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शनिवार, 17 अप्रैल 2010

यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है

( इस शनिवार दिन भर दख़ल के लिये कवितायें तलाशता रहा। मिलीं तमाम पर दख़ल के लिये छांटी एक शमशेर बहादुर सिंह की कविता और दूसरी भवानी बाबू की यह कविता। कवि कितनी दूर तक और कितना साफ़ देख सकता है इस कविता से समझा जा सकता है। आप सब भी पढ़िये)


भवानी बाबू


पहले इतने बुरे नहीं थे तुम
याने इससे अधिक सही थे तुम
किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने
अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगोंने
या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने
तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया
तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया
छोटी बातों से सम्पर्क खो गया
धुनक-पींज कर , कात-बीन कर
अपनी चादर खुद न बनाई

बल्कि दूर से कर्जे लेकर मंगाई
और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है
यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है


  • १९५९ में लिखी यह कविता , विश्व बैंक से पहली बार कर्जा लेने की बात उसी समय शुरु हुई थी

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! पढ़ कर स्तब्ध हूँ भवानी बाबू ने इतना साफ़ तब देखा!
    पढ़वाने के लिए बेहद शुक्रिया!

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  2. काश...अपनी प्रतिभाओं पर विश्वास किया होता...उन्हें मौका दिया होता...काश अपनी चादर खुद बनाई होती...दूर से कर्जा लेकर न मँगाई होती.

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