अन्ना आंदोलन के आरंभ से ही जनपक्ष पर हम इस बहस को लगातार चला रहे हैं. भर्त्सना और वंदना के अतिरेकी माहौल में ए के अरुण का यह आलेख अन्ना आंदोलन और उसके प्रभावों की तलस्पर्शी समीक्षा का प्रयास करता है. यह आलेख राज्यसभा की ''बहस'' के पहले लिखा गया था और हिन्दी दैनिक 'आज समाज' में प्रकाशित हुआ था. इस विषय पर जनपक्ष पर आये अन्य आलेख आप यहाँ पढ सकते हैं.
अन्ना आन्दोलन और उससे आगे
- डा. ए.के. अरुण
लोकसभा में दिन भर चली बहस के बाद आखिरकार संशोधनों सहित लोकपाल विधेयक पारित हो गया। यह विधेयक ध्वनिमत से पारित हुआ। बाद में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने के लिये सदन में संवैधानिक संशोधन बिल पर वोटिंग कराई गई। पहली वोटिंग में यह विधेयक पारित हो गया लेकिन बाद में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने संवैधानिक संशोधन बिल के बहुमत पर सवाल उठाया तो बहुमत के अभाव में यह पारित नहीं हो पाया। लोकसभा ने संशोधनों सहित व्हिसिलब्लोअर बिल भी पारित किया।
इस बीच अपनी खराब तबियत के बावजूद अन्ना हजारे मुम्बई के एम.एम.आर.डी.ए. मैदान में अपनी पूर्व घोषित योजना के अनुसार अनशन पर रहे। अन्ना और अन्ना टीम इस लोकपाल बिल को पहले से ही ‘‘जोकपाल’’ कह रहे है। अब आज अन्ना ने घोषणा की और लोगों से कहा कि, ‘‘वे आर.पार की लड़ाई के लिये तैयार रहें।’’ जाहिर है कि अन्ना इस पारित लोकपाल बिल से खुश नहीं हैं। उन्होंने अपनी चेतावनी फिर से दुहराई है कि वे 5 राज्यों में होने वाले आगामी चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार भी करेंगे। (इसके बाद अनशन और प्रस्तावित जेल भरो के स्थगन के साथ पत्रकारों के सवाल बीच में छोड़ कर जाने के उनके निर्णय से आप परिचित हैं ही.-माडरेटर)
लोकपाल पर अन्ना आन्दोलन की यदि सहज पड़ताल करें तो कई बातें सामने आती हैं। पहली बात कि अन्ना, उनकी टीम और यह लोकपाल आन्दोलन धीर धीरे अपनी चमक खोता जा रहा है। जाहिर है इस बीच विचारों की अस्थिरता, आम जन से सम्पर्क का अभाव, टीम अन्ना में आपसी तालमेल की कमी तथा आन्दोलन में वैचारिक अस्पष्टता आदि ऐसे कई बिन्दु हैं जो इस आन्दोलन और अन्ना की चमक को कम कर रहे हैं। महज भावनाओं के ज्वार और उत्तेजना में आन्दोलन लम्बे समय तक नहीं चला करते। सन् 74, 77 के सधे और व्यवस्थित आन्दोलनों के उदाहरण के बाद भी यदि हम सबक नहीं लेते तो यह हमारी ही नादानी है। 80 के दशक में वी.पी. सिंह का आन्दोलन भी उन्हें सत्ता में तो बिठा दिया लेकिन लक्ष्य को पूरी तरह नहीं पा सका। आज अन्ना टीम पर भी यही आरोप लगना शुरू हो गया है कि अपनी मनमानी और विचारहीनता की वजह से सामाजिक परिवर्तन के एक सम्भावनाशील आन्दोलन को उभारकर अब भटकाया जा रहा है। कभी कवि मुकुट बिहारी सरोज ने लिखा था-
"अस्थिर सबके सब पैमाने
तेरी जय जय कार जमाने
बन्द किवाड़ किये बैठे हैं
अब कोई आए समझाने
फूलों को घायल कर डाला
कांटों की हर बात सह गए
कैसे कैसे लोग रह गए.....’’
यह देश के लिये दुखद होगा कि जन लोकपाल आन्दोलन ‘‘जन पथ’’ पर चलते चलते एनजीओ के आन्दोलनी लटके-झटके, कथित आधुनिक तकनीक और हाइप्रोफाइल कार्यकर्ताओं की वजह से कहीं ‘‘राजपथ’’ पर जाकर भटक न जाए। अन्ना हजारे का एक लम्बा सार्वजनिक जीवन रहा है। वे महाराष्ट्र की सीमा में रह कर भ्रष्टाचार से निडर होकर लड़ते रहे। इस वजह से शिव सेना, कांग्रेस, भाजपा आदि के नेताओं के आंखों की वे किरकिरी भी रहे। इधर जब यूपीए सरकार के जम्बो ‘‘घोटाले’’ से देश त्रस्त था तब पूरे देश ने अन्ना आन्दोलन को अभूतपूर्व सहयोग दिया लेकिन स्वयं टीम अन्ना के लोगों के विरोधाभासों ने धीरे धीरे लोगों को खामोश करना शुरू कर दिया। आज जब अन्ना ने 27 दिसम्बर से फिर अनशन सत्याग्रह की घोषणा की तो पहले की तुलना में महज 10 फीसद लोग ही सड़क पर आए। जाहिर है इसमें दिसम्बर की ठंढ के साथ साथ कई कारणों से टीम अन्ना की कम होती चमक भी जिम्मेवार है।
मशहूर लातीनी अमरीकी क्रान्तिकारी रोगी देबे्र कहते हैं- ‘‘क्रांति की गति वर्तुल या चक्रीय होती है। वह दुबारा अपनी रीढ़ की हड्डी पर फिर खड़ी की जा सकती है।’’ यह अच्छा नहीं होगा यदि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन बिखर जाए। इस आन्दोलन के दो विरोधी तो साफ-साफ देखे जा सकते हैं। एक तो केन्द्र सरकार व कांग्रेस तथा कुछ छुटभैये तथा हाशिये पर फेक दिये गए राजनीतिक दल तथा दूसरे दलित राजनीति के लोग। लेकिन इसके साथ-साथ टीम अन्ना से कभी जुड़े रहे कुछ लोग भी अन्ना आन्दोलन के आलोचकों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं। जिस मीडिया ने अन्ना आन्दोलन को आसमानी बुलन्दी पर पहुंचाया अब वही मीडिया अरविन्द केजरीवाल को खलनायक बता रहा है। किरण बेदी ‘‘हवाई यात्रा’’ बिल में घपला की जिम्मेवार हैं तो प्रशान्त भूषण का ‘‘स्वतंत्र कश्मीर’’ विचार। अभी उन्हें हिमाचल सरकार से कृषि योग्य वह ज़मीन उनके ट्रस्ट के लिए दी गयी है जो नियमानुसार किसी बाहरी को दी ही नहीं जा सकती. अन्ना इन सब मुद्दों पर निरूत्तर है। इसके अलावे विभिन्न आन्दोलनों से भ्रष्टाचार की वजह से निकाल फेंके गए कुछ कचडे कार्यकर्ता भी अब अन्ना टीम मे उत्तराघिकार का दावा कर रहे हैं। अन्ना टीम के पी.वी. राजगोपाल, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, संदीप पाण्डेय, न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े आदि भी ‘‘अन्ना टीम’’ व ‘‘अन्ना विचार’’ से कभी अपनी असहमति जता चुके हैं।
समय और इतिहास ने अन्ना को मौजूदा हालात में एक लोकप्रिय एवं सहज जन आन्दोलन का विनम्र नेतृत्व सौंपा है लेकिन अन्ना टीम के कुछ लोग इन्हें युग प्रवर्तक या अवतार समझने की भूल कर रहे हैं। महात्मा गांधी भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों से बैर नहीं रखते थे। वे अंग्रेजों के नहीं अंग्रेजियत के खिलाफ थे। अन्ना की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे एक कर्मयोगी तो हैं लेकिन विचारक या बुद्धिजीवी नहीं। गांधी ने अपने निजी जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक कर्म, मन और वचन तीनों में बराबर साम्य रखा इसीलिये ‘‘साम्राज्य’’ उनसे डरा और अन्ततः ‘‘सत्ता हस्तान्तरित’’ कर चला गया।
अन्ना ने अपने समर्थकों के लिये कुछ सुत्र घोषित किये हैं। ये हैं- 1.शुद्ध आचरण, 2. शुद्ध विचार, 3. निष्कलंक जीवन, 4. अपमान सहने की ताकत एवं 5. सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता। हैरानी की बात यह है कि टीम अन्ना के पहली पंक्ति के ही लोग इन विचारों पर खरा नहीं उतरते। कभी कभी स्वयं अन्ना भी किसी खास राजनीतिक दल अथवा विचारधारा से प्रभावित लगते हैं. कई मौके पर अन्ना का ‘‘ओरिजनल’’ रूप भी दिखाई दे ही जाता है। जैसे शरद पवार के गाल पर पड़े थप्पड़ पर दी गई अपनी प्रतिक्रिया से अन्ना गान्धीवाद को ही बदनाम करते दिखते हैं। ऐसे ही कई विवादास्पद मुद्दों पर अन्ना की चुप्पी भी एक सधे राजनीतिज्ञ की प्रतिक्रिया ही लगती है।
इसमें सन्देह नहीं कि भ्रष्टाचार आज देश में एक बड़ा मुद्दा है लेकिन देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी किसानों की बदहाली, बढ़ता विदेशी आक्रमण, परमाणु सम्बन्धी आदि इतने मामले हैं जिन्हें नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। जन लोकपाल के साथ साथ अन्ना और अन्ना टीम को इन मुद्दों पर भी सोचना होगा। देश की जनता तो कई बार कई तरह से और लगभग प्रत्येक चार पांच बरस पर जो ठगी जाती है उसे हर एक छोटे-बड़े मुद्दे पर बारी-बारी से खड़ा करना इतना आसान नहीं है। अन्ना और अन्ना टीम को यह भी समझना पड़ेगा कि मंत्री, नौकरशाह और कर्मचारी तो भ्रष्टाचार कर ही रहे हैं लेकिन अम्बानी, टाटा, राडिया, संधवी, चिदम्बरम आदि का क्या किया जाए?
उदारीकरण के दो दशक बाद हम ‘‘गहराते अन्तर्विरोध’’ के शिकार हैं। देश के जनपक्षीय अर्थशास्त्री और समाजशात्रियों के एक समूह ने वैकल्पिक आर्थिक सर्वेक्षण-2011 में खुल कर विश्लेषण किया है कि मनमोहन और आहलूवालिया की गठजोड़ ने देश के लोगों के बीच की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृति असमानता को इन दो दसकों में इतना बढ़ा दिया है कि मामला 77 प्रतिशत बनाम 23 प्रतिशत का हो गया है। जिस भारतीय संविधान की दुहाई देकर हम लोग बाबा साहेब की जयजयकार करते हैं उसी संविधान की मूल अवधारणा को खारिज कर हमारे शाषण के लोग और योजनाकारों ने पूंजीवाद को देश में खुला खेलने के लिये छोड़ दिया है। क्या अन्ना और उनके टीम के लोग इस विषम वैश्वीकरण, बांझ विकास, विषमता बढ़ाने वाली वृद्धि, कथित उदारवाद आदि के खिलाफ भी कुछ बोलेंगे? ताकि देश में आत्महत्या करते किसान, बढ़ती बेरोजगारी व दिशाहीन राजनीति को एक व्यापक मंच मिल सके और व्यवस्था परविर्तन की मुक्कमल लड़ाई छिड़ सके।
यदि हमने आन्दोलन और जन उभार के इस मोड़ पर रूककर स्वस्थ्य एवं ईमानदार आलोचना तथा आत्ममंथन नहीं किया तो फिर देश अपने को ठगा महसूस करेगा और भविष्य में खड़ा होने वाले वास्तविक आन्दोलन में शामिल होने से हिचकेगा। इस जनआक्रोश को व्यापक जन आन्दोलन में तब्दील करने के लिये न केवल अन्ना और उनके कथित टीम के लोग ही नही बल्कि देश के सभी देशी चिन्तक, समाजकर्मी, बुद्धिजीवी, किसान, नौजवान स्त्री, पुरुष, दलित, मुस्लिम आदि को सोचना ही होगा और इन आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर इसे सही दिशा में मोड़ना होगा। यही समाज की जरूरत और मांग है।
- लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं। साथ ही सक्रिय लेखक और मासिक विचार पत्रिका युवा संवाद के संपादक भी.
ई-मेल : docarun2@gmail.com
Theek kah rahe hain. jaroori sawalon par khamoshi aur ek khas rajneeti ki taraf jhukav, team ke agli pankti ke logon ka charitr adi tamam bate hain. ye aise sawal hain jo andolan men bheed jutne par bhi barkarar rahte hain. agar koii andolan safal bhi ho jaye to bhi is tarh ke sawalon se pind nahi chhutaya ja sakta, kam se kam pragatisheel, loktantrik buddheejiviyon ko to inhe samjhna chahiye hi. maan leejiye Ramdev maidan se darkar na bhagte to apne tamam khatarnaak agrhon ke baavjood desh men wo `safal` hone ki or badh hi gaye the.
जवाब देंहटाएंबेहद संतुलित और निष्पक्ष लेख है यह। इधर कुछ दिनों से इस मुद्दे पर दो ही तरह के लेख पढ़ने में आ रहे थे - एक अन्ना और उनकी टीम को लगभग अवतार के रूप में प्रतिस्थापित करते हुए और दूसरे उन्हें कुल्ला कर करके गाली देने वाले। दोनों को पढ़ने के बाद सहमत होना मुश्किल जान पड़ता था। पर यह लेख इस पूरे परिदृश्य की सही पड़ताल करता है। डॉ. ए. के. अरुण जी को बधाई
जवाब देंहटाएंसटीक आलेख।
जवाब देंहटाएंनये वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें....