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रविवार, 29 जनवरी 2012

उम्मीद यहाँ है!

ये दोनों कहानियां वीरबाला कालीबाई राजकीय कन्या महाविद्यालय , डूंगरपुर की दो  छात्राओं की हैं. महाविद्यालय में सप्ताह-दस दिन पहले साहित्यिक प्रतियोगिताएं  हुई थीं. छात्राओं को एक चित्र दिया गया था और उसके आधार पर तत्काल अपनी कल्पना से एक कहानी गढनी थी.( यह विचार मूलतः प्राचार्य डॉ.स्निग्धा द्विवेदी की उपज था.). इन दोनों कहानियों को प्रथम पुरस्कार मिला था.बेशक, दोनों ही अनगढ़ रचनाएँ हैं ,पर मुझे इन्हें पढते हुए लगा कि इन्हें दोस्तों को भी पढवाया जाना चाहिए .डूंगरपुर भारत के आदिवासी बहुल इलाकों में से एक है और महाविद्यालय में भी पिच्चानवे फीसदी विद्यार्थी  आदिवासी समुदाय से आते हैं.पिछले दशक तक यह जिला न्यूनतम महिला साक्षरता वाले  जिलों में से एक था.गुजरात की ओर पलायन ,यह आज भी यहाँ बचे रहने की जिद का एकमात्र सहारा है. - हिमांशु पंड्या 



वह चित्र जिसे देखकर छात्राओं को कहानी लिखनी थी 


*प्रेमा *
  •  *सुनीता वरहात,बी.एस.सी. प्रथम वर्ष*

यह कहानी एक ऐसी लडकी की है जो एक छोटे से गाँव में रहती थी.उस लडकी का नाम प्रेमा था.प्रेमा का परिवार बहुत गरीब था और कोई भी सदस्य पढ़ा-लिखा नहीं था. प्रेमा के पिता गरीब किसान थे जिनकी आय बहुत ही कम होती थी, जिस कारण परिवार को आर्थिक सुख नहीं मिल पाता था.  प्रेमा के गाँव में विद्यालय नहीं था.गाँव के बाहर एक विद्यालय था.वह रोज गाँव  के कुछ बच्चों को वहाँ जाते हुए देखती और उसे भी पढने लिखने की इच्छा जाग्रत होती.उसके पिता उसे दूर भेजने के खिलाफ थे.वे चाहते थे कि वह घर पर रहकर ही घर का काम करे.


 एक दिन डाकिया डाक लेकर उनके घर आया और चिट्ठी देकर चला गया.चिट्ठी ( थोड़ी सी) फटी हुई थी.उसके पिता ने सोचा कि उनका कोई परिजन चल बसा है.कई दिनों तक उनके घर में मातम छाया रहा.कुछ दिन बाद पोस्टमैन वहाँ से गुजर रहा था.वह उनके घर पानी पीने के लिए रुका और पूछा कि तुम इतने दुखी क्यों हो.तब प्रेमा के पिता  ने सारी बात बताई.डाकिये ने पत्र पढ़ा तो पाया कि उसके मित्र ने यह चिट्ठी भेजी है और वो यहाँ कुछ दिनों में आ रहा है. सारी बात सुनकर प्रेमा के पिता को चिंता हुई कि मैंने अभी उसके स्वागत के लिए कुछ भी व्यवस्था नहीं की है . मैं उसे अच्छा भोजन भी नहीं करा पाऊंगा. 


दो दिन बाद उसका मित्र आया और पूछा कि क्यों रे हरिराम तुम मुझसे मिलकर खुश नहीं हुए, तब हरिराम ने कहा कि नहीं मैं बहुत खुश हूँ.माफ करना मैं तुम्हारे लिए कुछ ज्यादा नहीं कर सका.हरिराम का मित्र विजेन्द्र बोला ," मैं तो यहाँ  तुमसे मिलने के लिए आया हूँ,मौज करने थोड़े ही आया हूँ.अच्छा बता क्या चल रहा है? तेरी बिटिया क्या कर रही है? कौनसी कक्षा में पढती है?"


 हरिराम बोला,"नहीं पढ़ रही है.क्या करना है पढकर! उसे चूल्हा चौका ही तो करना है !"


मित्र ने कहा,"ऐसी बात नहीं है.अगर तेरे परिवार में कोई पढ़ा होता तो तो तुझे मेरा पात्र पढकर मेरे आने की खबर मिल गयी होती.तू फटी चिट्ठी होने का मातम नहीं मनाता." 


हरिराम का मित्र चला गया और हरिराम ने काफी कुछ सोचा . अगर मेरी बेटी पढाती तो  वह इस पात्र को पढकर सही बात बताती और मुझे उलटे सीधे विचार नहीं आते.मैं अपनी बेटी को पढाऊंगा और अफसर बनाऊंगा..और उसने प्रेमा को विद्यालय भेजा.प्रेमा भी विद्यालय जाकर काफी खुश थी.वह पढाई लिखाई में काफी होशियार साबित हुई.कक्षा में हमेशा प्रथम-द्वितीय ही  आती.कुछ सालों में उसने अपने परिवार का नाम रोशन किया.पढाई पूरी करने के बाद वह पुलिस अफसर बनी,अपने पिता का साथ दिया और उनका परिवार आर्थिक रूप से सक्षम बना.


 उनके परिवार को देख दूसरे लोगों की भी इच्छा हुई कि हमारे घर की बेटी भी पढ़े.अब प्रेमा का परिवार सुखी परिवार था.प्रेमा ने थोड़ा बहुत पढना उसके पिता को भी सिखाया जिससे वे बहुत खुश हुए.अब वे भी पढ़ सकते हैं.अब उन्हें आने जाने,कामकाज,खरीददारी सबमें सुविधा हो गयी.



 प्रेमा गाँव की ज़िंदगी में रोशनी लाई.


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 *पलायन *
 *हिमांशी दवे,**बी.कॉम.प्रथम वर्ष *

 ये कहानी एक ऐसे गाँव की है जहाँ न तो बिजली की सुविधा थी और न ही आय का  साधन. सभी गाँववासी कृषि पर निर्भर थे.इसके अलावा किसी के पास कोई अन्य आय का जरिया नहीं था.कृषि पर निर्भरता होने से सभी मानसून का बेसब्री से इंतज़ार  करते.इस वर्ष भी सभी इंद्र देवता को रिझाने के भरसक प्रयास कर रहे थे. कोई  मंदिरों में मन्नत मांग रहा था तो कोई प्रार्थना कर रहा था.समय बीतने के साथ ही मानसून आया और भूमि को थोड़ा तृप्त करके चला गया.सभी की आँखें आसमान की और टकटकी लगाए थीं.


इसी तरह रामलाल और उसके बच्चों की निगाहें भी बादलों का इंतज़ार कर रही थीं कि  कब बारिश हो और हमारे घर का गुजर बसर हो सके.हमें भी स्वादिष्ट भोजन मिले.पर इंद्र देवता इतने से ही थोड़े मानने वाले थे.इस वर्ष अकाल पड़ा.सरकार ने उस गाँव  को भीषण अकालग्रस्त गाँव घोषित किया.दिन बीतते गए.रामलाल के घर में अन्न का एक  दाना भी नहीं था.कई दिनों तक उसका परिवार भूखा सोया.उसके तीन पुत्र तथा एक पुत्री थी.


गाँव के कई लोग पलायन कर शहर की ओर गए क्योंकि शहर में जल्दी काम मिल जाता है.धीरे धीरे पूरा गाँव खाली होने लगा.गाँव की चौपालों में गांववासियों की संख्या कम होने लगी.वो बच्चों का खेलना,ऊधममस्ती करना बंद हो गया.गाँव के  गलियारे धीरे धीरे खाली होने लगे. रामलाल के मन में भी विचार आया कि 'क्यों न मैं भी शहर चला जाऊं'. यही विचार  उसने अपनी पत्नी को कहा.लेकिन उसके पास सपरिवार शहर जाने के पैसे भी नहीं थे.कहीं कहीं से पैसे का थोड़ा बंदोबस्त कर कुछ पैसे इकठ्ठे किये गए,लेकिन वो  भी केवल तीन सदस्यों के जाने के लिए ही पर्याप्त था.तब उसने सोचा कि मेरे तीन  पुत्र हैं जो शहर जाकर मजदूरी करेंगे तो मेरा कर्जा जल्दी से जल्दी उतर जाएगा.सो वह अपने साथ तीन पुत्रों को ले गया.फिर उसी अपना व अपनी पत्नी का ख़याल आया तो वह रुपयों के लिए अपना घर गिरवी रखकर पैसे ले आया.इस तरह पाँचों के शहर जाने व रहने का इंतज़ाम तो हो गया. लेकिन उसकी पुत्री के लिए पैसे का इंतजाम न हो पाया.रामलाल ने उसे अपने ममेरे भाई के यहाँ भेज दिया क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति ठीक थी.


सभी पाँचों लोग शहर चले गए और उसकी पुत्री को छोड़ गए.उसकी पुत्री सविता दिन भर काम करती और उसे बदले में दो समय का भोजन मिल जाता. धीरे धीरे समय गुजरता गया . उसे अपने माता पिता की याद आने लगी.एक हंसती खिलखिलाती लडकी उदास रहने लगी.उसकी निगाहें हमेशा गाँव के प्रवेश द्वार पर लगी रहती थीं.कि कब उसका परिवार,उसके माता-पिता उसे अपने साथ शहर ले जाएँ. लेकिन यह ख़्वाब तो सिर्फ ख़्वाब था. आज भी सूरज उगने के साथ ही सविता की आँखें गाँव के रास्ते को निहारती रहती हैं


लेकिन सूरज ढलने के साथ ही वे आँखें थक कर झुक जाती हैं.



12 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया लघुकथाएं .....उम्मीद बनी रहे ......आमीन !

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  2. कहानियाँ पढी। सहजता है। दोनों लिखनेवालों को शुक्रिया!

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  3. बढ़िया प्रयास है ...ऐसे प्रयास ही निखारेंगे इन प्रतिभाओं को भी !

    ऐसे आयोजन करने वाले भी बधाई के पात्र है !

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  4. महाविद्यालय में साहित्यिक कार्यक्रमों में ऐसे आयोजनों को और प्रोत्‍साहित किया जाना चाहिए। प्राचार्या स्निग्‍धा जी बधाई की पात्र हैं। भले ही कहानियां काल्‍पनिक हों, लेकिन पक्‍के तौर पर उनमें उनके परिवेश और हालातों की झलक मिलती है। लिखने वालों का उत्‍साहवर्धन किया जाना चाहिए।

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  5. सुनीता और हिमांशी को बधाई देता हूँ ! समाज में व्याप्त अशिक्षा , गावं से शहरों की तरफ का पलायन , कन्याओं की दशा आदि आदि मुद्दों पर इन बच्चियों की भरपूर नज़र है ! इन समस्याओं को दोनों ने कम शब्दों में बहुत ही सहज रूप से इन लघु कथाओं में व्यक्त किया है ! दुआ करता हूँ कि इनकी द्रष्टि में जनमानस की भावना सघन होती रहे और ये प्रगति के पथ पर बढ़ती रहें ! बधाई !

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  6. नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने और उनमे लेखन कि अभिरुचि जागृत करने के लिए ऐसे आयोजन बहुत ही कारगर हो सकते हीं, इसका प्रमाण हैं ये दोनों कहानियाँ.एक अनुकरणीय कदम.

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  7. हिंदी कहीं नहीं जा रही. पता नहीं लोगों के मन में ऐसी खामखयाली क्यों और कहाँ से उपजती है ? हिंदी का स्वरूप थोडा - बहुत बदल रहा है और बदलना चाहिए भी क्योंकि वह एक जीवित भाषा है. हिंदी का भविष्य काला देखना एक फैशन हो गया है. इन बच्चियों का प्रयास बहुत अच्छा है. कहानियाँ सीधी और सरल हैं जैसी होनी चाहियें. इन्हें यदि उचित मार्गदर्शन मिले तो ये ही बहुत आगे जा सकतीं हैं.

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  8. हिमांशुजी की यह सक्रियता आश्वस्तिप्रद है.

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  9. हिन्दी का भविष्य सुरक्षित है. क्योंकि इसमें अब ’मार्फ़त’ बात नहीं होगी और जिसकी कथा अब तक दूसरों ने कही, अब वह खुद बोलेगा. यह साहित्य का प्रत्यक्ष लोकतंत्र है.

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  10. दोनों कहानियों में वो सच्चाई है जो बार बार कहने पर भी पुरानी नहीं होती. और कहानी का असली मकसद, एक समय और जगह को eternity के लिए छाप देना - दोनों में पूरा होता है.

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  11. निश्चित रूप से उम्मीद यहाँ है. सुनीता और हिमांशी को तमाम सारी शुभकामनाओं के साथ!!

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  12. अच्छा संदेश देती हुई सुन्दर कहानी.....
    कृपया इसे भी पढ़े-
    नेता, कुत्ता और वेश्या

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