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शनिवार, 15 मई 2010

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अज्ञेय को 'सी आई ए का एजेंट कहते थे

(यह जनमत में प्रकाशित अजय सिंह के आलेख आलेख का दूसरा हिस्सा है। पाठकों ने इसके साथ इसी अंक में प्रकाशित प्रणय कृष्ण के जवाब को भी देने की मांग की थी तो उसका स्कैन भी लगाया जा रहा है। पहला हिस्सा यहां और कांग्रेस फ़ार कलचरल फ़्रीडम, जिससे अज्ञेय का गहरा नाता था, की जानकारी यहां क्लिक करके ली जा सकती है)

प्रामाणिक भारतीयता बनाम उर्दू-हिंदी का दोआब

जितनी बार अज्ञेय विदेश यात्रा से लौटते, देश के अंदर बड़े पूंजी घरानों से उनकी आत्मीयता बढ़ती चली जाती, जैसे-जैसे उनकी ज़िंदगी और-और शानो-शौकत से भरी होती जाती-उतनी ही बार, और उसी मात्रा में 'भारतीयता की खोज और व्याख्या', 'स्व का परिमार्जन', 'आत्म का अन्वेषण', 'अकेलेपन का सन्नाटा', 'मौन की साधना', निजता मे मुक्ति, 'समूह में व्यक्ति का अकेलापन और उसकी स्वतंत्रता का दमन ' आदि का उनका राग-विराग बढ़ता चला जाता था। यह अनायास नहीं था। जैसे-जैसे देश में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संकट बढ़ता चला गया, वैसे-वैसे अज्ञेय सन्नाटे का छंद बुनने की तरफ़ बढ़ते चले गये। अज्ञेय में प्रतिभा थी, कल्पनाशीलता थी, भाषा और शिल्प में महारत हासिल थी- 'शेखर एक जीवनी' इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। इस लिये वह प्रभावी और मायावी शब्द लोक रच ले जाते थे। मुक्तिबोध को महज 'आत्मान्वेषण का कवि' कहकर अज्ञेय ने जिस तरह उन्हें लगभग ख़ारिज़ कर दिया, उससे अज्ञेय की पालिटिक्स का पता चलता है।

1960 के आसपास अज्ञेय एक अंग्रेज़ी त्रैमासिक पत्रिका 'क्वेस्ट' बाद में 'द न्यू क्वेस्ट' निकालते थे, जिसके बारे में कहा जाता था कि उसे सी आई ए से पैसा मिलता था। एडवर्ड सईद ने अपने निधन से पहले लिखे एक लेख में सी आई ए द्वारा वित्त पोषित पत्रिकाओं की सूची में इस पत्रिका का ज़िक्र किया है। लोगों को याद होगा, 1960 वाले दशक में कवि स्टीफेन स्पेंडर द्वारा संपादित प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी मासिक पत्रिका 'एनकाऊंटर' (लंदन) के बारे में सनसनीख़ेज़ रहस्योद्घाटन हुआ था कि यह पत्रिका सी आई ए के धन से निकलती है। नतीज़ा यह हुआ कि स्पेंडर को इस्तीफ़ा देना पड़ा, उनका सितारा डूब गया और पत्रिका बंद हो गयी।

हिंदी जगत के कई लोग अज्ञेय को अमरीका व सी आई ए का आदमी समझते थे। यहां तक कि कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी, जो एक ज़माने में अज्ञेय की मंडली के सक्रिय सदस्य थे और बाद में रेडिकल वामपंथ के काफी करीब आ गये थे, 1982 में निजी बातचीत में अज्ञेय को हिक़ारत से 'सी आई ए का एजेंट कहते थे

1942 में अज्ञेय ग़ुलाम भारत में अंग्रेज़ी फ़ौज़ में दाख़िल हुए और उन्हें पी आर ओ बनाकर उत्तर-पूर्व भारत में तैनात किया गया। अब वह नौकरी आजीविका के लिये थी, या 'फासीवाद विरोधी युद्ध में अंग्रेज़ों की मदद करने' की समझ से प्रेरित थी, या अंग्रेज़ों का जासूस बनने के एवज़ में मिला इनाम था, इस पर अलग-अलग राय है। इस दौर के बारे में उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया की पुत्री और अज्ञेय की सहजीवी साथी (लिव इन पार्टनर) इला डालमिया के लेख व संस्मरण कुछ और ही कहानी कहते लगते हैं, जिनसे अज्ञेय की भूमिका संदेहास्पद लगने लगती है।

एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाना है। वह है- 'जय जानकी यात्रा'। 1980 के आसपास अज्ञेय ने इला डालमिया व उनके घनिष्ठ सहयोगी ब्राह्मणवादी-प्रतिक्रियावादी लेखक विद्यानिवास मिश्र और उनके कुछ चेलों-अनुयायियों के साथ मिल 'जय जानकी यात्रा' निकाली थी। यह 'यात्रा' देश के कई हिस्सों में, लेकिन मुख्य तौर पर हिंदी-उर्दू पट्टी में, निकाली गयी। इसका मक़सद था, 'रामकथा की पात्र जानकी (सीता) का जन्मस्थान ढूंढ़ना' और इसके ज़रिये 'भारतीयता की खोज' करते हुए 'अपनी जड़ों को तलाशना' व 'जातीय स्मृति' को पुनर्सृजित करना'। इसमें गहरा हिंदुत्ववादी रुझान मौजूद था। इसने हिंदुत्ववादी ताकतों के फासीवादी 'राम जन्मभूमि आन्दोलन' को आवेग प्रदान किया, जिसकी चरम परिणिति आगे चलकर बाबरी मस्ज़िद विध्वंस में हुई।

अज्ञेय का तथा कथित 'प्रामाणिक भारतीयता का संधान' ( उद्धरण चिह्न के अंदर के शब्द प्रणय कृष्ण के हैं) शुद्ध रूप से हिंदूवादी व प्रतिगामी था और इस्लाम निषेध पर आधारित था। उनकी 'भारतीयता' में इस्लाम के लिये कोई जगह नहीं थी। उर्दू से अज्ञेय की दूरी व अरोचि छुपी हुई नहीं थी। जो लोग 'भारतीयता-भारतीयता' की रट लगाते हैं उनसे सावधान रहना चाहिये - वे 'जय जानकी यात्रा' से शुरु करके 'रथयात्रा', 'बाबरी विध्वंस' और फिर 'गुजरात नरसंहार' तक जा पहुंचते हैं। हर चीज़ के लिये पश्चिम से प्रेरणा लेने वाले लोग 'भारतीयता' और 'आध्यात्म' की रट कुछ ज़्यादा ही लगाते हैं( अज्ञेय और निर्मल वर्मा को देखिये)। इस भारतीयता' ने भारत का बेड़ा ग़र्क कर दिया है। इसने देश को हिंदू वर्चस्ववादी व सैनिक दमनकारी भारत बनाने की ओर ठेल दिया है। सवाल है, क्या इस्लाम का निषेध करके 'प्रामाणिक भारतीयता का संधान' संभव है?

अगर 'प्रामाणिक भारतीयता' जैसी कोई चीज़ है (अलबत्ता यह टर्म ही गहरा संदेह व शंका पैदा करता है), तो उसकी खोज का एक छोटा सा लेकिन बेहतरीन नमूना शमशेर में देखिये - ' मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं/ मैं वह आईना हूं जिसमें आप हैं' उर्दू व हिंदी का दोआब्। (उर्दू पहले नंबर पर है) यही है भारतीयता का बीज, भले ही वह प्रामाणिक हो या न हो।

ज़रूरत इस बात की है कि 'प्रामाणिक भारतीयता का संधान' करने की बजाय अज्ञेय की प्रामाणिक जीवनी लिखी जाय- उनके प्रति मोह, आसक्ति और जयजयकार से दूर्। लेकिन दिक़्क़त यही है कि हिंदी में जीवनी लेखन आम तौर पर व्यक्ति पूजा और 'जय हो-जय हो' के शोर में तब्दील हो जाता है। अज्ञेय ने जान-बूझकर अपने इर्द-ग़िर्द रहस्य, मिथ, कुतूहल व किवदंती का घेरा बनाया था। उन्होंने अपना ऐसा आभासी प्रभामण्डल रचा था कि उसके आगे कई प्रबुद्धजनों की भी आंखें और बुद्धि झपक जाती थी। ऐसे में पूरी छानबीन के बाद अज्ञेय की कोई प्रामाणिक' वस्तुपरक जीवनी लिखी जा सकेगी, इसमें संदेह है। अज्ञेय बड़े लेखक ज़रूर हैं- हालांकि सवाल है कि वह किस तरह के बड़े लेखक हैं- लेकिन उनके अंधेरे पक्ष बड़े प्रबल हैं।



और प्रणय कृष्ण का जवाब


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6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रणय जी के लेख का इंतजार है। शीत युद्ध के समय में किसकी कहां से फंडिग थी ये काफी विवादास्पद विषय था। आज भी किसकी कहां से फंडिग है यह पूछना विवाद पैदा कर सकता है।

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  3. अज्ञेय ने जान-बूझकर अपने इर्द-ग़िर्द रहस्य, मिथ, कुतूहल व किवदंती का घेरा बनाया था। उन्होंने अपना ऐसा आभासी प्रभामण्डल रचा था कि उसके आगे कई प्रबुद्धजनों की भी आंखें और बुद्धि झपक जाती थी।

    आलेख को यहां प्रकाशित करने के लिए धन्‍यवाद.

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  4. पाण्डेय जी, आप भी ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दे रहे हैं.. अपना उपनाम हटाइये.. लेख की भाषाशैली बढ़िया है..

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  5. ब्राह्मणवाद की आपकी समझ का बलिहा्री हूं।
    पाण्डेय हटा कर जो रहुंगा वह आपके तर्क से हिंदूवाद को बढ़ावा देगा…फिर उसके बाद?

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  6. किसी का भी लिखा हुआ...उसको ज्ञेय बना देता है...काफ़ी हद तक उसका व्यक्तित्व...उसके मूल सरोकार...
    कोई भी अज्ञेय नहीं रह सकता...

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