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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

गरीबी रेखा – सवाल खैरात नहीं बराबरी का है!



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उच्चतम न्यायालय में योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा के निर्धारण को लेकर दायर हलफनामे  के साथ ही इस रेखा से जुड़े तमाम विवाद एक बार फिर से सुर्ख़ियों में आ गए और अखबारों के सम्पादकीय पन्नों से लेकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स तक पर इन पर चर्चा और लानत-मलामत का दौर शुरू हो गया. गाँवों में २६ रूपये और शहरों में ३२ रुपये प्रतिव्यक्ति /प्रतिदिन की इस राशि को लेकर लोगों में आमतौर पर एक असंतोष देखा गया और विरोध की व्यापकता इस क़दर थी कि अंततः आयोग को इसे वापस लेना पड़ा तथा सरकार इस पर पुनर्विचार के लिए मज़बूर हुई. असल में गरीबी रेखा के निर्धारण को लेकर यह बहस इस रेखा के उम्र जितनी ही पुरानी है. आज़ादी के बाद से ही भारत में विकास की प्रक्रिया और इससे वंचितों के सवाल को लेकर लंबी बहस रही है. दूसरी पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास आधारित संवृद्धि माडल के स्वीकार के साथ ही जो प्रक्रिया शुरू हुई उसमें न तो घोषित लक्ष्य ‘समाजवाद’ के अनुरूप जनता के बीच आय और संपत्ति के वितरण की समानता स्थापित करने का कोई प्रयास था और न ही गाँधी के अंतिम व्यक्ति तक विकास को पहुंचाने का कोई संकल्प. यह सीधे-सीधे पूँजी केंद्रित विकास का माडल था जिसका सहज तार्किक परिणाम था आय और संपत्ति का कुछ हाथों में संकेन्द्रण और वंचितों की संख्या में लगातार वृद्धि. आरंभिक दौर में ‘समाजवाद’ के नाम पर जो ‘राजकीय पूंजीवाद’ का संरक्षण वाला माडल अपनाया गया वह वैश्विक पूंजीवाद की आवश्यकताओं तथा प्रवृतियों के अनुरूप ही था. इसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की जिम्मेवारी सरकार ने ली तो लाभकारी संयत्र निजी हाथों को सौंप दिए गए. ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अतिरेक के अवशोषण से प्राप्त पूँजी का उपयोग निजी उद्योगों को सहायता पहुंचाने वाली  प्रत्यक्ष तथा परोक्ष परियोजनाओं में हुआ. यह यूं ही नहीं था कि कृषि क्षेत्र के समस्त मजदूरों को ‘अकुशल श्रमिकों’ की तरह परिभाषित किया गया और कृषि तथा औद्योगिक श्रमिकों के आय निर्धारण के लिए जो प्रतिमान अपनाए गए वे अंतर्राष्ट्रीय तो छोड़िये स्वयं सरकार के केन्द्रीय तथा राज्य कर्मचारियों के वेतनमानों के निर्धारण के लिए अपनाए गए प्रतिमानों की तुलना में अत्यंत पक्षपातपूर्ण थे. जाने-माने सामजिक कार्यकर्ता श्री ब्रह्म देव शर्मा ने इन सवालों को लगातार उठाया है, लेकिन ये नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ही साबित हुए हैं. खैर बात गरीबी रेखा के निर्धारण की हो रही थी.

गरीबी रेखा के रूप में गरीबी को निर्धारित करने का प्रस्ताव सबसे पहले 1957 में इण्डियन लेबर कांफ्रेंस के दौरान दिया गया था। उसी के बाद योजना आयोग ने एक वर्किंग ग्रुप बनाया था जिसने भारत के लिये आवश्यक कैलोरी उपभोगकी अवधारणा पर आधारित गरीबी रेखा का प्रस्ताव किया। इसके तहत उस समय बीस रुपये प्रतिमाह को विभाजक रेखा के रूप में स्वीकृत किया गया। 1979 में योजना आयोग ने ही गरीबी को पुनर्परिभाषित करने करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। लेकिन इसने भी मामूली फेरबदल के साथ मूलतः आवश्यक कैलोरी उपभोगकी अवधारणा को ही आधार बनाया। 1973 की कीमतों को आधार बनाते हुए इसने ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 49 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह तथा शहरी क्षेत्रों के लिये 57 रुपये की विभाजक रेखा तय की। मुद्रास्फीति के अनुसार इसमें समय-समय पर समायोजन किया गया और वर्तमान में यह शहरी क्षेत्रों के लिये 559 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह और गाँवों के लिये 368 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह है। योजना आयोग गरीबी रेखा के निर्धारण के लिये राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर एन एस एस ओ के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आधार पर विभाजक रेखा तय करता है। 2004-2005 के लिये प्रोफेसर लकड़वाला की अध्यक्षता में 1997 में बने एक्स्पर्ट ग्रुप द्वारा की गयी अनुशंसा के आधार पर जो आंकड़े निकाले गये थे उनके अनुसार देश में उस समय गरीबों की कुल संख्या 28.3 प्रतिशत थी।

सेन्टर फार पालिसी आल्टरनेटिवकी एक रिपोर्ट में मोहन गुरुस्वामी और रोनाल्ड जोसेफ एब्राहम इस गरीबी रेखा को भूखमरी रेखाकहते हैं। कारण साफ है। इसके निर्धारण का इकलौता आधार आवश्यक कैलोरी उपभोग है। यानि इसके अनुसार वह आदमी गरीब नहीं है जो येन केन प्रकारेण दो जून अपना पेट भर ले और अगले दिन काम करने के लिये जिन्दा रहे। युनिसेफ स्वस्थ शरीर के लिये प्रोटीन, वसा, लवण, लौह और विटामिन जैसे तमाम अन्य तत्वों को जरूरी बताता है जिसके अभाव में मनुष्य कुपोषित रह जाता है तथा उसकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमतायें प्रभावित होती हैं। लेकिन गरीबी रेखा तो केवल जिन्दा रहने के लिये जरूरी भोजन से आगे नहीं बढ़ती। इसके अलावा शायद व्यवस्था यह मानकर चलती है कि आबादी के इस हिस्से का स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, घर, साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम मूलभूत सुविधाओं पर तो कोई हक है ही नहीं । वैसे तो जिस आवश्यक कैलोरी उपभोगकी बात की जाती है ( शहरों में 2100 तथा गांवों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन) वह भी दिन भर शारीरिक श्रम करने वालों के लिहाज से अपर्याप्त है। इण्डियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्चके अनुसार भारी काम में लगे हुए पुरुषों को 3800 कैलोरी तथा महिलाओं को प्रतिदिन 2925 कैलोरी की आवश्यकता है। यही नहीं, अनाजों की कीमतों में तुलनात्मक वृद्धि व उपलब्धता में कमी, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सरकार की घटती भागीदारी, विस्थापन तथा तमाम ऐसी ही दूसरी परिघटनाओं की रोशनी में यह रेखा आर्थिक स्थिति के आधार पर समाज को जिन दो हिस्सों में बांटती है उसमें ऊपरी हिस्से के निचले आधारों में एक बहुत बड़ी आबादी भयावह गरीबी और वंचना का जीवन जीने के लिये मजबूर है और तमाम सरकारी योजनायें उसको लाभार्थियों की श्रेणी से उसके आधिकारिक तौर पर गरीब न होने के कारण बाहर कर देती है। साथ में यह पूरी अवधारणा देश भर में मुफ्त सरकारी शिक्षा तथा सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता को मान कर चलती है. निजीकरण के बाद जिस तरह इन मदों में कटौती हुई है, यह मान्यता कितनी कारगर है यह देश के हालात से परिचित कोई भी व्यक्ति अंदाज लगा सकता है.
इसी वजह से भारत सरकार के गरीबी के आधिकारिक आंकड़े हमेशा से विवाद में रहे हैं। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय तथा दूसरी स्वतंत्र संस्थाओं के अध्ययनों में देश में वास्तविक गरीबों की संख्या के आंकड़े सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा रहे हैं। अभी हाल ही में विश्व बैंक की ग्लोबल इकोनामिक प्रास्पेक्ट्स फार 2009‘ नाम से जारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2015 में भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी ( 1.25 डालर यानि लगभग 60 रुपये प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति से भी कम आय) में गुजारा कर रही होगी। इस रिपोर्ट के अनुसार यह स्थिति सब सहारा देशों को छोड़कर पूरी दुनिया में सबसे बद्तर होगी। यही नहीं, यह रिपोर्ट भारत की तुलनात्मक स्थिति के लगातार बद्तर होते जाने की ओर भी इशारा करती है। इसके अनुसार जहां 1990 में भारत की स्थिति चीन से बेहतर थी वहीं 2005 में जहां चीन में गरीबों का प्रतिशत 15.9 रह गया, भारत में यह 41.6 थी।
इन्हीं विसंगतियों के मद्देनजर पिछले दिनों सरकार ने गरीबी रेखा के पुनर्निर्धारण के लिये जो नयी कवायदें शुरु कीं उन्होंने इस जिन्न को बोतल से बाहर निकाल दिया है। सबसे पहले आई असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग (अर्जुन सेनगुप्ता समिति) की रिपोर्ट ने देश में तहलका ही मचा दिया था। इसके अनुसार देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज से कम में गुजारा करती है। दो अंको वाली संवृद्धि दर और शाईनिंग इण्डिया के दौर में यह आंकड़ा सच्चाई के घिनौने चेहरे से नकाब खींचकर उतार देने वाला था। समिति ने असंगठित क्षेत्र के लिये दी जाने वाली सुविधायें इस आबादी तक पहुंचाने की सिफारिश की थी। लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। भारत सरकार द्वारा गरीबी रेखा के निर्धारण के लिये मानक तैयार करने के लिये ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव श्री एन के सक्सेना की अध्यक्षता में जो समिति बनाई थी उसके आंकड़े और भी चौंकाने वाले थे। इस समिति ने अगस्त-2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में गरीबी रेखा से ऊपर रहने वालों के विभाजन के लिये पांच मानक सुझाये। जिसमें शहरी क्षेत्रों में न्यूनतम 1000 रुपये तथा ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम 700 रुपयों का उपभोग या पक्के घर या दो पहिया वाहन या मशीनीकृत कृषि उपकरणों जैसे ट्रैक्टर या जिले की औसत प्रतिव्यक्ति भू संपति का स्वामित्व। इस आधार पर समिति पर गरीबी रेखा के निर्धारण पर समिति ने पाया कि भारत की ग्रामीण जनसंख्या का कम से कम पचास फीसदी इसके नीचे जीवनयापन कर रहा है। सक्सेना समिति ने खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों का भी जिक्र किया है जिसके अनुसार गांवों में 105 करोड़ बीपीएल राशन कार्ड हैं। अगर इसी को आधार बनाया जाय तो भी गांवों में गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या लगभग 53 करोड़ ठहरती है जो कुल आबादी का लगभग पचास फीसदी है।

समिति का यह भी मानना कि जहां आधिकारिक तौर पर 1973-74 से 2004-05 के बीच गरीबी 56 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत हो गयी वहीं गरीबों की वास्तविक संख्या में कोई कमी नहीं आयी। अपने निष्कर्ष में वह कहते हैं कि गरीब परिवारों की एक बहुत बड़ी संख्या गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से बहिष्कृत रही है और ये निश्चित रूप से सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले बेजुबान लोग ही होंगे।
लेकिन सरकार ने इस समिति की अनुशंसाओं को लागू करने से साफ इंकार कर दिया। योजना आयोग द्वारा समिति को लिखे गये पत्र का जिक्र पहले ही किया जा चुका है। ग्रामीण विकास मंत्री श्री सी पी जोशी ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि सक्सेना समिति को गरीबों की गणना करने के लिये नहीं सिर्फ गरीबों की पहचान करने के लिये नयी प्रणाली विकसित करने के लिये कहा गया था।
इस दौरान योजना आयोग के एक सदस्य अभिजीत सेन ने तर्क दिया था कि गरीबों की गणना आवश्यक कैलोरी उपभोग की जगह आय के आधार की जानी जानी चाहिये। उनका यह भी मानना था कि मौजूदा मानकों के आधार पर गणना से शहरी क्षेत्रों में गरीबों की वास्तविक संख्या 64 फीसदी तथा गांवों में अस्सी फीसदी है।

इस संदर्भ में केन्द्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर समिति को गरीबों की संख्या की गणना की जिम्मेदारी दी गयी थी। इस आयोग की पिछले दिनों प्रस्तुत रिपोर्ट एक तरफ तो आवश्यक कैलोरी उपभोग वाली परिभाषा से आगे बढ़ने की कोशिश करती है तो दूसरी तरफ आंकड़ों में गरीबी कम रखने का दबाव भी इस पर साफ दिखाई देता है।
तेंदुलकर समिति के अनुसार 2004-05 में भारत की कुल आबादी का 37.2 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। यह आंकड़ा योजना आयोग के 27.5 फीसदी से तो अधिक है लेकिन अभिजित सेन कमेटी या ऐसे अन्य अध्ययनों के निष्कर्षों से कम। हालांकि योजना आयोग से इसकी सीधी तुलना मानकों के परिवर्तन के कारण संभव नहीं है। आयोग के अनुसार बिहार तथा उड़ीसा में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत क्रमशः 55.7 तथा 60.8 है, उल्लेखनीय है कि सेन कमेटी के अनुसार इन दोनों प्रदेशों में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत 80 से अधिक था। आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी निर्धारण के लिये सीमारेखा 356.30 से बढ़ाकर 444.68 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 538.60 रुपये से बढ़ाकर 578.80 की थी। इस आधार पर दैनिक उपभोग की राशि शहरों में लगभग 19 रुपये और गांवों में लगभग 15 रुपये ठहरती है जो विश्वबैंक द्वारा तय की गयी अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (20 रुपये) से कम है. इस समिति की रिपोर्ट को लेकर जो विवाद हुआ था उसके आधार पर ही इसे बढाते हुए योजना आयोग ने अंततः यह ३२ और २६ रुपयों वाली रेखा प्रस्तावित की है, जो पहले दिए गए आधार से बेहतर तो है लेकिन खाद्य पदार्थों तथा अन्य वस्तुओं की कीमतों में हालिया बढोत्तरी को देखते हुए बेहद अपर्याप्त है.

दरअसल, इस रेखा की एक बड़ी सीमा यह है कि लगातार बढ़ती हुई मँहगाई के साथ इसके समायोजन की कोई व्यवस्था नहीं. साथ ही, यह शहरी क्षेत्रों के निर्धारण में उन शहरों के बीच जीवन-स्तर सामान रखने के लिए उपभोग व्यय के समायोजन की कोई व्यवस्था देने की जगह दिल्ली से लेकर दौलताबाद तक चाहे महानगर हों या कस्बे, एक ही आय सीमा निर्धारित करती है. गौरतलब है कि सरकार खुद सरकारी कर्मचारियों के भत्तों के निर्धारण के समय शहरों को अलग-अलग समूहों में बांट कर उनमें एक जैसा जीवन स्तर बनाए रखने के लिए आवश्यक समायोजन करती है. लेकिन गरीबी रेखा के निर्धारण में यह मान लिया जाता है कि ३२ रुपये प्रति व्यक्ति महानगर से लेकर कस्बों तक हर जगह के लिए पर्याप्त है.

इसी बीच शहरी गरीबी और कुपोषण की स्थिति पर आई रिपोर्टों ने स्थिति की भयावहता पर पुनर्विचार के लिए और अधिक व्यापक आधार प्रदान किये. पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के सहयोग से भारत सरकार के भवन निर्माण तथा शहरी विकास मंत्रालय द्वारा ज़ारी पहली शहरी ग़रीबी रिपोर्टमें प्रस्तुत आंकड़े तथा तथ्य स्थिति की भयावहता ही बयान नहीं करते अपितु इस संदर्भ में फैले तमाम दुष्प्रचारों की कलई भी उतारते हैं।


इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में जिस जनसंख्या वृद्धि को सबसे बड़ी समस्या के रूप में निरूपित किया जाता है शहरों में वह दूसरे एशियाई देशों से कम है। इसके अनुसार पिछले दिनों भारत की संवृद्धि दर एशिया की कुछ सबसे तेज़ विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं के समकक्ष 8 फ़ीसदी रही लेकिन यहां शहरीकरण की वृद्धि दर 28 फ़ीसदी रही जो एशिया की औसत शहरीकरण वृद्धि दर से कम रही। लेकिन इसके बावज़ूद यहां गरीबों का अनुपात 25 फीसदी है। रिपोर्ट का यह भी मानना है कि पिछले दो दशकों में ग्रामीण और शहरी ग़रीबी के बीच का अंतर कम हुआ है। साथ ही संवृद्धि दर के तेज़ होने का असर शहरी ग़रीबी के कम होने के रूप में नहीं हुआ है। जिसके चलते शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या बढ़ी है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत के शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या 42 करोड़ 6 लाख है जो कि लगभग स्पेन की कुल जनसंख्या के बराबर है। यही नहीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या में वृद्धि के बावज़ूद झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में वृद्धि न होने के कारण इनका स्तर और भी बद्तर हुआ है। इन जगहों पर सुविधाओं का भयावह अभाव है। ऐसी लगभग 55 फीसदी बस्तियों में शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं है और ये पानी, बिज़ली, जैसी चीज़ों से भी महरूम हैं। इसके अलावा इसी जनगणना के अनुसार अब भी शहरों में सात लाख अठहत्तर लोगों के पास अपनी कहने को कोई छत नहीं है और ये फुटपाथों , रेल की पटरियों के किनारे, खुले मैदानों तथा सड़कों के इर्द-गिर्द रात बिताने को मज़बूर हैं। इनके लिये रैन बसेरों का इंतज़ाम कितना नाकाफ़ी है यह देखने के लिये दिल्ली का उदाहरण काफ़ी होगा जहां लगभग एक लाख निराश्रितों के लिये बस 2937 लोगों की क्षमता वाले 14 रैन बसेरे हैं यानि सिर्फ़ तीन फीसदी लोगों के लिये शेष या तो खुले आसमान के नीचे सोते हैं या फिर निजी ठेकेदारों के रहमोकरम पर रिपोर्ट में एक अध्ययन का भी ज़िक्र है जिसके अनुसार महानगरों के निराश्रित मर्द, औरत और बच्चे अक्सर पुलिस के दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। रईसजादों द्वारा इनको कुचले जाने के किस्से तो आये दिन अख़बारों में आते ही रहते हैं।

इसके साथ ही अगर संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक समिति की 20 मार्च 2006 को प्रस्तुत रिपोर्ट  को देखा जाय तो गरीबी की असल स्थिति और सरकारी दावों के बीच के अंतर को समझना और आसान हो जाता है. इस रिपोर्ट में भोजन के अधिकार संबंधी विशेष अधिकारी ज्यां ज़ेगलर लिखते हैं कि पिछले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन की विकास दर जनसंख्या की विकास दर से तेज़ रही है, इसलिये राष्ट्रीय स्तर पर भारत एक अरब से अधिक की अपनी जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने में सक्षम है। फिर भी इन प्रभावशाली उपलब्धियों के बावज़ूद भारत पारिवारिक स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा उपलब्ध कराने में असफल रहा है। कुपोषण तथा गरीबी का स्तर बहुत ऊंचा है और इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि 1990 के उत्तरार्ध में ग़रीबी और खाद्यान्न असुरक्षा में काफ़ी वृद्धि हुई है। ( पेज़ 5)



इस रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में बीस लाख बच्चे गंभीर कुपोषण और इलाज़ की जा सकने वाली बीमारियों की वज़ह से मर जाते हैं ( यानि इलाज़ की समुचित व्यवस्था न होने से)। बच्चों की संख्या के आधे से अधिक बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, कुल 47 प्रतिशत का वज़न औसत से कम है और 46 प्रतिशत की लंबाई। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे ज़्यादा ऊंचे स्तर का है, ज़्यादातर सब सहारा देशों से भी बुरा। दुनिया के कुल कम वज़न वाले बच्चों में 42 प्रतिशत भारत में है। तीस प्रतिशत बच्चे पैदा होते समय ही कम वज़न के होते हैं जिसका अर्थ है कि उनकी मातायें भी कुपोषित होती हैं। बचपन के आरंभिक दौर में ही बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं और बालिकाओं में यह प्रवृति अपेक्षाकृत ज़्यादा है जो समाज में औरतों के साथ होने वाले भेदभाव का स्पष्ट परिचायक है। रिपोर्ट के अनुसार अस्सी प्रतिशत लड़कियां, कन्या शिशु और औरतें कुपोषण का शिकार हैं।



इस रिपोर्ट के अनुसार बीस करोड़ से अधिक महिलायें, बच्चे और पुरुष दो जून की न्यूनतम आवश्यक भोजन आवश्यकतायें भी पूरी नहीं कर पाते। अपनी आय का सत्तर प्रतिशत भोजन पर ख़र्च करने के बावज़ूद इन्हें भारत सरकार द्वारा आवश्यक निर्धारित 1700 कैलोरी उर्ज़ा भी नहीं जुट पाती, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित 2100 कैलोरी की तो बात ही क्या है। देश में औसत कैलोरी उपभोग भी घटा है लेकिन यह जहां नई आर्थिक नीतियों के बाद उच्च आय वर्ग तथा मध्यम वर्ग की खाद्य आदतों में परिवर्तन का परिचायक है वहीं गरीब जनता की बढ़ती हुई बदहाली का। ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले एक दशक में जहां अनाज़ों का उपभोग 2.14 प्रतिशत घट गया उनका कुल कैलोरी उपभोग 1.53 प्रतिशत कम हो गया, जिसका अर्थ है कि वे वास्तव में अलग-अलग तरह की चीज़ें खाने की जगह कम अनाज़ खा रहे हैं। ख़ासतौर पर यह इस तथ्य की रौशनी में और साफ़ हो जाता है कि नब्बे के दशक में खाद्यान्नों की कीमतों में वास्तविक मज़दूरी दर की तुलना में तीव्र वृद्धि हुई है ( वही पेज़ 6)



यह रिपोर्ट इस तथ्य की ओर भी पर्याप्त संकेत करती है कि गरीबी के आंकड़े में जिस कमी का दावा सरकार कर रही है वह दरअसल आंकड़ों की कलाबाजी है। साथ ही नई आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप देश के भीतर आर्थिक असमानता की खाई भी और ज़्यादा गहरी हुई है। गावों के भीतर इन नीतियों के लागू होने के बाद ज़मीन की मिल्कियत लगातार कुछ हाथों में सिमटती गई है जिससे भूमिहीन श्रमिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। देश के भीतर आज ग्रामीण आबादी का 47 प्रतिशत ऐसे ही श्रमिकों का है। शहरी क्षेत्रों में भी श्रम नियमों में ढील के फलस्वरूप भारी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं और सुरक्षित रोज़गारों में कमी आई है। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चाय की क़ीमतों में आई कमी के चलते साठ हज़ार से अधिक मज़दूर बेरोज़गार हुए हैं और लाखों अन्य की वास्तविक मज़दूरी में कमी होने से उनके परिवारों में भुखमरी जैसी स्थित पैदा हुई है। ऐक्शन एड के एक अध्ययन के मुताबिक मार्च 2002 से फ़रवरी 2003 के बीच केवल चार बागानों में ही 240 मज़दूरों की भूख की वज़ह से मौत हो गई।



इसके पहले 2000.2001 के आंकड़ों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति एवम शोध संस्थान द्वारा प्रस्तुत ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भी भारत में भुखमरी की समस्या में लगातार हो रही वृद्धि का खुलासा किया था। इस रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक परिदृश्य पर नायक की तरह उभरने के दावों के बीच भारत इस रिर्पोर्ट में शामिल सबसे बदतर स्थिति वाले 88 देशों में 66वें क्रम पर है। यहाँ 2 करोड़ से भी अधिक भूखे तथा कुपोषित लोग रहते हैं और इस तरह यह दुनिया की सबसे बड़ी कुपोषित आबादी का घर है। विकसित पश्चिमी देशों और चीन को तो छोड़िये हमारा क्रम मंगोलिया, म्यानमार, श्रीलंका, कीनिया, सूडान और पाकिस्तान के भी बाद आता है।



स्पष्ट है कि भूमण्डलीकरण के बाद के दौर में तमाम दावों और विकास दर में उछाल के बावज़ूद जीवन की न्यूनतम ज़रूरतों से समाज का एक बड़ा तबका महरूम होता जा रहा है। रिसाव का वह सिद्धांत पूरी तरह से विफल होता दिख रहा है जो ऊपरी संस्तर पर समृद्धि आने के चलते इसके अपने आप निचले संस्तरों तक पहुंचने को स्वयंसिद्ध मान रहा था। बराबरी या सामाजिक न्याय जैसी बातें तो ख़ैर इसके एज़ेण्डे में थी हीं नहीं। ऐसे में इस तरह के गरीबी रेखा के आंकडों को आसानी से समझा जा सकता है.

पहली बात तो यह कि गरीबी के वास्तविक परिमाण पर किसी भी तरह नियंत्रण कर पाने में असफल सरकारें आंकड़ो में येन-केन प्रकारेण गरीबी को नियंत्रित रखना चाह रही हैं. इसके साथ एक सार्वत्रिक वितरण प्रणाली की जगह पी डी एस सहित तमाम सुविधाओं को इसी गरीबी रेखा द्वारा निर्धारित लोगों तक सीमित कर असल में लोक कल्याण के खर्च पर नियंत्रण रखना चाहती हैं. इसका एक लाभ यह भी है कि चूंकि लाभार्थी समूह सबसे वंचित और बेजुबान है तो उन मदों में किये जाने वाले तमाम भ्रष्टाचार और गुणवत्ता के साथ भयावह समझौतों पर किसी प्रतिरोध की आवाज़ के उठने की संभावना नहीं होगी. इसका एक बड़ा उदाहरण सरकारी स्कूलों के सन्दर्भ में समझा जा सकता है जहाँ अब पढ़ने वाले बच्चों की बहुसंख्या समाज के सामाजिक तथा आर्थिक रूप से सबसे अधिक वंचित दलित-पिछड़े-गरीब तबके के लोगों की है. जबकि पढाने वाले तथा उसकी व्यवस्था पर नियंत्रण करने वाले दबंग तथा सुविधाप्राप्त लोग हैं. ऐसे में उनकी गुणवत्ता पर क्या असर पड़ा है, इसे कोई भी समझ सकता है. यही हाल आज देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भी हो गया है.

इससे जुड़ी हुई बात यह भी है कि एक तरफ सरकार इस मद में न्यूनतम संभव खर्च करना चाहती है तो दूसरी तरफ असल समस्या, लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि को टालना चाहती है. हालिया आंकड़े बता रहे हैं कि पूरे पूंजीवादी विश्व सहित भारत में भी बेरोजगारी में भयावह वृद्धि हो रही है. सरकार खुद स्वीकार करती है कि ‘पिछले वर्षों में प्रभावी आर्थिक संवृद्धि के बावजूद रोज़गार के मोर्चे पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है....भूमंडलीय व्यवस्था से जुड़ाव जितना बढ़ता जा रहा है, देश की अर्थव्यवस्था पर भूमंडलीय आर्थिक शक्तियों की अनिश्चितताओं के प्रति हमारी अर्थव्यवस्था उतनी ही संवेदनशील होती जा रही है. हालिया मंदी ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित किया है और रोज़गार की स्थिति को भी. (देखें रोज़गार-बेरोजगारी पर श्रम ब्यूरो की अक्तूबर – 2010 में प्रस्तुत रिपोर्ट, पूर्वकथन  ) बेरोज़गारी पर एन एस एस ओ हर पाँच साल पर एक बड़े आकार के प्रतिदर्श का सर्वे कराता है और भारत में बेरोज़गारी के आंकडों के लिए यही सबसे बड़ा आधार है. इस बाबत आखिरी सर्वे २००९-२०१० में कराया गया, जिसके प्रारंभिक आंकड़े पिछले महीने जारी किये गए. ये आंकड़े न केवल चौंकाने वाले हैं बल्कि चिंतित करने वाले भी. इन आंकडों से जो पहली चीज़ निकल के आती है वह है देश की       कुल , आम स्थिति – usual status पर आधारित श्रमशक्ति (लोगों की वह संख्या जो या तो काम कर रही है या काम की तलाश में है) में  नगण्य वृद्धि. २००४-०५ से २००९-१० के इस दौर में जब देश की आर्थिक संवृद्धि दर ९-१०% के ऊंचे स्तर पर रही तो देश के भीतर श्रमशक्ति की यह नगण्य वृद्धि आर्थिक संवृद्धि के साथ रोज़गार के अपने-आप बढ़ने के तर्क पर आरंभिक प्रश्चिन्ह खड़े करती है. देखा जाय तो ग्रामीण क्षेत्रों में तो श्रमशक्ति में कमी ही आई है. जहाँ २००४-०५ में इसमें शामिल कुल लोगों की संख्या थी ३४२.९० मिलियन वहीं २००९-१० में यह संख्या घटकर  ३३६.४० मिलियन हो गयी, शहरों में इसमें मामूली वृद्धि देखी गयी और इसी समयांतराल में यह ११५ मिलियन से बढकर १२२ मिलियन हो गयी.

यही नहीं, इस समयांतराल में सभी तरह के रोजगारों (स्वरोजगार, अंशकालिक रोज़गार, घरेलू रोज़गार आदि) में वृद्धि की दर पिछले समयान्तरालों की तुलना में काफी कम रही. जहाँ २०००-२००१ से २००४-२००५ क्र बीच में यह वार्षिक वृद्धि दर २.७% थी वहीं २००४-०५ से २००९-१०के बीच यह केवल ०.८२% रह गयी. यहाँ यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि किस तरह के रोजगारों में वृद्धि हुई. सबसे चौंकाने वाला तथ्य है स्वरोजगारों में कमी. जहाँ २००५-०५ तक अस्थाई तथा सीमांत मजदूरों के अनुपात में कमी आ रही थी और स्वरोजगारों में वृद्धि हो रही थी, वहीं २००९-१० में यह रुझान उलटा हो गया. इसका सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं के सन्दर्भ में देखा गया है. जहाँ २००४-०५ में कुल ६३.७% ग्रामीण और ४७.७% शहरी महिलायें स्वरोजगार कर रही थीं वही २००९-१० में यह संख्या घटकर क्रमशः ५५.७% और ४१.१% ही रह गयी. पुरुषों के लिए यह आंकडा गाँवों में ५८.१% से घटकर ५३.५% और शहरों में ४४.३% से घटकर ४१.१% रह गया जबकि इसी बीच अस्थाई ग्रामीण पुरुष श्रमिकों का अनुपात ३२.९% से बढकर ३८% और गाँवों के लिए १४.६% से बढकर १७% हो गया. महिलाओं के लिए यह अनुपात क्रमशः ३२.६% से बढ़कर ३९.९% तथा १६.७% से बढकर १९.६% हो गया.

इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि गाँवों और शहरों में छोटे-छोटे काम-धंधों पर बुरा असर पड़ा है. खोमचे, ठेले, सब्जी की दुकानें और औरतों तथा पुरुषों द्वारा बेहद कम पूँजी से किये जाने वाले व्यवसाय बड़ी पूँजी के दबाव में अलाभकारी हुए हैं और इनके ज़रिये अपना भरण-पोषण करने वाले लोग निम्न स्तर की मजदूरी वाले असुरक्षित अस्थाई श्रमिक बनने को मजबूर हुए हैं. ऐसा इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि नियमित वेतन वाले रोज़गारों में भी इस दौरान कोई बहुत सकारात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिलता. २००४-०५ से २००४-०९ के बीच इस क्षेत्र में बहुत मामूली परिवर्तन ही देखने को मिला है. शहरों में नियमित वेतन वाले श्रमिकों का अनुपात पुरुषों के लिए ९% से घटाकर ८.५% हो गया है और गाँवों में ४०.६% से मामूली वृद्धि के साथ ४१.९% हो गया है. महिलाओं के लिए यह आँकड़ा क्रमशः ३.७% से बढकर ४.४% और ३५.६% से बढकर ३९.३% हुआ है. साफ़ है कि यह मामूली परिवर्तन स्वरोज़गार में आई भारी कमी को अवशोषित नहीं कर रहा. बेरोजगार हुए लोगों की फौज का बड़ा हिस्सा अस्थाई श्रमिकों में ही तबदील हुआ है.
लेकिन इन आंकड़ो की गवाही और सरकार की स्वीकारोक्ति के बावजूद योजना आयोग का प्रस्ताव पत्र इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है. अपनी शुरुआती चिंताओं के बावजूद इस दस्तावेज में रोजगार में वृद्धि के लिए कोई रणनीति घोषित नहीं की गयी है. हालत यह है कि रोजगार के लिए इसमें कोई अलग से अध्याय भी नहीं रखा गया है. साफ़ है कि अब तक के प्रतिकूल अनुभवों के बावजूद हमारे नीति निर्माता यही मान  रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर बढ़ने से रोज़गार अपने-आप बढ़ जाएगा. तभी तो विनिर्माण क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर में भारी वृद्धि के बरक्स नकारात्मक बढ़त के बावजूद यह दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है कि ‘ विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन की दर इस गति से बढाई जानी चाहिए कि वर्ष २०२५ में इस क्षेत्र में १०० मिलियन अतिरिक्त नौकरियाँ उपलब्ध हों’ (पेज ११०). अब यदि २००४-०५ से २००९-१० के बीच विनिर्माण क्षेत्र में ८% की चक्रवृद्धि संवृद्धि के बावजूद इस क्षेत्र में रोज़गार में कमी आई तो बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के आगामी वर्षों में यह अतिरिक्त नौकरियाँ कैसे सृजित की जाएँगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

अब अगर इन सब तथ्यों को एक साथ मिलाकर देखा जाए तो साफ़ है कि सरकारों की पूंजीवादी विकास की नीतियों से वंचित तबके की मुश्किलें लगातार बढती जा रही हैं. आय और संपत्ति के वितरण में असमानता की यह सतत वृद्धि दरअसल इस पूंजीवादी समृद्धि विमर्श के मूल में है और इसे आर्थिक संवृद्धि के लिए ज़रूरी भी मानती है. शेयर बाज़ार और पूंजीपतियों के धन की वृद्धि के आधार पर देश के विकास को परिभाषित किये जाने के के इस उपक्रम में गरीबी या बेरोजगारी का समूल उन्मूलन सरकारों के एजेंडे में है ही नहीं. गरीबी की नयी-पुरानी रेखाएँ या थोड़ा-बहुत खैरात इस देश या दुनिया के वंचितों को बराबरी तो छोड़िये, एक सम्मानपूर्ण जीवन भी नहीं दे सकता. उसके लिए ज़रूरी है एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था जिसके लिए विकास का अर्थ देश के समस्त नागरिकों के जीवन स्तर में वृद्धि हो तथा जिसका लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना हो जहाँ शान्ति, समाजवाद तथा समृद्धि में निरंतर वृद्धि हो सके.


1 टिप्पणी:

  1. न्यूनतम और अधिकतम आय का जो अनुपात है, वह प्रति व्यक्ति आय में परिलक्षित नहीं होता, इसलिए गरीबी का जो गर्त है उसे नीति निर्धारक समझ ही नहीं सकते. विदेशी पूँजी विनियोजन और सेंसेक्स की छलांग वैसी ही भ्रामक तस्वीर निर्मित करते हैं जैसी INDIA SHINING के वक़्त दिखाई जा रही थी. उसमें और 'भारत निर्माण' में कोई तात्विक भेद नहीं है. विकास दर बढ़ती है तो भी उसके लाभ नीचे तक तो जाते नहीं बल्कि कुछ हाथों में ही संकेंद्रित हो जाते हैं. मंहगाई को काम करने के लए प्रशासनिक क़दम न उठा कर रिज़र्व बैंक के माध्यम से प्रयत्न करना इस सरकार की वैचारिक/ अर्थ शास्त्रीय समझ के दिवालियापन की ओर ही संकेत करता है. गरीबी रेखा की परिभाषा पर तो चुटकुले बन गए हैं.

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