वैकल्पिक आर्थिक सर्वे
भारत मे आर्थिक वृधि एवं विकास - गहराते अन्तेर्विरोध
प्रकाशन वर्ष - 2011, मूल्य - रु. 175/-
V.P.P. से मगाने के लिये लिखे
युवा संवाद, 167A/GH-2,पश्चिम विहार, नई दिल्ली 110063
इ मेल - ysamvad@gmail.com
|
किताब के बैक कवर से --
भारतीय समाज और अर्थव्यस्था पर पिछले दो दशकों से काबिज देसी-परदेसी, बड़ी पूँजीपरस्ती का चेहरा अब बेनकाब हो चुका है, साथ ही हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों और उनकी सदारत में संचालित चुनावी लोकतंत्र का भी. साफ़ नज़र आ रहा है कि आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था, दोनों ही कुछ मुट्ठी भर तबकों की पारिवारिक जागीर सी बन गए हैं. फलस्वरूप समावेशी विकास जैसे नकली आवरण अब जन विरोधी यथार्थ को छिपा नहीं पा रहे हैं. दिन-प्रतिदिन बढ़ती गरीबी, मँहगाई, बेरोज़गारी, गैरबराबरी, पर्यावरण प्रदूषण तथा प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेटी व् अंध उपभोक्तावादी लूट असहनीय होते जा रहे हैं. स्वयं अपने सातत्य पर मँडराते खतरों से जूझते वैश्विक कार्पोरेटी पूंजीवाद की छत्र- छाया में भारत में थोपे गए उदारीकरण को अब गंभीर जन-चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. भ्रष्टाचार और याराना पूंजीवाद जैसी विकृतियाँ अब सीधे जन आंदोलनों के निशाने पर हैं.
इस वार्षिकी में कुछ समाज विज्ञानियों, संवेदनशील पत्रकारों व् सामजिक कार्यकर्ताओं आदि ने इन उभरती सच्चाइयों का सरल एवं जनपक्षीय विवेचन प्रस्तुत किया है.
लेखक सूची
अभय नारायण राय
अरविंद मोहन
अरुण कुमार
अरुण कुमार त्रिपाठी
अशोक कुमार पाण्डेय
ए. के.अरुण
कमल नयन काबरा
कमल नयन चौबे
कृष्ण मुरारी
जया मेहता
मनमोहन कृष्ण
मनाली चक्रवर्ती
रामशरण जोशी
राहुल वर्मन
रोशन नायर
वी. उपाध्याय
विनीत तिवारी
सुनील
जानकारी के लिए शुक्रिया। कभी देख पाए तो प्रतिक्रिया भी देंगे।
जवाब देंहटाएंअभी 4-5 दिन पहले ही पढना शुरू किया है ...देखते हैं क्या निष्कर्ष निकलता है ....!
जवाब देंहटाएं