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शनिवार, 14 मई 2011

अज्ञेय, यशपाल वाया ओम थानवी....वगैरह-वगैरह

प्रतियों के लिए संपर्क करें 09871403843, सदस्यता (वार्षिक) - रु 150, छात्रों के लिए रु 100


पंकज बिष्ट का यह आलेख समयांतर के ताज़ा अंक में छापा है. अज्ञेय कों लेकर जिस तरह जनसत्ता में व्यक्तिपूजा के जोश में कुतर्कों और अर्धसत्यों के सहारे एक 'बहस' चलाई गयी, उसके बरक्स यह लेख अज्ञेय की साम्राज्यवादी तथा साम्प्रदायिक भूमिका की पडताल करता है. हम इस बहस में सभी पक्षों के सार्थक हस्तक्षेप का सवागत करते हैं. अज्ञेय पर कुछ और आलेख यहाँ देखे जा सकते हैं .इस लेख में अज्ञेय के रघुवीर सहाय द्वारा लिए गए जिस साक्षात्कार का ज़िक्र किया गया है, उसे अगली किश्तों के क्रम में ही प्रकाशित किया जाएगा.

अज्ञेय की विधवाएं और उनका क्रंदन (भाग-१)

इस टिप्पणी को, जो वास्तव में जवाब है, जनसत्ता में भेजा जाना चाहिए था। पर चूंकि मैं नवें दशक के अंत में हुए रूपकुंवर सती कांड में जनसत्ता द्वारा सती प्रथा का समर्थन करने के विरोध में और तब तक, जब तक कि जनसत्ता इसके लिए माफी न मांगे, वहां न लिखने का फैसला करनेवाले सौ लेखकों में से एक था, पिछले दो दशकों से वहां लिखता नहीं हूं, इसलिए इसे समयांतर में छापने की मजबूरी है।

समयांतर के अधिसंख्य पाठकों को, जिन्होंने जनसत्ता नहीं देखा होगा, यह बतलाना जरूरी है कि अखबार के संपादक ओम थानवी ने 27 मार्च के संस्करण में 'अज्ञेय के दिलजले' शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा था। यह लेख अजय सिंह के समयांतर के मार्च अंक में प्रकाशित लेख 'अज्ञेय जन्मशती: कुछ सवाल' के खिलाफ था। अगले ही रविवार को अखबार ने थानवी के पक्ष में और समयांतर व अजय सिंह की खिल्ली उड़ानेवाला लेख छापा, जो जापान से लक्ष्मीधर मालवीय का था। यह देखना मजेदार था कि जो जनसत्ता दिल्ली महानगर में ठीक से नहीं मिलता, वह जापान कैसे पहुंच गया? संभव है इधर उसका जापानी अंतरराष्ट्रीय संस्करण निकलने लगा हो! खैर, जहां तक अजय सिंह का सवाल है उन्होंने अपना जवाब दे दिया है और यह 17 अप्रैल के जनसत्ता में प्रकाशित हो चुका है। पर अभी भी कुछ ऐसी बातें हैं जिनका संबंध समयांतर और मुझ से तो है ही, साहित्य, साहित्यकारों की भूमिका और उनकी प्रतिबद्धता जैसे सवालों से भी है,रह गई हैं,इसलिए उनका स्पष्टीकरण जरूरी लगता है।

मुद्दे पर आने से पहले मैं इतना अच्छा चरित्र प्रमाण पत्र देने के लिए कि ''वे (पंकज बिष्ट) भले आदमी हैं...' जनसत्ता संपादक ओम थानवी का आभार प्रकट करना चाहूंगा। इसके बाद उनके मुझे ''...ठीक से कभी न समझ पाने'' और ''...पेचीदा संपादक।'' घोषित करने को ज्यादा तूल नहीं देना चाहता। ऐसे दौर में जब कि कोई आदमी हिंदी के महारथियों, संस्थानों और ओहदेदारों के बीच 'पर्सोना नॉन ग्राटा' बन चुका हो, उसके लिए तारीफ के तीन शब्द भी, वह भी इतने प्रतिष्ठित अखबार के संपादक द्वारा, क्या तीन ग्रंथों से कम माने जाएंगे? इसलिए यह तो स्वयं सिद्ध है कि ओम थानवी मुझ से ज्यादा भले सज्जन हैं।

पर असली मसला उन की आपत्तियों का है। इनमें पहली है कि मैं समयांतर में दो-तीन साल तक लगातार जनसत्ता की निंदा करते हुए यह ऐलान करता रहा कि अखबार बंद होने के कगार पर है।

निश्चय ही हम यह करते रहे, पर क्यों करते रहे यह बतलाया जाना भी जरूरी था, जो ओम थानवी ने नहीं किया। उस दौरान अखबार के दो संस्करण बंद हुए, एक मुंबई का और दूसरा चंडीगढ़ का। (गोकि इस बीच दो फ्रंचाइजी संस्करण और निकले हैं, पर उससे स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता ) इसके अलावा दिल्ली संस्करण के कई वरिष्ठ लोगों को निकाला गया। इस बात को भी दोहराने की जरूरत नहीं है कि अखबार के दिल्ली और कोलकाता संस्करण की स्थिति ऐसी बन गई कि अखबार कितना बिकता है यह अनुमान लगाने का मसला हो गया था। आज भी, कोलकाता की बात जाने दें, दिल्ली तक में यह अखबार आसानी से नहीं मिलता। न ही इसके प्रसार की कोई कोशिश नजर आती है। यानी इसे बस निकालने के लिए निकाला जाता है। हालत यह है कि मालिकों ने अखबार के दिल्ली कार्यालय को बहादुर शाह जफर मार्ग की बिल्डिंग से उठा कर नोएडा में पटक दिया है और एक्सप्रेस बिल्डिंग की उस जगह को नवभारत टाइम्स को किराए पर दिया हुआ है। साफ है कि मालिकों के लिए अखबार (हिंदी का?) नहीं बल्कि किराया ज्यादा अहमियत रखता हैऔर यह उनकी पुरानी आदत है। पर सत्य तो यह है कि आज भी स्वयं पूरे इंडियन एक्सप्रेस समूह को लेकर बाजार में रह-रह कर अफवाहें उड़ती रहती हैं कि संस्थान न जाने कब बिक जाए और किस को बिक जाए वगैरह-वगैरह।

और तब भी हमारी मंशा, वहां हो रही असामान्य उथल-पुथल को बताने के अलावा, यह कभी नहीं रही कि जनसत्ता बंद हो, बल्कि यह थी कि बंद न हो और इसका कोई भी कर्मचारी उस तरह न निकाला जाए जिस तरह उस दौरान 20-25 साल पुराने, जाने-माने पत्रकारों को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर दिया गया। हमारी यह भी इच्छा रही है कि हिंदी के अखबार कम से कम भारतीय अंग्रेजी अखबारों की तुलना में तो कमतर न साबित हों और 'भारतीय रेल ल्हासा जाएगी' या 'पृथ्वी चंद्रमा के चारों ओर घूमती है' जैसी गलतियां न करें और करें भी तो कम से कम उसे सुधारने की शालीनता दिखाएं! हमारी घोषित नीति अच्छे अखबारों का ही समर्थन नहीं है बल्कि कर्मचारियों, विशेष कर पत्रकारों - जिसमें संपादक भी शामिल है - की नौकरी की सुरक्षा और काम करने की आजादी का भी समर्थन है, इसे पत्रिका के पुनप्र्रकाशन के पिछले 11 वर्ष के किसी भी अंक से देखा जा सकता है। इस दायरे में हम अखबारी संस्थानों की आलोचना और समर्थन, जरूरत के हिसाब से करते हैं। इस पर भी हम जनसत्ता का समर्थन विशेषकर दो कारणों से करते हैं। एक, इसका संपादक पेशेवर है यानी वह मालिकों के परिवार से नहीं है, उसके सर पर कोई ब्रांड मैनेजर नहीं है यानी वह स्वतंत्रता पूर्वक एक संपादक की तरह काम करता है। दूसरा, यह साहित्य, विशेषकर हिंदी और कलाओं को महत्व देता है।

उपरोक्त पैरे में ही थानवी ने लिखा है ''... मेरा ही इंटरव्यू प्रकाशित करेंगे (साथ में नोम चोम्स्की का!) और इज्जत बख्शेंगे।'' उनका इशारा समयांतर के फरवरी अंक की ओर है। मैं, पेचीदा ही सही, एक संपादक के रूप में कहना चाहता हूं कि जिस भी लेखक को हम, चाहे जिस भी रूप में हो, प्रकाशित करते हैं वह हमारे लिए सम्माननीय होता है। यानी इसमें अतिरिक्त सम्मान या अपमान जैसी कोई बात नहीं है। इसके अलावा पाठकों के प्रति अपने दायित्व को निभाते हुए मुझे समयांतर में किसी भी व्यक्ति को छापने में कभी कोई आपत्ति नहीं है। हमारी कोशिश रहती है कि उन लोगों को, जिनसे हम सहमत नहीं हैं या जो पत्रिका की घोषित नीति के खिलाफ हैं, जरूरत पड़ी तो छापने में कोताही न हो। यह उदारता नहीं कर्तव्य निर्वाह है। इसलिए मैं सविनय कहना चाहूंगा कि हमने ओम थानवी का साक्षात्कार यूं ही नहीं लिया - संबंध बनाने या बिगाडऩे के लिए - बल्कि एक योजना के तहत, मीडिया विशेषांक के लिए हिंदी के एक विशिष्ट अखबार का संपादक होने के नाते, लिया था। मैं यह भी रेखांकित करने की इजाजत चाहूंगा कि यह साक्षात्कार नोम चोम्स्की के बरक्स नहीं बल्कि श्रवण कुमार गर्ग और शीतला प्रसाद सिंह के साथ हिंदी की दैनिक पत्रकारिता के संदर्भ में था। यह महज इत्तफाक है कि उनका साक्षात्कार चोम्स्की और शीतला प्रसाद सिंह के बीच में छपा है।

यह सब कहने के बाद मेरे लिए यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आखिर ओम थानवी ने अज्ञेय संबंधी विवाद में जनसत्ता को क्यों झोंक दिया? क्या अज्ञेय और जनसत्ता एक-दूसरे का पर्याय बन चुके हैं? समयांतर बनाम जनसत्ता विवाद में वह पहले ही स्वयं विस्तार से समयांतर में ही लिख चुके हैं। उनकी वकालत में हंस संपादक राजेन्द्र यादव भी उपस्थित थे। क्या ये दो अलग-अलग मुद्दे नहीं हैं? क्या मात्र इसलिए कि अज्ञेय-भक्त ओम थानवी जनसत्ता के संपादक हैं इसलिए दोनों के अंतर को खत्म माना जाए? क्या किसी को अज्ञेय का, ओम थानवी की राय से अलग, मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है? आखिर ओम थानवी अज्ञेय को लेकर अपना आपा इस तरह क्यों खो बैठे कि दूसरों को 'कूढ़मगज' कहने तक पर उतर आए?

एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दैनिक के संपादक होने के नाते अगर वह समयांतर की बातों से सहमत नहीं थे तो, उनसे अपेक्षा थी कि वह अपने किसी रिपोर्टर को राष्ट्रीय अभिलेखागार भेजकर पता लगाते कि आखिर उस दौर के कागजात क्या कहते हैं? उनके पास संसाधनों की कमी नहीं है। पर दुर्भाग्य से उन्होंने अज्ञेय को लेकर जिस तरह की गैरजिम्मेदाराना मनोवृत्ति और भावुकता का प्रदर्शन किया वह गैरपेशेवराना तो है ही चकित करनेवाली भी है। थानवी लिखते हैं, ''उन्हें (यानी अज्ञेय को) जो लोग पढ़ते नहीं वे इला डालमिया को पढ़ बैठे हैं।'' खुद वह जो भी उद्धृत करते हैं वह आकाशवाणी के लिए रघुवीर सहाय और गोपाल दास द्वारा 1984 में किए गए लंबे साक्षात्कार से है। इस रेडियो जीवनी को प्रकाशन विभाग ने 1991-92 में छापा था। थानवी इस साक्षात्कार को परम सत्य मान कर चलते हैं। पर इला डालमिया ने 1998 में लिखे अपने लेख 'अज्ञेय की याद में' जो कहा है उसे लगभग यथावत अज्ञेय अपने बारे में पुस्तक में देखा जा सकता है। इस साक्षात्कार में अज्ञेय ने अपने बारे में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं जो उनकी जीवनी, जिसके बारे में बहुत कम लिखा गया है, और मानसिकता को समझने के लिए महत्वपूर्ण साधन है।

पर स्वयं अज्ञेय इसमें कई बातें नहीं कहते या फिर अधूरी छोड़ देते हैं। यह सायास है या अनायास, कहा नहीं जा सकता। पर संदर्भ महत्वपूर्ण है। जैसे कि अज्ञेय यह नहीं बतलाते कि वह भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जेल काटने के बाद सीधे आल इंडिया रेडियो में लगे थे तो कैसे लगे थे। यह बतलाती हैं इला डालमिया, '' जब वत्सल को जेल से छुट्टी मिली तो उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा इतनी फैल गई थी कि कॉलेजवालों ने कॉलेज में दाखिला देने से इंकार कर दिया। पर जेल से छूटने पर उनको ऑल इंडिया रेडियो का एक पत्र मिला। वहां से काम का आमंत्रण था। पंजाब के इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया जेनकिंस की सिफारिश पर ऑल इंडिया (रेडियो) ने यह कदम उठाया था। जेनकिंस के मन में इस साहसी युवक की सच्चाई के चरित्र की छाप पड़ चुकी थी।...'' (देखें:'अज्ञेय की याद में' इला डालमिया, इला पृ. 122, राजकमल प्रकाशन )।

अज्ञेय इस गुप्तचर अधिकारी से कितना अभिभूत थे इसे इला डालमिया की इस बात से समझा जा सकता है, ''वत्सल (अज्ञेय) ने मुझसे कहा कि यही व्यक्ति, जेनकिंस हिंदुस्तानी होता तो क्या होता?''

अज्ञेय ने अपनी जीवनी नहीं लिखी। जीवनी के बारे में उनका यह कहना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि ''...आत्मकथा लिखना कभी आसान नहीं होता, उपन्यास लिखना कम कठिन होता है।'' एक अन्य प्रश्र के जवाब में उन्होंने इसी पैरा में आगे कहा है, ''जिन लोगों ने मुझ से कहा उनमें ऐसे भी लोग थे जो कि ज्यादा लंबे समय तक इनके साथ रहे, जिनमें विमल प्रसाद भी एक हैं और दुर्गा भाभी यानी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी। उन्होंने कहलवाया था कि मैं क्यों नहीं लिखता हूं। तो मैंने उनसे पूछा कि 'आप क्यों नहीं लिखती हैं, आपका तो ज्ञान इसका मुझसे ज्यादा है, आपका अनुभव ज्यादा है। आप लिखें और तब कोई मुझसे पूछे तब मैं जो उत्तर दूंगा, उसकी स्थिति कुछ और होगी। और आप सब लोग चुप रहें और मैं लिखूं, तब तो उस पर विश्वास होने की संभावना कम होगी। इसलिए कि मैं ही सबसे ज्यादा वेध्य स्थिति में हूंगा इस मामले में।''

प्रश्न यह है कि आखिर अज्ञेय इन सारी बातों को लिखने से डरते क्यों थे? वह लेखक थे, न की दुर्गा भाभी। और लेखक भी कम प्रतिष्ठित नहीं थे। अगर लेखक का काम सच को सामने लाना नहीं है तो फिर क्या है? वह क्यों 'सेफ प्ले' करना चाहते थे क्या इसलिए कि जब दूसरे लिखें और कोई ऐसी बात हो जो उनके अनुकूल न हो तब ही वह बोलें अन्यथा चुप रहें? तथ्यों या कहना चाहिए सत्य के प्रति उनकी यह उदासीनता या अर्थ भरी चुप्पी, हैरान करनेवाली नहीं है? उपन्यास गल्प के माध्यम से सच का अनुसंधान है पर अगर कोई इसे सच को गल्प में बदलने के लिए इस्तेमाल करता है तो उसकी मंशा पर शंका करना नाजायज नहीं कहा जाएगा। आज कुल मिला कर स्थिति यह है कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी पर कोई भी आधिकारिक काम नहीं है। जिसकी मर्जी में जो आता है वह उस तरह से तथ्यों को व्याख्यायित करता है। इस संदर्भ में इस लेख के लेखक को भी अपवाद नहीं माना जा सकता।
'
'इला डालमिया के लेख से एक बात तो स्पष्ट है कि यह सारी जानकारी उन्हें अज्ञेय जी ने स्वयं दी होगी। क्या इससे साफ यह नहीं नजर आता कि जेनकिंस ने अज्ञेय को तोड़ लिया था अन्यथा रेडियो की ओर से उन्हें बुलाया जाना और फिर सीधे सेना में भर्ती करना, जहां वह तीन वर्ष रहे, अपने आप में अजूबा नहीं है? ये बातें मात्र अज्ञेय के संदर्भ में अकादमिक महत्व या रुचि की नहीं हैं बल्कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के बारे में और प्रकारांतर से स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी इतिहास को समझने के लिए भी लाभप्रद साबित होंगी। यह अपने आप में आश्चर्य की बात है कि अभी तक किसी भी शोधार्थी ने अज्ञेय के इस पक्ष की पड़ताल नहीं की है। मेरे विचार में कम से कम अब तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में उस दौर के दस्तावेज अवलोकनार्थ उपलब्ध होंगे। उन्हें देख कर जेनकिंस की भूमिका और अज्ञेय के सेना में जाने के सारे संदर्भों को समझा जा सकता है। इसके अलावा यशपाल को लेकर जो शंकाएं हैं उन्हें भी स्पष्ट करने में मदद मिलेगी।'' (देखें: 'अज्ञेय छवि और प्रतिछवि', पंकज बिष्ट,समयांतर, जून, 2010)

अज्ञेय ने अपने सेना में जाने के प्रसंग को जिस तरह से 'कैमोफ्लाज' किया है उसका एक और उदाहरण। सेना में भर्ती होने के लिए उन्होंने स्वयं आवेदन किया था और यह आवेदन इस विश्वास पर किया था कि ''अगर भारत की सीमा पर संकट आता है या शत्रु के इसमें प्रवेश करने की संभावना होती है, तो मैं उसकी रक्षा के लिए लडऩा चाहूंगा...।'' सेना ने उनके आवेदन की जांच के लिए उस पत्र को सीआईडी को भेजा। ''...सीआईडी के जो तत्कालीन अधिकारी थे, जिन्होंने हमारे केस की भी पड़ताल की थी, उन्होंने उनको (सैनिक हाई कमांड को - सं.) यही जवाब दिया था - बाद में उन्होंने स्वयं मुझे बताया कि हमने यह जवाब दे दिया था - कि हमारी स्थिति (औपनिवेशिक सरकार की -सं.) बहुत बुरी है, लेकिन इतनी खराब नहीं है कि इस तरह का जोखिम मोल लिया जाए, ऐसे आदमी को सेना में बुलाने का।'' (अज्ञेय अपने बारे मे, पृ.130)

यह अधिकारी कौन था?

इला डालमिया ने अपने संस्मरण में इस प्रसंग को इस तरह लिखा है: ''कुछ बरस बाद वत्सल भारतीय सेना में शामिल होना चाहते थे, तो इन्हीं जेनकिंस ने वात्स्यायन के बारे में कहा था कि यह युवक चरित्रवान है विश्वसनीय है। पर साथ ही यह भी पूछा था कि क्या अंग्रेज सरकार की हालत इतनी बिगड़ गई है कि उसे अपने विद्रोहियों के सहयोग की जरूरत पड़ रही है। जेनकिंस ने यह बात वत्सल को भी बतला दी थी। इस बात के आधार पर उस समय भारतीय सेना में वत्सल को स्थान नहीं मिला था।''

इस पैरे से ठीक पहले पैरे में इला डालमिया ने लिखा है, ''... जेल से छूटने पर उनको ऑल इंडिया रेडियो का एक पत्र मिला। वहां से काम का आमंत्रण था। पंजाब के इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया जेनकिंस की सिफारिश पर ऑल इंडिया (रेडियो) ने यह कदम उठाया था।'' (देखें इला, पृष्ठ 122)

यह क्या कुछ असामान्य नहीं है कि अज्ञेय के साथ इस गुप्तचर अधिकारी के (''जिन्होंने हमारे केस की पड़ताल की थी'') संबंध लगातार बने रहे। वैसे जेल के दौरान मृत्युदंड की संभावना की तलवार का लगातार सर पर मंडराना एक बड़ा घटक नहीं रहा होगा जिसके चलते अज्ञेय ने आत्मकथात्मक उपन्यास शेखर एक जीवनी लिखना शुरू किया था? क्या यह कहना गलत होगा कि अज्ञेय अपनी चिंतन प्रणाली में यथा-स्थितिवादी पहले से थे ही इसलिए उन्हें बाद में भी बुर्जुआ चिंतन प्रणाली से तालमेल बैठाने में और उन मूल्यों के प्रति समर्पित होने में कठिनाई नहीं हुई।
इस साक्षात्कार से एक और बात भी उभरती है कि कई अंग्रेज अधिकारियों से अज्ञेय के इस दौरान संबंध थे जैसे कि कर्नल शौर्ट, जो सेना में जाने से पहले क्रिप्स (क्रिप्स मिशन वाले -सं.) का प्राइवेट सक्रेटरी था। (अंदाज लगाईये उसके महत्व का! उसे सीधे पीए से कर्नल बनाया गया।) यह संबंध कैसे बने इस बारे में इस साक्षात्कार में कुछ नहीं कहा गया है और न ही इला डालमिया ने कुछ लिखा है। अज्ञेय ने इस प्रसंग में जो कहा है वह कुछ इस प्रकार है। इस सीआईडी अधिकारी के मिलने के 15दिन बाद उन्हें एक फोन आया जो एक सैनिक अधिकारी का था। उसके अनुसार इस बार सेना में भर्ती करने के लिए अज्ञेय की सिफारिश एक नये ही अंग्रेज अधिकारी यानी शौर्ट ने की थी? क्या यह माना जा सकता है कि सैनिक हाई कमांड ने सीआईडी की रिपोर्ट को इतनी आसानी से दरकिनार कर दिया होगा? या फिर यह उसी गुप्तचर अधिकारी जेनकिंस का कमाल था जिसके लिए ''यह युवक चरित्रवान'' और ''विश्वसनीय'' था?

यहां इस बात पर भी बात होनी ही चाहिए कि आखिर अज्ञेय ने, जो उससे कुछ पहले तक ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता को सशस्त्र क्रांति के माध्यम से उखाड़ फें कना चाहते थे, उस सत्ता को भारत का रक्षक कैसे मान लिया? वैसे भी उस दौरान राजनेताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा था, गांधी जिसका नेतृत्व कर रहे थे (यानी मुख्यधारा की राजनीति),जो मानता था कि अंग्रेजों को पहले भारत से निकल जाना चाहिए फिर वह फासीवाद के खतरे के बारे में सोचेंगे। क्या यह अकारण था? ब्रिटेन उस समय दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकत था और भारत के सर पर सवार था। जापान तो उसके सामने पिद्दी था। इसलिए कांग्रेस का यह तर्क था कि अंग्रेज उन्हें विश्वास में लिए बगैर युद्ध में कूदे हैं इसलिए वे जानें उनका काम जाने। वैसे भी पहले विश्वयुद्ध के दौरान ब्रितानवी औपनिवेशिक सत्ता का समर्थन करने का गांधी और देश का अनुभव कोई बहुत पुराना नहीं था। उधर सुभाष बोस भी जर्मन और जापान के साथ थे ही, जिनका सम्मान आज भी बरकरार है। इससे भी बड़ी बात यह है कि अंग्रेज लड़ाई में अपना देश और साम्राज्य बचाने की मंशा से कूदे थे न कि भारत को जापानी आक्रमण से बचाने के लिए।

जहां तक कम्युनिस्टों का सवाल है उन की वैश्विक मामलों की समझ और निर्णय की अज्ञेय के निर्णय से तुलना नहीं हो सकती। वह गलत हो सकती है, उससे असहमति भी हो सकती है, पर उनके अपने तर्क तो थे ही। पहला, यह किसी एक व्यक्ति का निर्णय न हो कर पार्टी का और विश्वव्यापी स्तर पर कम्युनिस्टों का निर्णय था। दूसरा, उनके लिए फासीवाद को हराना वैचारिक प्रतिबद्धता के अलावा वैश्विक साम्यवादी एकता को बचाने के लिए भी जरूरी था। दुनिया के पहले साम्यवादी देश पर हमला हुआ था और इससे पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन का अस्तित्व दांव पर था। सबसे बड़ी बात यह निर्णय पूरी तरह अत्यंत तात्कालिक और रणनीतिगत था। दूसरा महायुद्ध समाप्त होते-होते पश्चिमी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश व दुनिया भर के कम्युनिस्ट पहले की तरह ही एक-दूसरे के दुश्मन हो गए थे। अगले लगभग पांच दशक पूंजीवादी देशों ने सिर्फ साम्यवादी व्यवस्थाओं को उखाडऩे में लगाए थे, जो आज भी,उतनी प्रचंड न हो, पर जारी है। अज्ञेय भी कम्युनिस्टों के खिलाफ चली इस मुहिम में, जो आर्थिक,सांस्कृतिक और सामरिक हर मोर्चे पर चली और आज भी चल रही है, निज की स्वायत्तता, इयत्ता तथा स्वतंत्रता जैसे मसलों को आधार बना कर, अंतिम क्षण तक शामिल रहे।

गोकि यशपाल को लेकर जो बातें कही जाती हैं उन का उल्लेख यहां गैरजरूरी है, इसके अलावा उनके खिलाफ लगे आरोपों का खंडन करने का भी हमारा कोई इरादा नहीं है। पर रह-रह कर अज्ञेय के संदर्भ में यशपाल को इरादतन सामने लाया जाता है, उन लोगों का मुंह बंद करने के लिए, जो अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। जनसत्ता संपादक द्वारा जापान में बैठे लक्ष्मीधर मालवीय को अपना प्रकाशित लेख ही नहीं भेजना बल्कि समयांतर के मार्च अंक में छपा अजय सिंह का लेख भी भेजना, विशेष आग्रह कर के लेख मंगवाना ( ''प्रिय थानवी जी, मेरी आपसे प्रत्यक्ष भेंट न कभी हुई, और न भविष्य में होने की आशंका है, फिर आप क्यों मुझे लाल चादर दिखलाने की तरह कुछ न कुछ छपे हुए चिरकुट भेज दिया करते हैं।'' 'विष कहां पाया', लक्ष्मीधर मालवीय, जनसत्ता, 3 अप्रैल) और उसके साथ अपनी ओर से एक पुराने पत्र की प्रति छापना, जिसके अनुसार यशपाल ने मुखबरी की थी, इसका उदाहरण है। यहां ओम थानवी से पूछा जा सकता है कि अगर यशपाल औपनिवेशिक सत्ता की पुलिस के इतना नजदीक और उपयोगी थे तो फिर पुलिस वालों ने यशपाल को स्थापित करने में उस तरह की मदद क्यों नहीं की जिस तरह की उन्होंने अज्ञेय की की थी। (''जेल से छूटने पर उनको ऑल इंडिया रेडियो का एक पत्र मिला। वहां से काम का आमंत्रण था। '') कैसे उन्हें जेल से छूटते ही सीधे ब्रिटिश रेडियो में ले लिया गया? ऐसा तो आज भी नहीं होता। क्या भारत सरकार शौकत गुरू को जेल से छूटते ही सीधे आकाश वाणी श्रीनगर में कश्मीरी युनिट में लगा सकती है?

दो बातें इस तथाकथित पत्र के बारे में भी। यह पत्र, जहां तक पढऩे में आ रहा है, मार्च, 1947 का है। यानी तब का जब अंग्रेजों का बोरिया-बिस्तर लगभग बंध चुका था। चार महीने बाद अगस्त में तो वे चले ही गए। ऐसे में वह कौन अधिकारी रहा होगा जो एक ऐसे आंदोलन के मुखबिर को संभालने की बात कर रहा था, जो कब का खत्म हो चुका था? क्या ये पुलिस अधिकारी निपट मूर्ख थे या फिर आजाद भारत की सरकार को कम्युनिस्टों से बचाना चाहते थे या स्वयं भारत सरकार की सेवा करना चाहते थे?

अज्ञेय ने अपने साक्षात्कार में यशपाल प्रसंग पर कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। जैसे उन्होंने कहा है कि यशपाल को इसलिए हटा देने का फैसला लिया गया था क्योंकि वह पार्टी की उस लाइन से सहमत नहीं थे जिसके अंतर्गत भगत सिंह व उनके साथियों को जेल से झुड़वाने की कार्रवाही का प्रस्ताव था। इसी के चलते उनके साथ मतभेद बढ़े और उन पर कई तरह के शक किए जाने लगे। (देखें उद्धरण) पर चूंकि किसी साथी से यशपाल को पता चल गया की उन्हें 'लिक्विडेट' कर दिए जाने का आदेश है तो वह भाग निकले। खैर इस पर हुआ यह कि अंतत: उन्हें एक ऐसे राज्य सिंध का कमांडर इन चीफ बना दिया गया जहां पार्टी का कोई असर ही नहीं था। इस तरह उन्हें मुख्यधारा से अलग कर दिया गया और संगठन के लोगों से संबंध न रखने के आदेश दे दिए गए। सवाल है ऐसे में यशपाल पार्टी की केंद्रीय कमेटी में कैसे हो सकते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण गतिविधियों की जानकारी कहां तक रही होगी? अगर नहीं रही होगी तो क्या उन्हें कोई और सूचित करता रहा होगा?

एक बात जरूर लगती है कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का संगठन न तो कोई बहुत व्यापक था,न ही उसमें कोई बहुत समन्वय था। पूरा संगठन कुछ युवाओं के देश को जल्दी से जल्दी आजाद कराने की उत्कट इच्छाओं और गुलामी से मुक्त होने के आवेश से प्रेरित था। इसका कोई विचारधारात्मक मजबूत आधार भी नहीं था। यही कारण है कि आपसी असहमतियां और अहं के टकराव अक्सर ही पैदा होते रहे। स्वयं अज्ञेय एक छोटे गुट के साथ इस में शामिल हुए थे। यह बातें उनके साक्षात्कार से स्पष्ट हो जाती हैं। एक जगह उन्होंने कहा है, ''...अभी ऐसा लिखकर प्रकाशित करने का एक परिणाम यह भी होगा कि जो पाठक वर्ग है वह कहेगा कि जिन लोगों को हम आदर्श पुरुष मानते रहे, ये सब लोग ऐसे ही थे। आपस में भी इस तरह लड़ते थे, कोई किसी का सम्मान नहीं करता, किसी को किसी पर विश्वास नहीं और इस लपेटे में ऐसे लोग भी आ जाएंगे जिनकी अभी तक प्रतिष्ठा बनी हुई है,उदाहरण के लिए चंद्रशेखर आजाद या भगत सिंह वगैरह।''

पर अज्ञेय ने यशपाल पर निशाना साधने में कसर नहीं छोड़ी। वह यशपाल के लेखन पर तो छींटाकशी करते ही हैं, दिनमान के दौरान उन्होंने वैशंपायन और धर्मेंद्र गौड़ के इस आशय के लेख छापे थे पर जब यशपाल ने उन्हें कानूनी कार्रवाही की धमकी दी तो उन्हें यशपाल का पक्ष भी यथावत छाप कर विवाद को बंद करना पड़ा था। यही नहीं अपने साक्षात्कार में भी वह चंद्रशेखर के मारे जाने के प्रसंग में सुखदेव राज का नाम तो लेते हैं पर यशपाल का नाम लेने से बचते हैं इसलिए कि तब तक प्रकाशवती जीवित थीं और उन्हें डर था कि उन पर मुकदमा कर दिया जाएगा। वैसे प्रकाशवती भी दल में शामिल थीं और कई बातें जानती थीं। पर बेचारे सुखदेव राज से उन्हें कोई डर नहीं था। अंत में अज्ञेय ने यह भी जोड़ दिया है, ''...ये सब बातें उस समय भी ऐसी स्थिति में थीं कि कोई अंतिम रूप से प्रमाणित उन्हें नहीं किया जा सकता, संदेह के लिए गुंजाइश बनी रहती, अब भी वैसा ही है। ''

अज्ञेय यशपाल पर क्यों रह-रह कर निशाना साधते हैं, दूसरे के कंधे की बंदूक से, यह अपने आप में विचारणीय है। उनमें स्वयं इतनी हिम्मत नजर नहीं आती कि सच बात कहते। वह साफ तौर पर इस बात को लेकर सजग हैं कि अगर वह कोई ऐसी-वैसी बात कह देते हैं तो उन पर आक्रमण होंगे और जवाब देना भारी पड़ जाएगा। तो क्या यह मात्र उन दोनों - अज्ञेय और यशपाल - के बीच लेखक और उस पर उपन्यासकार होने की आपसी ईष्र्या और प्रतिद्वंद्विता के कारण था, या फिर स्वयं अज्ञेय पर दक्षिणपंथी होने के कम्युनिस्टों के आरोपों और आक्रमण के गुस्से के कारण?

जारी...................

1 टिप्पणी:

  1. फेसबुक से

    लेख तो अच्छा है पर शीर्षक काफी असंवेदनशील है विधवाओं की समाज में स्थिति के प्रति .बहरहाल इससे लेख का महत्त्व कम नहीं हो जाता .जब भले लोग आई.सी.एस.एस.आर. की राजनीति से मुहं चुराना चाहते हैं और प्रत्येक आलोचना को 'कीचड उछाल ' की शब्दावली में बाँध रहे हैं और जब एक अखबार अपनी तमाम वस्तुनिष्ठता छोड़कर संपादक के व्यक्तिगत आस्थाओं का भोंपू बन गया है और जब तमाम वाम विरोधी अपनी तमाम नयी पुराणी कुंठाओं का वमन एक साथ कर रहे हों , ऐसे लेख का महत्त्व असंदिग्ध है. पंकज बिष्ट इसी साहस के लिए जाने जाते हैं. - हिमांशु पंड्या


    जबकि लेख विश्लेषणात्मक है...आप पक्ष में हों कि विपक्ष में उससे कोई फर्क नहीं पड़ता....लेकिन शीर्षक न केवल असंवेदनशील बल्कि मुँह का स्वाद खराब कर जाता है-- मनीषा कुलश्रेष्ठ

    मैंने पूरा लेख पढ़ा है, लेकिन मैं भी इसके शीर्षक से सहमत नहीं हूँ...=== प्रेमचंद गांधी

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…