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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

फिर पूंजीवाद किस बात का जश्न मना रहा है?



(युवा संवाद के प्रदेश संयोजक प्रदीप की मई दिवस पर लेखमाला का दूसरा अंश)





19 वी शताब्दी में पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष में तेजी आयी। 1831 में फ्रांस के लियों  नगर में मजदूरों का विद्रोह हुआ, जिसे सरकारी सैनिकों ने निर्ममता से कुचल डाला। ब्रिटेन जोकि उन दिनों सबसें अधिक विकिसित देश था और अति उत्पदन के संकटों से सबसें अधिक त्रस्त था, पूंजीपतियों के विरूद्ध मजदूर वर्ग के संघर्ष प्रथम व्यापक, जनव्यापी तथा राजनीतिक रूप से संगठित सर्वहारा (मजदूर जिनके पास अपनी श्रम शक्ति बेचेने के अलावा उत्पादन का कोई साधन नहीं होता) के क्रांतिकारी आंदोलन - चार्टिस्ट आंदोलन - का रूप  ग्र्रहण किया। चार्टिस्ट आंदोलन में दो तरह की धाराएं थी। एक, जो शासक वर्गों से व्यस्क मताधिकार, संसद के सालाना सत्र की मांग कर रही थी। दूसरे, वे थे जो शासक वर्ग को उखाड़ फेंकना चाहते थे लेकिन उनके पास भी अपनी लक्ष्य पूर्ति के लिए निश्चित विचार नहीं थे। चार्टिस्ट आंदोलन के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार क्रिस हरमन अपनी पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’ में लिखते है कि ‘अभी तक पूंजीपति वर्ग ने सामंतशाही के विध्वंस का काम युरोप में नहीं किया था, पर उसने एक नया शोषित वर्ग पैदा कर लिया था जो फ्रांसीसी क्रांति की क्रांतिकारी भाषा का इस्तेमाल पूंजीपति वर्ग के ही विरूद्ध कर सकता था’। 

हितों की समानता वस्तुगत रूप से मजदूरों को उनके संघर्ष के लिए एकताबद्ध करती थी। निर्मम शोषण इसे अवश्यंभावी बनाता था। उन दिनों मजदूर की जीवन परिस्थितियां बहुत कठोर थी। काम की सामान्य परिस्थितियां बनाने की उद्योगपति कोई चिंता नहीं करते थे। सवेतन छुट्टी नहीं मिलती थी, न ही सप्ताह में एक दिन की अनिवार्य छुट्टी। मेहनतकशों को कारखानों की ही दुकान से बढ़ी-चढ़ी कीमतों पर घटिया क़िस्म का माल खरीदना पड़ता था। मजदूरों को अपने संगठन बनाने और हड़ताल करने का अधिकार नहीं था।  19वी शताब्दी के आरम्भ में मजदूर ‘सूरज निकलने से सूरज ढलने तक’ काम करते थे। उस समय मजदूर को 14,16 यहां तक कि 18 घंटे तक अमानवीय हालातों में काम करने के लिए मजबूर किया जाना आम बात थी। इन्हीं परिस्थितियों ने मजदूरों को अपने संगठन बनाने के लिए बाध्य किया। 19वी सदी के नौवें दशक के अंत में इंगलैंड में मजदूर आंदोलन के विकास के कारण नयी ट्रड यूनियनें बनने लगी। उन्होंने मजदूर कानून लागू करने, विशेषकर आठ घंटे का कार्य दिवस शुरू करवाने के लिए संघर्ष किया। 

ट्रेड यूनियन आंदोलन का विस्तार अब युरोप और अमेरिका में भी होने लगा। पहली मई 1886 को संयुक्त राज्य अमेरिका में पूरे देश में मजदूरों की हड़ताल हुई और जलूस निकाले गए। सबसे बड़ी हड़ताल शिकागों में हुई। भयानक शोषण के शिकार मजदूर श्रम की परिस्थितियां सुधारने तथा आठ घंटे का कार्य दिवस निश्चित करने की मांग कर रहे थे। यह मांगे उस समय बेहद क्रांतिकारी मंागें थी। मजदूरों के आंदोलन को कुचलने के लिए अमेरिकी सरकार ने पूंजीपतियों के साथ मिलकर मजदूरों की शांतिपूर्ण प्रदर्षन पर पुलिस से गोलियां चलवायी। कई मजदूरों पर मुकदमा चलाकर उन्हें फाॅसी की सजा दे दी गई। अनेकों को लम्बी कैद की सजा सुनायी गयी। अमेरिका में हुई इन घटनाओं ने दुनिया के मजदूरों को यह दिखा दिया पूंजीवाद से संघर्ष कें लिए सभी देशों के मजदूरों का एकजुट होना आवश्यक है। तब से पहली मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी एकजुटता के प्रदर्शन का दिन बन गया। मजदूरों के आंदोलन के दबाव के कारण ही आठ घंटे के कार्य दिवस का कानून बनाया गया तथा मजदूरों के हितों में अन्य अनेक कानून बनाये गए। 

ऐसा नहीं है कि इस दौर में मजदूर वर्ग ने केवल अपने कार्य-दशाओं में सुधार के लिए व जनतांत्रिक अधिाकरों के लिए संघर्ष किया और उसमें जीत भी हासिल की। 18 मार्च 1871 को फ्रांस के मजदूर वर्ग ने पेरिस पर कब्जा कर अपनी सत्ता कायम कर ली । मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिष्ट घोषणा-पत्र में लिखा था कि ‘पूंजीपति वर्ग अपनी कब्र खोदने वाले’ स्वंय पैदा करता है, 18 मार्च 1871 को फ्रांस के पंूजीपति वर्ग ने देखा कि उपर्युक्त कथन कितना सही है। मजदूर वर्ग राज्य-सत्ता पर अपना कब्जा सिर्फ़ दो माह ही रख पाया लेकिन इस दौरान उसने मजदूर वर्ग के हितों में कई कदम उठाये - बेकरियों में रात के काम पर पाबंदी, मालिकों द्वारा बंद किए फैक्ट्रियों और वर्कशाप मजदूर संगठनों के सुपंर्द, विधवाओं को पेंशन, हर बच्चे को मुफ़्त षिक्षा तथा महिलाओं को मताधिकार आदि। हम जानते है कि पुंजीवाद के अधीन महिलाओं को मताधिकार के लिए काफी लम्बा संघर्ष करना पड़ा। भयानक षोषण की चक्की में पिस रहे मजदूरों के लिए ये काफी क्रांतिकारी मांगें थी। मजदूरों के सत्ता के इस पहले प्रयोग ‘पेरिस कम्यून’ के बारे में मार्क्स ने लिखा कि ‘‘पूंजी की दुनिया के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती थी। पूंजी द्वारा अपनें विरूद्ध पैदा किए गए वर्ग के लिए सबसे बड़ी प्ररेणा भी वही थी।’

 मेहनतकशों के पास अपनी राज-सत्ता कायम करने का अवसर पेरिस कम्यून के कई दशकों बाद 1917 में पहली बार रूस में आया। जब वहां षोषक वर्गों की सत्ता को उखाड़ कर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में पहली बार समाजवाद बनाने का कार्य ्शुरु हुआ। क्रांति के परिणामस्वरूप देखते ही देखते सोवियत रूस जो कि एक पिछड़ा हुआ मुख्यतः किसानी अर्थव्यस्था और जारषाही की राजसत्ता वाला देष था, मजदूर वर्ग के अथक मेहनत की बदौलत एक औद्याोगिक मुल्क में बदल गया। यह वही समय था जब पूंजीवादी मूल्क महामंदी के मकड़ जाल में फंसे हुए थे, जबकि सोवियत रूस विकास के नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। समाजवादी विकास को देखकर पूंजीवाद के विचारक भी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने समाजवाद के बारे में कहां कि हमने भविष्य देखा है और वह काम करता है। 

रूसी इंकलाब के बाद 1949 में चीन में उसके बाद क्युबा में मेहनतकश वर्गों के नेतृत्व में सफल इंकलाब हुए। एक समय ऐसा था जब समाजवाद के विचार को सिर्फ़ विचार - विमर्श का विषय माना जाता था, अब वह मानवता के एक बहुत बड़े हिस्से की मुक्ति की हकीकत बन गया। इन इंकलाबों ने एक समय महान सफलताएं अर्जित की। इन्होंने अपने समाज की उस समय की उत्पीड़नकारी व्यवस्थाओं का खात्मा किया। लेकिन ये क्रांतियां पुंजीवाद की विश्वव्यापी व्यवस्थाा को शिकस्त देने में सफल सबित नहीं हुई। 20वी सदी की महान समाजवादी क्रांतियां अंततः पूंजीवादी रास्ते पर चली गई। सोवियत संघ का विघटन हो गया और आज का तथाकथित ‘कम्युनिस्ट’ चीन शुद्ध पूंजीवाद के रास्ते पर है। सोवियत संघ के विघटन के साथ की पूंजी के पैरोकारों और विचारकों ने ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी। क्या यह वास्तव में इतिहास का अंत था? क्या पूंजीवाद के जिन अंतर्विरोधों ने समाजवादी क्रांति की जमीन तैयार की थी, उस पर पूंजीवाद ने विजय प्राप्त कर ली है? 

यहां यह बात ध्यान रखने की है कि 20वी ्सदी का कोई भी इंकलाब सीधे पूजीवाद के खिलाफ सम्पन्न नहीं हुआ था। फिर पंूजीवाद किस बात पर जश्न मना रहा है? 20वी सदी की समाजवादी क्रांतियां मुख्यतः सांमती अर्थव्यस्था, गैर जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली व विष्व युद्ध की परिस्थितियों में सम्पन्न हुई थी। ये सभी समाज बेहद पिछडे हुए समाज थे जहां पूंजीवादी उत्पादन संबधों की अभी षुरूआत ही हो रही थी। इन क्रांतियों के मुख्य नारे थे - रोटी और शांति, जमीन जोतने वाले को। ये इंकलाब जिन सवालों और परिस्थितियों से निपटने के लिए हुए थे, उन कार्यभारों को इन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। इन क्रांतियों ने इन पिछड़े हुए समाजों को एक आधुनिक व औद्योगिक समाजों में तब्दील कर दिया। इस दौरान आपातकाल और पिछड़ेपन से निपटने के लिए जिन आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं का जन्म हुआ वहीं बाद में जाकर इनके पूंजीवादी रास्ते पर लौटने का मुख्य कारण बनी। अपनी तमाम खुबियों के बावजूद समाजवाद के इन माॅडलों में भी मजदूर वर्ग अपने श्रम का सिर्फ़ आपूर्तिकर्ता बना रहा तथा उसका अपने श्रम से उत्पन्न अधिशेष पर कोई नियंत्रण नहीं था। मजदूर वर्ग की न तो अर्थवयस्था के संचालन में कोई भूमिका बन पायी और न ही राजनीतिक सत्ता के संचालन में। मजदूर वर्ग की राजसत्ता का पहला प्रयोग 1871 में पेरिस में हुआ। उससे सीख कर समाजवाद के निर्माण का दुसरे बड़े प्रयोग 20वी शताब्दी में हुए और इन इंकलाबों ने पूरी दुनिया का इतिहास बदल दिया। आज जब समाजवाद की अंतिम मृत्यू की घोषणाऐं की जा रही है, यह याद रखना चाहिए कि पूंजीवाद को एक आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली के रूप में स्थापित होने में 200 वर्षों से ज्यादा का समय लगा। और मजदूर वर्ग द्वारा पूंजीवाद को एक आर्थिक-राजनीतिक प्रणाली के रूप में  सीधे चुनौती देने का समय पहली बार अब आ रहा है

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