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रविवार, 23 मई 2010

जिस जीत ने दुनिया को बचाया

चतुर्दिक
हम हर बार जीतेंगे!

फासीवाद पर विजय के 65 वर्ष
  • अरुण माहेश्वरी

''मैंने द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़ाई नहीं की थी। मैं महान देशभक्ति का युद्ध लड़ा था। सारी दुनिया जिंदा है सोवियत संघ की बदौलत''ये शब्द थे उस बूढ़े रूसी कर्नल के जो 9 मई 1995 के दिन लेनिन मुसोलियम के पिछवाड़े में स्तालिन की मूर्ति के आधार पर फूल चढ़ाने आये अनगिनत लोगों में एक था। गार्जियन पत्रिका में जोनाथन स्टील ने अपने एक लेख सोवियत संघ के लुप्त गौरव का स्मरण करते हुए रूस के वयोवृद्ध लोगमें इसका उल्लेख किया था।

गोर्बाचोव के पेरोस्त्राइका और येलत्सिन के सुधार के बारे में इसी कर्नल की राय थी कि ''साम्राज्यवादी 1941 में सोवियत संघ को खत्म करना चाहते थे। वे नहीं कर सके। बाद में उन्होंने हमारे नेताओं से ही वह काम करा लेने का रास्ता पा लिया।''

65 साल पहले फासीवाद की पराजय सचमुच सभ्यता की एक भारी जीत थी; बर्बरता के अब तक के सबसे जघन्य हमले के खिलाफ मनुष्यता की जीत थी। सामूहिक हिंसा के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध और नागरिक अधिकारों, व्यक्ति के अधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ सभ्य समाज, व्यक्ति की अस्मिता और स्वातंत्र्य की भी जीत थी। यह शुद्ध स्वार्थों पर टिके पूंजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवादी विस्तारवाद के खिलाफ समता पर आधारित समाजवाद और राष्ट्रों की आजादी, जनतंत्र और सार्वभौमिकता की जीत थी।

8 मई 1945 की आधी रात को 1418 दिनों तक चले अब तक के इतिहास के इस सबसे विध्वंसक और जनसंहारक युद्ध के अपराधों के बाद जब पराजित नाजी फौज के प्रतिनिधियों ने बर्लिन शहर के निकटवर्ती कस्बे करिहस्र्ट में सोवियत सेना और ब्रिटेन, अमेरिका तथा फ्रांस की मित्र शक्तियों के प्रतिनिधियों के सामने बिनाशर्त पूर्ण आत्मसमर्पण किया, तब तक इस युद्ध में 5 करोड़ के करीब लोगों की जानें जा चुकी थी। अकेले सोवियत संघ के 2 करोड़ 70 लोग मारे गये थे जो उसकी आबादी का 13.5 प्रतिशत हिस्सा था। दुनिया के 1700 शहरों और कस्बों को नाजी सेना ने धूल में मिला दिया था। कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों का नामोनिशान मिट चुका था।

युद्ध के इस इतिहास से जुड़े और भी कुछ ऐसे निंदनीय पहलू है जिन पर आज भी ध्यान दिया जाना चाहिए। ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय के गुप्त कागजातों को आम लोगों के लिये उपलब्ध कराये जाने की कार्रवाई की रिपोर्ट पेश करते हुए 1 जनवरी 1970 का गार्जियनलिखता है, आज सुबह ही 1939 के जिन कैबिनेट पेपर्स को प्रकाशित किया गया उनसे पता चलता है कि द्वितीय विश्व युद्ध जिस साल शुरू हुआ, उस साल शुरू ही न होता यदि ब्रिटेन की चैंबरलीन सरकार ने रूस की सलाह को मान लिया होता या उसे समझा होता कि ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ के बीच संधि युद्ध को रोक देगी, क्योंकि हिटलर इन ताकतों के खिलाफ दो मोर्चों पर टकराने का जोखिम नहीं उठायेगा

अमेरिकी सिनेटर हैरी ट्रुमैन ने, जो बाद में अमेरिका के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति दोनों बनें, सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के दूसरे दिन ही कहा यदि हम देखते हैं कि जर्मनी जीत रहा है तो हमें रूसियों की मदद करनी चाहिए और यदि रूस जीतता है तो हमें जर्मनों की सहायता करनी चाहिए और इस प्रकार वे एक दूसरे को जितना मार सके, मारने देना चाहिए। (द न्यूयार्क टाइम्स, 24 जून, 1941)

कहना न होगा कि दूसरे विश्वयुद्ध का इतिहास समाजवादी सोवियत संघ के खिलाफ कथित मित्र शक्तियों के षड़यंत्रों और विश्वासघात की ऐसी न जाने कितनी कथाओंअंतरकथाओं से अटा हुआ है। इस युद्ध की समाप्ति के 65 वर्ष बाद आज भी उसके इतिहास को विकृत करके सारी दुनिया को बचाने वाले पहले समाजवादी राज्य की अकल्पनीय कुर्बानियों के खिलाफ कुत्सा का उनका अभियान थमा नहीं है। इतिहास गवाह है कि सोवियत संध ने फासीवाद के उदय के काल से ही हर चरण में उसे मानवता का शत्रु माना और उसके खिलाफ दुनिया की सभी जनतंत्र और शांतिप्रिय ताकतों के संयुक्त प्रतिरोध को तैयार करने की पेशकश की थी। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नेता ज्यार्जी दिमित्रोव 1935 में इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि फासीवाद सारी दुनिया में मजदूर वर्ग का प्रमुख शत्रु है और उसी समय उन्होंने फासीवादियोंनाजीवादियों से मुकाबले के लिये व्यापक आधार वाले संयुक्त मोर्चा की कार्यनीति को अपनाने का आान किया था। तभी से सोवियत संघ सहित सारी दुनिया का कम्युनिस्ट आंदोलन इसी घोषित नीति पर चल रहा था। लेकिन रूस में 1917 की समाजवादी क्रांति के बाद, 1918 से 1920 तक जो फ्रांस और ब्रिटेन इस नवजात समाजवादी राष्ट्र को घेर कर सैनिक कार्रवाई के जरिये उसे मिटा देने पर तुले हुए थे, वे ही हिटलर के उदय को समाजवाद के खिलाफ अपने एक कारगर हथियार के रूप में देख रहे थे और सोवियत संघ के संयुक्त प्रतिरोध के किसी भी प्रस्ताव को स्वीकारने के लिये तैयार नहीं थे। इतिहास में इस सचाई के सारे प्रमाण भरे हुए हैं।

इसके बावजूद, पश्चिम की यही पूंजीवादी ताकतें तमाम संदर्भों से काट कर 1939 में सोवियत संघ और जर्मनी के बीच की अनाक्रमण संधि के हवाले से इतिहास को विकृत करते हुए यह कहने से कभी नहीं चूकती कि सोवियत संघ ने इस युद्ध के प्रारंभ में हिटलर के सहयोगी की भूमिका अदा की थी। हिटलर ने सोवियत संघ को अपने हमले का निशाना बनाया इसके लिये भी वे यह कहते हुए सोवियत संघ को ही जिम्मेदार बताते हैं कि युद्ध के प्रारंभिक (1939–1941) वर्षों में उसकी निष्पक्षताकी भूमिका ने युरोपविजयी जर्मनी को रूस की ओर रुख करने के लिये प्रेरित किया था। विश्व युद्ध के अनेक इतिहासकारों ने पूंजीवादी शिविर के इस झूठे प्रचार का बारबार जवाब दिया है, लेकिन आज भी कम्युनिज्म के भूत से आक्रांत साम्राज्यवादियों के प्रचारक अपनी इस टेक को छोड़ने के लिये तैयार नहीं है।

बहरहाल, सचाई यह है कि सोवियत संघ ने शांति को कायम रखने का प्रयास किया, युरोप में सभी फासीवादविरोधी ताकतों को एकजुट करने की हर संभव कोशिश की और फासीवाद को रोकने की जरूरत को लेकर एकएक राष्ट्र का दरवाजा खटखटाया, लेकिन पूंजीवादी देशो के नेताओं के कानों पर जू तक नहीं रेंगी। फासीवाद के खिलाफ दुनिया की सभी ताकतों के संयुक्त मोर्चे के निर्माण की सोवियत संघ की पेशकश को ठुकराते हुए पश्चिम की ताकतों की हरचंद कोशिश इस बात की थी कि कैसे भी क्यों न हो, हिटलर के उत्कट कम्युनिज्मविरोध को और भड़काते हुए उसकी सेना को सोवियत संघ के खिलाफ उतार दिया जाए।

हिटलर ने युद्ध की शुरूआत पोलैंड पर हमले से की थी और ब्रिटेन, फ्रांस सभी इसी ताक में बैठे रहे कि कब और कैसे हिटलर के दरिंदे रूस पर टूट पड़ते हैं। पोलैंड के बाद नोर्वे, हालैंड बेल्जियम, फ्रांस, डेनमार्क एकएक कर हिटलर के हमलों के सामने किसी ताश के घर की तरह चंद दिनों में ही ढह गये। बिना किसी प्रतिरोध के इन पूंजीवादी देशों की सेनाओं ने हथियार डाल दिये, हिटलर के टैंकों की गड़गड़ाहट और लड़ाकू विमानों के शोर भर से इन देशों की सेनाओं के हौसले पस्त होते देखे गये। हिटलर ने पूरे युरोप को रौंद कर, उसके तमाम सैनिक और तकनीकी संसाधनों को हथिया कर 1941 के जून महीने में सोवियत संघ को मटियामेट करने का अभियान शुरू किया था। पश्चिम के पूंजीवादी देशों के सभी नेता यह मान कर बैठे हुए थे कि जैसे हिटलर ने पलक झपकते अपने रास्ते में पड़ने वाले बाकी राष्ट्रों को रौंद डाला, उसी प्रकार सोवियत संघ पर भी उसकी सेना के सिर्फ़ कूच भर करने की देरी है, समाजवादी रूस उसके चरणो पर लोटता नजर आयेगा। हिटलर के इस भयंकर विध्वंसक अभियान के प्रति अपने आतंक के बावजूद, उन्हें इस समूचे घटनाचक्र में समाजवाद को नेस्तनाबूद कर देने के अपने वर्षों के सपने के पूरे होने की उम्मीद भी दिखाई दे रही थी, और इसी बात से वे काफी खुश भी थे, जैसा कि अमेरिकी सिनेटर ट्रुमैन के उपरोक्त कथन से जाहिर है। लेकिन रूस में हिटलर के प्रवेश के थोड़े दिनों के अंदर ही यह बात साफ होगयी कि पूंजीवादी देशों की लुजपुंज सेनाओं से मुकाबले के आदी हिटलर का अब एक बिल्कुल अलग प्रकार के, सर्वहारा राज्य के समाजवादी आदर्शों से अनुप्राणित सैनिकों और आम मेहनतकशों से बनी सेना से मुकाबला ह
दुनिया में युद्धों के अब तक के इतिहास में ऐसी शायद ही दूसरी कोई नजीर मिलेगी, जिसमें लेनिनग्राद की तरह एक शहर को 900 दिनों तक घेरेबंदी में रखने, सर्दी, भूख और बमबाजी के लगातार प्रहारों बावजूद वहां के निवासियों ने हार नहीं मानी। नाजी सेना स्तालिनग्राद में घुस चुकी थी, उसके एक हिस्से पर कब्जा भी कर लिया था, इसके बावजूद सोवियत सेना ने न सिर्फ़ उसका डट कर मुकाबला ही किया, बल्कि इतिहास के इस सबसे बड़े युद्ध में उन्हें पराजित करके ठेठ बर्लिन तक धकेल दिया। स्तालिनग्राद के युद्ध के मैदान में पराजित होकर लौटते हुए नाजी सैनिकों ने वहां की दीवारों पर लिखा था कि हम बर्लिन लौट रहे हैं, तो इसके नीचे ही सोवियत सैनिकों ने लिखा, हम भी बर्लिन आ रहे हैं, और उन्होंने बर्लिन में जर्मनी के सत्ताकेंद्र राइखस्टाग पर लाल झंडा फहरा कर ही दम लिया

कुल मिला कर सोवियत संध की जनता के इस महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध ने सारी दुनिया के सामने समाजवादी व्यवस्था की शक्ति और श्रेष्ठता को जाहिर कर दिया। कल की तरह ही आज भी इस बात पर पूरा बल देने की जरूरत है कि द्वितीय विश्व युद्ध पूंजीवाद के संकट की एक परिणति था और फासीवाद का उदय इसी संकट का एक वर्गीय समाधान था। नाजी पार्टी के पीछे जर्मनी के बड़े औद्योगिक और वित्तीय घरानों का हाथ था, जिन्होंने जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के हनन और कम्युनिस्टों तथा मजदूरों के संघर्षों के खात्मे के लिये इन ताकतों को हर प्रकार की सहायता दी थी।

फासीवाद पर विजय के 65 वर्ष बाद, आज जब दुनिया का नक्शा कुछ बदला हुआ नजर आता है, एक समाजवादी शिविर के उदय, उपनिवेशवाद के अंत और पूंजीवादी देशों में मेहनतकश जनता के लिये सामाजिक सुरक्षा की असंख्य उपलब्धियों के बावजूद अब उसी सोवियत संघ और पूर्वी युरोप के देशों में समाजवाद के पराभव तथा अमेरिका के एकध्रुवीय विश्व का दृश्य दिखाई देता है, ऐसे समय में इस टिप्पणी के शुरू में हमने जोनाथन स्टील के जिस लेख का उद्धरण दिया है, उसीमें उल्लेखित स्तालिन के मकबरे पर फूल चढ़ाने के लिये आये एक और व्यक्ति अलेक्संदर चुदाकोव, जो एक जानामाना वैज्ञानिक था, का यह सवाल याद आता है कि यह कुछ अजीब है, फिर भी यदि सैनिकों को यह पता होता कि 50 साल बाद उनके देश में क्या होने वाला है तो क्या वे उस बहादुरी से लड़ पाते?

इतिहास के इस व्यर्थताबोध को ही, जो किसी भी मायने में कम यथार्थ बोध नहीं है, कामू, काफ्का और सात्र्र के अस्तित्ववाद ने व्यक्त किया था और ग्रीक माइथोलोजी के चरित्र सिसिफस की कहानी को नयी अर्थवत्ता प्रदान की थी, जो पहाड़ की चोटी पर एक चान को बारबार लेजाने और बारबार उसे ऊपर से गिरते हुए देखने के लिये अभिशप्त है। जाहिर है कि जिंदगी का अर्थ विजय और व्यर्थता, दोनों ही है। जीत और हार की द्वंद्वात्मकता में ही जीवन की प्रगति का राज छिपा है।

8 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार पोस्ट. बधाई. आभार. कृपया कभी अन्ना लुई स्ट्रॉंग की स्टालिन पर लिखी पुस्तक के चुने हुए अंश लगाएँ. स्टालिन की जैसी भयानक छवि बनाई गई है उस ढूँढ को साफ़ करने में मदद मिलेगी. पुनः आभार. महेश वर्मा, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़.

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  2. अच्छी सलाह है महेश जी…वह किताब मेरे पास है…जल्दी ही वहां से कुछ लगाया जायेगा…

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  3. बेहतर होता की आप लेख को -'' क्या वे उस बहादुरी से लड़ पाते?'' पर ही समाप्त कर देते.
    महेश वर्मा, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़.

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  4. behatarin prastuti, aaj pehli baar yahan click kiya aur khazana mila, Badhai sweekarein.

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  5. 'यदि सैनिकों को यह पता होता कि 50 साल बाद उनके देश में क्या होने वाला है तो क्या वे उस बहादुरी से लड़ पाते?'...अत्यन्त महत्वपूर्ण सवाल। 1945 में प्रकाशित भागो मत बदलो में राहुल सांकृत्यायन ने ऐसी बातें साफ कही हैं। आज से 66 साल पहले यही सब कहा है राहुल जी ने। संग्रहणीय लेख है।

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…