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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

स्त्री आत्मकथायें और देह

यह आलेख हमें पिलानी से वंदना शुक्ला ने भेजा…असहमति के तमाम बिंदुओं के बावज़ूद लेख तमाम सवाल उठाता हैं

स्वातंत्र्य ‘’एक  ज्वलंत प्रश्न एक अहम मुद्दा!

-तथाकथित ‘’पि्तृसत्तात्मक समाज’ जिसे संभवतः  पुरुष सत्तात्मक समाज कहना अधिक उचित होगा, के  परिप्रेक्ष्य  में पुरुष भले ही अलग अस्तित्व हो लेकिन स्त्री के प्रति  सोच का जहाँ सवाल है वह एक ‘’समूह’’है! 
    
आज’’नारी स्वातंत्रय’’के कसीदे पढ़े जाते हैं ,''नारी मुक्ति का युग प्रारम्भ'' कि घोषणा की जाती है यदि ऐसा है भी तो वो इसलिए कि ये वर्तमान समय की मांग है जहाँ आधुनिकता की होड़ (रहन सहन से शिक्षा तक)में स्त्री का घर से बाहर निकल नौकरी करना एक ज़रूरत हो गई है ,लेकिन इस बदलाव का नारी के प्रति पुरुष कि पारंपरिक धरना में तब्दीली आई है .शायद कहना गलत होगा!

कहा जाता है कि युग परिवर्तन में कलम एक हथियार का काम कर सकती  है जिसके प्रयोग से धारणाएं और किंवदंतियाँ बदली जा सकती हैं!इसी ‘’युग परिवर्तन’’के इस दौर में कुछ हिंदी लेखिकाएं साहित्य परिवेश में मील का पत्थर कही जा सकती हैं!

इन्ही  जुझारू और साहसी महिला लेखिकाओं में सबसे पहला नाम आता है ''कमला दास'' का, जिनकी  ''माय स्टोरी''नामक आत्मकथा लिख ,तब बाकायदा '' विवादस्पद लेखन'' की श्रेणी में मानी गई थी !  आत्मकथा से साहित्य जगत में एक हडकंप सा मच गया था  ! उनके लिए लिखा गया'' The book faced several controversies as it contains some frank discussion from the author about her quest for love inside and outside the marriage.In this book kamaladaas had written about the then society and its conventional conservativeness. ‘’ तदुपरांत धीरे धीरे अंदर कि कुलबुलाहट बाहर आने के लिए मार्ग खोजने लगी इसी का अनुसरण करते हुए धीरे ही सही ‘’आत्मकथाओं’’का चलन प्रारंभ हुआ ! ‘’रेत कि मछली से होते अमृता प्रीतम के ‘’रसीदी टिकट और फिर नया दौर ''आत्मकथाओं का '' !

अम्रता प्रीतम के जीवन में अत्यंत विसंगतियां रहीं!वो एक खूबसूरत महिला थीं!''She surely might have faced the allegations that behind her success,her beauty was the main reason.(यह भी माना गया )

‘’और उसके बाद अब तक अनेक ‘’आत्मकथाएं/कहानी /उपन्यास /आलेख नारी मुक्ति या नारी स्थिति को उजागर करते लिखे गए!  गईं,लेकिन कम ही ऐसी आत्मकथ्य थे जो निर्भय और सत्य लिखे गए !एक लेखिका ने टिप्पणी कि ‘’अधिकांश मशहूर स्त्रियों कि आत्मकथाएँ उनके बाहरी अस्तित्व का,फ़िज़ूल कि सूचनाओं का और रोचक प्रसंगों का लेखा जोखा भर है ...पीड़ा के क्षणों के बारे में वो बिलकुल खामोश हैं’’!’’ संभवतः इसकी ठोस वजह  उनके भीतर अन्तर्निहित  एक पीढ़ीगत  झिझक और भय  रहा,सामाजिक विरोध का,तिरस्कार का,यहाँ तक कि पारिवारिक जीवन में दरार आने का !,बहीं पुरुष लेखकों के सामने इस तरह का कोई भय कोई कुंठा नहीं आई(विशेषकर आत्मकथ्य लिखने में!

सुप्रसिद्ध  लेखिका ‘’कमला दास,कुर्तुएल हैदर,से लेकर कृष्ण सोबती,मन्नू भंडारी और अब मैत्रेयी पुष्पा तक को पढकर ये बात स्पष्ट हो जाती है !

हिंदी कि एक स्थापित लेखिका ने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में एक कहानी लिखी थी जो उनका संस्मरण ही थी उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि ‘’ये एक आप बीती है यद्यपि मैं जानती हूँ कि इसे पढकर मेरा चार वर्षीय वैवाहिक जीवन संकट में आ सकता है लेकिन मैं इसके द्वारा स्त्रियों को सचेत करना चाहती हूँ,ताकि वो ये न भोगें जो मुझे भोगना पड़ा ''‘’तात्पर्य यही कि पीढ़ी दर् पीढ़ी गुलामी की यातना भोगती नारी और उसी के भीतर मुक्ति कि कुलबुलाहट जो इस कदर उफनती है कि सारी वर्जनाएं,नियम,बंदिशें तोड़कर फूट पड़ती है एक लेखनी के माध्यम से ,पर कितनी डरी हुई कितनी सहमी!

कृष्ण सोबती .के ज़िक्र के बिना तत्कालीन साहसी महिला लेखिकाओं पर लिखने का मकसद .पूरा नहीं होगा!उनकी क्रियाशीलता और लेखन में एक इमानदारी और सच्चाई के दर्शन होते हैं!उनका मानना था''you can take liberties with yourself only if you creat a large space for yourself...A vast sky....

कभी कभी ‘’आपबीती’’न होकर भी नारी लेखिकाएं बरसों से भीतर दबी कुंठाओं को मुखर करती रही हैं अपनी रचनाओं के माध्यम से ! 

स्त्री विमर्श ‘’संदर्भित कहानी आलेख में कुछ लेखिकाएं जो हिंदी साहित्य की अग्रणी महिलाएं हैं उनकी कहानियां/उपन्यास /आलेख  अत्यंत सारगर्भित और महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कहे जा सकते हैं जैसे ‘’मात्र देह नहीं औरत ‘’....(मृदुला सिन्हा )!’’आम औरत जिंदा सवाल’’(सुधा अरोड़ा)....’’औरत अपने लिए’’(लता शर्मा ).....’’जीना है तो लड़ना सीखो’’(वृंदा करत)....’’इस्पात में ढलते स्त्री’’(शशिकला राय)...’’स्त्री का आकाश’’(कमला सिंघवी )....आदि!

वर्ज़नाओं और चुप्पियों की जटिल दुनियां के बीच.स्त्री पुरुष रिश्तों के बहुत महीन और नाज़ुक मसलों  पर भी कहानिया लिखी गईं जिनमे प्रसिद्द लेखिका प्रतिभा राय कि कहानी ‘’मोक्ष’’है! मार्मिक और दिल को सुकून और ताजगी देती कहानी...ज़ख्म पर मरहम लगती...एक अंश ‘’इंसानों के बीच ऐसे कई रिश्ते होते है हैं जो अनकहे रह जाते हैं लेकिन अनजाने नहीं रहते! मुहं से सिर्फ अभिव्यक्त नहीं किया जाता इंसान के हाथ पैर भी बात करते हैं!’’

युग महिला...कृष्ण सोबती ,जिन्होंने हिंदी साहित्य को एक ताजगी दी है ‘’!जिनके उपन्यास और कहानियां हिंदी साहित्य कि एक अमूल्य धरोहर मानी जाते है ‘’एय लड़की’’...मित्रों मरजानी’ डाल से बिछुड़ी’’हिंदी साहित्य जगत के प्रसिद्द उपन्यास,.....एक कहानी ‘’टीलो टीलो’’का एक अंश ‘’इन दिनों खेलने वाले लोग हारने  वालों का साथ नहीं देते !जीतने वालों के हक में लकीरें खींचते हैं!उन्हीं का गुण गान करते हैं!’’जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का एक कड़वा सच..!

हिंदी जगत से अलहदा यदि उर्दू में देखें तो सर्वोपरि सर्व सम्मत से उत्कृष्ट लेखिका ‘’इस्मत चुगताई’’का नाम ही ज़ेहन में आता है !किसी ने कहा है’’उर्दू अदब में एक दुस्साहसी स्त्री का नाम खोजना हो तो इस्मत चुगताई ...उनकी बेबाक बयानी ,चाहे स्त्री मुद्दों पर हो या कुरीतियों पर उनका बेबाक लेखन स्त्रियों के हक में बुलंदी से आवाज़ उठता और उनके हालातों को बखूबी उजागर करता !
इस्मत चुगताई ४ बहनें और ६ भाई थे!''उनके अनुसार यही वजह थी कि मुझे आपने भाइयों के साथ घुलने मिलने का मौका मिला जिससे मेरे लेखन में एक खुलापन (फ्रेंकनेस)आई !उनकी जागरूकता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वो पहली मुस्लिम महिला थीं जिन्होंने स्नातक उपाधि हासिल की थी इतना ही नहीं उन्होंने ''प्रोग्रेसिव रायटर्स ऑफ़ एसोसिएशन ''कि बैठक अटेंड की थी!''उन्होंने उसी वक़्त बैचुलर ऑफ़ ''एज्युकेशन''कि डिग्री भी हासिल की!कहने का मकसद सिर्फ इतना कि आज के समय में ये सब सामान्य घटनाएँ हैं लेकिन जिस काल कि बात की जा रही है वो भी एक मुस्लिम परिवेश में वो एक मिसाल से कम  नहीं और यही प्रोग्रेसिवनेस उनके लेखन की एक न सिर्फ विशेषता है बल्कि अन्य लेखिकाओं से उनको अलग भी करती है!

हिंदी लेखिकाओं में जो एक और नाम साहित्य आकाश में तारे कि तरह जगमगाता है वो है प्रसिद्द लेखिका मन्नू भंडारी !बकौल मन्नू जी ‘’मेरी अधिकतर कहानियां वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं!प्रसिद्द फिल्म ''रजनीगंधा''उनके उपन्यास ''यही सच है ''पर आधारित है !अपनी एक कहानी में वो कहती हैं ‘’पुरुष हमेशा से अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप स्त्री को अपनी जिंदगी ढालने के लिए बाध्य करता है अपना यह लक्ष्य फिर वह चाहे जैसे साधे-प्यार से या प्यार से साधकर ही रहता है!उनकी हाल में ही आई आत्मकथा ‘’एक कहानी यह भी’’काफी चर्चित रही है!मन्नू भंडारी को ‘’कहानी आन्दोलन कि प्रमुख स्तंभ कहा गया है !

इसी क्रम में प्रख्यात और बेबाक ,स्त्रियों कि दशा को दिशा देती लेखिका //मैत्रेयी पुष्पा ‘’का नाम लेना ज़रूरी है!’’आत्म कथाएं समाज कि सच्ची कथाये ‘’में उन्होने लिखा’’समाज के पारंपरिक  मिजाज़ के बिगड जाने कि परवाह रचनाकार करते तो,परिवर्तनकारी रचनाओं का ज़न्म कैसे होता?

उनका एक कथन जो मुझे काफी सटीक लगा कि.’’सम्बन्ध सापेक्ष जगत में अपनी जिंदगी कि हकिक़तों को कहानी या उपन्यास का झूट बनाकर पेश करने में न मर्यादा द्वस्त होती है,न न इज्ज़त जाती है.!,’’संभवतः इसीलिए महिलाएं आत्मचरित्र लिखने से परहेज़ करती हैं!

मैत्रेयी जी ने अपना एक अनुभव बताते हुए लिखा कि ‘’’ मेरी कहानियों और उपन्यास को पढकर ..स्त्रियों के फोन आने लगे ‘’आप इतना खुलकर कैसे लिखती हैं?और ‘’आपके कथा संग्रह या उपन्यास घर में रखना हमारे पुरुषों को पसंद नहीं “”उनका ये अनुभव  समाज में प्रचारित  स्त्री स्वातंत्र्यकि खोखली उदघोश्नाओं और शायद संभावनाओं को ध्वस्त/खारिज  कर देता है.

कुल मिलकर यही,कि आर्थिक ,और राजनैतिक युग परिवर्तनकारी बदलाव के कारन जो सामाजिक परिवर्तन द्रष्टिगत होते हैं,वो सिर्फ स्थितिजन्य परिवर्तन हैं (नारी स्थिति के सन्दर्भ में),न कि स्त्री के प्रति पुरुष कि पारंपरिक सोच में बदलाव के चिन्ह !अंत में .... ‘’देश के एक वरिष्ठ पत्रकार  ,और एक प्रमुख अखबार के पूर्व संपादक का साक्षत्कार पढ़ा था लिखा था  ‘’इंदिरा गांधी बचपन में गूंगी गुडियों कि फ़ौज बनाकर लड़ा करती थीं !जब वो प्रधान मंत्री बनीं तो उन्होंने अपने आसपास गूंगे लोगों कि फ़ौज खड़ी कि ,ऐसे लोग जो उनके खिलाफ बोल नहीं सकते थे !या जो अपनी खुद कि केपेसिटी में कुछ नहीं कर सकते थे वही एक सर्वोच्च नेता रहीं!बचपन के जो खिलौने होते हैं वो बाद में हमारे औजार बनते हैं!जिससे हम चीजों को हेंडल करना सीखते हैं!

उनका यदि ये कथन तत्कालीन  स्त्री महिला प्रधान  मंत्री पर कटाक्ष है तो   एक ही प्रश्न उभरता है कि ‘’मौजूदा स्थिति’’को वो क्या नाम देंगे?

मैत्रेयी जी के शब्दों में ‘’सत्य के चेहरे के मुकाबले मुलम्मे सदा जी कमज़ोर पड़ते हैं !
बहरहाल,नारी देह पर केंद्रित राजनीती का वक़्त कब पूरा होगा कहा नहीं जा सकता !

-- 

वंदना शुक्ला

12 टिप्‍पणियां:

  1. बाकी तो सब ठीक है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इंदिरा गांधी वाले उदाहरण से लेख को कोई दिशा मिली हो | संपादक का विचार नारीवाद पर तो नहीं लगता |

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  2. बाकी तो सब ठीक है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इंदिरा गांधी वाले उदाहरण से लेख को कोई दिशा मिली हो | संपादक का विचार नारीवाद पर तो नहीं लगता |

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  3. आपके प्रश्न का उत्तर तो स्वयं आप अर्थात स्त्री के पास ही है वंदना जी!

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  4. नीरज जी…यह आलेख जनपक्ष का नहीं … एक पाठक द्वारा भेजा गया है। मैने पहले ही कहा कि यह इस मुद्दे पर बहस के लिये है।

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  5. कुछ साफ़ नहीं हो रहा है लेख...

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  6. देह इच्छा से, इच्छा सोच/विचार से और सोच/विचार दूसरे शब्दों में आत्मकथ्य होते हैं. यदि हम आत्म-चरित पर लिखेंगे तो देह तो इसमें होगा ही. चाहे वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष. आलेख इसके पक्ष में है विरोध में यह स्पष्ट नहीं हो रहा. पुरुषों ने देह पर सार्थक/निरर्थक दोनों खूब लिखा है लेकिन वर्णित स्त्री लेखिकाओं ने यदि देह पर लिखा है तो उसमे सार्थकता ही रही. जो उन्हें इस मुद्दे पर सही ढंग से प्रस्तुत करती है.

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  7. देह इच्छा से, इच्छा सोच/विचार से और सोच/विचार दूसरे शब्दों में आत्मकथ्य होते हैं. यदि हम आत्म-चरित पर लिखेंगे तो देह तो इसमें होगा ही. चाहे वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष. आलेख इसके पक्ष में है विरोध में यह स्पष्ट नहीं हो रहा. पुरुषों ने देह पर सार्थक/निरर्थक दोनों खूब लिखा है लेकिन वर्णित स्त्री लेखिकाओं ने यदि देह पर लिखा है तो उसमे सार्थकता ही रही. जो उन्हें इस मुद्दे पर सही ढंग से प्रस्तुत करती है.

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  8. हाँ, ये सच है कि लेख में कुछ अस्पष्टता है, पर मेरे विचार से लेखिका ये कहना चाहती हैं कि स्त्री-साहित्यकारों ने समय-समय पर अपने जीवन के उन सत्यों को उद्घाटित करने का प्रयास अवश्य किया है, जो उन्होंने स्त्री होने के कारण झेले हैं, पर ये सच वो लेखिकाएं पूरी तरह से निर्द्वन्द्व होकर स्पष्ट रूप में नहीं कह पायी. इसका कारण जहाँ एक ओर उनकी स्वाभाविक झिझक थी, जो स्त्रियों के सामाजीकरण के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व में बुन दी जाती है (जैसे कि स्त्री लज्जाशील होती है, अंतर्मुखी होती है, कोमल होती है) वहीं दूसरी ओर उनके परिवार के अंदर और समाज में अपनी छवि के मलिन होने से सम्बन्धित भय रहा है. इस भय का कारण यह है कि औरत भले ही पहले की अपेक्षा अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में खुली हो, पर उन्हें लेकर पुरुष मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. वे अब भी एक स्त्री को लेखक ना मानकर स्त्री-लेखिका मानते हैं.
    इसका एक बड़ा उदाहरण है कि यदि एक पुरुष लेखक अपने व्यक्तिगत जीवन की अंतरंग बातों को सहज ही अभिव्यक्त करता है, तो उसे उसकी बेबाक बयानी माना जाता है और एक स्त्री लेखक अगर अपने अंतर्वैयक्तिक संबंधों की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए भी कोई अंतरंग बात लिखती है, तो हाय-तौबा मच जाती है.
    संक्षेप में, एक स्त्री स्वयं अपनी शर्म-झिझक से उबरकर अगर कुछ अभिव्यक्त करना चाहे तो पुरुषप्रधान समाज का डर उसे ऐसा नहीं करने देता.

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  9. एक और बात. लेख का नाम अगर 'स्त्री लेखिकाओं की आत्माभिव्यक्ति' होता तो ज्यादा अच्छा था.

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  10. स्त्रियों पर जितनी भी बहस होती है उस का बहुत बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय स्थितियों में जाया होता है। जहाँ महिलाएँ कामकाजी नहीं होती थीं और अब उन्हें निकलना पड़ रहा है। लेकिन देश की आबादी के बहुसंख्यक हिस्से की महिलाएँ सदैव से कामकाजी होने को बाध्य रही हैं। उन के बारे में बहुत कम लिखा गया है। इन दिनों मेरे मकान का काम चल रहा है। वहाँ कल छह महिलाएँ काम पर थीं, सभी अनुसूचित जाति से थीं। उन में 17-18 वर्ष की दो अविवाहित लड़कियाँ भी थीं। ये सभी दिन भर मसाले की तगारियाँ और पत्थर ढोती थीं। दिन भर के श्रम के बाद उन का चूल्हा जलता है। आज वहाँ काम बंद रहा होगा। तब वे या तो बेरोजगार रही होंगी या फिर कहीं और उन्हें काम की तलाश में जाना पड़ा होगा। यदि काम मिल गया होगा। न मिला होगा तो घर पर चूल्हे का क्या हुआ होगा? प्याज किसी समय गरीबों का साथी था। लेकिन आज वही शहर में साठ रुपए किलो था।
    ये सब महिलाएँ क्यों साहित्य और चर्चा में कभी नहीं होतीं?

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  11. जी अभी आप सभी के मत मैंने पढ़े धन्यवाद !सबसे पहले मैं आपको बता दूँ की इस लेख का नाम ''स्त्री स्वातंत्रय''''''ही है!दूसरा,मुक्ति जी निवेदन करना चाहती हूँ ,की ये लेख अपूर्ण है भेजा गया हिस्सा (संभवतः भूलवश )नहीं लगाया जा सका है मै क्षमा चाहती इस भूल के लिए !इस वषय में मेरा मानना यही है की सदियों से व्याप्त मानसिकता को बदलना आसान नहीं होता,(पुरुष दंभ और स्त्री कुंठा की)दूसरे..स्त्री के प्रति .समाज की इस जमी हुई मानसिकता को मुट्ठी भर लेखिका या स्वयं सेवी संस्थाएं या प्रगतिशील संघ नहीं बदल सकते ,तब जबकि जीवन की अन्य विषमताएं इन विषयों से अधिक जटिल हों (जैसा की दिनेश जी के उदाहरण से स्पष्ट है!)
    !वर्णित लेखिकाओं के अतिरिक्त भी महिला स्वातंत्रय से सम्बंधित मुद्दों पर जब भी लिखा गया उन्हें पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा !(मत्रेयीजी का कथन देखिये )...और यदि और टिपण्णी देखना चाहें तो विभूतिनारायण जी के उदगार पढ़िए जो उन्होंने ''अश्लीलता की सीमा पार करने तक ''महिला लेखिकाओं के लिए प्रकट किये !अतः मैं यही कहना चाहती हूँ की सवाल भय या संकोच का नहीं है !प्रश्न यही की मात्र पुरुष मानसिकता पर क्रोधित या दुखी होना इस का हल नहीं !आज चित्र मुद्गल जी के ''तहखानों में बंद अक्स '' की संत समीर जी द्वारा लिखी समीक्षा पढ़ी! एक अंश ...."प्रश्न कुछ इस तरह कि हताशा की जगह सरोकार जगाते हैं हल तलाशने का आवेग देते हैं !वर्जनाएं अजब तो उसे तोड़ने का उद्दाम आवेग भी अजब ...! !

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  12. अशोक जी,
    क्षमा करें,
    संपादक से मेरा मतलब उससे से था जिसका जिक्र वंदना जी ने अपने लेख में किया है, 'देश के वरिष्ठ पत्रकार और एक प्रमुख अखबार के पूर्व संपादक', जनपक्ष के संपादक से नहीं |

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