( यह टिप्पणी वरिष्ठ कहानीकार और कथन के पूर्व संपादक रमेश उपाध्याय जी ने अपने ब्लाग 'बेहतर दुनिया की तलाश' में 'नये-पुराने की निरर्थक बहस' शीर्षक से की है, ऊपर का शीर्षक मैने कालिया साहब के यहां दिये रिफ्रेंस के 'पाठ' से निकाला है। लेख यहां जनपक्ष के पाठकों के लिये साभार)
लेखकों के मुंह में चांदी की चम्मच!?
हिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी को ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर श्री रवींद्र कालिया ने ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में लिखा है कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’
यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘born with a silver spoon in one's mouth", जिसका अर्थ होता है "born to affluence", यानी वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो।
इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया जी के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! भावार्थ यह कि कालिया जी ने अपने द्वारा हिंदी साहित्य में लायी गयी नयी पीढ़ी का वर्ग-चरित्र स्वयं ही बता दिया है!
वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाओं से (पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से) पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे ‘लघु’ पत्रिकाएँ थीं और ‘वागर्थ’ तथा ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित ‘बड़ी’ पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!
अतः बहस नयी-पुरानी पीढ़ी के बजाय लेखकों और संपादकों के वर्ग-चरित्र पर होनी चाहिए।
mere vichaar se sir bahas iske peechhe ki rajniti par nahi rachnaon par honi chahiye. is par honi chahiye sahitya ke is simatte sansar men ham naye lekhkon ke liye protsahan ke awasar kyon nahi paida kar paa rahe hain. agar kuchh yuvaon ko charhaya jaa raha hai to kyon charhaya ja raha hai?
जवाब देंहटाएंsir, bat ko thodi aur vistar den, taki dhundhalka aur gahrane kee jagah saf ho sake. ye...aaptvachan hi mahaul me aandhi kee trah..banduk kee golee kee trah gardo-gubar aur dhunwa bhar de rhe hain.
जवाब देंहटाएंयुवा पीढ़ी खुद अजीब स्थिति में है। असहमति या आत्मीय आलोचनात्मक रिश्ते से तो बिदकती है पर ऐसी कालियाना बेहूदा `तारीफ` पर खुश होती है। यही है समय का फर्क, राजनीित का फर्क।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही। वर्ग चरित्र की पहचान होनी ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंएक जिद्दी धुन से सहमत हूं.
जवाब देंहटाएंaaj kii yuva piidi ko nampunsakon ko guru maankar apne paurush ko siddh karne kii vivashata bhii to jhelnii padti hai. kyon...?
जवाब देंहटाएंबात सही है. मुद्दा युवा या बूढ़ा होने का एक गैर-जरूरी मुद्दा है. सवाल पक्षधरता और ईमानदारी से सृजन का होना चाहिए. रचना का दायित्व और सवाल हर सवाल से बड़ा होता है.
जवाब देंहटाएंहान उन लोगों की भी शिनाख्त भी आवश्यक है जो, इस समय अपनी "लीलाएं" मंचित करने के अवसर ढूंढने के चक्कर में हैं.
prabhatranjan ji, apki bat bilkul sahi hai ki bat rachnaon par honi chahiye. lekin kuchh hi lekhkon ki rachnaon par kyon? maine yahi toh likha tha ki ek hi patrika se samne aayi nayi pidhi ke lekhkon ke munh mein chandi ka chammach kyon? doosri patrikaon se samne aaye naye lekhkon ki rachnaon par bat kyon nhin hoti? jahan tak protsahan ka sawal hai, jitna aaj ke naye lekhkon ko mil raha hai, pahle kabhi nahin milta tha. naye lekhkon ke pahle sankalan 10-15 saal baad aaya karte the. aur ab?
जवाब देंहटाएंbhai hareprakash, aapki salah maine maan li hai. mere blog par meri nayi post dekhen.
ek ziddi dhun, dineshrai dwivedi, pratibha, bechain atma aur shekhar mallik ko dhanyavad.
-ramesh upadhyaya
प्रिय अशोक जी, आपने मेरे ब्लॉग की पोस्ट को इतने लोगों तक पहुँचाया, इसके लिए धन्यवाद। उस पर आयी टिप्पणियों पर मुझे भी कुछ कहना है।
जवाब देंहटाएंप्रभात रंजन जी, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि बात रचनाओं पर होनी चाहिए। लेकिन उन्हीं लेखकों की रचनाओं पर क्यों, जिनके मुँह में चाँदी की चम्मच है? नयी पीढ़ी के उन लेखकों की रचनाओं पर क्यों नहीं, जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए? दूसरा सवाल आपने प्रोत्साहन का उठाया है। मेरे खयाल से आज के नये लेखकों को जितना प्रोत्साहन मिल रहा है, शायद ही पहले की किसी नयी पीढ़ी के लेखकों को मिला है। हम लोगों के पहले संकलन लिखना शुरू करने के आठ-दस साल बाद मुश्किल से छपते थे, जबकि आज के लेखकों के तुरंत छप जाते हैं। उस समय इंटरनेट भी नहीं था, जो आज के लेखकों को आगे बढ़ाने का एक बड़ा माध्यम है।
हरेप्रकाश जी, आपकी सलाह सिर-माथे। मेरे ब्लॉग पर ‘चाँदी का चम्मच’ वाली पोस्ट के बाद की पोस्ट पढ़ें। जहाँ तक आप्त वचनों का सवाल है, उनको छोड़ें और अपनी पीढ़ी के लेखकों से कहें कि वे स्वयं को परिभाषित करें और एक स्टैंड लेकर खड़े हों। ‘आप्त वचन’ बोलने वाले स्वयं ही बोलने से पहले सौ बार सोचेंगे।
--रमेश उपाध्याय