(राष्ट्रवाद पर लगी पिछली पोस्ट के क्रम में मुझे लगा की इन दिनों प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम की जिस किताब ' We or our nationhood defined - A critique' का अनुवाद कर रहा हूँ उसके कुछ हिस्से ब्लॉग पर लगाने के मित्रों के आदेश को मानने का यह अच्छा अवसर है...इस क्रम में यह पहला हिस्सा... यहाँ यह बता देने का लोभ संवरण भी नही कर पा रहा कि इस्लाम सर की इस किताब में गुरु गोलवलकर की किताब का जो मूल पाठ लगा है उसका भी अनुवाद साथ में ही कर रहा हूँ...काम दिसंबर तक पूरा होने की योजना है और उसके बाद वाणी प्रकाशन से छपने की उम्मीद)
राष्ट्र की परिभाषा
गोलवलकर के लिये राष्ट्र पांच निर्विवादनीय तत्वों- ‘देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा’ से बनता है।19 हालांकि, सावरकर की ही तरह उन्होंने भी संस्कृति को धर्म के साथ जोड़ा और इसे हिन्दुत्व कहा। इस प्रकार राष्ट्र का निर्माण करने वाले मूलतः चार तत्व थे। उनके अनुसार हिन्दू एक महान तथा विशिष्ट राष्ट्र थे क्योंकि, पहला तो यह कि हिन्दूओं की धरती हिन्दुस्थान में रहने वाले केवल हिन्दू यानि कि आर्य नस्ल के लोग थे20 और दूसरा यह कि हिन्दू एक ऐसी नस्ल से थे जिसके पास
‘एक ऐसे समाज की विरासत थी जिसके पास एक साझा रीति-रिवाज़, साझा भाषा, गौरव और विनाश की साझा स्मृतियां थीं, संक्षेप में यह एक समान उद्भव स्रोत वाली ऐसी आबादी थी जिसकी एक साझा संस्कृति है। इस प्रकार की जाति राष्ट्र के लिये एक महत्वपूर्ण अवयव है। यहां तक कि अगर वे विदेशी मूल के भी थे तो भी वे निश्चित रूप से मातृ नस्ल में घुलमिल गये थे और अनन्य रूप से इसमें एकीकृत हो गये थे। उन्हें मूल राष्ट्रीय नस्ल के साथ न केवल इसके आर्थिक-सामाजिक जीवन से अपितु इसके धर्म, संस्कृति तथा भाषा के साथ एकरूप हो जाना चाहिये, नहीं तो ऐसी विदेशी नस्लें कुछ निश्चित परिस्थितियों के तहत एक राजनैतिक उद्देश्य से एक साझा राज्य की सदस्य ही मानी जा सकती हैं; लेकिन वे कभी भी राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा नहीं बन सकतीं। यदि मातृ नस्ल अपने सदस्यों के विनाश या अपने अस्तित्व के सिद्धांतों को खो देने के कारण नष्ट हो जाती है तो स्वयं राष्ट्र भी नष्ट हो जाता है…नस्ल राष्ट्र का शरीर है, और इसके पतन के साथ ही राष्ट्र का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है।' 21
इस प्रकार सावरकर की ही तरह गोलवलकर भी नस्ली शुद्धता को हिन्दू राष्ट्र निर्माण का आवश्यक साधन मानते थे। नस्लों के मिलन या अंतर्संबंधों के लिये कोई जगह नहीं थी। तीसरा, हिन्दू धर्म और संस्कृति ने हिन्दू राष्ट्र को एक अद्वितीय पहचान दी। गोलवलकर के अनुसार--
‘हम वह हैं जो हमें हमारे महान धर्म ने बनाया है। हमारी जातीय भावना हमारे धर्म की उपज है और हमारे लिये संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हमारे सर्वव्यापी धर्म का उत्पाद है, इसके शरीर का अंग जिसे इससे अलग नहीं किया जा सकता…एक राष्ट्र एक राष्ट्रीय धर्म और एक संस्कृति को धारण करता है तथा उसे कायम रखता है क्योंकि ये राष्ट्रीय विचार को संपूर्ण बनाने के लिये आवश्यक हैं’22
गोलवलकर के समीकरण के अनुसार हिन्दू राष्ट्र की अंतिम अवयव संस्कृत भाषा है। यह राष्ट्र की संस्कृति, धर्म, इतिहास एवं परंपराओं को प्रतिबिंबित करती है। हिन्दू राष्ट्र केसम्पूर्ण विचार में संस्कृत भाषा कितनी केन्द्रीय है इसे गोलवलकर के निम्न शब्दों से समझा जा सकता है-
‘हर जाति अपने देश में रहते हुए अपनी ख़ुद की भाषा विकसित करती है जिससे इसकी संस्कृति,इसके धर्म, इसके इतिहास और इसकी परंपराओं का प्रतिबिंबन होता है। इसे किसी दूसरी भाषा से प्रतिस्थापित करना ख़तरनाक है। यह जातीय भावना की अभिव्यक्ति है, जीवन के राष्ट्रीय वही गुंजलक की अभिव्यक्ति। हर शब्द, अभिव्यक्ति का हर भाव राष्ट्रीय जीवन को प्रदर्शित करता है। यह सब जाति के अस्तित्व के साथ इतना अंतर्गुंफित होता है कि ये दोनों बिना किसी विनाशकारी परिणाम के अलग-अलग नहीं किये जा सकते। एक राष्ट्र से उसकी भाषा छीन लो-इसका पूरा साहित्य उसके साथ छिन जायेगा और इस प्रकार राष्ट्र के अस्तित्व का अंत हो जायेगा।23
बहरहाल, गोलवलकर जानते थे कि भारत में अनेक भाषायें हैं। ‘भाशायें’ कुछ कठिनाई पैदा करती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि इस देश में हर प्रांत की अपनी एक भाषा है। ऐसा लगता है कि यदि भाषाई एकता आवश्यक है तो यहां एक नहीं अपितु भाषाई विभेदों से विभाजित अनेक देश हैं।24 इस वास्तविकता का सम्मान करने की जगह गोलवलकर निम्न शब्दों में संस्कृत की भूमिका के महिमामण्डन को वरीयता देते हैं, जो उनके पूर्वाग्रहित तथा गैर अकादमिक रवैये को ही प्रदर्शित करता है ;
‘लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यहां केवल एक भाषा है, संस्कृत, बाकी अनेक भाषायें जिसकी उत्पाद मात्र हैं, मातृभाषा की पुत्रियां। देवभाषा संस्कृत हिमालय से दक्षिण के महासागर तक, पूरब से पश्चिम तक एक समान है और सभी आधुनिक सहभाषायें इससे इतनी अधिक अंतर्संबंधित हैं कि मोटे तौर पर वे एक ही हैं’।25 भारत के भाषाई परिदृश्य के मूलभूत और आवश्यक तत्वों को पूरी तरह नकारते हुए गोलवलकर यह निष्कर्ष देते हैं कि ‘इस प्रकार अपनी वर्तमान स्थितियों में राष्ट्र की आधुनिक समझ लागू करते हुए जो अप्रश्नेय निष्कर्ष हमारे सामने आता है वह यह है कि इस देश,हिन्दुस्थान में हिन्दू जाति अपने हिन्दू धर्म,हिंदू संस्कृति और हिन्दू भाषा (संस्कृत का स्वाभाविक परिवार और उसकी व्युत्पत्तियां) राष्ट्रीय अवधारणा को परिपूर्ण करती हैं।‘26
यह रोचक है कि हिन्दू राष्ट्र के अवयवों में संस्कृत को शामिल करते हुए गोलवलकर इसे ‘हिन्दू’ भाषा घोषित करते हैं। इतिहासकारों ने पाया है कि संस्कृत का प्रयोग बहुत कम लोगों, ख़ासतौर पर ब्राह्मणों द्वारा ही किया जाता था और वह कभी भी जनसाधारण की भाषा नहीं रही।27
गोलवलकर यह तथ्य छिपा रहे थे कि संस्कृत को हिन्दू राष्ट्र का आवश्यक अवयव बनाकर वह इसे दलितों और अछूतों की पहुंच से बाहर कर केवल उच्च जाति के हिन्दुओं के लिये आरक्षित कर रहे थे। अठारहवीं सदी के भारत में संस्कृत बोलने की हिम्मत करने वाले असवर्ण लोगों के हश्र के बारे में बताते हुए अंबेडकर ने लिखा ‘मराठा शासन (जिसे गोलवलकर और संघ पुनर्स्थापित करना चाहते हैं) के अंतर्गत ब्राह्मणों के अलावा किसी के भी वेद मंत्रों के पाठ करने पर उसकी जीभ काट लिये जाने का प्रावधान था और यह तथ्य है कि कई सुनारों की जीभ पेशवा के आदेश से काट दी गयी क्योंकि उन्होंने क़ानून के ख़िलाफ़ वेदोच्चारण किया था।28 एक दलित नायक अंबेडकर ही नहीं थे जिन्होंने इस हक़ीक़त का पर्दाफ़ाश किया था। बंगाल में राष्ट्रवाद के अग्रणी नेता विपिन चन्द्र पाल ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया था कि हिन्दू नियमों के तहत कोई ग़ैर ब्राह्मण वेदों को पढ़ना और व्याख्यायित करना तो छोड़िये उसके पवित्र शब्दों का उच्चारण भी नही कर सकता था। उनके अनुसार कोई अब्राह्मण ब्राह्मणों से सामाजिक बराबरी करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।29
गोलवलकर का यह दावा भी तथ्यों पर आधारित नहीं है कि संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। भारत में तमिल तथा मलयालम जैसी भाषायें हैं जो संस्कृत से पुरानी हैं और जिनके पास महान साहित्यिक विरासत है। वस्तुतः संस्कृत को हिन्दू राष्ट्रवाद के पांच आवश्यक अवयवों में से एक घोषित करके वह संस्कृत भाषा न बोलने वाले भारत के एक बड़े क्षेत्र और हिन्दुओं की एक बड़ी आबादी को भारतीय राष्ट्र से बाहर रख रहे थे। दरअसल, गोलवलकर के नेतृत्व में संघ ने जल्द ही महसूस किया कि संस्कृत के मिथक का प्रतिसाद नहीं मिल रहा और उन्हें हिन्दू राष्ट्र के संघटक अवयव के रूप में हिन्दी पर आना पड़ा जिसने आगे चलकर नये सवाल खड़े किये।
references
19 - देखें गोलवलकर की 1939 में नागपुर के भारत पब्लिकेशन से प्रकाशित किताब ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाईण्ड’ का पेज़ 39
20 - वही, पेज़ 6
21 - वही, पेज़ 21
22 - वही, पेज़ 22-23
23 - वही, पेज़ 26
24 - वही, पेज़ 43
25 - वही, पेज़ 43
26 - वही, पेज़ 43
27 -विकिपीडिया की वेबसाइट के अनुसार केवल 2006 में दुनिया भर में केवल 6106 लोग धाराप्रवाह संस्कृत बोल सकते हैं।
28 -देखें ,‘डा बाबा साहब अंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज़’ खण्ड -12 में ‘मनु एण्ड द शूद्राज़’ का पेज़ 721, महाराष्ट्र सरकार द्वारा 1993 में प्रकाशित
29 -देखें, विपिन चन्द्र पाल की किताब ‘बिगिनिंग आफ फ़्रीडम मूवमेण्ट इन इण्डिया’, पेज़ 122-124, प्रकाशक- युगयात्री, कोलकाता, वर्ष-1959
बहुत सहज अनुवाद है. किताब का व्यग्रता से इंतज़ार है.
जवाब देंहटाएंइस महत्वपूर्ण काम के लिए शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंइस जरूरी किताब का अनुवाद करके आप महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं. शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंमैं समझता हुं कि यह एक बेहद ज़रूरी काम आप कर रहे हैं. दर असल क़ायदे से राष्ट्र के बारे में हमारी कोई स्वाधीन सोच बन नहीं पायी है, ख़ास तौर पर हिन्दुस्तान जैसे मुल्क के सन्दर्भ में. अगर इस किताब और आपके प्रयास से एक सार्थक बहस और तसल्लीबख़्श नतीजा निकल सके तो बहुत अच्चा होगा
जवाब देंहटाएंये बढ़िया काम होगा ...इस वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड से हमारा काफ़ी पाला पडा है छात्र जीवन की राजनीति में...उत्सुकता रहेगी.
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