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शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

बढ़ती बेरोजगारी - उदारवाद का क्रूर चेहरा


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पिछले वर्षों में प्रभावी आर्थिक संवृद्धि के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है....भूमंडलीय व्यवस्था से जुड़ाव जितना बढ़ता जा रहा है, देश की अर्थव्यवस्था पर भूमंडलीय आर्थिक शक्तियों की अनिश्चितताओं के प्रति हमारी अर्थव्यवस्था उतनी ही संवेदनशील होती जा रही है. हालिया मंदी ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित किया है और रोज़गार की स्थिति को भी.
·         रोज़गार-बेरोजगारी पर श्रम ब्यूरो की अक्तूबर – 2010 में प्रस्तुत रिपोर्ट, पूर्वकथन  un

पिछले साल अक्तूबर में आई इस रिपोर्ट में ही नहीं बल्कि इसके पहले और बाद आई तमाम रिपोर्टों और अध्ययनों से यह तथ्य बिल्कुल साफ़ हो गया है कि पिछले कई वर्षों से देश में रोज़गार की स्थिति बाद से बदतर होती चली जा रही है. एक तरफ संवृद्धि की दर के आंकड़े हैं तो दूसरी तरफ बढ़ती मँहगाई, भूखमरी और बेरोज़गारी. देखा जाय तो ये तीनों कोई अलग-अलग चीजें नहीं बल्कि एक ही तथ्य की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं. बेरोज़गारी या फिर अत्यल्प मजदूरी वाले दोयम दर्जे के असुरक्षित रोज़गार परिवारों की क्रय शक्ति को बुरी तरह प्रभावित करते हैं, मंहगाई इस आग में और घी डालती है तथा इन सबका परिणाम होता है – कुपोषण तथा अशिक्षा. यह दुष्चक्र चलता ही जाता है और पीढियां इसमें पिसती रहती हैं.

देखा जाय तो भारत में ही नहीं दुनिया भर के पूंजीवादी देशों में अलग से रोज़गार, खासतौर पर उचित तथा सम्मानजनक रोज़गार पैदा करने के लिए अलग से कोई नीति बनाने की जगह सारा जोर ऎसी नीतियों पर रहा जिनमें यह मान्यता थी कि यदि अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर को बढ़ा दिया जाए (जिसके लिए निजी पूँजी के विकास पर जोर दिया गया) तो रोज़गार सृजन अपने-आप हो जाएगा. लेकिन अनुभव इस तर्क को सिद्ध नहीं करता. कारण स्पष्ट है, जैसा कि जाने-माने अमरीकी विद्वान प्रोफ़ेसर जान कोजी अपने एक लेख ‘द ट्रायम्फ आफ कैपिटलिज्म- जाबलेस नेशन्स’ में कहते हैं – ‘ दरअसल, व्यवसायियों की नौकरियाँ पैदा करने में कोई रूचि नहीं होती. अमेरिका में ‘गोल्ड रश’ के उदाहरण को देखिये. जब सोना खोज लिया गया तो व्यापारी वहाँ टूट पड़े और जब सारा सोना निकल गया तो वहां से भाग गए. खानों से प्राप्त इस पूँजी का उपयोग उन्होंने उत्पादक व्यवसायों में नहीं किया और न ही अब बेरोजगार हो चुके मजदूरों के लिए नए रोज़गार पैदा करने में. पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पूँजी खर्च करने के लिए एकत्र नहीं की जाती. यह केवल संचय के लिए एकत्र की जाती है. कर्मचारी बस इसी लक्ष्य की पूर्ति के साधन होते हैं, और जब भी एक व्यापार बिना कर्मचारियों के उपयोग के धन-संचयन में सक्षम हो जाता है, वह ऐसा ही करता है. और यही आज अमेरिका में बड़े स्तर पर हो रहा है. व्यवसायों ने बिना कर्मचारियों के धन-संचयन के तरीके ढूंढ लिए हैं और सरकार ने ऐसा करने में उनकी मदद की है तथा उन्हें प्रोत्साहित किया है. (देखें - http://www.globalresearch.ca/index.php?context=va&aid=26639) और ऐसा अकेले अमेरिका में ही नहीं हुआ है. सारी दुनिया में पूंजीवादी देशों ने निजीकरण और उदारीकरण के नाम पर लागू नवउदारवादी नीतियों को लागू कर रोज़गार सृजन की जिम्मेदारी जिस तरह से पूंजीपतियों पर डालकर ‘कल्याण कार्यों’ के ‘अनुत्पादक’ खर्चों को ‘धन की बर्बादी’ की श्रेणी में रखते हुए अपने आर्थिक क्रियाकलापों को केवल पूंजीपतियों को सुविधाएँ उपलब्ध कराने तक सीमित कर लिया है, उसका यह परिणाम अवश्यंभावी ही था. हाल में एन एस एस द्वारा जारी बेरोज़गारी के आंकड़े और बारहवीं पंचवर्षीय योजना का प्रस्ताव पत्र (approach paper) इन्हीं नीतियों और उनके स्वाभाविक प्रतिफलनों की गवाही देते हैं.

बेरोज़गारी पर एन एस एस ओ हर पाँच साल पर एक बड़े आकार के प्रतिदर्श का सर्वे कराता है और भारत में बेरोज़गारी के आंकडों के लिए यही सबसे बड़ा आधार है. इस बाबत आखिरी सर्वे २००९-२०१० में कराया गया, जिसके प्रारंभिक आंकड़े पिछले महीने जारी किये गए. ये आंकड़े न केवल चौंकाने वाले हैं बल्कि चिंतित करने वाले भी. इन आंकडों से जो पहली चीज़ निकल के आती है वह है देश की       कुल , आम स्थिति – usual status पर आधारित श्रमशक्ति (लोगों की वह संख्या जो या तो काम कर रही है या काम की तलाश में है) में  नगण्य वृद्धि. २००४-०५ से २००९-१० के इस दौर में जब देश की आर्थिक संवृद्धि दर ९-१०% के ऊंचे स्तर पर रही तो देश के भीतर श्रमशक्ति की यह नगण्य वृद्धि आर्थिक संवृद्धि के साथ रोज़गार के अपने-आप बढ़ने के तर्क पर आरंभिक प्रश्चिन्ह खड़े करती है. देखा जाय तो ग्रामीण क्षेत्रों में तो श्रमशक्ति में कमी ही आई है. जहाँ २००४-०५ में इसमें शामिल कुल लोगों की संख्या थी ३४२.९० मिलियन वहीं २००९-१० में यह संख्या घटकर  ३३६.४० मिलियन हो गयी, शहरों में इसमें मामूली वृद्धि देखी गयी और इसी समयांतराल में यह ११५ मिलियन से बढकर १२२ मिलियन हो गयी.

यही नहीं, इस समयांतराल में सभी तरह के रोजगारों (स्वरोजगार, अंशकालिक रोज़गार, घरेलू रोज़गार आदि) में वृद्धि की दर पिछले समयान्तरालों की तुलना में काफी कम रही. जहाँ २०००-२००१ से २००४-२००५ क्र बीच में यह वार्षिक वृद्धि दर २.७% थी वहीं २००४-०५ से २००९-१०के बीच यह केवल ०.८२% रह गयी. यहाँ यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि किस तरह के रोजगारों में वृद्धि हुई. सबसे चौंकाने वाला तथ्य है स्वरोजगारों में कमी. जहाँ २००५-०५ तक अस्थाई तथा सीमांत मजदूरों के अनुपात में कमी आ रही थी और स्वरोजगारों में वृद्धि हो रही थी, वहीं २००९-१० में यह रुझान उलटा हो गया. इसका सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं के सन्दर्भ में देखा गया है. जहाँ २००४-०५ में कुल ६३.७% ग्रामीण और ४७.७% शहरी महिलायें स्वरोजगार कर रही थीं वही २००९-१० में यह संख्या घटकर क्रमशः ५५.७% और ४१.१% ही रह गयी. पुरुषों के लिए यह आंकडा गाँवों में ५८.१% से घटकर ५३.५% और शहरों में ४४.३% से घटकर ४१.१% रह गया जबकि इसी बीच अस्थाई ग्रामीण पुरुष श्रमिकों का अनुपात ३२.९% से बढकर ३८% और गाँवों के लिए १४.६% से बढकर १७% हो गया. महिलाओं के लिए यह अनुपात क्रमशः ३२.६% से बढ़कर ३९.९% तथा १६.७% से बढकर १९.६% हो गया.

इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि गाँवों और शहरों में छोटे-छोटे काम-धंधों पर बुरा असर पड़ा है. खोमचे, ठेले, सब्जी की दुकानें और औरतों तथा पुरुषों द्वारा बेहद कम पूँजी से किये जाने वाले व्यवसाय बड़ी पूँजी के दबाव में अलाभकारी हुए हैं और इनके ज़रिये अपना भरण-पोषण करने वाले लोग निम्न स्तर की मजदूरी वाले असुरक्षित अस्थाई श्रमिक बनने को मजबूर हुए हैं. ऐसा इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि नियमित वेतन वाले रोज़गारों में भी इस दौरान कोई बहुत सकारात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिलता. २००४-०५ से २००४-०९ के बीच इस क्षेत्र में बहुत मामूली परिवर्तन ही देखने को मिला है. शहरों में नियमित वेतन वाले श्रमिकों का अनुपात पुरुषों के लिए ९% से घटाकर ८.५% हो गया है और गाँवों में ४०.६% से मामूली वृद्धि के साथ ४१.९% हो गया है. महिलाओं के लिए यह आँकड़ा क्रमशः ३.७% से बढकर ४.४% और ३५.६% से बढकर ३९.३% हुआ है. साफ़ है कि यह मामूली परिवर्तन स्वरोज़गार में आई भारी कमी को अवशोषित नहीं कर रहा. बेरोजगार हुए लोगों की फौज का बड़ा हिस्सा अस्थाई श्रमिकों में ही तबदील हुआ है.

श्रम शक्ति में आई कमी (विशेष तौर पर महिलाओं की संख्या में आई कमी) के लिए कुछ अर्थशास्त्री  शिक्षा में बढ़ती भागीदारी को जिम्मेदार बताते हैं. उनका कहना है कि १५-२९ आयु वर्ग के अब पहले से कहीं अधिक लोग शिक्षण संस्थानों में उपस्थित हैं तो लाजिमी है कि देश में काम के लिए उपलब्ध लोगों की संख्या में कमी आये. ऐसा माना जा सकता था लेकिन इस परिस्थिति में दो चीजों पर ध्यान देना ज़रूरी है. पहला यह कि देश में मौजूद बेरोजगारों की बड़ी फ़ौज के एक हिस्से को उनकी जगह लेने के लिए सामने आना चाहिए था और इस तरह स्थिर श्रमशक्ति के बरअक्स बेरोजगारों की संख्या में कमी दिखनी चाहिए थी, जो कि इन आंकड़ों से कहीं परिलक्षित नहीं होती, दूसरी बात यह कि इन उच्च शिक्षा में संलग्न लोगों के लिए नए और बेहतर रोजगारों का सृजन आवश्यक है जिससे कि अपने संस्थानों से निकलने के बाद इनके लिए उचित रोज़गार उपलब्ध हों. यहाँ तक कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के प्रस्ताव पत्र में भी इस बात का ज़िक्र किया गया है. यह प्रस्ताव पत्र स्वीकार करता है कि ‘बड़ी संख्या में शिक्षित युवा बारहवीं पंचवर्षीय योजना के वर्षों में और उसके बाद भी श्रम शक्ति में शामिल होंगे. इसका सीधा निहितार्थ यह है कि रोजगार/ आजीविका सृजन के अवसरों को बहुत तेज़ी से बढ़ाना होगा (पेज-९). लेकिन न इस रिपोर्ट के आंकड़े और न ही इस प्रस्ताव पत्र के प्रस्ताव इस चिंता के प्रति किसी वास्तविक गंभीरता का पता देते हैं.

इस चिंता के मद्देनज़र यह होना चाहिए था कि विनिर्माण (manufacturing) क्षेत्र तथा सेवा क्षेत्र में रोज़गार की वृद्धि होती. लेकिन एन एस एस के आंकड़े इसके उलट कहते हैं. विनिर्माण क्षेत्र में तो रोज़गार बढ़ने की जगह घट कर ८.१% से ७.२% (ग्रामीण क्षेत्रों में ) और २४.६% से घटकर २४.३% (शहरों में)  रह गया है. अन्य क्षेत्रों में भी कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं दिखती. जिस इकलौते क्षेत्र में वृद्धि हुई है वह है निर्माण क्षेत्र (real sector) जिसकी कुल रोज़गार में भागीदारी शहरों में ८ से १०.२% तथा गाँवों में ४.९ से ९.४% हो गयी है. शुभानिल चौधरी गाँवों में इसका सबसे बड़ा कारक नरेगा को मानते हैं और शहरों में रियल सेक्टर के विकास को. (देखें एकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली, ६ अगस्त,२०११, पेज- २३-२७) ज़ाहिर है दोनों जगहों पर ‘उच्च शिक्षित युवाओं के लिए रोज़गार की कोई बड़ी संभावना नहीं दिखाई देती.

वैसे एन एस एस और सरकार ने इसका एक कारण सर्वे अवधि को मंदी के कारण एक असामान्य अवधि बताया है. यही वज़ह है कि इस सर्वे के एक साल बाद ही फिर से बेरोज़गारी का सर्वे कराया जा रहा है. ज़ाहिर है कि मंदी के कारण आंकड़ों पर कुछ फर्क तो ज़रूर पड़ा होगा. अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन (आई एल ओ) ने अपनी एक रिपोर्ट में दिसंबर २००७ से २००९ के बीच दुनिया भर में बेरोजगारों की संख्या में १९८ से २३० मिलियन के बीच की वृद्धि की आशंका जताई थी. भारत में श्रम ब्यूरो द्वारा अक्तूबर से दिसंबर २००८ के बीच २५८१ औद्योगिक इकाइयों के लिए कराये गए एक सर्वे के नतीजे भी इस दौरान ०.५ मिलियन मजदूरों की बेरोज़गारी की ताकीद करते हैं. संभव है कि इसका असर इन आंकड़ों पर पड़ा हो, लेकिन वह कितना है इसका पता तो इस साल के सर्वे के नतीजों के सामने आने पर ही चलेगा. अभी तो हालत यह हैं कि मंदी का भूत अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक फिर से मंडराने लगा है. यहाँ सवाल यह भी है कि मंदी इसी पूंजीवादी विकास नीति की स्वाभाविक उपज है तो फिर उसके प्रभावों को नज़रअंदाज करके आंकड़ों में वृद्धि दिखाना भी कितना न्यायसंगत होगा? क्या यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि आगे भविष्य में कोई मंदी नहीं आयेगी? जब मंदी और उछाल इस विकास पद्धति के स्वाभाविक हिस्से हैं तो बेहतर यही होगा कि उनके समग्र प्रभावों के साथ सामने आये तथ्यों पर ही विचार किया जाय. साफ़ है कि मंदी के बहाने रोज़गार सृजन की असफलता को छुपाने की कोशिश की जा रही है.

लेकिन इससे भी चिंताजनक बात यह है कि योजना आयोग का प्रस्ताव पत्र इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है. अपनी शुरुआती चिंताओं के बावजूद इस दस्तावेज में रोजगार में वृद्धि के लिए कोई रणनीति घोषित नहीं की गयी है. हालत यह है कि रोजगार के लिए इसमें कोई अलग से अध्याय भी नहीं रखा गया है. साफ़ है कि अब तक के प्रतिकूल अनुभवों के बावजूद हमारे नीति निर्माता यही मान  रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर बढ़ने से रोज़गार अपने-आप बढ़ जाएगा. तभी तो विनिर्माण क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर में भारी वृद्धि के बरक्स नकारात्मक बढ़त के बावजूद यह दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है कि ‘ विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन की दर इस गति से बढाई जानी चाहिए कि वर्ष २०२५ में इस क्षेत्र में १०० मिलियन अतिरिक्त नौकरियाँ उपलब्ध हों’ (पेज ११०). अब यदि २००४-०५ से २००९-१० के बीच विनिर्माण क्षेत्र में ८% की चक्रवृद्धि संवृद्धि के बावजूद इस क्षेत्र में रोज़गार में कमी आई तो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के आगामी वर्षों में यह अतिरिक्त नौकरियाँ कैसे सृजित की जाएँगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

ज़ाहिर है कि निकट भविष्य में बेरोजगारी की इस भयावह समस्या से निपटने की न तो कोई तैयारी दिखाई देती है और न ही कोई सही इच्छाशक्ति. दुनिया भर में संवृद्धि और बेरोजगारी के एक साथ बढ़ने के तमाम उदाहरणों के बावजूद सरकारें इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं. इसका दुष्परिणाम सारी दुनिया में सामने आ रहा है. विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त होने का दावा करने वाला अमेरिका इस समय अपने इतिहास की सबसे बड़ी रोजगार समस्या से जूझ रहा है. राष्ट्रपति बराक ओबामा की लोकप्रियता गर्त में जा रही है और पूंजीवाद के संकटमोचक पाल क्रुगमैन के पास भी ओबामा की रोजगार योजना पर चौंकाने और उससे उम्मीद बाँधने के अलावा कोई चारा नज़र नहीं आ रहा. ब्रिटेन में द गार्जियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारों की संख्या २.५१ मिलियन की संख्या पार कर चुकी है और इसमें सबसे बड़ी संख्या, ९,७२,००० युवा बेरोजगारों की है. स्पेन में २००७ से २०११ के बीच बेरोज़गारी की दर ८% से बढकर २१.२% हो गयी है और ४६.२% युवाओं को नौकरी नहीं मिल पा रही है. पिछले पाँच सालों में स्पेन सहित सभी ओ ई सी डी (आर्गेनाइजेशन फार इकानमिक कोआपरेशन एंड डेवलपमेंट) के रईस समझे जाने वाले तमाम देशों (जिनमें ग्रीस, आयरलैंड, इटली, फ्रांस, अमेरिका, पुर्तगाल, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे देश शामिल हैं) में युवाओं की बेरोज़गारी दर में भारी वृद्धि हुई है. योरोपीय युनियन में २५ साल से कम आयु के २०% युवा बेरोज़गार हैं तो सभी ओ ई सी डी देशों के लिए सम्मिलित रूप से यह आँकड़ा है लगभग १८% (देखें १० सितम्बर, २०११ का द इकानामिस्ट)  हालत यह है कि ओबामा की घोषणाओं के बावजूद अमेरिका में बेरोजगारी भत्ते के लिए आवेदनकर्ताओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. १५ सितम्बर को अखबारों में छपी खबर के अनुसार सितम्बर के पहले हफ्ते में ४ लाख २८ हज़ार से अधिक लोगों ने वहाँ बेरोजगारी भत्ते के लिए आवेदन दिए. यहाँ यह बता देना भी समीचीन होगा कि अमेरिकी संसद में रिपब्लिकन पार्टी ने ओबामा की रोज़गार योजना का विरोध इस आधार पर किया है कि इसके लिए अमीरों पर जो कराधान होगा उससे आर्थिक वृद्धि प्रभावित होगी. इसकी तुलना आप भारतीय पूंजीपतियों की संस्था फिक्की की उन प्रतिक्रियाओं या फिर सुप्रीम कोर्ट के अनाज बाँट देने के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया से कर सकते हैं. ऐसे में बेरोजगारी में कमी के लिए अलग से कोई नीति बनाने की जगह संवृद्धि के सहारे रोजगार सृजन के तर्क हास्यास्पद ही नहीं क्रूर भी लगते हैं.

संवृद्धि दर और रोज़गार के बीच किसी निश्चित सह-सम्बन्ध की अनुपस्थिति की बात बार-बार अनेकानेक अध्ययनों में सामने आया है। इन्डियन इन्स्टीट्यूट आफ़ पब्लिक एड्मिनिस्ट्रेशन के एक हालिया अध्ययन के बाद प्रस्तुत ‘इण्डिया क्रानिक पावर्टी रिपोर्ट – टुवार्ड्स सलूशन्स एण्ड न्यू काम्पेक्ट्स इन ए डायनामिक कन्टेक्स्ट’ में पाया गया ‘1994-200 के बीच 8% की संवृद्धि दर के बावज़ूद उत्पादन वृद्धि के साथ रोज़गार बढने की प्रत्यास्थता केवल 0.15% पाई गयी‘ … तब से अब तक परिदृश्य में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। …इस प्रकार ‘आर्थिक सुधारों के बाद के दौर में पर्याप्त रोज़गार अवसरों की अनुपलब्धता सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है। असल में ग़रीबी से अधिक देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की खुली और छिपी बेरोज़गारी अर्थव्यव्स्था के लिये एक दीर्घकालिक समस्या है’…असल में एक ऐसी अर्थव्यव्स्था में जहां बड़ी संख्या में श्रम अतिरेक उपलब्ध है और क्षमताओं का उचित दोहन भी नहीं हुआ है, श्रमिकों के बेरोजगार रहने की समस्या एक ऐसा सैद्धांतिक सवाल खड़ा करती है जिसको मुख्यधारा का विकास दृष्टिकोण स्वीकार करने और उसका उत्तर देने से इंकार करता है।‘ (देखें, उपरोक्त रिपोर्ट का पेज़ 137) 
    
मुख्यधारा के इस विकास-विमर्श के लिये वास्तव में इस कड़वी हक़ीक़त को स्वीकार करना बेहद मुश्किल है कि निजी पूंजी के विकास और संचयन पर आधारित संवृद्धि दरों और एक सर्वसमावेशी वास्तविक विकास, जिसमें बहुसंख्या को सम्मानजनक रोज़गार और आजीविका मिल सके, में कोई सीधा अन्तर्संबंध नहीं है। इस तरह के विकास के लिये पूंजीवाद की मूल सन्कल्पनाओं और मान्यताओं पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करने पड़ेंगे। पूंजीपतियों को धन-संचयन के लिये अपार सुविधायें देने की जगह ऐसी उत्पादक तथा जनोन्मुख कार्यवाहियों को प्रोत्साहित करना होगा जिनसे एक तरफ़ ऐसी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन हो जिनसे लोगों का जीवन स्तर परिमाण तथा गुणवत्ता दोनों के स्तर पर बेहतर हो सके। शिक्षा, स्वास्थ्य, सेनीटेशन, शुद्ध एवं परिष्कृत पेयजल, ऊर्ज़ा एवं ईंधन के आधुनिक साधन जैसी चीज़ों की उपलब्धता का सतत विस्तार न केवल लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठायेगा बल्कि खतरे मे पड़ते जा रहे हमारे पर्यावरण के बरअक्स एक ऐसे विकास पथ को प्रोत्साहित करेगा जो पर्यावरणीय और आर्थिक दोनों सन्दर्भों में संवहनीय हो। (विस्तार के लिये देखें यू एन डी पी की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट, 2010)

लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूंजीपति और दुनिया भर में उनकी हितैषी सरकारें ऐसा कुछ भी करने के लिये तैयार नहीं हैं। समस्याओं से जूझने की जगह ज़ोर आंकड़ों की कलाबाजियों से तथ्यों पर पर्दा डालने पर ही है। लेकिन मंदी की समाप्ति की हालिया घोषणाओं के बावजूद पूंजीवादी विश्व का संकट लगातार बढ़ता ही जा रहा है. कभी वह ऋण संकट के रूप में सामने आ रहा है तो कहीं बेरोज़गारी के रूप में. दुनिया भर में शासकों के खिलाफ जो गुस्सा फूटता दिखाई दे रहा है उसकी जड़ें भी इन्हीं संकटों में हैं. लेकिन पूंजीवादी सत्ताओं के लिये पूंजीपतियों के हितों से कोई समझौता करना या उदारीकरण की नीतियों से पीछे हटना संभव नहीं. विकल्पों की अनुपस्थिति ने अभी पूंजीवाद के सामने कोई गंभीर संकट तो नहीं खड़ा किया है लेकिन जिस तरह का भविष्य सामने दिखाई दे रहा है उसमें असम्भाव्य कुछ भी नहीं. पूंजीवाद को विकल्पहीन बताने वालों के सामने सिर्फ़ इतनी सी सुविधा है कि उनके विरोधी कोई ऐसा विकल्प अब तक प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं जो दुनिया भर में एक बेहतर आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में सबको स्वीकार्य हो। यह जितनी बड़ी चुनौती पूंजीवाद के लिये है उससे कहीं अधिक उन वैकल्पिक व्यव्स्था के पक्षधर ताक़तों की जो दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को इस दुष्चक्र से बाहर निकालना चाहते हैं। यह संकट उनके लिये सुअवसर लेकर आया है, देखना यह है कि वे इसका कितना उपयोग अपने पक्ष में कर पाते हैं।
   
            

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लेख है, अशोक भाई ने मेहनत की है, दुनिया भर की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करते हुई उसे भारतीय संदर्भों से जोड़ कर देखना, एक संबध बैठाना बडा काम है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था के गतिरुद्ध होने के कई कारण हैं, यह इतनी बडी इकाई है कि अब इसके मकडजाल में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं आ चुकी है. पहला कारण है..कि बाज़ार में क्या उन उत्पादों की वाकई जरुरत है जिनसे बाज़ार की गति निर्धारित होती है? जैसे घरेलू उपयोग के साधन, कार, घर, टी.वी. फ़्रिज, दूर संचार के साधन आदि..२००८ का बुलबुला फ़ूटने से पहले घर आलू टमाटर की तरह बेचे गये तो घर से जुडे दूसरी चीजों की मांग बढी..सभी गर्म था..क्योकि कर्ज उसे भी मिल गया था जो अपनी ग्रोसरी का खर्चा भी उधार लेकर करता था, जब यह धुंध छंटी तो यथार्थ के धरातल पर सब आया..यानि मांग थम गयी...सो गर्मी की जगह ठण्डी आ गयी.
    अमेरिकी अर्थव्यवस्था फ़िर भी बचती और प्रगति करती अगर इस देश का पूंजीपति अमेरिका के साथ वफ़ादारी करता..उसने, कागज, कलम, कपडा, सुंई, छलनी, कारो क पुर्जे, टायर, घर बनाने वाली सारी चीजें, ताला, चाबी, काफ़ी मशीने..ये सब कल कारखाने मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में चीन ट्रांसफ़र कर दिया, अब चीन में रात दिन इन छोटी बडी चीजों का निर्माण रात दिन हो रहा है, अमेरिका के पास आयात भुगतान के पैसे नहीं तो चीन उसे अपने ही निर्यात को बचाने के लिये भारी कर्जे दे रहा है.
    अभी यहां अपनी जरुरत की चीजे सभी पर हैं..रोज रोज कोई कार नहीं खरीदता न टी.वी., जिसके पास नया नहीं वह पुराना ले लेता है..मांग कम होने से कल कारखाने बन्द होते और बेरोज़गारी बढती..सरकार इन्हे बचाने के लिये अपने कर्मचारियों की तन्ख्वाह बढाती, भत्ते देती ताकि मांग बढायी जा सके...बारहाल..कुल मिला कर कीन्स के मुक्त बाज़ार के नियम का बैण्ड बज गया है...हम समाजवाद के मूल सिद्धांत.."आवश्यकता के अनुसार उत्पादन" की तरफ़ ही बढ रहे हैं या बढना होगा...इसके सिवा कोई चारा नहीं, क्योकि कृत्रिम रुप से मांग पैदा करके जो हमने देखा और सबक लिया वह सामने है. दुनिया में संसाधनों का केन्द्रिकरण जिस तेजी से पिछले २५-३० सालों में हुआ है ऐसा पहले कभी नही देखा गया..आज भी खाद्यान्न प्रतिव्यक्ति ४००० कैलोरीज से अधिक के हिसाब से पैदा हो रहा है..और दूसरी तरफ़ करोडों लोगो को भूख नसीब हो रही है..यह पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे घिनौना रुप है..बेरोजगारी और भूख विश्व समस्या है..शायद ये ही वह सामाजिक शक्तियां है जो क्रांति भी करती हैं. सावधान...

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  2. नव उदारवाद कि नीतिया हम मानते हें कि २५ व ३० वर्षों से शुरु हुवी ? इसका मतलब यह भी हें कि सोविएते जब साम्राज्यवाद में समा गई तो पुनः अडम स्मिथ का सिद्धांत ही पूंजीवादियों को अपनाना बेहतर लगा, मगर इसके नतीजे ये व पूरी दुनिया पहले भुगत चुकी थी अतः किन्स जो कि पूंजीवादी सुधारवादी अर्थशास्त्री थे तथा उन्ही के सिधान्तो को अपनाने से ये पूंजीवादी लोग आर्थिक मोर्चे पर तथाकतित समाजवाद कि क्रांति को रोक सके थे व उन्ही सिधान्तो के आधार पर पूंजीवाद आगे साम्राज्यवाद के रूप में मजबूत हुआ व 'समाजवादी समूहों के देशो' से टक्कर लेकर उन्हें वस्तुतः लगभग उन्ही कि हथियार से धराशाही कर दिया. LPG कि पृष्टभूमि भूमि हमें याद हें कि UNO, IMF, IBRD व GATT के तहत पहले ही तेयार हो रही थी. शायद UNO, IMF, IBRD व GATT तथा साम्राज्यवाद देश, CIA सहित, पहले ही जानते थे कि 'समाजवादी समूहों के देशो' जल्दी ही हमारे साथ ही मिलनेवले हें . ऐसी तेयार पृष्टभूमि को बाद में अमलीजामा पहना दिया गया . LPG कि नीतिया अडम स्मिथ व कीन्स (दोनों) के सिधान्तो को प्रतिबिम्ब करती हें अन्तः दोनों के मुक्त बाज़ार के नियम के सिधान्तो का बैण्ड बज गया है.

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  3. इस तरह की समस्या व्यवस्थागत खामी है। अगर इसमें बदलाव चाहिए तो पूरे तंत्र में बदलाव जरूरी है, जो फिलहाल संभव नहीं है। डॉलर चाहे जितना गिरे, वैश्विक कारोबार अभी उसी मुद्रा में होती है। साथ ही इस व्यवस्था की एक खास विशेषता है.... विकास दिखाने वाली। वह विकास कुछ लोगों के घरों, कुछ इलाकों में दिखता है, जिसे विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए कई गुना बढ़ाया जाता है। फिलहाल..... आपकी आखिरी लाइनें... कुछ उम्मीद की :)

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  4. इस तरह की समस्या व्यवस्थागत खामी है। अगर इसमें बदलाव चाहिए तो पूरे तंत्र में बदलाव जरूरी है, जो फिलहाल संभव नहीं है। डॉलर चाहे जितना गिरे, वैश्विक कारोबार अभी उसी मुद्रा में होती है। साथ ही इस व्यवस्था की एक खास विशेषता है.... विकास दिखाने वाली। वह विकास कुछ लोगों के घरों, कुछ इलाकों में दिखता है, जिसे विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए कई गुना बढ़ाया जाता है। फिलहाल..... आपकी आखिरी लाइनें... कुछ उम्मीद की :)

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…