अभी हाल में


विजेट आपके ब्लॉग पर

शनिवार, 31 जुलाई 2010

कुरान में औरत

धर्म के दायरे में नारी मुक्ति का सवाल

तैयब हुसैन

जुलैखा जबीं का लेख (समयांतर, अप्रैल 2010 अंक) ‘महिला आरक्षण और पुरुष सत्ता’ के पूर्वार्द्ध से तो मैं सहमत हूं किंतु उत्तरार्द्ध में कई बातें आधी-अधूरी, विवादास्पद और विरोधाभासी हैं। मजहब (धर्म) चाहे कोई भी हो, वह मर्दों की देन है और हंसिया जब भी खींचेगा, अपनी ओर ही खींचेगा। (‘मर्दों ने बनाई जो रस्में, उनको हक का फरमान करा’ -साहिर)। इसलिए कोई मजहबी औरत अगर अपने मजहब के दायरे में मुक्ति या पुरुषों से बराबरी की पड़ताल करती है तो सबसे पहले उसकी दृष्टि सिर्फ इंसान की होनी चाहिए न कि हिंदू-मुसलमान या अन्य धर्मावलंबी नारी की। लेखिका ने तो ‘मैं कोई इस्लाम की जानकार नहीं हूं और न ही इस्लाम बघारने की जुर्रत की जा रही है’ कहकर यह लड़ाई ही कमजोर ढंग से लड़ने की कोशिश की है। यह कुछ वैसी ही बात है, जैसे मुस्लिम नारियों का ‘मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड’ इस्लाम के दायरे में कुछ अधिकार की मांग करता है और पुरुष वर्चस्व वाला मुस्लिम-समाज उसे नक्काड़खाने में तूती की आवाज समझकर उस पर ध्यान ही नहीं देता। यह एक कैदी का जेल के अंदर ही कुछ सुविधाओं की मांग जैसी भी लगती है जिससे मुस्लिम औरतों की बेड़ियां नहीं कटने वाली।

जुलैखा जबीं को समझना चाहिए कि भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति तो दोयम दर्जे की है ही, इनकी दुर्दशा तब और बढ़ जाती है जब ये दलित और मुस्लिम भी हों। बकौल मुक्तिबोध, ‘मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते हैं। उसे सामाजिक मुक्ति के व्यापक सवाल से जोड़कर देखना ही पड़ेगा।

औरत की गुलामी का इतिहास अगर मजहबों के परे देखें तो एंगेल्स के ‘परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में कहा गया है कि ‘‘पाषाण युग में खेती का अधिकारी पूरा कबीला होता था। हल और फावड़े अविकसित अवस्था में थे। पुरुष को खेती करनी पड़ती थी और औरत बागवानी संभालती थी। श्रम के इस आदिम विभाजन के काल में स्त्री और पुरुष पारस्परिक समानता के आधार पर समाज को संगठित करते थे। वस्तुतः अधिक शारीरिक शक्ति की अपेक्षा वाले काम पुरुष और कम शारीरिक शक्ति वाले काम स्त्रियां करती थीं।

धातुओं के संबंध में जानकारी बढ़ने के साथ विकास की संभावनाएं अधिक व्यापक हुईं। जंगलों को काट-काटकर मैदानों में बदलने के लिए ज्यादा कठिन श्रम की आवश्यकता पड़ने परआदमी ने दूसरों को अपनी ताकत से गुलाम बनाना शुरू कर दिया। व्यक्तिगत संपत्ति के लोभ से पुरुष स्वामित्व की भावना विकसित हुई। वह जमीन का मालिक था, वह गुलामों का मालिक था और अब बना स्त्री का मालिक। यहां से औरत की गुलामी की कहानी शुरू होती है।

जिस स्थिति ने घरेलू काम-काज संभालने के कारण औरत को परिवार में सर्वोच्च सत्ता के सिंहासन पर बैठाया था, वही अब औरत की गुलामी का आधार बन गई। व्यक्तिगत संपत्ति के साथ पितृसत्तात्मक परिवारों का उदय हुआ। इस प्रकार के परिवार में औरत की एक अधीनस्थ स्थिति ही संभव थी।’’

इस्लाम में तो औरत आदम की पसली से बनाई गई है। शैतान के बहकाने पर जन्नत में उसने आदम को वर्जित फल चखने को मजबूर किया और शैतान की बेटी कहलाई। फिर अगर मां (औरत) के कदमों के नीचे जन्नत है तो अल्लाह के बाद औरत को अगर किसी के आगे झुकने की इजाजत होती तो यह दर्जा उसके शौहर का होता, कहकर ‘एक हाथ से (कम) दे तो दूसरे हाथ से (ज्यादा) ले’ जैसी कहावत ही चरितार्थ की गई है। क्या इस अधिकार में गैर बराबरी नहीं है कि मर्द तलाक देता है, औरत तलाक (खुला) मांगती है?

मुझे तो यहां विश्व प्रसिद्ध लेखक बाल्जाक की औरत पर की गई एक टिप्पणी याद आ रही है कि ‘औरतों से नौकरानी की तरह काम लेना चाहिए मगर समझाकर रखना चाहिए कि वह महारानी है।
इस्लाम से पूर्व के धर्मों में भी औरतों के प्रति लगभग ऐसा ही पक्षपातपूर्ण रवैया देखने में आता है।

सिनगाॅग में नारियां गैलरी में अलग बैठती हैं, पुरुषों के साथ नहीं। भारत की तत्काल प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जब इजराइल-यात्रा के क्रम में येरूशलम गईं तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि वहां की प्रधानमंत्री (जो उस समय संयोगवश कोई नारी ही थी) नारी होने के नाते उन्हें लेकर बालकनी में बैठीं जबकि वहां का संपूर्ण पुरुष समुदाय मुख्य हाॅल में रहा

स्त्रियों को संघ में शामिल करने में बुद्धदेव तक को आपत्ति थी। वर्द्धमान महावीर को तो स्त्री के शरीर से किसी के निर्वाण (परम मुक्ति) का रास्ता ही नहीं सूझा था

मुस्लिम औरतें भी मस्जिद में नहीं जा सकतीं। भले काबा जा सकती हैं। फिर औरतें खेती हैं, उसे जोतो! लिबास है, पहनो! कुरआन की ही उक्ति है।

मोहतरमा जबीं ढूंढ़ें तो ‘मनुस्मृति’ की तरह उनका पवित्र कुरआन भी कहता मिलेगा कि पुत्र हमेशा पुत्री की तुलना में प्राथमिकता पाता है क्योंकि ‘‘पुरुष स्त्रियों के निगरां और जिम्मेदार हैं, इसलिए कि अल्लाह ने एक दूसरे पर बड़ाई (तरजीह) दी है। …नेक स्त्रियां आज्ञा का पालन करने वाली होती हैं। सरकश स्त्रियों को समझाओ, बिस्तरों पर उन्हें तन्हा छोड़ो और न मानने पर पीटो। यह खुदा की ख्वाहिश है और अल्लाह सबसे उच्च और महान है।’’

और भी कि, ‘पुरुष स्त्रियों का पोषक है।’ ‘ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठ गुणों के कारण पुरुष स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं।’ ‘पुरुष का हिस्सा दो स्त्रियों के बराबर है।’
(‘कुरआन मजीद’: अनु. – मुहम्मद फारख खां: प्रकाशक, अलहसनात, दिल्ली,: 1994: क्रम चार अन-निसा, आयत 34: पृष्ठ-80 और 84) तथा (‘हिंदुस्तान के निवासियों का जीवन और उनकी परिस्थितियां’: प्रकाशक-शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, 1969: पृ. 169)

असल में ये उक्तियां समय-समय पर परिस्थितिवश आई हैं, इसलिए स्वभावतः परस्पर विरोधाभासी भी हो गई हैं। कहना नहीं होगा कि जुलैखा जबीं को औरतों के पक्ष में कुरआन के उद्धरण एकांगी हैं, क्योंकि वे सिक्के का एक पहलू ही बयान करते हैं।

चलते-चलते एक दृष्टांत की याद दिलाना प्रासंगिक लगता है। याद होगा कि अक्सर अरबियन सेठ हैदराबाद के होटलों में ठहरकर गरीब मां-बाप की कमसिन लड़कियों से दैन मोहर के रूप में अच्छी रकम देकर एक साथ निकाहनामा और तलाकनामा दोनों के कागज साथ तैयार कराते हैं फिर जब तक चाहते हैं बीवी के रूप में ऐश-व-आराम करते हैं और फिर तलाक देकर चले जाते हैं। यात्रा के क्रम में यह विवाह जायज है। एक बार एक सेठ ने बारह साल की नाबालिग लड़की के साथ यही कारनामा अंजाम दिया था और बलात्कार जैसा मामला बन गया था लेकिन वह सजा नहीं पा सका क्योंकि इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद ने भी अपनी सबसे छोटी बीवी आयसा से तब किया था जब वह मात्र नौ साल की थीं। सेठ की इस ज्यादती पर मुसलमान चुप रहे मगर ‘बाजार’ फिल्म ने इस आक्रोश को कला के स्तर पर वाणी देने की कोशिश की है।

निष्कर्षतः धर्म की भूमिका अपने समय में सार्थक रही होगी लेकिन बदलते समय में स्थिर रहकर उसने वह उपयोगिता खो दी है। फिर मजहब इंसान के लिए बना है, इंसान मजहब के लिए नहीं।

इसलिए नारी-शोषण पर पुनः एंगेल्स का यह कथन महत्वपूर्ण लगता है कि ‘‘जिस समाज में उत्पादक तथा उपभोक्ता इकाई एक ही होगी, उसमें स्त्री-पुरुषों के बीच पराधीनता के संबंध विकसित होने की संभावना नहीं होगी। …स्त्रियों की पराधीनता निजी संपत्ति के विकास तथा आर्थिक वर्गों के उदय से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है और इन दोनों बातों के कारण ही स्त्रियों को सार्वजनिक उत्पादन कार्यों से हटकर घरेलू सेवा में प्रवृत्त होना पड़ा।’’
(‘द आॅरिजन आॅफ द फैमिली, प्राइवेट प्राॅपर्टी एंड द स्टेट’, पृ. 35)।

चीजें वैज्ञानिक और ऐतिहासिक संदर्भ में ही साफ दिखाई देंगी, किसी रंगीन चश्मे की आंख से नहीं।


(समयांतर से साभार)

बुधवार, 28 जुलाई 2010

मार्टिन एस्पादा की एक कविता

यह कविता हमारे साथी भारत भूषण तिवारी ने इस आग्रह के साथभेजी है कि,'अशोक भाई, मेरे प्रिय कवि मार्टिन एस्पादा की एक कविता भेज रहा हूँ. 'अघोषित आपातकाल' के इस दौर में यह कविता सीमा आज़ाद और हेम पांडे के सम्मान में जनपक्ष पर लगा दीजिये.'

मैं साथ में कामरेड चारु मज़ूमदार को और जोड़े ले रहा हूं, जिनकी आज जंयती है





किताबों का बादशाह

कमीलो पेरेज़-बुस्तीयो* के लिए


कमीलो के साथ किताबें हर कहीं
सफ़र करतीं, झुर्रीदार चेहरे वाले बेताल
की तरह हिदायतें देती हुईं.
नजूमी ने हथेली जैसे दबोच ली उसकी
और चेताया उसे
अल सल्वाडोर के बारे में,
जहाँ सरहद पर पहरेदार तलाशी लेते हैं किताबों की
दढ़ियल इंकलाबी की जेबों की तरह ही
उखाड़ लेते हैं किताबों के पन्ने भी.

चे और बगावत जैसे
गैरकानूनी लफ्ज़ों की तस्करी करती हुई
किताबें जैसे थीं डकैत
किताबों की खातिर,
उसकी रीढ़ में राइफल चुभोई गई
खातिर किताबों के,
उसकी ठुड्डी को कुचला एक कुहनी ने;
किताबों की खातिर,
बिजली के तारों ने हौले से लहराईं
शाखें ज़ालिम चिंगारियों की.

छद्मावरण ओढ़े
कप्तान ने उसे
दीवालतोड़ घूंसे और तर्कसंगत फासीवादी फलसफे
की तालीम देने की कोशिश की;
उसे समझाने में लगे रहे पहरेदार
बार बार वही सवाल पूछ-पूछ कर उसे
टिकाये रखा खाट पर
तब तक
जब तक कोठरी में दाखिल न हो गई सुबह
और फैल गई फर्श पर बिना किसी की नज़र पड़े;
जीप में सख्त ख़ामोशी रख कर
नौसैनिक
भिड़ गए उसे मनाने के लिए
और बिना किताबों और पैसों के
उसे सरहद पर छोड़ आए अकेला.

पर वह नहीं माना.
उसके अपार्टमेन्ट में किताबें फलती-फूलती हैं
किताबों का प्रकोप हो जैसे
ढेर जमा होतीं, बिखरतीं-पड़तीं,
अल सल्वाडोर में
ट्रेज़री पुलिस और सेना के
कप्तानों के
बुरे ख्वाबों को स्याह कर देने वाले टिड्डों के झुण्ड की भांति
झुण्ड छपे हुए शब्दों का,
किताबों के बादशाह,
कमीलो के अधीन
कोई प्लेग
.

--मार्टिन एस्पादा

*कमीलो पेरेज़-बुस्तीयो (Camilo Pérez-Bustillo) एक अध्यापक,संगठक, एक्टिविस्ट और मानवाधिकार अधिवक्ता होने के साथ-साथ पुस्तक-प्रेमी और कविमार्टिन एस्पादा के करीबी मित्र भी हैं. उनका जन्म न्यू योंर्क में हुआ; उनके माता-पिता कोलंबिया से अमरीका आ बसे थे. कमीलो एस्पादा के साथ केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स स्थित एक गैर-लाभ जनहित कानूनी संस्था META (Multicultural,Education,Training and Advocacy) के लिए काम कर चुके है जो द्विभाषीय शिक्षा और भाषाई एवं सांस्कृतिक अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए काम करती है. कुछ वर्षों से वे मेक्सिको सिटी में रहकर देशज जनता के अधिकारों की पैरवी करने के अलावा ज़पतिस्ता का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं. यह कविता उनके अपनी कुछ प्यारी किताबों के साथ अल सल्वाडोर की सीमा पार करने के वाकिये पर आधारित है ; उन किताबों के शीर्षक मात्र ने उन्हें भारी संकट में डाल दिया था. केम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स स्थित उनके अपार्टमेन्ट का भी इसमें ज़िक्र है जहाँ पड़ी किताबों का ढेर से जा भिड़ा था.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

मेरी कुछ आदत खराब है - जनकवि मुकुट बिहारी सरोज के जन्म दिवस पर

नकवि मुकुट बिहारी सरोज के जन्म दिवस पर उनके दो गीत…

मेरी कुछ आदत खराब है

मेरी, कुछ आदत, खराब है
कोई दूरी, मुझसे नहीं सही जाती है,
मुँह देखे की मुझसे नहीं कही जाती है
मैं कैसे उनसे, प्रणाम के रिश्ते जोडूँ-
जिनकी नाव पराये घाट बही जाती है।
मैं तो खूब खुलासा रहने का आदी हूँ
उनकी बात अलग, जिनके मुँह पर नकाब है।
है मुझको मालूम, हवाएँ ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवायें ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण, गलत होते जाते हैं-
शायद युग की नयी ऋचायें ठीक नहीं हैं।
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वह किताब भी क्या कोई अच्छी किताब है।

वैसे, जो सबके उसूल, मेरे उसूल हैं
लेकिन ऐसे नहीं कि जो बिल्कुल फिजूल हैं
तय है ऐसी हालत में, कुछ घाटे होंगे-
लेकिन ऐसे सब घाटे मुझको कबूल हैं।
मैं ऐसे लोगों का साथ न दे पाऊँगा
जिनके खाते अलग, अलग जिनका हिसाब है।


प्रभुता के घर जन्मे

प्रभुता के घर जन्मे समारोह ने पाले हैं
इनके ग्रह मुँह में चाँदी के चम्मच वाले हैं
उद्घाटन में दिन काटे, रातें अख़बारों में,
ये शुमार होकर ही मानेंगे अवतारों में
ये तो बड़ी कृपा है जो ये दिखते भर इन्सान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।
दंतकथाओं के उद्गम का पानी रखते हैं
यों पूँजीवादी तन में मन भूदानी रखते हैं
होगा एक तुम्हारा इनके लाख लाख चेहरे
इनको क्या नामुमकिन है ये जादूगर ठहरे
इनके जितने भी मकान थे वे सब आज दुकान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।
ये जो कहें प्रमाण करें जो कुछ प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा तब तब नए विधान बने
कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की
ये खुद जन्मपत्रियाँ लिखते हैं सरकारों की
तुम होगे सामान्य यहाँ तो पैदाइशी प्रधान हैं।
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

रविवार, 25 जुलाई 2010

अब और चुप रहना मुमकिन नहीं …

जब एक कम्युनिस्ट पतित होता है...

पाठकों, वामपंथी पार्टी कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया(रिवोल्यूशनरी) के सचिव की तानाशाह वाली कार्यशैली, संगठन में पारदर्शिता के अभाव और कार्यकर्ताओं के साथ की जाने वाली ज्यादतियों  के बारे में अब तक आपने पढ़ा, वे छुपते हैं कि चिलमन से झरता रहे उनका नूर, सांगठनिक क्रूरता ने ली अरविंद की जान, 'जनचेनता' के मजदूर, बेगार करें भरपूर और शशि प्रकाश का पूंजीवादी मंत्र 'यूज एंड थ्रो', अब इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अपने अनुभव साझा कर रहे हैं आजकल दिशा छात्र संगठन के नाम से चल रहे संगठन के पुराने संस्करण दिशा छात्र समुदाय के पूर्व कार्यकर्ता. ,

अशोक कुमार पांडेय (दिशा छात्र समुदाय के पूर्व कार्यकर्ता)

‘’नामिका की कविता और इस कविता में मूल अंतर है कि जहां अनामिका ने कविता रची है कात्यायनी ने गढी है। यह स्वाभाविक गुस्से या समर्थन की उपज नही लगती। कात्यायनी की समस्या यह है कि उनकी पूरी रचना प्रक्रिया अस्वाभाविक और एक गर्वपूर्ण भर्त्सना से भरी हुई है।

हां आपने भी उन्हें एक्टिविस्ट कहा है। प्रकाशन चलाना एक्टिविज़्म नहीं होता। बाकी के बारे में न कहूं तो ही बेहतर’’।

घाव अभी तक हरे हैं

ग्रज कवि शरद कोकास के ब्लॉग पर प्रकाशित कात्यायनी की एक कविता पर लिखी इस टिप्पणी का असर यह हुआ कि पिछले पुस्तक मेले में उनके शानदार स्टाल में जैसे ही घुसा वह फट पड़ीं, “तुमने मेरी कविता को गढ़ी हुई कहा था न और बाकी के बारे में क्यूं नहीं कहा।” मैं अशालीन नहीं होना चाहता था…तो सिर्फ़ इतना कहा ‘कहूंगा…मौका आने पर वह भी कहूँगा ही।’आज जब तुम लोगों को अपने इतने दिनों से दबा कर रखे गए गुस्से का इज़हार करते देखा तो लगा अब समय आ गया है और इस मौके पर मुझे भी सामने आना ही चाहिए. जख़्म पुराना सही पर घाव अब तक हरे हैं…और शायद यह इसलिए भी ज़रूरी है कि कई और युवा मित्रों को इससे बचाया जा सके. जवानी के पहले सपने के टूटने का जो दर्द हमने झेला है वह दूसरों को न झेलना पड़े। अब तक चुप रहे कि सुदर्शन की कहानी बचपन में पढ़ रखी थी, डर था कि अंततः बदनामी समाजवाद की ही होगी…लेकिन अब लगता है कि और चुप रहे तो ये लोग समाजवाद को इतना बदनाम कर डालेंगे कि फिर किसी की सफाई का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. सही को सही कहने से ज़्यादा ज़रूरी है ग़लत को ग़लत कहना. 

तो मित्रों शुरुआत में ही साफ़ कर दूँ कि मैं शशिप्रकाश-कात्यायनी की तथाकथित पार्टी को एक भ्रष्ट, पतित और किसी ही प्रकार से धन एकत्र करने वाला गिरोह मानता हूँ. उतना ही घृणित जितना कि बच्चों को चुरा कर भीख माँगने पर मजबूर करने वालों को। 

लंबी बहसों का दौर

वे 1991-92 के दिन थे…गोरखपुर विश्वविद्यालय का नाथ चंद्रावत छात्रावास…किसी शाम कुछ युवा मेरे कमरे पर आए. हाथ में आह्वान कैंपस टाईम्स लिए दिपदिपाते चेहरे (क्या बताऊं वर्षों वाद उन चेहरों की उदासियों ने कितना रोया हूं…तुम तो जानते हो न अरुण!). मैं खानदानी संघी, भिड़ गया…फिर कई रातों चली लंबी बहस…स्टेशन के सामने दिशा के दफ़्तर में…हास्टल में…रात की सूनी सड़कों पर…और इसी दौरान परिचय हुआ मार्क्सवाद से. एक बेहतर दुनिया के निर्माण का स्वप्न जागा और यह तय किया कि अब ज़िंदगी का कोई और लक्ष्य हो ही नहीं सकता। तब यह नहीं जानता था कि मैं जिन लोगों के जाल में फंस रहा हूं वे इस स्वप्न को ‘आने-पाई के महासमुद्र’ में डुबा चुके हैं… और हम उनकी भ्रष्ट योजनाओं की पूर्ति के साधन बने.

पैसा उगाहो अभियान

ह इस प्रक्रिया का आरंभिक काल था. तब इन सब उपक्रमों की योजनाएँ बन रही थीं…चासनी पगे शब्दों में शशिप्रकाश इन योजनाओं को बताते और हमें मुतमईन करते कि पूंजीवादी सांस्कृतिक षड़यंत्रों को ध्वस्त करके एक समाजवादी विचारधारा स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि हमारे पास अपना प्रकाशन हो, अपना एक ट्रस्ट हो, अपना विश्विद्यालय हो.हम इस अपने का मतलब नहीं समझ पाए थे तब और हमें यह बताया गया कि इसके लिए ज़रूरत है समर्पित कार्यकर्ताओं की एक टीम की और पैसों की. पैसे जुटाने की रोज नई तरकीब ढ़ूढ़ीं जाने लगीं. स्ट्रीट थियेटर से पेट कहाँ भरता. लेवी की सीमा होती है, तो एक एकदम नया तरीका ढ़ूंढा गया. एक अभियान ‘लोक स्वराज अभियान’ अर्थात एक आदमी किसी व्यस्त चौराहे, बस, हास्टल या किसी ऐसी जगह जहाँ लोगों की जेब ढीली की जा सके (यहाँ तक कि रेस्त्रां भी) पर चिल्ला कर व्यवस्था के ख़िलाफ़ उग्रतम संभव भाषा में भाषण दे और शेष लोग वहाँ पर उपस्थित लोगों को परचे वितरित करें और चंदा लें… जो जितनी अधिक राशि शाम को ला सके वह उतना ही दुलारा… (और यह यहीं तक नहीं रुका यह सब…कई साल बाद पत्नि के साथ गोरखपुर से ट्रेन से लौटते हुए उसी अभियान का पर्चा हाथ में लिए कुछ युवा साथियों को ट्रेन में देखा…उनसे परिहास करते डेली पैसेंजर्स को और उनके पीछे-पीछे आते भिखारियों को. पत्नि की सवालिया आँखों ने घूरा तो पता नहीं क्यूं ख़ुद पर शर्म आई)… 

कात्यायनी का कायायंतरण

कुछ समझ नहीं आता था. इसी दौरान राहुल सांस्कृत्यायन की जंयती के दौरान वह कार्यक्रम हुआ जिससे राहुल फाउन्डेशन की योजना फलीभूत होनी थी…सहारा की वह टिप्पणी और फिर लखनऊ की सड़कों पर वह तमाशा, हमने शशि की मैनेजमेंट क्षमता देखी. देखा कात्यायनी का रातोरात एक्टिविस्ट में कायांतरित होना. आदेश के साथ मैं भी गोरखपुर लौटा था, शहर में समर्थन जुटाने और पैसे भी 

पर इन सबके बीच यह तो लगने लगा था कि कुछ गडबड़ है…जिस काम को ज़िंदगी का मक़सद तय किया था उसमें दिल नहीं लगता था. जब कात्यायनी के कल्याणपुर वाले घर के सामने रहने वाले एक मज़दूर के घर को जबरन दिशा के दफ़्तर के लिए ख़ाली कराने में साथियों का गुंडों की तरह इस्तेमाल किया गया तो मुझे नहीं पता था कि यह तमाम संपत्तियों को कब्ज़ाने की लंबी कड़ी की शुरुआत है. लेकिन मैं उसमें शामिल नहीं हुआ…अक्सर उन पैसा उगाहो कार्यक्रमों से बाहर रहने लगा. इसी दौरान एक ऐसी घटना घटी कि दिल कांप गया, मुजफ़्फ़रपुर के एक अभियान (जिसमें मै परीक्षा की वज़ह से शामिल नहीं हो पाया था) की समीक्षा मीटिंग में हमारे एक साथी सलमान पर घटिया आक्षेप लगाए गए, महिलाओं को लेकर, यहाँ तक कि जिस कात्यायनी को हम दीदी कहते थे, वह भी आरोप लगाने वालों में शामिल थीं. सलमान को सफ़ाई का मौका तक न मिला. उसने कुछ कहने की कोशिश की तो संतोष ( जिसे हम शशि का वुलडॉग कहते थे) ने सबके बीच उस पर हाथ उठाया. हम प्रतिकार में उठकर चले आए और फिर कभी वापस नहीं गए. 

शशि प्रकाश के अनमोल वचन

बाहर आकर यह सब और ज़्यादा साफ़ दिखने लगा. एक पूरी प्लांड स्कीम. शशि का पर्दे के पीछे रहकर पूरा काम सँभालना, कात्यायनी का संगठन के चेहरे के रूप में प्रोजेक्शन, लोगों के प्रति चूसो और फेंक दो वाला एप्रोच, डरपोक और हीनतावोध से भरे साहित्य-समाज में हाई डेसीबेल की थोथी कविताओं के सहारे आतंक फैलाकर छा जाना और फिर उसका हर संभव लाभ उठाना, धीरे-धीरे अकूत धन एकत्र करते जाना, पूंजीपति प्रकाशनगृहों की चमचागिरी और उनके साथ दुरभिसंधियाँ. सब साफ़ दिखता था...

…और शशि की कही दो सूक्तियां बेहद याद आती हैं…पहली यह कि ‘जब एक कम्युनिस्ट पतित होता है तो उसकी कोई सीमा नहीं होती क्योंकि वह तो ईश्वर से भी नहीं डरता’ और दूसरा यह कि ‘अगर इंकलाब न करना हो तो छोटे शहरों में नहीं रहना चाहिए.' वह कभी कम्युनिस्ट था और पिछले तमाम सालों में वह बड़े शहरों में ही रहता है   

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

असाधारण होते ही कविता बस मायावी सरोवर की तरह अदृश्य हो जाती है - एकान्त श्रीवास्तव

(ये हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि एकांत श्रीवास्तव की पंक्तियां हैं, रचना समय के हालिया प्रकाशित शमशेर जन्मशती विशेषांक में छपे उनके लेख की अंतिम पंक्तियां। पत्रिका मिलने के बाद पता नहीं कितनी बार पढ़ गया हूं इसे…और हर बार और-और व्यग्र हुआ हूं। एक कवि अग्रज इससे बेहतर क्या बता सकता है? न उनसे मिला हूं न कभी बात ही हुई … पर इन पंक्तियों के बाद इच्छा तीव्र हो गयी है…आप भी देखिये)



शायद कोई कवि जान-बूझकर और सायास कवि होने का विकल्प नहीं चुनता। यह एक स्थिति है जो जन्म के साथ मिलती है। कवि बस इसे विकसित करता है- एक साधारण जीवन जीते हुए- क्योंकि कवि एक साधारण मनुष्य है और साधारण जीवन जीकर ही कविता को पाया जा सकता है। असाधारण होते ही कविता बस मायावी सरोवर की तरह अदृश्य हो जाती है और हाथ में बस मिट्टी और रेत रह जाती है। हम चाहें तो इस मिट्टी और रेत को कविता मानने की खुशफ़हमी पाल सकते हैं। पर सच्ची कविता का मार्ग तो कठिन है, कांटों भरा, दुर्गम और सर्पगंधा भी और 'कवि का बीज' बकौल शमशेर 'कटु तिक्त'।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

क्यूबाई क्रांतियुद्ध का संस्मरण-- चे ग्वेरा

( आजकल चे ग्वेरा के इस प्रसिद्ध संस्मरण का अनुवाद करने में लगा हूं…उसी से एक चैप्टर जनपक्ष के पाठकों के लिये)

एक गद्दार की मौत
इस छोटी सी सेना के फिर से एकजुट हो जाने के बाद हमने अल लोमोनो के क्षेत्र को छोड़कर एक नये क्षेत्र की तरफ बढ़ने का निर्णय लिया। रास्ते में हमने उस इलाके के किसानों से सम्पर्क बनाने और उस क्षेत्र में अपने आधार स्थापित करने की कोशिश की जो हमारे अस्तित्व के लिये आवश्यक था। उसी समय, हम सियेरा मैस्त्रा छोड़ रहे थे और मैदानी इलाकों की तरफ बढ़ रहे थे, उन जगहों की तरफ़ जहां हमें उन लोगों से मिलना था जो शहरों में काम कर रहे थे।

हम ला मान्टेरिया नामक गांव से गुजरे और उसके बाद एक छोटी सी धारा के पास की घनी झाड़ियों में हमने अपना कैम्प बनाया। यह एपिफेनिओ डियाज़ नामक व्यक्ति की संपत्ति थी जिसके पुत्र क्रांति की लड़ाई में शामिल हुए थे।

हम और करीब आये क्योंकि 26 जुलाई के आंदोलन के साथ और मज़बूत संपर्क स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि हमारी खानाबदोश और गुप्त जिंदगी ने जुलाई आंदोलन के दो हिस्सों के बीच किसी भी प्रकार के सम्पर्क को असंभव बना दिया था।[1] ( विशिष्ट रूप में कहा जाय तो वे दो अलग-अलग ग्रुप थे, जिनकी भिन्न रणनीतियां थी और भिन्न योजना। बाद के महीनों में आंदोलन की एकता को ख़तरे में डालने वाला गहरी दरार अभी नहीं उभरी थी लेकिन हम पहले से ही देख पा रहे थे कि हमारी समझ अलग-अलग थी।)

इसी फार्म पर हम शहरी आंदोलन के सबसे प्रमुख लोगों से मिले- उनमें तीन महिलायें थीं जिन्हें अब क्यूबा में हर कोई जानता है : विलिमा एस्पिन, जो क्यूबा की महिला फेडरेशन की अध्यक्ष और राऊल की पत्नी हैं, हाईडी सैन्टामेरिया, जो अब कैसा डि ला अमेरिकास की अध्यक्ष हैं और आर्माण्डो हार्ट की पत्नी और सेलिया सान्चेज़ जो थोड़े दिनों बाद हमारे साथ पूर्णकालिक रूप में जुड़ गयीं और पूरे संघर्ष में हमारी प्रिय कामरेड रहीं। एक और व्यक्ति जो हमारे कैम्प में आये वह थे ग्रैन्मा के दिनों के हमारे पुराने परिचित फास्टिनों पेरेज थे, जो कुछ दिनों पहले एक मिशन पर शहर गये थे और अब हमें रिपोर्ट करने लौटे थे और फिर तुरत शहर लौट गये। (कुछ समय बाद वह गिरफ़्तार हो गये)।

हम अर्मान्डो हार्ट से भी मिले और यह सैन्टियागो के उस महान नेता फ्रैंक पायस से मिलने का मेरा इकलौता संयोग था।
फ्रैंक पायस उन लोगों में से थे जिनके लिये पहली मुलाकात से ही सम्मान पैदा हो जाता है। वह काफी हद वैसे ही लगते थे जैसा कि आजकल तस्वीरों में हम उन्हें देखते हैं लेकिन उनकी आंखों में अद्भुत गहराईयां थीं।


उस मृत कामरेड के बारे में कुछ कहना मुश्किल है जिससे मैं बस एक बार मिला हूं और जिसका इतिहास जनता की थाती है। मैं बस इतना कह सकता हूं कि उनकी आंखों से यह तुरंत पता लग जाता था कि वह एक उद्देश्य के लिये समर्पित हैं और यह कि वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति हैं। आज उन्हें अविस्मरणीय फ्रैंक पायस कहा जाता है ; मेरे लिये, जिसने उन्हें बस एक बार देखा है, वह निश्चित तौर पर अविस्मरणीय थे। फ्रैंक उन तमाम अन्य कामरेडों में से एक थे जिनकी जिन्दगियां अगर इतनी जल्दी ख़त्म न कर दी गयी होतीं तो वे आज समाजवादी क्रांति के आम लक्ष्य को समर्पित होते। यह नुक्सान उस भारी कीमत का हिस्सा है जिसे जनता को मुक्ति हासिल करने के लिये चुकाना होता है।

फ्रैंक ने हमें अनुशासन और व्यवस्था के बारे काफी चीज़ें बताईं कि कैसे राईफलें साफ़ की जायें, कारतूसों की गिनती तथा पैकिंग की जायें जिससे वे गायब न हों। उस दिन से मैने तय किया कि मैं अपनी बन्दूक का बेहतर रख-रखाव करुंगा ( और यह मैने आज तक किया है, हालांकि मै यह नहीं कह सकता कि मैं कभी भी सुघड़ता का प्रतिमान रहा हूं।)

पुस्तक चित्र एमेजोन से साभार
वह झुरमुट और भी घटनाओं का गवाह रहा। पहली बार हमसे मिलने एक पत्रकार आये और वह भी विदेशी पत्रकार, वह थे प्रसिद्ध हर्बर्ट एल मैथ्यूज, जो अपने साथ एक छोटा सा बाक्स कैमरा लेकर आये थे जिससे उन्होंने हमारी वो तस्वीरें खींचीं जो बाद में बहुत ज्यादा प्रचारित हुईं और बतिस्ता के मंत्रियों के मूर्खतापूर्ण भाषणों में जिन पर बहुत विवाद पैदा किये गये। उस समय अनुवादक थे जेवियर पेजोस जो बाद में गुरिल्लाओं के साथ हो गये और काफी दिनों तक उसके साथ रहे।

फिडेल के अनुसार (क्योंकि मैं उस साक्षात्कार में उपस्थित नहीं था) मैथ्यूज ने ठोस सवाल पूछे, उनमें कोई चालाकी नहीं थी और वह ज़ाहिर तौर पर क्रांति के साथ सहानूभूति रखते थे। मुझे याद है कि फिडेल ने कहा था कि वह साम्राज्यवाद विरोधी थे और उन्हें यह ज़ोर देते हुए कि हथियारों का प्रयोग अन्तर्महाद्वीपीय सुरक्षा के लिये नहीं बल्कि जनता के दमन के लिये किया जायेगा खुले तौर पर बतिस्ता को हथियार दिये जाने का विरोध किया था।

मैथ्यूज की यह यात्रा स्वाभाविक रूप से बहुत छोटी थी। जैसे ही वह गये हम आगे बढ़ने के तैयार हो गये। तथापि हमें यह सलाह दी गयी कि हम अपनी सुरक्षा दुगनी कर लें क्योंकि आटिमियो उसी क्षेत्र में था। अल्मैदा को तुरत उसे ढूढ़ने और गिरफ़्तार करने का आदेश दिया गया। जूलियो डियाज, सेरो फ़्रायस,कैमिलो सिनेफ़्यूगो और एफ़िजेनिओ एमिजेरास के साथ गश्त रवाना की गयी। सेरो फ्रायस ने आसानी से आटिमियो पर काबू पा लिया और वह हमारे सामने लाया गया। हमें उसके पास एक प्वाइन्ट 45 पिस्तौल, तीन ग्रेनेड और केसिलास द्वारा ज़ारी सुरक्षित व्यवहार का पास मिला। पकड़े जाने के बाद और इन स्पष्ट सबूतों के मिलने के बाद उसे अपना हश्र मालूम था। वह फिडेल के सामने घुटनों पर झुक गया और उसने बस इतना कहा कि उसे मार दिया जाय। उसने कहा कि वह जानता है कि उसे मृत्यदण्ड ही मिलना चाहिये। उस क्षण वह बूढ़ा लग रहा था, उसके कपाल पर काफी सारे सफेद बाल थे जिन पर हमने पहले कभी गौर नहीं किया था।

वह असाधारण रूप से तनाव का क्षण था। फिडेल ने उसकी गद्दारी के लिये ऊंची आवाज़ में भर्त्सना की और आटिमियो बस यही चाहता था कि उसे गोली मार दी जाय क्योंकि उसे अपनी गल्ती का पता है। हम वह क्षण नहीं भूल सकते जब जब उसके एक करीबी दोस्त सेरो फ्रायस ने उससे बोलना शुरु किया : उसने आटिमियो को हर वह चीज़ याद दिलाई जो उसने उसके लिये की थी, उन छोटी-छोटी चीज़ों की याद दिलाई जो उसने और उसके भाई ने आटिमियो के परिवार के लिये की थी और यह कि किस तरह आटिमियो ने उसे धोखा दिया था- पहले सेरो के भाई की हत्या करवा के जिसे आटिमियो ने सेना से पकड़वा दिया था और फिर पूरे ग्रुप को नष्ट कराने की कोशिश करके। यह एक लंबा और विदारक भाषण था जिसे आटिमियो ने चुपचाप सिर झुकाकर सुना। हमने उससे उसकी आख़िरी इच्छा के बारे में पूछा और उसने कहा कि हां वह क्रांति से या फिर हमसे वह यह चाहता है कि उसके बच्चों का ख़्याल रखे।

इंकलाब ने अपना वादा निभाया। आटिमियो ग्वेरा का नाम आज इस किताब में आया लेकिन उसका नाम पहले ही भुलाया जा चुका है, यहां तक कि शायद उसके बच्चों द्वारा भी। अब उनके नये नाम हैं और वे हमारे तमाम नये स्कूलों में से एक में पढ़ते हैं। उनके साथ वही व्यवहार होता है जैसा कि जनता के दूसरे सारे बच्चों के साथ होता है। और वे एक बेहतर ज़िंदगी लिये तैयार हो रहे हैं। लेकिन एक दिन उनको जानना ही होगा कि उनके पिता की हत्या क्रांतिकारी नेतृत्व ने गद्दारी की वज़ह से कर दी थी। यह भी न्यायसंगत है कि उन्हें बताया जाये कि कैसे उनके पिता ने जो एक किसान थे ख़ुद को धन और गौरव की चाह में भ्रष्टाचार में फंसने दिया और एक संगीन जुर्म किया लेकिन इसके बावज़ूद उन्होंने अपनी ग़लती का एहसास किया और क्षमादान के लिये कोई प्रार्थना नहीं कि क्योंकि वह जानते थे कि उनका गुनाह इस योग्य नहीं था। और आख़िर में यह कि अपने अंतिम क्षण में उन्होंने अपने बच्चों को याद किया था और यह कहा था कि उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाये।

ठीक तभी तूफान आ गया और आसमान में अंधेरा हो गया ; तेज़ बारिश के बीच आसमान में बिजली कड़की और उसी बीच बंदूक की एक गोली से आटिमियो ग्वेरा की जिंदगी का अंत हो गया और उसके बेहद करीब खड़े कामरेड भी गोली की आवाज़ नहीं सुन पाये।

अगले दिन जब हम उसको दफ़ना रहे थे तो एक छोटी सी घटना हुई जो मुझे याद है। मैनुएल फजार्डो उसकी कब्र पर एक क्रास बनाना चाहता था लेकिन मैने उसे मना किया क्योंकि हत्या का ऐसा सबूत उन लोगों के लिये बहुत ख़तरनाक हो सकता था, जिनकी जगह पर हमने कैम्प बनाया था। इसलिये पास के पेड़ की टहनी से उसने एक क्रास बनाया। और यह था वह चिन्ह जो उस गद्दार की कब्र की पहचान देता था।

मोरान उस समय हमें छोड़ गया; उसे पता था कि तब तक उसका कितना कम विश्वास करते थे और हम सब उसे संभावित भगोड़ा मानते थे। एक बार वह तीन दिन तक गायब हो गया था और बहाना यह कि वह आटिमियो को ढूंढ़ रहा था और जंगल में गायब हो गया था।

जैसे ही हम आगे बढ़ने को तैयार हुए एक गोली की आवाज़ आई और हमने देखा कि मोरान के पैरों में गोली लगी है। जिस आदमी ने उसे देखा उससे उसकी गर्मागर्म बहस चल रही थी क्योंकि कुछ कह रहे थे कि यह गोली गल्ती से चल गयी थी और दूसरों का कहना था कि उसने जानबूझ कर ख़ुद को घायल किया है ताकि वह वहीं रुक सके।

मोरान का उसके बाद का इतिहास, उसकी गद्दारी और ग्वाटेमाला के क्रांतिकारियों के हाथों उसकी हत्या से लगता है कि उसने ख़ुद को गोली जानबूझकर ही मारी थी।

फिर हम निकल गये। फ्रैंक पायस ने हमसे वादा किया था कि अगले महीने, मार्च के आरंभ में वह हमें युवकों का एक समूह भेजेंगे जो जिबारो के पास एपिफानिओ डियाज़ के घर पर मिलेगा।


[1] आंदोलन के पहाड़ी और मैदानी, गुरिल्ला और शहरी हिस्से

सोमवार, 19 जुलाई 2010

बिहार : सुशासन की हवा-मिठाई - राजू रंजन प्रसाद


यह अजीब-सी बात है कि बिहार में आये बदलाव को प्रदेश के बाहर के लोगों ने कुछ पहले जाना-समझा। इस बदलाव की धमक अमेरिका पहले पहुची, बाद को वहीं से रिडायरेक्ट होकर दुनिया के भिन्न-भिन्न कोनों में फैली। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बदलाव हुए हैं। बिहारवासी 'जंगल-राज' से चलकर सुशासन 'में दाखिल हो रहे हैं। ये दोनों ही 'फर्जी' नाम पत्रकारों-बुद्धिजीवियों की एक खास 'प्रजाति' के द्वारा गढ़े गये हैं। आश्चर्य होता है कि सुशासन की डुगडुगी बजाने में वही बुद्धिजीवी-पत्रकार शामिल हैं, जो 'जंगल-राज' के दिनों में 'लालू-राबड़ी ' की जीवनी तैयार करने हेतु लेखक ढूंढ रहे थे।

जंगल-राज और सुशासन में एक तात्विक अंतर है, जिसे मैं एक तटस्थ बिहारवासी होने के नाते महसूस कर सकता हूं। जंगल-राज के दिनों में सरकार उदारीकरण एवं बाजारवाद जैसी चीजों पर सखतीपूर्ण रवैया अपनाती थी। धनिकों का विरोध एवं गरीबों की भलाई स्थायी घोषणा थी उसकी। ये और बात है कि शब्द और कर्म में कभी मेल नहीं बिठाया जा सका। सुशासनी सरकार ने शब्द और कर्म की एकता दर्शायी है। यह सरकार वैश्विक पूंजी की गोद में बैठकर न केवल बातें करती है बल्कि उसके अनुपालन के लिए हर संभव प्रयास भी करती है। सूत्र रूप में कहें कि वर्तमान सरकार पूंजीपति वर्ग द्वारा तैयार उपभोक्ता माल की बिक्री की गारंटी देती है।

यह सब करने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार की जरूरत पड ती है। अखबार इस जरूरत को आसानी से पूरा कर सकता है। इसलिए 'सरकारी' पत्रकारों की एक फौज जमा की गई। ऐसे पत्रकार अब सामयिक ज्वलंत मुद्‌दों पर न लिखकर 'कानों-कान' सुनते हैं और 'भूले-बिसरे' मुद्‌दों पर लिखते हैं। सामयिक घटनाओं पर लिखने के अपने 'खतरे' हैं। सामयिक चिंतन का 'मूड' तभी बनता है जब सरकार के नेता से असंतुष्ट विधायकों/लोगों को 'अपने पुराने घर' में वापिस लाने का इन्हें 'सरकारी फरमान' प्राप्त होता है। अखबार के मालिकों के लिए अलग से पैकेज की व्यवस्था की गई है। उनको सरकार की तरफ से मिलनेवाले विज्ञापनों में तीन-चार गुने की अप्रत्याशित वृद्वि की जा चुकी है। नतीजतन, अखबार के मालिक से लेकर नौकर-चाकर तक-सभी जनता को सुशासन की 'हवा मिठाई' बांट रहे हैं। बालिका सायकिल योजना के पक्ष में भी अखबारों/पत्रकारों ने सकारात्मक माहौल बनाने का जी-तोड़ प्रयास किया था। हमें बार-बार बताया गया कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक क्रांतिकारी प्रयास है। इसमें कई लोगों को कई तरह से कमाई का अवसर मिला। सरकार से लेकर विद्यालय के प्रधानाध्यापक तक को। सायकिल निर्माता कंपनियों को जब सिर्फ लडकियों को ही सायकिल बेचकर संतोष न हुआ तो सरकार को अपनी योजना में संशोधन लाना पड़ा जाहिर है, अब बालकों को भी सायकिल दी जा रही है। महिला सशक्तिकरण की बात कहां रही तब।

सायकिल का ही गोतिया मोटरसायकिल है। मोटरसायकिल बेचने का जरिया बेचारी पुलिस को बनना पडा। ध्यान रहे कि यह कोई आम या किफायती मोटरसायकिल नहीं है, बल्कि अपाचे टीवीएस १६० है। निश्चित रूप से इसकी खपत खुले बाजार में संभव नहीं क्योंकि इसकी कीमत अन्य आम मोटरसायकिल की तुलना में डेढ गुनी अधिक है। वर्तमान में इसकी कीमत ६१,००० रुपये है। यह सब जनता की 'सुरक्षा' और 'सुव्यवस्था' बहाल करने हेतु किया गया। हां, इससे इतना तो अवश्य हुआ कि पटना की सडकों पर पुलिस अब नजर आने लगी है! लोकतंत्र में पुलिस की 'सक्रियता' बढ जाए तो सुव्यवस्था का अंदाजा आप लगा ही सकते हैं। विधायकों को बड़ी गाडी दी गई। जनता के लिए रात-दिन एक वही तो करते हैं

शिक्षा का क्षेत्र अभी सबसे बड़ा बाजार है। इस क्षेत्र में विदेशी बड़ी कंपनियों को अवसर प्रदान करने के लिए केन्द्र सरकार भी कई गलत-सही तरीके से प्रयत्नशील है। इसलिए हमारी राज्य सरकार के पास एक 'नैतिक आधार' (वैसे अब इसकी फिक्र ही किसे है ) भी है। लगभग प्रत्येक उच्च माध्यमिक विद्यालय को पचास लाख रुपये की राशि प्रदान की गई है। इसमें कसरत-व्यायाम (जिम) के सामान से लेकर पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद तक शामिल है। जिम के सामान पर प्रत्येक विद्यालय को लगभग चार लाख की राशि खर्च करनी है। 'कुपोषण ' के शिकार नव नियोजित शिक्षक (उनका नियत वेतन मात्र छः हजार रुपये है। अगर सरकार की वर्तमान घोषणा को आधार बनाया जाये तो यह आठ हजार ठहरता है।) एवं अनीमिया से ग्रस्त बच्चे-बच्चियां जिमखाने से लाभ उठा सकेंगे-इसकी कल्पना मात्र क्या हास्यास्पद नहीं है ? सरकार ने यह आदेश भी पारित किया है कि प्लस टू के बच्चों को पढ़ाने के लिए पास-पड़ोस के एम. ए. पास युवकों को धरा-पकड़ा जाये और डेढ सौ रुपये की दैनिक मजदूरी देकर उन्हें उपकृत किया जाये। बिहार में लगता है, मानव संसाधन के उपयोग एवं विकास का यह 'सुशासनी नुस्खा' अपने आप मे एकदम ही 'मौलिक' विचार है। जहां तक पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद की बात है, वहां भी व्यापक गड़बड़ी देखी गई। एक तो सरकारी निर्देश के आलोक में टेक्स्ट बुक्स ही खरीदी गईं, और ठीक दूसरे वर्ष कक्षा नौ का पाठ्‌यक्रम बदल दिया गया। एकबारगी पुस्तकालय कूड़ाघर में तब्दील हो गया। ऐसी खरीद का आप क्या मतलब निकाल सकते हैं। दूसरी तरफ प्राथमिक विद्यालयों में सात पेजी चित्र-पुस्तकें ४०-५० रुपये में खरीदी गईं। यह सब सुशासनी सरकार के सख़्त निर्देशन में हुआ। यहां तक कि खरीद के लिए दुकान भी तय थी।इतना ही नहीं, प्रत्येक विद्यालय को कंप्यूटर देने की हमारी सरकार की अत्यंत 'महत्वाकांक्षी' योजना है। इस योजना को जमीन पर उतारने की दिशा में कुछ आवश्यक पहल भी हुई है। आप समझ सकते हैं कि जहां विद्यालयों में तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां कंप्यूटर देने के पीछे ''सुशासन की क्या हो सकती है। गौरतलब यह भी है कि प्रत्येक बच्चे को लैपटॉप से युक्त बनाने की अद्यतन योजना पर विमर्श जारी है। क्या मजाक है कि शिक्षक वर्ग में बगैर जूते (उनकी तनखवाह एक जोड़ी जूते के बराबर है) उपस्थित हों और बच्चे लैपटॉप पर 'चैटिंग' करते। यह सब सुशासन ही में संभव है।

इसलिए, सुशासन के पैरोकार बुद्धिजीवियों से मेरी गुजारिश है कि वे मेरी इन बातों की तथ्यात्मक भूलों/गलतियों को बताएं, केवल सुशासन की हवा-मिठाई ही न बेचें।

रविवार, 18 जुलाई 2010

हिसप्रस से कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम तक - पंकज बिष्ट के अज्ञेय पर संस्मरण की अंतिम क़िस्त

(अज्ञेय पर लिखे पंकज बिष्ट के संस्मरण 'अज्ञेय : छवि और प्रतिछवि' की आख़िरी क़िस्त आज प्रस्तुत है। पिछली पोस्ट पर भाई बोधिसत्व ने कुछ प्रश्न खड़े किये थे…शायद उनमें से कुछ का जवाब इसमे हो और कुछ नये सवाल भी। हां मुझे लगता है कि पिछली पोस्ट का शीर्षक थोड़ा भड़काऊ हो गया था…बाज़ार अचेतन में हम सबको प्रभावित करता ही है…आगे और सावधान रहुंगा…जिन साथियों ने सावधान किया उनका हृदय से आभार्…इस दौर में यह परस्पर सावधानी शायद ज़्यादा ज़रूरी है।)

पहली क़िस्त यहां और दूसरी यहां…अब आगे

पाण्डेय जी मेरी बात सुन कर हंसे। बोले, ‘‘अरे क्या हो गया?’

मैंने पूरा किस्सा सुना दिया। उन्होंने शांत करने वाले अंदाज में कहा, ‘‘छोड़ एक लेख लिखवा दे।’’ और खुद, जैसा कि उनकी आदत थी, उठ कर दूसरी जगह चले गए।

एक-आध घंटे बाद जगदीश गोयल, जो पुस्तकों के संपादक थे, आजकल के कमरे में आये और पूछने लगे, ‘‘अरे भई, क्या हुआ? सुना तुम बड़े गुस्से में हो।’’
गोयल जी पाण्डेय जी के परम भक्त थे, गोकि वे समकालीन थे और लगभग समान पद पर थे इस पर भी उनका गुरू-शिष्य जैसा नाता था। जो भी हो पाण्डेय जी अक्सर उनके पास ही बैठे मिलते थे। वे दोनों आकाशवाणी में वर्षों साथ काम कर चुके थे। मैंने टालने की कोशिश की। वैसे भी गोयल कोई साहित्यिक आदमी तो थे नहीं। दूसरा, मैं अपनी ज्यादा भद्द भी नहीं पिटवाना चाहता था। मैंने उसी अंदाज में कहा, कुछ नहीं। एक साक्षात्कार करना था, नहीं हो पायेगा।
किस का साक्षात्कार?’’ उन्होंने जानते-बूझते साग्रह पूछा। पाण्डेय जी ने निश्चित ही उन्हें सब कुछ बता दिया था।
‘‘अज्ञेय जी का!’’ मैंने खीझते हुए कहा था। मुझे इस में भी शक था कि वह अज्ञेय जी के नाम से भी परिचित होंगे।
‘‘हुआ क्या?’’ उन्होंने मेरा पिंड नहीं छोड़ा।

पूरी अनिच्छा के बावजूद मुझे किस्सा बतलाना पड़ा। जितना संक्षेप में हो सकता था मैंने बयान कर दिया।

वह मुस्कराए, बोले, ‘‘चाहते क्या हो?’’
‘‘क्या चाहते हैं! कुछ नहीं। वह साक्षात्कार नहीं देना चाहते तो न सही। इसमें पाखंड की क्या बात है।’’ मेरी खीझ न चाहते हुए भी छिप नहीं पा रही थी।
‘‘तुम साक्षात्कार चाहते हो न!’’ उन की गंभीरता ने मुझे चैंका दिया। मेरे भीतर बैठे संपादक के कान खड़े हो गए।
‘‘चाहते हैं, पर चाहने से क्या होता है?’’, सारे गुस्से के बावजूद, गोयल साहब की बातों ने एक हल्की-सी ही क्यों न हो, पर उम्मीद जगा ही दी थी। एक संपादक के नाते अज्ञेय जी से कहीं ज्यादा बड़ी मेरी जिम्मेदारी आजकल के पाठकों के प्रति थी, जिसकी मैं रोटी खाता था। ज्ञानपीठ मात्र अज्ञेय नामक व्यक्ति को नहीं बल्कि हिंदी भाषा को भी मिला था।
अचानक गोयल साहब ने टेलीफोन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिलाओ फोन।’’
मैं उन के अंदाज से घबड़ा गया। गोयल साहब अपने अक्खड़पन और दुस्साहसिकता के लिए बदनाम थे। सोचा अज्ञेय जी को कहीं कुछ अंटबंट ही न बोल दें। मैं ऐसी स्थिति भी नहीं चाहता था। आखिर वह इतने बड़े और सम्माननीय लेखक थे।
उन्होंने फिर कहा, ‘‘अरे मिलाओ फोन!’’
इस पर भी मेरा हाथ नहीं बढ़ा।
‘‘लाओ, मुझे दो नंबर,’’ उन्होंने फोन अपनी ओर खींचते हुए कहा।

मैंने नंबर देने से पहले आखिर पूछ ही लिया, ‘‘आप जानते हैं उन्हें?’’
‘‘अरे भई नंबर तो दो!’’ मेरी बात का जवाब न देकर वह अपने आग्रह पर अड़े रहे। उनके आत्मविश्वास के आगे मैं टिक नहीं सका और मेरे नंबर बोलने के साथ ही साथ टेलीफोन का डायल घूमने लगा।
‘‘मैं गोयल बोल रहा हूं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘क्या वात्स्यायन जी से बात हो सकती है?’’
जैसा कि होना था, फोन इला जी ने उठाया होगा। वैसे भी अज्ञेय जी शायद ही कभी फोन उठाते हों। ष्

कुछ देर के इंतजार के बाद, दूसरी ओर की आवाज का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘वात्स्यायन जी, नमस्कार मैं जगदीश गोयल बोल रहा हूं।’’ सामान्य औपचारिकताओं के बाद गोयल साहब को मुद्दे पर आने में देर नहीं लगी। मेरे सामने अजूबा हो रहा था। कल्पनातीत। मेरा दिल धड़कने लगा। जैसा कि होना था, उधर से मना किया गया। पर गोयल साहब ने हार नहीं मानी बल्कि पूरे अधिकार के साथ बोले, और जिसे मैंने अपने कानों से सुना, ‘‘नहीं, वात्स्यायन जी आप को साक्षात्कार देना ही होगा। मैं वचन दे चुका हूं।’’
आश्चर्यों का आश्चर्य यह हुआ कि देखते ही देखते अज्ञेय जी ने गोयल साहब के सामने हथियार डाल दिए।

अंत में गोयल साहब ने कहा, ‘‘तो ठीक है भेज देता हूं।’’
मुझे आदेश हुआ, अगले दिन उनसे जा कर मिल लूं।

मैं डरता हुआ-सा फिर निजामुद्दीन के उस घर में पहुंचा। अज्ञेय जी ने पूछा, ‘‘साक्षात्कार कौन करेगा?’’
मैंने कहा, ‘‘आप जिससे कहें!’’
‘‘नहीं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘नाम सुझाइये।
मैंने विष्णु नागर, नेत्र सिंह रावत और प्रयाग शुक्ल सहित कुछ नाम सुझाए पर वह आश्चर्यजनक रूप से नाटककार कुसुम कुमार पर सहमत हुए। मैं जबकि सोच रहा था वह रघुवीर सहाय या मनोहरश्याम जोशी जैसे किसी लेखक के नाम पर सहमत होंगे। अपनी सीमाओं के कारण मैं ये नाम नहीं सुझा पाया था। मनोहरश्याम जोशी से मेरा संवाद था, रघुवीर सहाय से तो कभी हो ही नहीं पाया। वैसे भी इतने बड़े लोग किसी सामान्य-सी सरकारी पत्रिका के लिए यह काम क्यों करते। वैसे अज्ञेय जी के कहने पर संभवतः रघुवीर सहाय कर देते क्योंकि वह तब तक दिनमान से हटाये जा चुके थे या हटाये जा रहे थे। खैर, यह नौबत आई ही नहीं। चुनाव अज्ञेय जी का था, मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी! मेरे हाथ में कुछ रह ही नहीं गया था। हां, निराशा जरूर हुई।

‘‘प्रश्न बना कर दे दीजिएगा,’’ उनका आदेश था।

हम दोनो ने मिल कर प्रश्न बनाए और कुसुम कुमार ही उन्हें लेकर अज्ञेय जी के पास गईं। मैं तब भी नहीं समझ पाया क्या होनेवाला है, उल्टा योजना बनाता रहा कि जब कुसुम कुमार साक्षात्कार करने जाएंगी साथ चला जाऊंगा और कुछ अतिरिक्त प्रश्न तो पूछ ही लूंगा। अज्ञेय जी ने प्रश्नावली रख ली और टाइप किए हुए जवाब हमें मार्फत कुसुम कुमार यथासमय भिजवा दिए। उस निर्जीव साक्षात्कार से, जो जरा भी असुविधाजनक सवाल हो सकते थे, बदल दिए गए थे।

आजकल का जून, 1979 अंक, अज्ञेय केंद्रित अंक के रूप में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष उनके साक्षात्कारों की किताब अपरोक्ष में इस अंक में प्रकाशित वह साक्षात्कार भी शामिल है। साथ में उनकी दो नई कविताएं भी प्रकाशित हुईं। चाहता तो था कि कोई गद्यांश भी मिले और उनके खींचे फोटोग्राफ भी। उन्हें फोटोग्राफी का शौक था, यह बात मैं आंगन के पार द्वार संग्रह से जानता था जिसमें उनके खींचे कई सुंदर फोटोग्राफ शामिल थे। पर यह तब हो पाता जब थोड़ी भी सहजता बन पाती। मेरा शुरू में जो भी उत्साह था, साक्षात्कार के साथ ही ठंडा हो चुका था। कविताएं भी संभवतः कुसुम कुमार ने ही ला कर दीं। प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्तऔर प्रयाग नारायण त्रिपाठी ने उन पर लेख लिखे थे। मुक्तका लेख कैसे आया यानी उनसे लिखने को किसने और क्यों कहा, यह याद नहीं है, इतना जरूर याद है कि मुक्त एवरीमैन्स के हिंदी संस्करण प्रजानीति के संपादक थे। प्रयाग नारायण त्रिपाठी से मैंने आग्रह किया था। यद्यपि त्रिपाठी जी हमारे बाॅस रह चुके थे पर वह अत्यंत सरल आदमी थे और उनसे मेरे मित्रतापूर्ण संबंध थे। वह तीसरे सप्तक के पहले कवि थे। इस सप्तक में विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह और कीर्ति चैधरी के अलावा कुंवर नारायण भी शामिल हैं जिन्हें इस वर्ष ज्ञानपीठ मिला है। नवभारत टाइम्स के लेखों की श्रृंखला के बावजूद चैथा सप्तक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया। एक अर्थ में यह इस बात का भी प्रमाण था कि तब तक अज्ञेय जी की समकालीन रचनाकर्म की नब्ज पर पकड़ नहीं रही थी। जो युवा उनसे संपर्क में थे या उसके बाद वत्सल निधि के माध्यम से जुड़े, उनमें से शायद ही कोई साहित्य में अपना स्थान बना पाया हो।

आजकल के उस अंक की सबसे बड़ी विशेषता उसका आवरण रही। हमने अज्ञेय जी के विशेष रंगीन फोटो खिंचवाए जो प्रकाशन विभाग के प्रमुख फोटोग्राफर मोतीलाल जैन ने खींचे थे। उन दिनों रंगीन चित्र सिर्फ ट्रांसपेरेंसी में ही संभव हुआ करते थे। और भी समस्याएं थीं। जैसे कि आजकल तब तक लैटरप्रेस पर छपता था यानी फोटो के हाॅफटोन ब्लाॅक बनवाने पड़ते थे। जिस प्रेस के पास आजकल छापने का अनुबंध था वह ब्लाॅक किसी ऐरे-गैरे ब्लाॅक मेकर से कम से कम लागत पर बनवाता था। उस आवरण के लिए हमने विशेष अनुमति ली और स्टेट्समैन प्रेस से स्वयं ब्लाॅक बनवा कर प्रेस को दिए। पूरे पृष्ठ के इस चित्र में अज्ञेय जी के पीछे थोड़ी ऊंचाई पर एक बड़ी-सी राजस्थानी पटचित्र या मधुबनी पेंटिंग लटकी हुई है। वह सोफे पर बैठे हैं और उनकी बायीं ओर कोने की मेज पर एक लैंप है। कुर्ता-पायजामा नहीं बल्कि नीली कमीज और उस पर खुली जैकेट पहने हैं। बहुत संभव है यह फोटोग्राफर के आग्रह पर हुआ हो, जो अपने चित्र में रंग चाहता होगा। उनके जैकेट से एक बात तो साफ है कि यह चित्र मार्च महीने के आसपास का रहा होगा। कंपोज के लिए हम प्रेस को सामग्री डेढ़ महीना पहले दे दिया करते थे।

जो भी हो, जैसा कि मैं बतला चुका हूं, यह आजकल के इतिहास में पहली बार हुआ था कि किसी समकालीन लेखक के चित्र को पूरे पृष्ठ और वह भी आवरण पर छापा गया हो। उसी दौरान हमारे एक मित्र ने जो कोलकाता से आए थे मुझे एक मजेदार बात बतलाई। बोले मैं रविवार के दफ्तर गया था। वहां सुरेन्द्र प्रताप सिंह के कमरे में आजकल का (अज्ञेय जी वाला) आवरण चिपका हुआ था। उत्साहविहीनता से भरे उस काम का यह बड़ा पुरस्कार था। निश्चय ही यह अज्ञेय जी के कारण रहा होगा, पर उसे प्रस्तुत तो हमने ही किया था।

यह बतलाना तो रह ही गया है कि गोयल साहब की बात अज्ञेय जी मान कैसे गए। असल में अज्ञेय जी असम में सेना के प्रचार विभाग से लौटने के बाद, दो-ढाई वर्ष (1952-1955) आकाशवाणी के हिंदी समाचार विभाग से सलाहकार के रूप में जुड़े रहे थे। वैसे उनका सेना और वह भी अंग्रेजी सेना के प्रचार विभाग के लिए काम करना (1943-1945) भी कम रहस्यमय नहीं रहा है। 1942 में दिल्ली में फासिस्ट विरोधी सम्मेलन का आयोजन करना और सेना में जाकर असम में काम करना, जहां जापानियों के हमले का खतरा स्पष्ट नजर आ रहा था, शायद इसकी स्वाभाविक परिणति थी। यहां यह याद रखना जरूरी है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में फासीवाद के खतरे को तब उस तरह से नहीं देखा-समझा जाता था, जैसा कि आज है। कम्युनिस्ट पार्टी निश्चय ही फासीवाद का जम कर विरोध कर रही थी और इसका बड़ा कारण जर्मनी का सोवियत रूस पर आक्रमण था। सुभाषचंद्र बोस तब जापानियों और जर्मनी की मदद से आजादी की लड़ाई चला रहे थे। यानी यह तब शुद्ध अंग्रेजी साम्राज्य को बचाने की रणनीति का हिस्सा था। उनका अंग्रेजों के साथ जाना तब कुछ ज्यादा ही अटपटा था, जब कि वह आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में रहते हुए वह बम बनाते हुए पकड़े गए थे उन्होंने अंग्रेजों की जेलों में लगभग तीन वर्ष बिताए थे। वैसे बाद में अज्ञेय जी की कांग्रेस फाॅर कल्चरल फ्रीडम के साथ भी निकटता रही जो क्वेस्ट नाम की पत्रिका निकालता था। इस संदर्भ में 1999 के अंत में लंदन रिव्यू आॅफ बुक्स में हू पेड द पाइपर? सीआइए एंड द कल्चरल कोल्ड वार नामक पुस्तक की समीक्षा करते हुए एडवर्ड सईद ने लिखा हैः ‘‘… हमारे बहुत थोड़े बुद्धिजीवी और सांस्कृतिक क्षेत्र की हस्तियां सीआइए द्वारा दिये गये लालचों से बच पायीं थींचाहे वे आराम दायक विदेश यात्राओं के रूप में हों या छिपाकर दी गई आर्थिक सहायता के रूप में हों पार्टिजन रिव्यू, कामेंट्री, सिवान रिव्यू, कैनयान रिव्यू के अलावा एनकाउंटर और उसकी फ्रांसीसी, जर्मनी, इतावली और यहां तक कि अरबी और भारतीय (इशारा क्वेस्ट की तरफ ही है। -सं) सभी कलमें लाभान्वित हुई थींया कांग्रेस फाॅर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठनों और फोर्ड फाउंडेशन, जिसके बारे में शुरूआत से ही ऐसा लगता था मानो यह सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति को बढ़ावा देने और सीआइए की कारगुजारियों को आड़ देने के लिए है, ठेके देने के रूप में था। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका में फोर्ड की वर्तमान प्रतिष्ठा और दानशीलता पर आज भी इस राजनैतिक इतिहास का धब्बा है।’’ (समयांतर, जनवरी, 2000 में प्रकाशित अनुवाद) प्रसंगवश अज्ञेय जी साठ के दशक के मध्य से सत्तर के दशक के मध्य तक कई बार विदेश यात्राओं पर गए और अमेरिका में अध्यापन भी किया। सीआइए द्वारा कला व संस्कृति के क्षेत्र में की जा रही गतिविधियों का खुलासा 1968 में हुआ था और इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर बौद्धिक जगत की स्टिफेन स्पेंडर और राॅबर्ट लाॅवेल जैसी कई हस्तियां ध्वस्त हो गई थीं तथा कला व साहित्य जगत की कई संस्थाओं और पत्र-पत्रिकाओं की विश्वसनीयता जाती रही थी।

अज्ञेय जी के देहांत के बाद उनके जीवन के बारे में लिखे लेख अज्ञेय की याद मेंमें इला डालमिया ने अज्ञेय के अंग्रेजों की भारतीय सेना में जाने के संबंध में मजेदार जानकारी है। अज्ञेय जी (जिन्हें इला वत्सल नाम से संबोधित करती हैं) की गिरफ्तारी अमृतसर में हुई थी। तब पंजाब इंटेलिजेंस ब्यूरो का मुखिया जेनकिंस नाम का अंग्रेज था। उसने अज्ञेय से पूछ-ताछ की थी। ‘‘ जब वत्सल को जेल से छुट्टी मिली तो उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा इतनी फैल गई थी कि काॅलेजवालों ने काॅलेज में दाखिला देने से इंकार कर दिया। पर जेल से छूटने पर उनको आॅल इंडिया रेडियो का एक पत्र मिला। वहां से काम का आमंत्रण था। पंजाब के इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया जेनकिंस की सिफारिश पर आॅल इंडिया (रेडियो) ने यह कदम उठाया था। जेनकिंस के मन में इस साहसी युवक की सच्चाई के चरित्र की छाप पड़ चुकी थी।…’’
‘‘कुछ समय बाद जब वत्सल भारतीय सेना में भरती होना चाह रहे थे, तो इन्हीं जेनकिंस ने वात्स्यायन के बारे में कहा था कि यह युवक चरित्रवान है, विश्वसनीय है।…’’ यानी जेनकिंस ने अज्ञेय जी की सिफारिश की थी।

‘‘
जब जापानी सेना इंफाल के बार्डर से भारत में आने का प्रयत्न कर रही थी, उस समय अंग्रेज सरकार को ऐसे लोगों की जरूरत थी जिनका भारतीय आदमी सहज ही भरोसा कर सके। तब वत्सल को सेना में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला।…’’
हिंदी दुनिया का यह एक बड़ा रहस्य है कि आखिर वह व्यक्ति जो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा चुका हो किस तरह से अंग्रेजों की सेना में भरती हुआ। इला डालमिया के लेख में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैः

‘‘
वत्सल के मन में गिरफ्तार होने के पहले से ही आतंकवादी रास्ते को लेकर शंकाएं उत्पन्न होने लगीं थीं। सन् 41-42 के दिन। वत्सल एकदम अकेले हो गए थे। सन 42 के भारत छोड़ो आंदोलन से वत्सल का मन नहीं जुड़ा। गांधी, नौजवान समाजवादी जयप्रकाश, लोहिया, इन सबसे वत्सल की सोच अलग थी। भारतीय लोगों में, भारत की अंग्रेजों से स्वतंत्रता ही, सबसे बड़ी चीज लग रही थी। इधर वत्सल को लग रहा था कि द्वितीय महायुद्ध छिड़ा हुआ है। इसमें हिटलर की विजय सारी मानव जाति की हार होगी। वत्सल की चिंता उस मनुष्यता की रक्षा के लिए थी। इसी सोच के तहत वत्सल ने तय किया कि वे न केवल युद्ध के पक्ष में हैं और अंग्रेजों की सेना है तो क्या हुआ, वे सक्रिय रूप से उसमें शामिल भी होंगे। स्थिति, भारत की सीमित स्थिति देखने की बात नहीं थी, संपूर्ण विश्व के मानव जाति के संदर्भ में स्थिति को देखने की बात थी।…’’

सन 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक इला में संग्रहीत इस लेख में यशपाल का काफी नकारात्मक संदर्भों में जिक्र है। एक जगह लिखा गया है ‘‘यशपाल पर दलवालों को संदेह हो गया था।’’ ‘‘यशपाल साहसी थे, लेकिन अपने को अपने अन्य साथियों से ऊंचा मानते थे।’’ ‘‘वह (गिरिवर सिंह) वास्तव में तो दल का साथी था अतः सब सदस्य उससे बराबर का बर्ताव करते थे, पर यशपाल उसके साथ नौकरों जैसा बर्ताव करते थे।’’ बाद में गिरिवर मुखबिर हो गया था और उसने अदालत में अज्ञेय को पहचानने से इंकार कर दिया था। अज्ञेय जी के संपादन के दौरान दिनमान में क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में एक विवाद छपा था, जिसमें यशपाल पर काफी कीचड़ उछाली गई थी।

इला डालमिया के लेख से एक बात तो स्पष्ट है कि यह सारी जानकारी उन्हें अज्ञेय जी ने स्वयं दी होगी। क्या इससे साफ यह नहीं नजर आता कि जेनकिंस ने अज्ञेय को तोड़ लिया था अन्यथा रेडियो की ओर से उन्हें बुलाया जाना और फिर सीधे सेना में भर्ती करना, जहां वह तीन वर्ष रहे, अपने आप में अजूबा नहीं है? ये बातें मात्र अज्ञेय के संदर्भ में अकादमिक महत्व या रुचि की नहीं हैं बल्कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के बारे में और प्रकारांतर से स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी इतिहास को समझने के लिए भी लाभप्रद साबित होंगी। यह अपने आप में आश्चर्य की बात है कि अभी तक किसी भी शोधार्थी ने अज्ञेय के इस पक्ष की पड़ताल नहीं की है। मेरे विचार में कम से कम अब तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में उस दौर के दस्तावेज अवलोकनार्थ उपलब्ध होंगे। उन्हें देख कर जेनकिंस की भूमिका और अज्ञेय के सेना में जाने के सारे संदर्भों को समझा जा सकता है। इसके अलावा यशपाल को लेकर जो शंकाएं हैं उन्हें भी स्पष्ट करने में मदद मिलेगी।

दिल्ली से निकलनेवाली रायिस्टों की साप्ताहिक पत्रिका थाट को लेकर भी कई तरह की बातें कही जाती थीं, जिसके मालिक संपादक राम सिंह थे। अज्ञेय जी इससे बाद में भी साहित्य संपादक के तौर पर जुड़े रहे थे। 1942 के दौरान रायिस्टों की योजना दिल्ली से इंडिपैंडेंट इंडिया नाम से एक दैनिक निकालने की भी थी, जिसका संपादक राम सिंह को ही होना था और अज्ञेय सहायक के तौर पर जुड़नेवाले थे। गोकि थाॅट आठवें दशक तक जिंदा रहा पर पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुका था।

यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि इसमें शक नहीं है कम्युनिस्ट फासीवाद के विरोध के चक्कर में अंग्रेजों के सहयोगी हो गए थे पर महत्वपूर्ण यह है कि अज्ञेय न तो कम्युनिस्ट थे और न ही उनके समर्थक। बल्कि ऐसा लगता है कि रणनीतिगत कारणों से माक्र्सवादियों से संबंध बनाए गए थे22 अप्रैल, 1942 को नेमिचंद जैन को लिखे पत्र से स्पष्ट है कि वह एमएन रायिस्ट थे और रेडियो में काम करते हुए वह औपनिवेशिक सरकार के लिए उससे बाहर भी कुछ बड़ा काम करना चाहते थे, गोकि यह काम फासीवाद विरोध के नाम पर ही होना था। इस पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘‘… मैं यह मानकर चला हूं कि आप जेनुइन एंटीफासिस्ट हैं; प्रश्न यही हैं कि उस खरी भावना को कार्यान्वित करने के बारे में आप क्या सोचते हैं।
‘‘1. यदि कुछ व्यक्तियों या संस्थाओं के उद्योग से एक होम गार्ड आंदोलन आरंभ हो, जिसे सरकार की भी मंजूरी मिल जाए, तो आप उसमें योग दे सकेंगे? (अगर सरकार शुरू करेगी तो जनता उपेक्षा करेगी; अगर सरकार मंजूरी न देगी तो काम कठिन होगा; इसलिए यही सूरत हो सकती है न!) यह संगठन बिल्कुल इंग्लैंड के होम गार्ड के ढंग का होगा, और उसे सैनिक, राजनीतिक और नागरिक शिक्षा दी जाएगी।’’
सात प्रश्नों की श्रृंखला में तीसरा प्रश्न है, ‘‘रायिस्टोंके साथ काम करने में आपको कोई आपत्ति है?’’
नेमिचंद जैन को लिखे 27 अगस्त, 1945 के पत्र में अज्ञेय उनका इसलिए मजाक बनाते हैं कि वह साम्यवादी विचारधारा के हैं। नेमीचंद जैन उन दिनों साम्यवादी विचारों के निकट थे। अज्ञेय ने लिखा है, ‘‘आपकी करनी पर रोष तो क्या होता। एक तो वैसे ही नहीं होता, क्योंकि आप (यह आप जातिवाचक है, अर्थात आप प्रोग्रेसिव – ) लोगों की तरह सब कर्मों को नापने के लिए बनी-बनाई छड़ी मेरे पास कहां है?…’’ पत्र में उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘ शायद माक्र्सवादियों के लिए उनकी डाक सेफ्टी वाॅल्व है जिसमें हर तरह के डेवियेनिस्ट या डाइवर्जनिस्ट या रोमांटिक या सब्जैक्टिव याविचार व्यक्त किए जा सकते हैं। नहीं तो क्या आप आॅफिसियली यह मत प्रकाशित कर सकते कि काम शायद इस बार अधिक अच्छा हो। क्या जाने।’ ‘जीवन और मन की गति किस ओर धकेले लिए जा रही है पता नहीं चलता।’ ’’
इस संदर्भ में अंतिम बात यह है कि 22 अप्रैल, 1942 वाले पत्र में अज्ञेय ने नेमिचंद जैन को हिदायत दी थी, ‘‘ देखिए, उत्तर देने के बाद इस पत्र को फाड़ दें या अपने साथ लेते आवें।’’ प्रश्न यह है इस पत्र के प्रति वह इतने सचेत क्यों थे? इसके अगले ही साल वह सेना के लिए उत्तर पूर्व में काम करने चले गए थे।

खैर, आकाशवाणी के दौरान गोयल साहब ने उनके साथ काम किया था। वही संबंध काम कर गया था। देखने की बात यह थी कि अज्ञेय जी अपने साथियों और प्रेमियों का किस हद तक सम्मान करते थे और उन्हें एडजेस्ट करते थे। उसी दौरान आकाशवाणी में रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और मनोहरश्याम जोशी भी रहे थे। वैसे यहां यह बतलाना जरूरी है कि अज्ञेय जी उससे पहले कभी भी आजकल में नहीं छपे थे। यह मैं इसलिए कह सकता हूं कि जून, 1994 में जब हमने आजकल का स्वर्ण-जयंती अंक निकाला, जो कि विगत आधी सदी में आजकल में प्रकाशित सामग्री का चयन था, तो उसके एक-एक अंक को खंगाला था और शायद ही कोई ऐसा बड़ा नाम हो जो पिछले पांच दशकों में आजकल में छपा हो वह स्वर्ण-जयंती अंक में न शामिल किया गया हो।

यह तो सब जानते ही हैं कि अज्ञेय घुमक्कड़ी के जबर्दस्त शौकीन थे। उनका पत्रकारिता प्रेम भी कम चर्चित नहीं है। दिनमान की स्थापना उनका सबसे चर्चित काम कहा जा सकता है, जो अपने आप में कई मायनों में अभिनव प्रयत्न था। नेमिचंद जैन को लिखे पत्रों में उन्होंने कम से कम तीन जगह नयी पत्रिकाएं निकालने की योजना पर चर्चा की है। सेना से लौट कर 1947 से 1950 तक उन्होंने इलाहाबाद से प्रतीक का प्रकाशन संपादन किया था। दिसंबर, 1973 में दिल्ली से प्रतीक को नया प्रतीक के नाम से मासिक निकाला गया था। इला डालमिया इससे पूरी तरह जुड़ी रहीं। गोकि इस बार भी यह ज्यादा नहीं चला।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। ज्ञानपीठ किसी दक्षिण की भाषा के लेखक को मिला था। सम्मान समारोह के बाद उन दिनों एक दावत भी ज्ञानपीठ दिया करता था। 1980 में संपादक पाण्डेय जी के सेवानिवृत्त होने के साथ ही मुझे आजकल से हटा दिया गया था। इस बीच जगदीश गोयल की पदोन्नति हो गई थी और वह आकाशवाणी पत्रिका समूह के प्रधान संपादक बना दिये गए थे। उन्होंने मुझे समाचार प्रभाग से खींच कर आकाशवाणी पत्रिका के सहायक संपादक के पद पर बुला लिया था। इसका दफ्तर पीटीआइ बिल्डिंग में था और हिंदी के अलावा वहां से अकाशवाणी अंग्रेजी और आवाज उर्दू पत्रिका भी निकलती थी। ये मूलतः आकाशवाणी के कार्यक्रमों की पत्रिकाएं थीं, बाद में इन में कुछ सूचनाएं दूरदर्शन के कार्यक्रमों की भी शामिल की जाने लगीं थीं। इनके और भी कई प्रादेशिक संस्करण थे जो विभिन्न राज्यों की राजधानियों से निकलते थे। आवाज में शुरूआती दौर में मजाज लखनवी ने काम किया था और यह नाम भी उन्हीं का दिया हुआ था।

मुझे पहली बार ज्ञानपीठ की इस पार्टी का निमंत्रण मिला था और यह कम प्रसन्नता की बात नहीं थी। इसलिए कि यह मेरे साहित्य के संस्थानों में भी पहचाने जाने की शुरूआत थी। पार्टी तिलक मार्ग की दो नंबर कोठी में हुआ करती थी। ऐन पटियाला हाउस के सामने, जहां तब प्रकाशन विभाग हुआ करता था। डालमिया की यह कोठी भी उन दिनों बैनेट कोलमैन के नियंत्रण में थी। आयोजन काफी भव्य था, जिसमें दिल्ली के हिंदी के सभी बड़े लेखक तो शामिल थे ही विभिन्न भाषाओं के लेखक व कलाकार आदि भी उपस्थित थे। खाने के स्टाल लगे हुए थे। लोग स्टालों के बीच आ-जा रहे थे। मैंने अचानक देखा कि एक जगह अज्ञेय जी अकेले खड़े हैं। 1979 के बाद से मुझे उनसे मिलने का मौका नहीं मिला था। मैं सब कुछ भूल, लपक कर उनके पास जा पहुंचा और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उन्होंने नमस्कार का जवाब तो दिया पर वह इतना ठंडा था कि लगा, पहचान नहीं रहे हैं।

आजकल के हवाले से मैंने याद दिलाने की कोशिश की।
‘‘जानता हूं।’’ शब्दों की ऐसी मितव्ययिता जीवन में मुझे फिर कभी देखने-सुनने को नहीं मिली। वे डेढ़ शब्द उस कोलाहल और उत्सवी माहौल पर इतने भारी पड़े कि सब कुछ मौन हो गया। मेरी समझ जवाब दे गई। बात आगे बढ़ाने का कोई सिरा ही नहीं सूझा।

मैंने बहुत ही औघड़ तरीके से कहा, मैं अब आजकल में नहीं रहा हूं।

वह चुप रहे। मुझे लगा मैंने कोई बहुत ही बेवकूफाना बात कह दी है, जबकि कोई गुरु-गंभीर साहित्यिक या दार्शनिक बात कहनी चाहिए थी।

अगली बात जो मैं कह सकता था वह थी कि आजकल आकाशवाणी पत्रिका में हूं। यह कहना मुझे और भी बचकाना लगा। व्यवहारिक यह था कि किसी तरह सामने से हट जाऊं। पर यह हिम्मत भी नहीं रह गई थी कि अचानक मुड़ कर दूसरा रुख कर सकूं। एक-एक पल एक-एक युग की सजा-सी महसूस होने लगा। न जाने कब तक अज्ञेय जी के मौन के पहाड़ के नीचे दबा मैं छटपटाता रहा कि अचानक महसूस किया, किसी ने पीछे से मेरे दोनों कंधों को पकड़ा है, इससे पहले कि समझ में आता क्या हो रहा है, एक ही झटके में उन मजबूत हाथों ने मुझे दूसरी ओर घुमा दिया। मैंने आवाज सुनी, ‘‘ इधर आओ, जलेबी खाओ।’’ मनोहरश्याम जोशी थे। न जाने उन्होंने कहां से देख लिया था कि मैं फंस गया हूं।
जलेबी पहाड़ियों की प्रिय मिठाई है। गर्मा-गर्म हो तो फिर बात ही क्या है!