाए पर पीढ़ी की व्याख्या अगर `समकालीन´ शब्द के बरअक्स करें तो एक बखेड़ा खड़ा हो सकता है। उम्मीद है मेरी बातों का एक बड़ा हिस्सा आप सब तक ज़रूर पहुंच रहा होगा। अब सवाल यह उठता है कि समकालीन होने की क्या शर्त है? मेरा मानना है कि अलग-अलग उम्रों के कवि अगर एक साथ एक समय में रचनारत हैं तो वे समकालीन हैं। यानी अलिन्द उपाध्याय (जिनके खाते में कुल दस कविताएं हैं) और लीलाधर जगूड़ी (जिनके खाते में दस से अधिक कविता संकलन हैं) समकालीन हैं। जी हां, वे ज़रूर समकालीन हैं, जबकि उनके महत्व और अवदान में ज़मीन-आसमान का अन्तर है ! आज की कविता का आकलन किया जाए तो इस बात पर ग़ौर फ़रमाया जाए कि दो अलग उम्रों और उपलब्धियों वाले कवि अपने एक जैसे समय को एक साथ कैसे परिभाषित करते है? मेरे लिए तो यह कविता का लोकतन्त्र होगा, जहां अलिन्द उपाध्याय जैसी नई घास को भी जगूड़ी जी जैसे वटवृक्ष के साथ खड़ा देखा जा सकता है। क्या लीलाधर जगूड़ी इस पर एतराज़ करेंगे?
बहरहाल, पीढ़ी के ही मसले को और आगे बढ़ाएं तो पाएंगे कि अस्सी के बाद दो-दो, पांच-पांच साल के अन्तराल पर भी पीढ़ियों का निर्धारण होने लगा है और वह भी खुद कवियों द्वारा। यानी हर पांच साल में एक नई पीढ़ी अपने अस्तित्व की घोषणा करती नज़र आती है और ये सीख जाहिर है कि उसे अस्सी के दशक के अग्रज कवियों से मिली होती है। १९९२ से रचनारत रहने/ छपने के बाद २००४ में मुझे पहला अंकुर मिश्र पुरस्कार मिला तो मेरे बाद लिखना शुरू करने वाले पर मुझसे पहले पुरस्कारीय मान्यता प्राप्त कर लेने वाले उम्र में मुझसे कोई पांच साल बड़े एक बहुत प्यारे कवि ने कहा - " शिरीष मैं बहुत ख़ुश हूँ कि मेरे बाद की पीढ़ी में भी कोई समर्थ कवि आ गया...तुम्हें बधाई हो!" इस बात से मुझे जो मज़ा आया वह शब्दातीत है। अब देखिये कि हिंदी कविता में एक पीढ़ी ८५ से ९० की है तो दूसरी ९० से २००० तक और तीसरी २००० के बाद की! इस तरह अब से हर सौ साल में हिन्दी कवियों की बीस पीढ़ियां होंगी - इस तरह की कविता का दस्तावेज़ीकरण कैसे होगा? साहित्येतिहास इस बारे में क्या कहेगा? मुझे तो लगता है इन बीस पीढ़ियों में से कम से कम अठारह को इतिहास खुद अपने कूड़ेदान में फेंक देगा। या फिर हर उम्र का कोई एकाध कवि बचेगा, जो अपने अगले-पिछले के बीच खड़ा रहकर सौ साल की अवधि के आठ-दस प्रतिनिधि कवियों में अपनी जगह बनाएगा। हम नहीं जानते कि भविष्य की इतिहास दृष्टि क्या होगी?
बहरहाल मेरी नज़र में इस तरह का तात्कालिक और चालू किस्म का भेड़ियाधसानी पीढ़ीवाद समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक हादसा भी है और अपने आप में हास्यास्पद भी!
अब हिन्दी के "समकालीन" कवि ही तय करेंगे कि वे ऐसी किसी पीढ़ी विशेष के कवि कहलाना पसन्द करेंगे कि अपने समूचे जटिलतम समय के।
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अंत में इतना और कि यह हमारे इस नवजात ब्लॉग के लिए भीतर की उथलपुथल के बीच लिखी गई एक तुरत टिप्पणी है - उम्मीद है सुधी साथी सही-ग़लत बताते हुए इस मुद्दे पर ज़रूर मेरा कुछ मार्गदर्शन करेंगे।
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हिन्दी आलोचना में पीढ़ी, नवलेखन, युवा लेखन जैसे जो विभाजन किये जाते हैं वे अक्सर बहस को सब्जेक्टिव बना देते हैं। इस चक्कर में नव सृजनशीलता को पहचानने और उसकी आलोचना का महत्वपूर्ण काम नहीं हो पाता।
जवाब देंहटाएंसाथियो!
जवाब देंहटाएंआप निसंदेह अच्छा लिखते हैं..समय की नब्ज़ पहचानते हैं.आप जैसे लोग यानी ऐसा लेखन ब्लॉग-जगत में दुर्लभ है.यहाँ ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है जो या तो पूर्णत:दक्षिण पंथी हैं या ऐसे लेखकों को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन करते हैं.इन दिनों बहार है इनकी!
और दरअसल इनका ब्लॉग हर अग्रीग्रेटर में भी भी सरे-फेहरिस्त रहता है.इसकी वजह है, कमेन्ट की संख्या.
महज़ एक आग्रह है की आप भी समय निकाल कर समानधर्मा ब्लागरों की पोस्ट पर जाएँ, कमेन्ट करें.और कहीं कुछ अनर्गल लगे तो चुस्त-दुरुस्त कमेन्ट भी करें.
आप लिखते इसलिए हैं कि लोग आपकी बात पढ़ें.और भाई सिर्फ उन्हीं को पढ़ाने से क्या फायेदा जो पहले से ही प्रबुद्ध हैं.प्रगतीशील हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं.
आपकी पोस्ट उन तक तभी पहुँच पाएगी कि आप भी उन तक पहुंचे.
मैं कोशिश कर रहा हूँ कि समानधर्मा रचनाकार साथियों के ब्लॉग का लिंक अपने हमज़बान पर ज़रूर दे सकूं..कोशिश जारी है.
भाई शिरीष आपने कुछ तथ्यपरक बातें रखी हैं। वीरेन डंगवाल जी के शहर बरेली में काफी समय रहा हूं और काफी नजदीक से उनको देखा भी है। हालांकि मुझमें साहित्य के समझने की इतनी समर्थ नहीं है लेकिन यकीन मानिए की डंगवाल जी का कद बहुत ऊंचा है। आप साहित्यकार या आलोचक लोग उन्हें किस श्रेणी में रखते हैं यह मुझे पता नहीं है।
जवाब देंहटाएंयह सच है कि मनमोहन को वह स्थान नहीं मिला जो कि उनका मुकाम है। मैंने उन्हें बहुत नहीं पढ़ा है और जितना जाना है वह धीरेश सैनी के जरिए ही जान पाया हूं लेकिन उनकी कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि उनसे तो न जाने कितनी पुरानी आत्मीयता है।
बहरहाल, आपका मूल्यांकन सटीक है।
शहरोज साहब ने भी टिप्पणी के बहाने बहुत अच्छी बात कही है। हम सभी को उस पर ध्यान देना चाहिए।
शिरीष ठीक कह रहे हैं. खासकर चंद्रकांत देवताले और आलोक धन्वा के मुताल्लिक.... अशोक की बात से आगे बढ़कर यह कि विभाजन का तरीका भावी योजनाओं के प्रति और कम स्पेस दे रहा है.....हर पल तैयार हो रही पीढ़ी...मोहताज है ऐसे ही किसी सूक्ष्म मूल्याङ्कन की....
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