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गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

नारायण सुर्वे: एक संस्मरण


मेरा पति, मेरा भाई और मेरा सखा भी वही. मेरी बहन भी वही, मेरा सर्वस्व वही था. अब मैं मास्साब कह कर किसे बुलाऊंगी. मेरी और मास्साब की गृहस्थी आज ख़त्म हुई. हम दोनों अनाथ थे. पैदा होते ही हम दोनों अनाथ हो गए थे. विवाह के पश्चात कचहरी से बाहर निकले तो एक-दूसरे को पहनाने के लिए हार खरीदने तक के लिए पैसे न थे. पर मास्साब कहीं से हार लेकर आए और हमने एक-दूसरे के गले में पहना दिए. मेरा आग्रह था कि मास्साब आगे पढ़ें और उन्होंने पढ़ाई की.

हमेशा चलते रहने वाले आन्दोलन, मोर्चे, हडतालें, धरने ऐसे माहौल में मास्साब कम ही घर पर होते और रात में लौटने पर पढ़ने या लिखने बैठ जाते. बहुत कविता करते. मैं कुछ भी पढ़ नहीं पाती पर मास्साब ने कुछ लिख रखा है इसलिए वे कागज़ संभालकर रखती. तकिये के नीचे, बिस्तर के नीचे, शर्ट-पैंट की जेबों में कई पुर्जे, कागज़ मिला करते. मैं सब संभालकर रख देती. पर मास्साब कभी न पूछते कि, 'मेरे कागज़ कहाँ हैं?' उन्हें पता होता कि 'यह' संभालकर रखेगी. वैसे मास्साब को एक बार में ही चीज़ें याद हो जातीं. कविता पूरी क्या हुई कि वह उनके दिमाग में फिट हो जाती. फिर वे भूलते नहीं. यह बात मुझे बहुत विस्मित करती.

काफी दिनों से मास्साब के मन में था कि कविताओं का संकलन छपवाया जाए पर हो नहीं पा रहा था. एक शाम मास्साब घर लौटे. एकदम चुप थे. मैंने पूछा,' क्या हुआ मास्साब?' तो बोले, 'कुछ नहीं रे, मेरी कविताओं की पुस्तक छपवाने का मन है.'
'छपवाइए ना फिर!' मैंने कहा, पर पुस्तक छपवाने का क्या मतलब है इसका मुझे अंदाज़ा न था और उसमें कितने पैसे लगते हैं यह भी पता न था.
'किशा, पुस्तक छपवाना कोई हंसी-खेल नहीं. उसमें पैसे नहीं लगते क्या?'.
'बस इतना ही! हो जायेगा इंतज़ाम.' मैंने इतना कहा और मेरे गले के मंगलसूत्र की एक लड़ी उनके हाथ में दे दी. वह मंगलसूत्र मेरे चाचा ने चचेरे भाई के हाथों मेरे लिए भिजवाया था. मेरे मायके की निशानी वह एक ही गहना था मेरे पास. कमरबंद तो पहले बच्चे के समय ही बेच दिया था. अपने आप से कहा,'कृष्णाबाई, मंगलसूत्र तो फिर कभी बन जाएगा, पर मास्साब का कविता संग्रह मुल्तवी करना ठीक नहीं. उन्हें आगे बढ़ने दो.'
मेरा मंगलसूत्र बेचकर पुस्तक छपवाना मास्साब को उचित नहीं लग रहा था. पर मैंने उनसे कहा, 'मास्साब, मंगलसूत्र गिरवी रखकर ऐसे कितने पैसे मिल जायेंगे? उसके बदले बेच ही दें तो अच्छे पैसे आ जायेंगे. उन पैसों से पुस्तक ज़रूर छप जाएगी.'

मंगलसूत्र बेचने पर पांच सौ रुपये मिले और उन पैसों से मास्साब का पहला संग्रह 'ऐसा गा मी ब्रम्ह' (ऐसा भई मैं ब्रम्ह) अभिनव प्रकाशन द्वारा वा.वि. भट ने 1962 में प्रकाशित किया. मेरे मन पर एक बोझ सा था. इसलिए मास्साब की पहली पुस्तक के प्रकाशन समारोह में मैं नहीं गई. भीतर बेहद ख़ुशी हो रही थी; पर मन कह रहा था, 'कृष्णाबाई, तुम्हारे मास्साब बहुत बड़े आदमी हो रहे हैं. उस समारोह में बहुत बड़े-बड़े लोग आएँगे. तुम अनपढ़ औरत वहाँ जाकर क्या करोगी? तुम्हारा जाना क्या शोभा देगा और फिर बच्चों की पलटन लेकर क्या ही जाओगी?'

मास्साब बेहद खुश थे और मास्साब का सपना पूरा हो गया इसलिए मैं भी खुश थी. 1962 में संग्रह प्रकाशित हुआ और 1963 में उसे महाराष्ट्र सरकार का राज्य पुरस्कार प्राप्त हुआ. पुरस्कार राशि एक हज़ार रुपये थी. मैं उस समारोह में भी नहीं गई. मन में संकोच था, और क्या? अब लगता है कि उन मौकों पर जाना चाहिए था. उनके साथ उन समारोहों में परिवार का कोई भी नहीं जाता. उस वक़्त मास्साब को कैसा लगता होगा? ऐसा मैं अब सोचती हूँ, पर उस समय मैंने बच्चों के पालन-पोषण में ज्यादा ध्यान दिया. तो एक हज़ार रुपये मिलेंगे मतलब ठीक ठीक कितने? और इतने पैसे लाएंगे कैसे? इन्हीं बातों का मुझ पर टेंशन था. मैंने अपनी पड़ोसिन शेंडेबाई से कहा, 'आप चली जाइए'. क्योंकि वे म्युनिसिपालिटी में क्लर्क थीं. पढ़ी-लिखी थीं इसीलिए उनसे कहा, 'शाम को आपके घर पर मैं पानी वगैरह भर कर रख दूँगी, और दूसरे काम भी कर दूँगी. आप जाइए मास्साब के साथ और एक थैली धुली रखी है, वह ले जाइए. वरना इतने पैसे लाएँगे कैसे? मैं भी आ जाती, पर वह पैसों की थैली कहीं गिर-विर गई तो हो जाएँगे दुबले पर दो अषाढ़...आप जाइए. मैं राह देखूँगी, जल्दी लौट कर आइयेगा'. मेरी बातें सुनकर वे हँस पड़ीं.

मास्साब शाम को लौटे. बेहद खुश थे. मैंने पहली बार ही एक हज़ार का चेक देखा और अपने बुद्धूपन पर हँसी आ गई. कुछ दिनों बाद उन्हीं पैसों से मास्साब मेरे लिए चौदह कैरेट सोने का एक मंगलसूत्र और बालियाँ लाये. वह मेरे लिए अमूल्य तोहफा था, क्योंकि लगभग सालभर मैंने मंगलसूत्र पहना ही नहीं था. चाल की औरतें बहुत ताने देतीं. मैं गले में मंगलसूत्र नहीं पहना करती. माथे पर बिंदी लगाती. वह भी कभी लगाई तो ठीक, वरना वह भी नहीं. 'सुर्वेबाई अब फैशन करने लगी हैं', कुछ औरतें ऐसा कहने लगीं. पर मंगलसूत्र और सिन्दूर लगाने से क्या होता है? मन की भावनाओं और श्रद्धा का कोई महत्त्व नहीं है क्या? पर मैं कोई जवाब नहीं देती. उसके बाद भी मास्साब की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं. उन्हें पुरस्कार भी मिले, पर हमारे घर से श्रीरंग के अलावा कोई साथ नहीं जाया करता. श्रीरंग को अपने पापा के कृतित्व पर बेहद गर्व था. पर पता नहीं क्यों मुझे लगता कि अगर मैं जाऊँगी तो सारे लोग मास्साब पर हँसेंगे. इसलिए मैं जाती नहीं थी. मास्साब ने भी कभी आने के लिए बहुत आग्रह नहीं किया.

एक ओर बच्चों की पढ़ाई चल रही थी. घर के कामों में कल्पना की काफी मदद हो जाती. वह सातवीं कक्षा से ही घर के सारे काम बड़े उत्साह से करती. पर कविता को गृहस्थी के कामों ख़ास दिलचस्पी न थी. रवि मैट्रिक
पास हो गया. मास्साब के एक मित्र डॉ. एस.एस.भोसले (संभाजी भोसले) कोल्हापुर में रहते थे. उनके कोई बाल-बच्चे न थे. उन्होंने कहा, मैं रवि को कोल्हापुर ले जाता हूँ. मास्साब राज़ी हो गए और रवि भी. पर मुझे अपने बच्चे का किसी दूसरे के दरवाज़े पर पड़े रहकर पढ़ाई पूरी करना जँच नहीं रहा था, मगर मास्साब ने मुझे समझाया. 'कोल्हापुर की शिवाजी यूनिवर्सिटी अच्छी है. वहाँ रवि को अच्छी शिक्षा मिलेगी.' आखिर रवि पढ़ने के लिए कोल्हापुर चला गया. छुट्टियों में कभी-कभी घर आ जाता, पर मुझे ऐसा लगता कि वह दूर चला गया. कल्पना, श्रीरंग और कविता की स्कूली शिक्षा ख़त्म होने को आई. बोगदा की चाल का कमरा अब छोटा पड़ने लगा. फिर नई जगह रहने जाया जाए इस तरह के विचार मन में घुमड़ने लगे.

मास्साब घर पर होते तब भी आराम बिल्कुल न रहता. कोई तो उनसे मिलने आ जाता, कोई साक्षात्कार लेने आ जाता या किसी कार्यक्रम का निमंत्रण लेकर ही आ जाता. डिम्पल पब्लिकेशन की पुस्तक 'सर्व सुर्वे' (सारे सुर्वे) के बहाने से एक महिला ने मेरा भी साक्षात्कार लिया था और उन्होंने प्रश्न पूछा था कि आपकी इच्छा क्या है. मैंने उन्हें जवाब दिया, 'मैं ही मेरे मास्साब को गृहस्थी में लेकर आई हूँ. मेरी इच्छा है कि अगर मास्साब मुझसे पहले चले गए तो उनके सारे संस्कार मैं खुद करूंगी और उन्हें ख़ुशी ख़ुशी विदा करूंगी.' मेरा यह जवाब बहुत चर्चित हुआ. 'एक औरत होकर भी ऐसा कैसे कहती है?' हमारी सोसाइटी में तो मुझे बहुत बुरा-भला कहा गया, पर कुछ दिनों बाद वह लेख विंदा करंदीकर ने पढ़ा. उन्होंने मास्साब से कहा,'तुम्हारी पत्नी तक मेरा प्रणाम पहुंचा देना. अरे, महाराष्ट्र में इस एक ही औरत ने यह कहने का साहस दिखाया है कि मुझसे पहले मास्साब चले गए तो उनके सारे संस्कार मैं करूंगी.

-कृष्णाबाई नारायण सुर्वे की पुस्तक 'मास्तरांची सावली' (मास्साब की परछाई) से; समयांतर (अक्टूबर 2010) से साभार

(मराठी से अनुवाद: भारत भूषण तिवारी)

3 टिप्‍पणियां:

  1. 'मास्तरांची सावली " या पुस्तकातील सुंदर अंशा चा अनुवाद केला आहे भारत भूषण तिवारी यांनी । नारायण सुर्वे की कुछ कविताओं के अनुवाद भी दीजिये । उनपर एक परिचयात्मक लेख मैंने भी लिखा है ।

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  2. बहुत प्यारी पोस्ट है यह. बहुत ही सुंदर. भारत जी आपका बहुत आभार!

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  3. वाकई बड़ा आत्मीय है। हिंदुस्तान में एक लेखक को कड़े संघर्षों से गुजरना पड़ता है। और कृष्णाबाई जी के संघर्ष को क्या कहेंगे...।
    अब यह न समझा जाए कि हर कहीं सिनिसिज़्म, फिर भी यह परेशान करने वाली बात है कि कामरेड सुर्वे पत्नी के लिए पहली पुरस्कार राशि से मंगलसूत्र ही खरीदकर लाते हैं।

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