अभी हाल में


विजेट आपके ब्लॉग पर

रविवार, 7 नवंबर 2010

मानव ही सबसे बड़ा सच है


'They think that they show their respect for a subject when they dehistoricize it- when they turn it into a mummy' - (दार्शनिकों के बारे में नीत्शे का बयान).


मानव सभ्यता के विकास के सन्दर्भ में हम राष्ट्रवाद को एक ज़रूरी पर एक बीमार मानसिकता से उपजे अध्यात्म की निकृष्टतम परिणति मान सकते हैं। प्रौद्योगिकी के विकास और पूंजी के संचय के साथ राष्ट्रीय हितों को जोड़ना पूंजीवाद के अन्तर्निहित संकटों से उभरा नियम है। स्थानीय संस्कृतियों और परम्पराओं को एक काल्पनिक बृहत् समुदाय में समाहित कर लेना और उनके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारना - यह पूंजी की होड़ के लिए ज़रूरी है। इसलिए राष्ट्रवाद और उससे जुड़े तमाम प्रतीक पैदा हुए हैं - मातृभूमि , पितृभूमि इत्यादि (आधुनिक राष्ट्रों के बनने के पहले इन धारणाओं का अर्थ भिन्न होता था; तब इनकीज़रुरत राजाओं के हितों के रक्षा के लिए होती थी)। कहने को जन के बिना राष्ट्र का कोंई अर्थ नहीं, पर राष्ट्र हित में सबसे पहले जन की धारणा ही बलि चढती है। राष्ट्रवाद की धारणा के पाखंड का खुलासा तब अच्छी तरह दिखता है जब हम पुरातनपंथी अंधविश्वासों और रूढ़ियों के साथ राष्ट्रवाद के समझौतों को देखते हैं। जन्मभूमि जो स्वर्गादपि महीयसी है, उसकी प्रगति में अगर जातिवाद, साप्रदायिकता आदि बाधक हैं तो राष्ट्रवाद ऐसे मिथकों की सृष्टि करता है जो इन कुरीतियों की प्रतिष्ठा करें ताकि ताकतवर तबकों को पूंजी संचयन की प्रक्रिया में बाधा बनने से रोका जा सके। तो हमें बतलाया जाता है कि किस तरह वर्ण व्यवस्था के फलां फलां ऐतिहासिक कारण थे, स्त्री तो हमारे समाज में देवी है, इत्यादि। जब विरोध इतना प्रबल हो कि राष्ट्रीय सरमायादारों के अस्तित्व को ही चुनौती मिलने लगे तो रियायतें शुरू होती हैं। इसलिए स्त्री अधिकार, पिछड़ों को अधिकार आदि।

अगर बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद एक बहुत प्रभावी धारणा थी तो वर्त्तमान सदी में यह एक पिछड़ेपन की धारणा मात्र है। आधुनिकता का संघर्ष जो अपूर्ण रह गया, वह तब तक चलता रहेगा जब तक एक सामान्य बात पूर्ण तौर पर प्रतिष्ठित नहीं होती - वह है 'मानव ही सबसे बड़ा सच है उससे बढ़कर और कुछ नहीं (সবার উপর মানুষ সত্য তাহার উপর নাই - लालन फकीर)' , इसीलिए हमें पृथ्वी, प्राणीजगत, सृष्टि और बाकी जो कुछ भी है उसकी चिंता है। प्रकृति का विनाश, राष्ट्र की धारणा, ये आधुनिकता से निकली विकृतियाँ हैं। इन विकृतियों को जन संघर्षों के द्वारा ही हटाना संभव है। हमारे जैसे देश में अभी भी आधुनिकता के बुनियादी स्वरुप की प्रतिष्ठा की लड़ाई चल रही है, जिसमें मानव की स्वच्छंद पर जिम्मेदार सत्ता ही प्रमुख बात है। यह जिम्मेदारी क्या है इस पर सोचना ज़रूरी है।

-लाल्टू
(आइये हाथ उठाएं हम भी से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…