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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

शांति के लिए खतरे की घंटी है लीबिया का संघर्ष




(पंकज चतुर्वेदी का कुछ दिनों पहले जनसंदेश में छपा यह आलेख बदली परिस्थितियों में एक बार दुबारा पढ़े जाने की मांग करता है. )

खबर है कि नाटो के सहयोग से मुहम्मद गद्दाफी को सत से हटाने के लिए बीते सात महीनों से युद्धरत् विद्रोही सेनाएं या एनटीसी के लड़ाके गद्दाफी की मजबूत पकड़ वाले उसके गृहनगर सीरत में काबिज हो चुके हैं।  लड़ाई की भाषा में तो यह अंतिम दुर्ग पर कब्जा है और जैसा कि इतिहास में होता आया है , युद्ध समाप्त हो जाएगा। लेकिन इराक, अफगानिस्तान जैसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं जो बताते हैं कि लीबिया से भले ही एक तानाषाह की सत्ता का अंत हो गया हो, लेकिन इस संघर्ष के दौरान जो आतंकवाद वहां जड़ जमा  चुका है, उससे जूझने की समय-सीमा अंतहीन ही है।  सबसे बड़ा खतरा यह है कि अफ्रीका, जिसका बड़ा हिस्सा, भूख और गरीबी से जूढ रहा है, मजबूरी में अंतरराष्ट्रीय  आतंकवादी और मादक दवाओं के तस्करों का साध्य बनता जा रहा है। इसमें लीबिया के हथियार और भगोड़े लड़ाकों की मुख्य भूमिका है। 

यह तय है कि गद्दाफी के 42 साल के निरंकुश शासन का खात्मा हो गया है, लेकिन लीबिया की जनता, नाटो की सेनाएं और अंतरराष्ट्रीय  बिरादरी को इस संघर्ष के नकारात्मक दूरगामी प्रभावों की अनदेखी करना दुनिया के लिए भारी पड़ सकता है। यहां जानना जरूरी है कि लीबिया के आसपास अफ्रीका में  कई छोटे-छोटे देष हैं, जिनकी सीमायी सुरक्षा व्यवस्था या  सतर्कता उतनी नहीं है। याद करें कि इसी साल 26 अगस्त को नाईजीरिया की राजधानी अंबूजा में संयुक्त राश्ट्र के मुख्यालाय पर एक बम धमाका हुआ था, जिसमें 18 जानें गई थीं। इसका षका अफ्रीका में सक्रिय इस्लामिक आतंकवादी गुट ‘‘बोको हरम’’ पर गया था।  इस संगठन की 2004 में स्थापना हुई थी और पहली बार इसका नाम ऐसी आतंकवादी घटना में आया था।  इसी दिन अल्जीरिया  की सैन्य अकोदमी के बाहर देा आत्मघाती धमाकों में 18 लोग मारे गए थे।  असल में हुआ यह कि लीबिया के सुरक्षा बल विद्रोहियों से जूझ रहे थे, जहां उनके पांव उखड़ते, वे अपने हथियार और गेाला बारूद  अनजान लोगों को बेच कर आम लोगों की भीड़ में छिप रहे थे। इस तरह एक तो आतंकवादी निरंकुश हुए, दूसरा उहें हथियार भी मिले। इस तरह बोको हरम ने अल कायदा के उत्तरी अफी्रका के सहयोगी संगठन ‘‘इस्लामिक मगरीब’’ के साथ जुड़ कर अचानक ही अपनी ताकत बढ़ा ली।  आज यह संगठन अल्जेरिया से माली तक और अब सहार रेगिस्तान तक अपना असर बना चुका है। 

याद हो कि इस साल के शुरूआत में अल्जीरिया में बढ़ती कीमतों और बेरोजगारी के विरोध में लोग सड़कों पर आ गए थे। बाद में फौज ने ताकत से विद्रेाह को दबा दिया था , जिसमें 15 हजार जानें गई थीं। इस तरह लीबिया की ही तरह अल्जीरिया में भी विद्रोहियों की बड़ी संख्या है जो कि जाने-अनजाने में आतंक के नेटवर्क में जुड़ रहे हैं। आतंकवादी आमतौर पर स्थानीय असंतोस, लचर आर्थिक व्यवस्था, लापरवाह सीमायी सतर्कता जैसे मुद्दों को आधार बना कर अपना विस्तार करते हैं और लीबिया का ताजातरीन तख्ता पलट ऐसे सभी हालात को जन्म दे चुका है। यहां याद रखना जरूरी है कि गद्दाफी अपने देश में काफी मजबूत थे, तभी इतने बड़े सैन्य हमलों के बावजूद उन्हें उखाड़ने में सात महीने का समय लगा। जाहिर है कि अभी भी देश  में उनसे सहानुभति रखने वाले या उनके वफादार बड़ी संख्या मं होंगे। यदि अंतरराष्ट्रीय  समुदाय ने अतिरिक्त सतर्कता नहीं बरती तो ऐसे असंतुष्टों को आतंकवाद अपनाने से रोकना दूभर होगा।

अफ्रीका का ‘साहेल’  क्षेत्र यानी सहार रेगिस्तान से ले  सूडान सवानास तक का इलाक, जिसमें चाड, नाईजर, नाईजीरिया,माली, इथेापिया जैसे कई देश आते हैं ; इन दिनों नशे की तस्करी करने वालों का खुला मैदान बना हुआ है। सनद रहे कि गद्दाफी ने अपने देश की दक्षिणी सीमाओं पर इस तरह की अत्याधुनिक व संवेदनशील मशीनें लगवा रखीं थीं जोकि नशीली चीजों की छोटी  मात्रा को भी तत्काल पकड़ लेती थी। लगातार युद्ध के कारण लीबिया की सीमाओं पर लगे यंत्र काम नहीं कर रहे हैं। अलकायदा इन इस्लामिक मगरीब यानी एक्यूआईएम संगठन के लोगों की हशीश से भरी गाड़ियां  नाईजर के रास्ते लीबिया के दक्षिणी इलाकों से घुसती हैं और वहां से अत्याधुनिक हथियार ले कर लौटती हैं। याद करें लीबिया में जन-विद्रोह के शुरूआती दिनों मे ंलोगों ने फौज के हथयार डिपो लूट लिए थे। बताया जा रहा है कि अब यही हथियार हशीश  के बदले अलकायदा नेटवर्क तक पहुंच रहे हैं। 

तेल के भंडारों के कारण समृद्ध उत्तरी अफ्रीका के देश  लीबिया में 42 साल तक शासक रहे कर्नल गद्दा्फी ने अमेरिका के दवाब को कभी नहीं माना, शायद इसी लिए उन्हें सत्ता से हटाने के लिए अमेरिका ने नाटो की अगुआई में अपने सैन्य विमानों से पूरे मुल्क के चप्पे-चप्पे पर बमबारी करवा दी। इराक में अमेरिका ने अपनी सेना के बल पर सत्ता परिवर्तन करवाया , आज भी देश  अंदरूनी असंतोस  और आतंकवाद से जूझ रहा है। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब वहां बम धमाकों में निर्दोस लोग मारे ना जाएं। अफगानिस्तान में अमेरिका के बल पर बनी सरकार की आज भी काबुल के बाहर नहीं चलती है। शेष मुल्क अभी भी विद्रोही तालीबान के इशारे पर नाच रहा है। एशिया के बाद अफ्रीका में इस तरह के असंतोष का उभरना आने वाली दुनिया की शांति, विकास और खुशहाली के लिए गंभीर खतरा है। अंतरराष्ट्रीय  बिरादरी को यह विचार करना होगा कि  हथियारों के बल पर वैचारिक टकराव की नीति निर्दोष लोगों की जिंदगी पर खतरा ही होती है। किसी भी विद्रोह को समाप्त करने के लिए ताकत के बल पर दबाना और वैचारिक रूप से संतुष्ट  करना , देानेां ही बराबर मात्रा में एकसाथ लागू करना जरूरी होता है। 

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