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रविवार, 25 अप्रैल 2010

तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यक़ीन कर

आष्ट्रेलिया में काम के घंटे आठ किये जाने के लिये 1886 में लगाया गया पोस्टर

( (युवा संवाद के प्रदेश संयोजक प्रदीप की मई दिवस पर लेखमाला का तीसरा और अंतिम अंश)

ऐसा नहीं है कि आज पूंजी के निजाम के खिलाफ दुनिया में मजदूर प्रतिरोध नहीं कर रहे है। लेकिन इस दौरान पूंजी के आंतरिक और बाह्य चरित्र में काफी परिवर्तन आये हैं। आज के पूंजीवाद की वयाख्या 19 वी सदी के औद्योगिक पूंजीवाद को ध्यान में रखकर नही की जा सकती । पूंजीवाद के अधीन उत्पादन शक्तियों के विकास ने नए-नए सेक्टर पैदा किए है। उसने अपना आंतरिक पुर्नगठन किया है। उदाहरण के लिए दुनिया के सभी पूंजीवादी देशों में सेवा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण व बड़ा हिस्सा है। पूंजीवाद की आंतरिक पुर्नगठन की इस प्रक्रिया ने इसके अंदर आने वाली मंदी की तीव्रता को कम करने में मदद पहुॅचायी है। मार्क्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टों में पूंजीवाद की जिस विश्व-व्यापकता की बात कहीं थी, आज वो साकार हो रही है। अपने इतिहास के दौर में आज पंूजीवाद उत्पादन प्रणाली एवं राजनीति व्यवस्था के रूप में एक वैश्विक हकीकत बना है और लगातार बन रहा है। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में आए इन परिवर्तनों ने मजदूर वर्ग के स्वरूप को भी बदल दिया है।

यदि हम आज भी मजदूर वर्ग को सिर्फ़ 19वी सदी के औद्योगिक सर्वहारा के रूप में देखना चाहते है तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। आज जब परिवर्तकामी लोगों में मजदूर तबके के बीच काम करने का सवाल आता है तो सबसे पहले यहीं बात सामने आती है कि हमें शहर की झुग्गी-बस्ती में रहने वाले गरीब मजदूरों के बीच काम करना चाहिए या औद्योगिक क्षेत्र की गरीब मजदूर बस्तियों में। मैं यह नहीं कह रहा हूॅ कि गरीब मजदूर वर्ग के तबकों को संगठित करना और उनके मुद्दों पर काम करना जरूरी नहीं है। लेकिन मेरा सवाल यह है कि आखिरा हमारे जहन में मजदूर वर्ग की यही एकमात्र छवि क्यों बनती है? क्या इसका कारण मजदूर वर्ग की पुराने दौर की राजनीतिक समझ में तो नहीं है? इस बात पर गौर किया जाना चाहिए। हमें पूंजीवाद के अंदर आए बदलावों और उससे पैदा हुआ श्रम-विभाजन के कारण मजदूर वर्ग के स्वरूप में आये बदलावों व उसके लिए जिम्मेदार कारकों पर भी गौर करना चाहिए।

आज मजदूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने को मजदूर ही नहीं समझता। ये वहीं मजदूर वर्ग का हिस्सा है जिसे हम आज मध्यम वर्ग के रूप में देखते है जो अपने आप को एग्जीक्यूटिव, इंजीनियर, टेकनीशियन आदि के रूप में देखता है न कि मजदूर वर्ग के सदस्य के रूप में। अपने आप को मजदूर न समझने वाला मजदूरों का यह तबका भी मुख्यतः अपने श्रम के बाजार में बिक्री पर निर्भर करता है। ये लोग कम्पनीयों के थोडे़-बहुत शेयर भी लिए रहते है या कोई कम्पनी अपने इन कर्मचारियों में शेयर का एक छोटा सा हिस्सा दे देती है। ऐसी परिस्थिति में इनकों मजदूरों द्वारा पैदा किए गए अधिशेष में एक छोटा टुकड़ा लाभांश के रूप में मिल जाता है लेकिन वे इसके बारे में चिंता नहीं करते कि वे अपने श्रम से मिलने वाले पारिश्रमिक की तुलना में कई गुना अधिशेष पैदा कर रहे हैं और जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। पिछलें दिनों जब मंदी का असर अर्थव्यस्था पर पड़ा और उसी समय कुछ कम्पनियों के शेयर के दाम भी नीचे गिरे तो मेंरे एक मित्र जोकि एक प्रतिष्ठित कम्पनी में एग्जीक्यूटिव है वह अपनी नौकरी से ज्यादा वह उस कम्पनी के शेयरों के दाम गिरने से ज्यादा परेशान था जिसके चंद शेयर उसने भी खरीदे हुए थे। ये मजदूर यह भूल जाते हैं कि मजदूर वर्ग ही सारी संपदा पैदा करते है लेकिन यह सारी संपदा उनके हाथ में पहूंच जाती है जो पूंजी कि नियमों के मुताबिक उसके ‘मालिक’ होते है।

अपनी संपदा की बढोत्तरी के लिए पूंजीवाद मेहनतकशों के एक तबके की क्षमताओं में लगातार वृद्धि करता है व उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन पूंजीवाद मजदूर वर्ग के बहुत बड़े हिस्से को अमानवीय विपन्नता और स्थायी असुरक्षा के हालात में बनाए रखता है। जिन्हें काम मिल जाता है उन्हे चंद पैसों के लिए दिन-रात पसीना बहाना पड़ता है क्योकि उनके अलावा बहुत सारे लोग ऐसे भी है जिन्हें काम नहीं मिला है और वे इनसे से भी कम पैसों पर काम करने के लिए तैयार है। इस प्रकार पूंजीवाद मजदूरों को एक-दूसरे के ही खिलाफ खड़ा कर देता है। जो मुट्ठी भर लोग किसी प्रकार का हुनर हासिल कर लेते है और अच्छी नौकरियां पा लेते हैं, अच्छी तनख्वाह पाने लगते हैं और खुद को मजदूर नहीं मानते वे पूंजी के इस बेरहम तर्क से अछुते नहीं रह पाते। उन्हें भी अपनी हैसियत और पद बनाए रखने के लिए लगातार और ज्यादा, और कठोर परिश्रम करते रहना पड़ता है।

पूंजी और श्रम के बीच के इस अंतर्विरोध को यह व्यवस्था समाप्त नहीं कर सकती। जिस पूंजीवाद ने पूंजीपति वर्ग को पैदा किया है उसी ने मजदूर वर्ग को भी जन्म दिया है। आज मजदूर वर्ग व पूरी मानवता पर जिस अमानवीयता को पूंजीवाद ने थोप रखा है वह इसके लिए किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता। पूंजी की अपने मुनाफे तथा उसे लगातार बढ़ाते जाने के लिए प्रकृति के निमर्म दोहन के तर्क के कारण आज पृथ्वी के अस्तित्व पर ही खतरें मडराने लगे हैं। पूंजीवाद पहले पर्यावरण को बर्बाद करके मुनाफा कमाता है और फिर पर्यावरण सुधाराने के नाम पर भी मुनाफा बनाता है। इसलिए आज मजदूर वर्ग पर मानवता को पूंजी के शोषण से बचाने के एतिहासिक कार्यभार के साथ-साथ उस प्रकृति को बचाने का जिम्मा भी है जिसका मानवता एक अभिन्न हिस्सा है।

अब दुनिया के पैमाने पर इतिहास में पहली बार मजदूर वर्ग व अन्य मेहनतकश तबकों के सामने पूंजीवाद से लड़ने की सीधी चुनौती सामने है। भविष्य में जब भी इंकलाब होगें वे सीधे पूंजीवाद की परिस्थितियों में पूंजीवाद के खिलाफ सम्पन्न होगें और इसके लिए उचित रणनीति बनाने एवं समाजवाद के अगले दौर की रूपरेखा पेश करने का कार्यभार मजदूर वर्ग व उसके अगुवाओं की आज सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इस बार वे समाजवाद के निर्माण के लिए अपने वर्ग के तमाम तबकों को साथ लाने के लिए तैयार होंगे। इस बार समाजवाद जनतंत्र, समानता और आजादी का तथा उत्पादकता, सृजनात्मकता और समृद्धि का प्रेरक माॅडल होगा। मजदूर वर्ग इतिहास से सबक लेते हुए पंूजीवाद को विष्व ऐतिहासिक मुकम्मल शिकस्त देने के लिए फिर उठ खड़ा होगा। मजदूर दुनिया का सृजन करते हैं, परंतू दुनिया उनके हाथों में नहीं है। वे स्वर्ग का निर्माण करते हैं, लेकिन स्वर्ग से बाहर धकेल दिए जाते है। जिंदा रहने के लिए मजदूरी और वेतनों पर आश्रित ये मजदूर अभी भी पूंजीवाद के ‘‘उजरती गुलाम’’ है। अपनी जीवन परिस्थितियों में आये तमाम बदलावों के बावजूद आज भी दुनिया के मजदूरों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है; आज भी उनके सामने जीतने के लिए एक सारी दुनिया पड़ी है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. जब हम आजाद हुये थे तो समाजवादी लोकतंत्र की ओर बढ़ना तय हुआ था , पर जाने कब हमारी दिशा ठेठ पूंजीवाद की ओर हो चुकी लगती है अब ...

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  2. मजदूर दुनिया का सृजन करते हैं, परंतू दुनिया उनके हाथों में नहीं है। वे स्वर्ग का निर्माण करते हैं, लेकिन स्वर्ग से बाहर धकेल दिए जाते है।...

    यह आलेख अभी के परिदृश्य की पड़ताल तक पहुंचा है...उचित विमर्श...

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