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बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

सदाचार की गठरी : हिमांशु पांड्या

हिन्दी की युवा कहानीकार ज्योति कुमारी द्वारा दर्ज यौन दुर्व्यवहार की शिकायत के बाद उठे विवाद में ताज़ा कड़ी में हमारी भाषा के एक समर्थ लेखक अनिल कुमार यादव का लेख एक साथ दो ब्लोग्स पर शाया हुआ है.इन दोनों में से कम से कम एक ब्लॉग इससे पहले खुलकर ज्योति कुमारी के समर्थन में आया था और इसके मॉडरेटर ने ज्योति की बहादुरी को सलाम किया था. अनिल यादव का लेख घोषित रूप से हिन्दी पट्टी में सेक्सुअलिटी को लेकर छाई घनघोर चुप्पी पर सवाल उठाता है , इसी चुप्पी को महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुर्व्यवहारों के लिए उत्तरदायी मानता है और इसे मिटा देने का आव्हान करता है. अनिल जी हिसाब से इसका सबसे मुफीद तरीका ये है कि ‘स्त्री विमर्श’ के पुरोधा राजेन्द्र यादव से उनके जीवन में सेक्स और सृजनात्मकता के अंतर्संबंधों पर बात की जाए , उनके जीवन में आयी ‘महिला लेखिकाओं और सेक्स और क्रियेटिविटी’ पर बात की जाए. हालांकि अनिल जी की इच्छा ‘पुरानी लेखिकाओं’ पर बात करने की थी पर बात ज्योति कुमारी पर केन्द्रित हो जाती है और फिर बड़ी चतुराई से राजेन्द्र यादव को कठघरे में खडा करने का ऊपरी दिखावा करते हुए यह बातचीत एक युवा लेखिका के शाब्दिक गरिमा हनन में जुट जाती है. वह सारा हिस्सा आपइन लिंक्स पर जाकर पढ़ सकते हैं , मेरी उद्धृत करने की कोइ इच्छा नहीं है , मैं इस लगभग पोर्नोग्राफिक पूर्वार्ध पर नहीं उत्तरार्ध पर बात करूंगा जो ज्योति कुमारी के ‘हमदर्द’ अनिल कुमार यादव द्वारा उन्हें सलाह के रूप में लिखा गया है.
वे लिखते हैं ,"अस्मिता बचाने के साहसिक अभियान पर निकली ज्योति कुमारी सबको बता रही हैं कि राजेंद्र यादव उन्हें बेटी की तरह मानते थे. और इसके अलावा कोई रिश्ता नहीं था. वह ऐसा करके एक कल्पित नायिका स्टेटस और शुचिता की उछाल पाने के लिए एक संबंध और अपने जीवन को ही मैन्यूपुलेट कर रही हैं. " ठीक , मान लिया. तो क्या अनिल ये कह रहे हैं कि ज्योति को अपने संबंधों का ऐलानिया स्वीकार बेहिचक करके अपने साहस का परिचय देना चाहिए था . ( इसमें ये तो आ ही गया कि राजेन्द्र यादव का दावा - हो सकता है , हो सकता है कि वह एक वृद्ध की कुंठा का प्रदर्शन हो कि'देखो मैं शारीरिक रूप से अक्षम हूँ तो क्या आज भी शिकार कर सकता हूँ !' /  हो सकता है कि यह दावा एक तरह की खीझ से उपजा हो उस लेखक के प्रति जो एक अस्सी  साला लेखक से स्त्री विमर्श के नाम पर 'सेक्स और सर्जनात्मकता के रिश्तों' पर ही बात करना चाहता था -जो भी हो पर - उनका ही दावा सही है, ज्योति का 'पिता समान' वाला दावा खोखला है. ) लेकिन ऐसा होता तो वे ये क्यों लिखते , "यह अस्वाभाविक नहीं है कि लोग मानते हैं कि एक कहानीकार के तौर खुद को धूमधड़ाके से प्रचारित करने के लिए उन्होंने ऐसा ही एक और मैन्यूपुलेशन किया होगा." यह सबसे अच्छा तरीका होता है , अपनी राय को ‘लोग मानते हैं’ की गिरह में लपेटकर पेश करदो ,और चूंकि ‘यह अस्वाभाविक नहीं है’ अतः आप अपनी नहीं जनमत की राय व्यक्त कर रहे हैं. इसे कहते हैं एक तीर से दो शिकार ! यानी वे - यदि स्पष्ट कहूं तो इन दो व्यक्तियों के संबधों को 'मैनिपुलेशन' कह रहे हैं , इसे एक सीढ़ी बता रहे हैं जिसे ज्योति ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ती के लिए इस्तेमाल किया.
 ध्यान से देखिये , एक ओर वे भारतीय समाज की सेक्सुअलिटी पर चुप्पी के खिलाफ प्रगतिशील बयान दे रहे हैं . यौन अपराध का बदला यौन हिंसा नहीं होती - जैसी मार्के की बात कह रहे हैं और दूसरी ओर वे राजेन्द्र यादव की उन 'चेलियों' (ध्यान दीजिये, चेलों नहीं सिर्फ चेलियों ) को गरिया रहे हैं जिन्हें उन्होंने "साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं. "  ज्यादा दिन नहीं हुए जब विभूतिनारायण राय ने एक ख़ास शब्द का प्रयोग किया था तब उसके प्रतिरोध में सारा हिन्दी समाज उठ खडा हुआ था . वह एक शब्द विशेष से लड़ाई थी या एक विचार से ? वह एक स्त्री के सम्मान का मसला था या सारी स्त्री जाति के ? अब कृपया इस पूरे वाक्य को एक बार ध्यान से पढ़िए और बताइये कि इसमें उन सारी स्त्रियों को कठघरे में नहीं खडा कर दिया गया है जो 'हंस' में छपीं, छपती रहीं और जिन्होंने अपनी रचनात्मकता के लिए इस पत्रिका को चुना ? -
"लेकिन उनका कसूर यह है अपनी ठरक को सेक्सुअल प्लेज़र तक पहुंचाने की लालसा में उन्होंने आलोचकों (जिसमें नामवर सिंह भी शामिल हैं), प्रकाशकों, समीक्षकों की मंडली बनाकर ढेरों अनुपस्थित प्रतिभाओं के अनुसंधान का नाटक किया, चेलियां बनाईं और साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं."
क्या चेले नहीं होते संपादकों के और क्या वे साहित्येतर कारणों से नहीं छपते ? पर नहीं , स्त्री हमेशा साहित्येतर कारणों से ही छपती है और वह साहित्येतर कारण ‘सिर्फ एक’ होता है. ( आप चाहें तो ये जोड़ सकते हैं कि ऑफिस ,स्कूल,कॉलेज,अस्पताल आदि आदि जगहों पर भी उसे तरक्की ‘अन्य ही’ कारणों से मिलती है और आप चाहें तो किसी ऑफिस के मरदाना पेशाबघर में इसकी दृश्यात्मक व्याख्या भी देख सकते हैं.)

  वे लिखते हैं , " ऐसा क्यों हुआ कि विवेक के फिल्टर से जो कुछ जीवन भर निथारा उसे अनियंत्रित सीत्कार और कराहों के साथ मुंह से स्खलित हवा में उड़ जाने दिया. अगर वे मूल्य इतने ही हल्के थे तो राजेंद्र यादव को 'हंस' निकालने की क्या जरूरत थी? " अब समझना बहुत मुश्किल है कि अनिल किन मूल्यों की बात कर रहे हैं ? सबसे पहली बात तो ये कि उनके इस इंटरव्यू से राजेन्द्र यादव का कोई ऐसा पक्ष नहीं उभर रहा है जो उनकी कसौटी - "अगर सेक्सुअलिटी की अभियक्ति हमारे जीवन का हिस्सा होती तो शायद किसी महिला या पुरूष के साथ जोर जबर्दस्ती की स्थितियां ही नहीं बनतीं." इस कसौटी पर राजेन्द्र यादव को अपराधी बना रहा हो. मूल मुद्दा ये था ही नहीं कि ज्योति कुमारी और राजेन्द्र यादव की बीच उनकी सहमति से किसी कमरे में क्या घटा , और उसे उन दोनों ने अपनी अपनी सामाजिक प्रस्थिति के हिसाब से कैसे प्रस्तुत किया, दरअसल इस पर टिप्पणी का किसी तीसरे को अधिकार है ही नहीं . मूल मुद्दा एक स्त्री की ब्लैकमेलिंग , उस पर एक व्यक्ति की आपराधिक चुप्पी का था , पर वह तो न जाने कहाँ बिला गया .यही असली राजनीति है, एक स्त्री द्वारा अपनी गरिमा पर हमले , यौन दुर्व्यवहार की शिकायत करने पर उसके ‘चरित्र’ को ही संदेह में ला दो  , जिसका पहले से ही कुछ ‘लफडा’ है उसके साथ तो थोड़ा बहुत दुर्व्यवहार हो भी गया तो क्या ! अनिल यादव को मथुरा नामक लडकी के साथ पुलिस लौकअप में हुए बलात्कार के सन्दर्भ में आये फैसले और उसके बाद भारत के स्त्री आन्दोलन में आ गए जलजले के बारे में जरूर पढ़ना चाहिए. जो नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं , उनके भी नागरिक के रूप में वही अधिकार होते हैं जो आपके हमारे, इस बात को उनसे बेहतर कौन जानता होगा.

अनिल यादव को राजेन्द्र यादव से यह 'उम्मीद नहीं थी कि वह किसी लड़की को दाबने-भींचने के लिए जीवन भर की अर्जित विश्वसनीयता, संबंधों और पत्रिका की सर्कुलेशन पॉवर को सेक्सुअल प्लेज़र के चारे की तरह इस्तेमाल करने ' लगेंगे , पर उन ढेरों संपादकों का क्या जो चापलूसों, टुकड़खोरों,  रैकेटियरों, अफवाहबाजों, सत्ताधारियों, आला अफसरों, विज्ञापनदाताओं  आदि आदि आदि को अपनी पत्रिकाओं के जरिये साधते रहते हैं. ‘चरित्र’ की दुधारी तलवार उन्हें नहीं हलाल करती ना. ‘सदाचार’ का ताल्लुक सिर्फ ‘यौन शुचिता’ से है . ‘राष्ट्रभक्ति’ की गिलोटीन पर मुस्लिम हलाल होंगे और ‘सदाचार’ की गिलोटीन पर स्त्रियाँ .   और इस तरह अंत तक आते आते अनिल निष्कर्ष सुना ही देते हैं, "ज्योति कुमारी का महत्वाकांक्षी होना अपराध नहीं था लेकिन उन्होंने इसे उसकी कमजोरी की तरह देखा, उसे साहित्य का सितारा बनाने के प्रलोभन दिए और उसका इस्तेमाल किया. "  
    
  इस तरह निष्कर्ष क्या निकला : स्त्रियों के लिए मर्यादा,सीमा तय है जिसे पह्चानना उनके लिए जरूरी है . हिदी साहित्य की दुनिया में आना और धूमकेतु की तरह छा जाना कम से कम एक स्त्री के लिए तो अक्षम्य है , उसका सार्वजनिक आखेट किया ही जाना चाहिए. पुरुषों की तिकड़में जाहिर होना उनके लिए ईर्ष्या भाव पैदा करता है और स्त्री की तिकड़में जाहिर होना उसके लिए दयनीयता की स्थिति लाता है. कम से कम आज अनेक प्रगतिशील साथियों द्वारा इस पर लिखी स्टेटस पढ़कर तो यही लगा .

ज्यादा समय नहीं बीता जब एक बहादुर लड़की की लड़ाई को आगे बढाने के लिए इस मुल्क के लाखों नौजवान लड़के लडकियां सड़कों पर उतर आये थे. उस समय भी एक संरक्षणवादी पितृसत्तात्मक दृष्टि थी जो कह रही थी कि यदि स्त्रियाँ अपनी मर्यादा को समझें तो ऐसे अपराध कम होंगे , खुशी की बात है कि हमारे नौजवानों ने उस दृष्टि को पूरी तरह से नकारा और चिल्ला चिल्ला कर ,बेरिकेड्स तोड़कर, हर मंच पर अपनी बात रखकर इसे लड़कियों की आज़ादी की लड़ाई में बदल दिया. भारतीय स्त्री विमर्श आज बहुत दूर तक रास्ता तय कर चुका है , उसे ‘मर्यादा’ के छलावे में अब नहीं बहकाया जा सकता.
हिमांशु पंड्या


रविवार, 29 जनवरी 2012

उम्मीद यहाँ है!

ये दोनों कहानियां वीरबाला कालीबाई राजकीय कन्या महाविद्यालय , डूंगरपुर की दो  छात्राओं की हैं. महाविद्यालय में सप्ताह-दस दिन पहले साहित्यिक प्रतियोगिताएं  हुई थीं. छात्राओं को एक चित्र दिया गया था और उसके आधार पर तत्काल अपनी कल्पना से एक कहानी गढनी थी.( यह विचार मूलतः प्राचार्य डॉ.स्निग्धा द्विवेदी की उपज था.). इन दोनों कहानियों को प्रथम पुरस्कार मिला था.बेशक, दोनों ही अनगढ़ रचनाएँ हैं ,पर मुझे इन्हें पढते हुए लगा कि इन्हें दोस्तों को भी पढवाया जाना चाहिए .डूंगरपुर भारत के आदिवासी बहुल इलाकों में से एक है और महाविद्यालय में भी पिच्चानवे फीसदी विद्यार्थी  आदिवासी समुदाय से आते हैं.पिछले दशक तक यह जिला न्यूनतम महिला साक्षरता वाले  जिलों में से एक था.गुजरात की ओर पलायन ,यह आज भी यहाँ बचे रहने की जिद का एकमात्र सहारा है. - हिमांशु पंड्या 



वह चित्र जिसे देखकर छात्राओं को कहानी लिखनी थी 


*प्रेमा *
  •  *सुनीता वरहात,बी.एस.सी. प्रथम वर्ष*

यह कहानी एक ऐसी लडकी की है जो एक छोटे से गाँव में रहती थी.उस लडकी का नाम प्रेमा था.प्रेमा का परिवार बहुत गरीब था और कोई भी सदस्य पढ़ा-लिखा नहीं था. प्रेमा के पिता गरीब किसान थे जिनकी आय बहुत ही कम होती थी, जिस कारण परिवार को आर्थिक सुख नहीं मिल पाता था.  प्रेमा के गाँव में विद्यालय नहीं था.गाँव के बाहर एक विद्यालय था.वह रोज गाँव  के कुछ बच्चों को वहाँ जाते हुए देखती और उसे भी पढने लिखने की इच्छा जाग्रत होती.उसके पिता उसे दूर भेजने के खिलाफ थे.वे चाहते थे कि वह घर पर रहकर ही घर का काम करे.


 एक दिन डाकिया डाक लेकर उनके घर आया और चिट्ठी देकर चला गया.चिट्ठी ( थोड़ी सी) फटी हुई थी.उसके पिता ने सोचा कि उनका कोई परिजन चल बसा है.कई दिनों तक उनके घर में मातम छाया रहा.कुछ दिन बाद पोस्टमैन वहाँ से गुजर रहा था.वह उनके घर पानी पीने के लिए रुका और पूछा कि तुम इतने दुखी क्यों हो.तब प्रेमा के पिता  ने सारी बात बताई.डाकिये ने पत्र पढ़ा तो पाया कि उसके मित्र ने यह चिट्ठी भेजी है और वो यहाँ कुछ दिनों में आ रहा है. सारी बात सुनकर प्रेमा के पिता को चिंता हुई कि मैंने अभी उसके स्वागत के लिए कुछ भी व्यवस्था नहीं की है . मैं उसे अच्छा भोजन भी नहीं करा पाऊंगा. 


दो दिन बाद उसका मित्र आया और पूछा कि क्यों रे हरिराम तुम मुझसे मिलकर खुश नहीं हुए, तब हरिराम ने कहा कि नहीं मैं बहुत खुश हूँ.माफ करना मैं तुम्हारे लिए कुछ ज्यादा नहीं कर सका.हरिराम का मित्र विजेन्द्र बोला ," मैं तो यहाँ  तुमसे मिलने के लिए आया हूँ,मौज करने थोड़े ही आया हूँ.अच्छा बता क्या चल रहा है? तेरी बिटिया क्या कर रही है? कौनसी कक्षा में पढती है?"


 हरिराम बोला,"नहीं पढ़ रही है.क्या करना है पढकर! उसे चूल्हा चौका ही तो करना है !"


मित्र ने कहा,"ऐसी बात नहीं है.अगर तेरे परिवार में कोई पढ़ा होता तो तो तुझे मेरा पात्र पढकर मेरे आने की खबर मिल गयी होती.तू फटी चिट्ठी होने का मातम नहीं मनाता." 


हरिराम का मित्र चला गया और हरिराम ने काफी कुछ सोचा . अगर मेरी बेटी पढाती तो  वह इस पात्र को पढकर सही बात बताती और मुझे उलटे सीधे विचार नहीं आते.मैं अपनी बेटी को पढाऊंगा और अफसर बनाऊंगा..और उसने प्रेमा को विद्यालय भेजा.प्रेमा भी विद्यालय जाकर काफी खुश थी.वह पढाई लिखाई में काफी होशियार साबित हुई.कक्षा में हमेशा प्रथम-द्वितीय ही  आती.कुछ सालों में उसने अपने परिवार का नाम रोशन किया.पढाई पूरी करने के बाद वह पुलिस अफसर बनी,अपने पिता का साथ दिया और उनका परिवार आर्थिक रूप से सक्षम बना.


 उनके परिवार को देख दूसरे लोगों की भी इच्छा हुई कि हमारे घर की बेटी भी पढ़े.अब प्रेमा का परिवार सुखी परिवार था.प्रेमा ने थोड़ा बहुत पढना उसके पिता को भी सिखाया जिससे वे बहुत खुश हुए.अब वे भी पढ़ सकते हैं.अब उन्हें आने जाने,कामकाज,खरीददारी सबमें सुविधा हो गयी.



 प्रेमा गाँव की ज़िंदगी में रोशनी लाई.


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 *पलायन *
 *हिमांशी दवे,**बी.कॉम.प्रथम वर्ष *

 ये कहानी एक ऐसे गाँव की है जहाँ न तो बिजली की सुविधा थी और न ही आय का  साधन. सभी गाँववासी कृषि पर निर्भर थे.इसके अलावा किसी के पास कोई अन्य आय का जरिया नहीं था.कृषि पर निर्भरता होने से सभी मानसून का बेसब्री से इंतज़ार  करते.इस वर्ष भी सभी इंद्र देवता को रिझाने के भरसक प्रयास कर रहे थे. कोई  मंदिरों में मन्नत मांग रहा था तो कोई प्रार्थना कर रहा था.समय बीतने के साथ ही मानसून आया और भूमि को थोड़ा तृप्त करके चला गया.सभी की आँखें आसमान की और टकटकी लगाए थीं.


इसी तरह रामलाल और उसके बच्चों की निगाहें भी बादलों का इंतज़ार कर रही थीं कि  कब बारिश हो और हमारे घर का गुजर बसर हो सके.हमें भी स्वादिष्ट भोजन मिले.पर इंद्र देवता इतने से ही थोड़े मानने वाले थे.इस वर्ष अकाल पड़ा.सरकार ने उस गाँव  को भीषण अकालग्रस्त गाँव घोषित किया.दिन बीतते गए.रामलाल के घर में अन्न का एक  दाना भी नहीं था.कई दिनों तक उसका परिवार भूखा सोया.उसके तीन पुत्र तथा एक पुत्री थी.


गाँव के कई लोग पलायन कर शहर की ओर गए क्योंकि शहर में जल्दी काम मिल जाता है.धीरे धीरे पूरा गाँव खाली होने लगा.गाँव की चौपालों में गांववासियों की संख्या कम होने लगी.वो बच्चों का खेलना,ऊधममस्ती करना बंद हो गया.गाँव के  गलियारे धीरे धीरे खाली होने लगे. रामलाल के मन में भी विचार आया कि 'क्यों न मैं भी शहर चला जाऊं'. यही विचार  उसने अपनी पत्नी को कहा.लेकिन उसके पास सपरिवार शहर जाने के पैसे भी नहीं थे.कहीं कहीं से पैसे का थोड़ा बंदोबस्त कर कुछ पैसे इकठ्ठे किये गए,लेकिन वो  भी केवल तीन सदस्यों के जाने के लिए ही पर्याप्त था.तब उसने सोचा कि मेरे तीन  पुत्र हैं जो शहर जाकर मजदूरी करेंगे तो मेरा कर्जा जल्दी से जल्दी उतर जाएगा.सो वह अपने साथ तीन पुत्रों को ले गया.फिर उसी अपना व अपनी पत्नी का ख़याल आया तो वह रुपयों के लिए अपना घर गिरवी रखकर पैसे ले आया.इस तरह पाँचों के शहर जाने व रहने का इंतज़ाम तो हो गया. लेकिन उसकी पुत्री के लिए पैसे का इंतजाम न हो पाया.रामलाल ने उसे अपने ममेरे भाई के यहाँ भेज दिया क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति ठीक थी.


सभी पाँचों लोग शहर चले गए और उसकी पुत्री को छोड़ गए.उसकी पुत्री सविता दिन भर काम करती और उसे बदले में दो समय का भोजन मिल जाता. धीरे धीरे समय गुजरता गया . उसे अपने माता पिता की याद आने लगी.एक हंसती खिलखिलाती लडकी उदास रहने लगी.उसकी निगाहें हमेशा गाँव के प्रवेश द्वार पर लगी रहती थीं.कि कब उसका परिवार,उसके माता-पिता उसे अपने साथ शहर ले जाएँ. लेकिन यह ख़्वाब तो सिर्फ ख़्वाब था. आज भी सूरज उगने के साथ ही सविता की आँखें गाँव के रास्ते को निहारती रहती हैं


लेकिन सूरज ढलने के साथ ही वे आँखें थक कर झुक जाती हैं.



शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

स्वयं प्रकाश जी के जन्मदिन पर हिमांशु पंड्या का एक आलेख



आज प्रख्यात कथाकार स्वयं प्रकाश जी का जन्मदिन है. उन्हें इस अवसर पर हमारा सलाम और ढेरों शुभकामनाएँ. कुछ दिन पहले हमने उनकी कहानी 'नेताजी का चश्मा' छापी थी. आज उसी पर लिखा हिमांशु पड्या का एक आलेख.





निसार मैं तिरी गलियों पे ए वतन

          “आये दिन अखबारों के सम्पादकीय,रेडियो,टी.वी.के चैट शो यहाँ तक कि एम टी.वी. पर ऐसे लोग-लेखक,पेंटर,पत्रकार-जिनकी सहज वृत्ति पर भरोसा किया जा सकता था,पाला बदले हुए नज़र आ रहे थे.मेरी हड्डियां काँप उठाती हैं क्योंकि रोजमर्रा की ज़िंदगी से मिले सबक से पीड़ादायक तरीके से यह स्पष्ट होता जाता है कि आपने इतिहास की किताब में जो पढ़ा है वह सही है. फासीवाद का संबंध जितना सरकार से है उतना ही लोगों से है. यह कि इसकी शुरुआत घर से ही होती है.बैठकखानों में. शयनकक्षों में . बिस्तरों पर. परमाणु परिक्षण के बाद के दिनों में अखबारों के शीर्षक थे- ‘आत्मसन्मान का विस्फोट’, ‘पुनरुत्थान का पथ’,’ ‘गौरव की घड़ी’. शिवसेना के बाळ ठाकरे ने कहा,हमने साबित कर दिया है कि अब हम हिंजड़े नहीं रहे. (यह किसने कहा था कि हम थे ? यह सही है कि हममें से काफी महिलायें हैं ,लेकिन जहां तक मुझे जानकारी है, वे वही नहीं होती.) अखबारों को पढकर यह भेद करना मुश्किल हो गया था कि लोग कब वियाग्रा और कब बम की बात कर रहे हैं-हमारे पास अधिक शक्ति और पौरुष है. ( यह हमारे रक्षामंत्री का पाकिस्तान के परीक्षणों के बाद का बयान था.)
   हमें बार बार बताया गया,ये मात्र परमाणु परीक्षण नहीं राष्ट्रवाद के भी परीक्षण हैं.
                                                                                 अरुंधती रॉय
                                                   ‘कल्पनाशीलता का अंत’, ‘न्याय का गणित’, पृष्ठ २१

     ....और इस पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के सामने दुबला-पतला , मरियल सा, अपाहिज और ( पानवाले के शब्दों में )पागल कैप्टन खडा है. वह मोर्चे पर नहीं गया, पडौसी मुल्क को गालियाँ बककर उसने अपनी देशभक्ति का इजहार नहीं किया, न अपने नगर की बिगडती दशा से खीझकर सैनिक शासन की वकालत की, दूसरे मजहब ( या जाती या भाषा या लिंग ) के लोगों की राष्ट्रभक्ति को संदेह के घेरे में खडाकर अपनी राष्ट्रभक्ति को पुष्ट भी नहीं किया.( सच तो यह है कि हमें यह भी नहीं पता कि कैप्टन उस धर्म का है या नहीं जिनकी राष्ट्रभक्ति, सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की निगाह में असंदिग्ध है.) उसने किया तो बस यह कि अपने लिए एक छोटी सी भूमिका चुन ली और उसे किसी प्रतिदान की अपेक्षा के बिना निभाता रहा. क्या कहेंगे ऐसे व्यक्ति को आप ? देशभक्त ? पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के लिए देशभक्ति के पैमाने कुछ अलग हैं. कैप्टन जैसे लोग उसके लिए गौण, फिर अप्रासंगिक और शनैः शनैः अस्वीकार्य हो जाते हैं.

क्या मैं परिस्थितियों को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रहा हूँ ? मैंने इतिहास की किताबों में पढा है कि हिटलर के यातना शिविरों में यहूदियों के बाद आधे यहूदियों,बूढों,बीमारों,अपाहिजों और कमजोरों का नंबर आया था.तेंतीस से उनतालीस के वक्फे में वे क्रमशः गौण,अप्रासंगिक और फिर अस्वीकार्य होते चले गए. यह सब मैंने पढ़ा है देखा नहीं ...पर ..मैंने टी.वी. पर अमीर लोगों को कारों से उतरकर जल रही दुकानों से सामान लूटते देखा है. मैंने हुंकार सुनी है, भारतवर्ष में रहना है तो..., मैंने उस एस.एम.एस. के बारे में सुना है-‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते पर सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं.’. मैंने अखबारों की सुर्ख़ियों में पाया है कि इस समय देश के सामने सबसे बड़ी समस्या किसानों की आत्महत्या या विनिवेश के चलते बढ़ रही बेकार नहीं बल्कि अफजल की फांसी है.

    ‘नेताजी का चश्मा’हमारे दैनंदिन जीवन की कहानी है.यह साधारण लोगों की कहानी है जो मिलकर इस राष्ट्र का निर्माण करते हैं.पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद की वृहत छवि में इन आम लोगों की साधारणता धुंधला जाती है.अट्ठारह सौ सत्तावन की डेढ़ सौवीं सालगिरह बीते ज्यादा अरसा नहीं हुआ. सत्तावन के संग्राम की विशिष्टता यही थी उसमें ‘साधारण’ लोगों ने हिस्सा लिया था.उत्तर औपनिवेशिक इतिहासकारों ने यह क्रूर सच्चाई दिखाई है कि पुनर्जागरण काळ के दौर में धीरे धीरे आमजन के सवाल किनारे होते चले गए और राष्ट्रवाद का एक ऐसा वृहद आख्यान तैयार हुआ जिसमें आमजन की हिस्सेदारी तो थी पर उसके सवालों की नहीं.भगतसिंह और उनके साथी जब ऐसी आज़ादी को अधूरी बता रहे थे जिसमें मेहनतकश जनता के हितों की रखवाली न हो तो वे इन्हीं सवालों को उठा रहे थे.स्वयं प्रकाश की कहानी हौले से इस आम आदमी हमारे सामने ला खडा करती है.कहानी में हमारे नायक का ‘कैप्टन’ नाम पड़ जाना बताता है कि चाहे उपहास में ही सही पर उसे इस नाम से पुकारा जाना इस बात का रेखांकन है कि लोक स्मृति कर्ता को उसका श्रेय अवश्य देती है.

    पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद की इकहरी व्याख्या है. इसमें देश में बांधों से उजाडने वाले या उदारीकरण से बेरोजगार और भूमिहीन बनने वालों की कोई चिंता नहीं है. वहाँ सिर्फ राष्ट्रीय ‘प्रगति’ के शानदार ( खौफनाक ! ) आंकड़े हैं. ये आंकड़े किन राष्ट्र नागरिकों के हकों को रौंदते हुए हासिल किये गए हैं और ये ‘शाइनिंग इंडिया’किस वर्ग का ‘शाइनिंग’है , इस बारीकी में जाने की निगाह इस पुन्सत्त्वयुक्त राष्ट्रवाद के पास नहीं है.इस वर्ग के लिए राष्ट्र की पहचान सिर्फ उसकी सीमा है.शायद ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखकर आचार्य शुक्ल ने लिखा था, यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य,पशु,पक्षी,लाता,गुल्म,पेड,पत्ते,वन,पर्वत,नदी,निर्झर सबसे प्रेम होगा, सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा, सबकी सुध करके वह विदेश में आंसू बहायेगा. जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं जानते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो आँख भर यह भी नहीं देखते के आम प्रणय सौराभपूर्ण मंजरियों से कैसे लड़े हुए हैं, जो यह भी नहीं झांकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि, भाइयों ! बिना परिचय का यह प्रेम कैसा ? जिनके सुख-दुःख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं बनता ! ( चिंतामणि )

   (आचार्य शुक्ल का यह निबंध उस समय का है जब जी.डीपी./जी.एन.पी./औसत आमदनी के नाम पर होने वाले आंकड़ों के छल छद्म को कल्याणकारी अर्थशास्त्र नामक धारा ने आकर बेनकाब नहीं किया था,पर आचार्य शुक्ल ने यह लिखा क्योंकि राष्ट्रवाद के अमूर्तन को उन्हें बेनकाब करना था.)

  कैप्टन चश्मे वाले के योगदान पर सिर्फ हालदार साहब का ही ध्यान गया होगा ऐसा नहीं. और लोग भी उसे देखते और प्रेरणा पाते थे. किसी अनजान शख्स ने सरकंडे का चश्मा बनाकर नेताजी को पहना दिया. चकित कर देने वाला अंत हालदार साहब और पाठकों को भरोसा दिलाता है कि मोतीलाल मास्टर और कैप्टन चश्मेवाले की विरासत चलती रहेगी.
    
यह अनजान नायक कौन है? कहानी संकेत करती है कि वह कोई बच्चा है. इस बच्चे की उपस्थिति पूरी कहानी पर छा जाती है और देर तक हमारे साथ रहती है. मानो यह बच्चा श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ से निकला और चहलकदमी करता हुआ स्वयं प्रकाश की कहानी में आकर आगे बढ़ गया. यह ना तो बड़ों की तरह साहसिक कारनामे करने वाला वीर बालक है जिसके उल्लेख से हमारी ‘बाल’ कहानियां भरी होती हैं. (और जो बच्चों के मन में बचपन के फीकेपन का अहसास पैदा करती हैं) और न ही ऐसा असहाय बच्चा है जिसे कदम कदम पर अहसास कराया जाता है कि अभी वह ‘सच्चा लेकिन कच्चा’ है और उसे जल्दी बड़े होकर भारतमाता की सेवा करनी है. उसने अपनी भूमिका चुन ली है जो बेशक किसी से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.

स्वयं प्रकाश की एक और कहानी ‘चौथा हादसा’ से प्रेरणा लें तो बेशक वह देश हमारा ही नहीं उसका भी है.
                                                                     

सोमवार, 30 मई 2011

नई नज़र से केदार

पत्रिका की कीमत है १०० रुपये और इसे भाई प्रेमचंद गांधी से 09829190626 पर फोन या prempoet@gmail.com पर मेल करके मंगाया जा सकता है. अगर ग्वालियर के आसपास हों तो मुझसे ले लें.


हाल में जयपुर से आई पत्रिका कुरजां मे प्रकाशित हिमांशु पंड्या का यह आलेख कवि केदार नाथ अग्रवाल को देख्ने की सर्वथा नवीन दृष्टि देता है. यहाँ न तो विगलित श्रद्धा है न अविवेकी आलोचना...जनपक्ष के पाठकों के लिए यह लेख उपलब्ध कराने के लिए हम पत्रिका के सम्पादक प्रेमचन्द गान्धी और लेखक के आभारी हैं

भाग १:जीवन की गति और कविता का छंद

छायावाद का अंत पन्त की घोषणा 'युगांत' के साथ हुआ था या होरी के पत्थर कूटते हुए सड़क पर पछाड़ खाकर गिरने और मर जाने से? केदारनाथ अग्रवाल की कविता यात्रा के ऐतिहासिक विकास क्रम पर गौर करते समय यह सवाल सहज ही उपस्थित हो जाता है की क्या छायावाद से प्रस्थान रूप विन्यास की एक विशिष्ट रोमानी शैली से प्रस्थान भर था या वैचारिक स्तर पर 'जन' की ठोस ,मूर्त उपस्थिति का अब अनदेखा ना किया जा सकने का आग्रह ?नए युग के निर्माता झींगुर और महंगू निराला की कविताओं में चहलकदमी करते हुए चले आये थे ,यही वह दौर था जब केदारनाथ अग्रवाल वकालत करने के लिए बांदा नामक शहर में जाकर बसे और उनकी कविता साधना को नया आयाम मिला.इंटर के दिनों से ही ब्रज में औए छायावाद विरोधी संस्कारों के साथ कविता लिखने वाले केदारजी का यों तो प्रगतिशील विचार से परिचय और दीक्षा उनके कानपुर के विद्यार्थी जीवन में हेई हो गयी थी ,जहां law की डिग्री लेने के दौरान उन्होंने उस औद्योगिक नगरी में मजदूर वर्ग की जीवन परिस्थितियों और उनकी दारुण दशा के कारणों को खोजने की कोशिश की थी मगर बांदा की धरती ने उनके कवि को मांजा .




केदारनाथ अग्रवाल बुंदेलखंड के थे .यह उनकी कविता के बारे में उतना ही जरूरी तथ्य है जितना यह की नागार्जुन मिथिला के थे और गोरख पांडे भोजपुर के.किसान संवेदना से ओतप्रोत केदारजी ने न सिर्फ बुंदेलखंड की लोकगायन शैलियों और छंदों -मसलन आल्हा का यथोचित उपयोग किया बल्कि अपनी कविता की विषय वास्तु इस हिन्दी पट्टी के जातीय जीवन और परिवेश को ही बनाया .ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय सामंतवाद के गठजोड़ से निर्मित चक्र को उधेड़ते हुए उन्होंने ओअनी बेधक राजनीतिक दृष्टि से देख लिया था की आजादी की लड़ाई में दलित शोषित सर्वहारा के सवाल हाशिये पर छोताते जा रहे हैं .आजादी की लड़ाई के उन उथल पुथल भरे बरसों में उनकी कविता में सामंतवाद के विरुद्ध भारतीय किसान के संघर्ष का उद्घोष भी है और ब्रिटिश पूंजीवादी हितों के साथ नाभिनालबद्ध राष्टीय नताओं पर व्यंग्य भी .केदारनाथ अग्रवाल की राजनीतिक दूरदर्शिता यहाँ देखी जा सकती है की १९४७ की आजादी को सत्ता हस्तांतरण मानने की जो समझ प्र.ले.सं. की एक दशक बाद बनी उसकी और संकेत उन्होंने ४६ में ही कर दिया था-"लन्दन गए -लौट आये/बोलो,आजादी लाये?/नकली मिली है की असली मिली है?/कितनी दलाली में कितनी मिली है ?/"आजादी के बाद अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद का नवस्वाधीन देशों पर मंडराता कर्ज का मायाजाल हो ,प्रशासकों-पूंजीपतियों-नेताओं का गठजोड़ हो या देश में घटित राजनीतिक मोड़ -उदाहरणार्थ आपातकाल -हो ,केदार की कलम सभी मुद्दों पर चली.

यों तो केदारनाथ अग्रवाल ने १९४६ के नौसैनिक विद्रोह ,अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध वियतनाम की जनता के संघर्ष ,बांग्लादेश मुक्ति संग्राम से लेकर डालर के बढ़ाते वर्चस्व तक सभी वैश्विक मुद्दों पर कवितायेँ लिखीं किन्तु मूलतः औए अंततः उनकी कविता बुंदेलखंड के किसान का जयगान है .अपनी जमीन से गहरे जुड़ाव के चलते उन्होंने बुन्देलखंडी किसान की अटूट संघर्ष क्षमता का रेखांकन भी किया और उसके वर्गीय हितों की रक्षा के लिए उठ खड़े होने और संगठित होने का आव्हान भी-"काटो काटो काटो कर्बी/मारो मारो मारो हंसिया /हिंसा और अहिंसा क्या है/जीवन से बढ़ हिंसा क्या है "

शमशेर ने केदारनाथ अग्रवाल के लिए लिखा था-"केदार बुनियादी तौर पर एक नार्मल रोमानी कवि हैं,छायावादी रोमानी नहीं "संभवतः यह उनकी कविता के बारे में सर्वाधिक सटीक टिप्पणी है.सबसे पहले कही बात से इसे जोड़ें तो -छायावाद का अंत रूमानियत का अंत नहीं था ,हाँ यह जरूर था की छायावादी रूमानियत जिस स्व के दायरे में जकड़ी हुई थी उसे इस वायवीयता से मुक्त करके केदारनाथ अग्रवाल ने उसमें सचेत और सायास वर्गीय चेतना का समावेश किया .केदारजी की प्रकृति केन्द्रित कविताओं में सदा ही प्रतीकों को निर्बल के पक्ष में प्रस्तुत कर कविता को वर्गीय धार दे देने की समझदारी रही है ,मसलन -"एक बित्ते के बराबर /यह हरा ठिगना चना/बांधे मुरैठा शीश पर/छोटे गुलाबी फूल का/सजाकर खडा है" या फिर "तेज धार का कर्मठ पानी/चट्टानों के ऊपर चढ़कर मार रहा है घूंसे कसकर /तोड़ रहा है तट चट्टानी "

केदारनाथ अग्रवाल को दूसरा सप्तक में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला था जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था.प्रयोगवाद के साथ आयी आधुनिकता में व्यक्तिकेंदितता जिस कुंठा को ला रही थी उसे केदारजी अस्वीकार करते थे ,आस्था उनकी कविता का मुख्या स्वर थी.उनकी कविता का सौंदर्य बोध श्रम के साथ अभिन्न रूप से जुडा था .श्रम के साथ गतिशीलता अभिन्न रूप से जुडी है और केदारजी की लयात्मकता ने उसके सौंदर्य का असीम विस्तार किया.स्वातंत्र्योत्तर भारत की उमंग के साथ गुनगुनाने योग्य सर्वाधिक पंक्तियाँ केदारनाथ अग्रवाल के खाते में हैं ,उदाहरण के लिए -"हवा हूँ हवा मैं बसन्ती हवा हूँ "या फिर "दिन हिरन सा चौकड़ी भरता चला "

प्रकृति केन्द्रित ये कवितायेँ किसी निविड़ एकांत की और नहीं ले जातीं बल्कि प्रकृति और मानव के सघन रिश्ते को ही मजबूत करती हैं .यह केदार जी की कविताओं में ही संभव है की धुप की चमक में मइके आयी बेटी की ममता मिले और सवेरा होने पर श्रमिक के हाथों में कमल खिलने का बिम्ब बने .यहाँ पर एक अन्य विशेषता पर भी ध्यान देना ठीक होगा ,केदार जी की इन कविताओं में गहरी ऐन्द्रिक चेतना है .हिन्दी में पत्नी को संबोधित सर्वाधिक कवितायेँ भी केदार जी ने ही लिखी हैं और यह बात भी रेखांकित की जानी चाहिए की वयस बढ़ने के साथ इन कविताओं की ऐंद्रिकता और सघन होती गयी .जहां एक और आरोपित नैतिकता से घिरे लेखकों के यहाँ अशरीरी प्रेम की और बढ़ना आदर्श के रूप में चित्रित हुआ वहीं केदारजी की अकुंठ प्रेम भावना ने उनके ऐन्द्रिय बोध को और प्रखर बनाया .

केदारनाथ अग्रवाल का स्मरण साधारण जन के मृदु और रौद्र रूप का लोक चित्रण करने वाले एक लोक गायक का स्मरण है .यह इस बात का रेखाकन है की जीवन और गति कविता के छंद का अभिन्न अंग कैसे बन सकते हैं .नागार्जुन द्वारा केदारजी के लिए लिखी ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं :
केन कूल की काली मिट्टी ,वह भी तुम हो!
कालिंजर का चौड़ा सीना ,वह भी तुम हो !
ग्राम वधू की दबी हुई कजरारी चितवन ,वह भी तुम हो !
कुपित कृषक की टेढ़ी भौहें ,वह भी तुम हो !




भाग २:यूं होता तो क्या होता?(केदार बरास्ते शमशेर)

"केदार,नागार्जुन और त्रिलोचन को दूसरे सप्तक में सहयोगी कवि बनने के लिए आमंत्रित किया गया था.केदार और नागार्जुन ने तो दो टूक शब्दों में सहयोग देने से इनकार कर दिया था;त्रिलोचन को शामिल न होने के लिए पर्याप्त कारण निकल आये थे."- शमशेर

यह बहुत स्वाभाविक सी परिणति थी.'तार सप्तक' के प्रकाशन और प्रसिद्धि के बाद लड़ाई के मोर्चे की सीमारेखाएं बहुत साफ़ साफ़ खिंच गयीं थीं.पर....अगर ऐसा न हुआ होता या कहें ऐसा हो गया होता ! दरअसल मैं कोई नई बहस नहीं शुरू कर रहा हूँ बल्कि यह बात शमशेर लिख चुके हैं जिसे पुनः विचार के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ .शमशेर के ही शब्दों में,"ज़रा देर के लिए हिन्दी आलोचना जगत कल्पना करे कि ये तीनों कवि 'दूसरे सप्तक' में शामिल हैं."

इस कल्पना को मैं इस लेख के 'धमाकेदार' अंत के लिए सुरक्षित रख रहा हूँ, फिलहाल देखें कि यह न होने से क्या क्या हुआ. प्रगति और विरोध दो भिन्न और विरोधी धारणाएं मान ली गयी. नागार्जुन- त्रिलोचन- केदारनाथ अग्रवाल की त्रयी की कवितायेँ राजनितिक थीं- आव्हानपरक थीं- क्रांतिधर्मी थीं....और यही उनकी कलात्मक 'सीमा' थी. केदारनाथ अग्रवाल के साथ तो और विडम्बना रही. उनकी कविताओं के दो खांचे बना दिए गए- राजनीतिक और गैरराजनीतिक. इससे आलोचना को विश्लेषण में सुविधा भी होती थी और यही सुविधा केदार जी की ऐन्द्रिक चेतना युक्त प्रेम कविताओं के पाठ में सर्वाधिक असुविधा भी पैदा करती थी. लीजिये, उन्हें लिखनी तो थी जनचेतना जागृत करनेवाली कविता और लिखने लगे ऐसी मांसल कविता!

आइये फिर एक बार शमशेर को पढ़कर भ्रम के कुहासे से बाहर आएं. बकौल शमशेर, "इस भ्रम की पोषक यह व्यापक सी धारणा है कि प्रयोग और प्रगतिशीलता विरोधी चीजें हैं. पिछले दशकों की साहित्यिक धाराओं के चर्चा प्रायः इसी धारणा की पृष्ठभूमि में हुई है. प्रगतिशीलता का संबंध विचारों से है- प्रायः समाजवादी या मार्क्सी- जिनमें मुख्य तत्त्व साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का विरोध और मजदूर- किसान के अपने स्वत्वाधिकार के आंदोलनों के लिए समर्थन है. प्रयोग का संबंध शिल्प और कथ्य में भावनाओं के नवयुगीन सन्दर्भों की खोज से है और इस खोज का उद्देश्य कलाकार के सृजनात्मक व्यक्तित्व का परिष्कार और विशेष स्पष्टीकरण है. मार्क्सवादी कवि प्रयोग के क्षेत्र में उतनी ही दिलचस्पी ले सकता है, और लेता है, जितना कि मार्क्सवाद विरोधी कवि."

देखे दांव;
पैंतरे झेले;
खाई मार
मोर के मुंह की,
आँख न फूटी ;
मत्त गयंदी
पदाघात से
कमर न टूटी;
नरम जीभ से
हमने
दिग्गज पर्वत
ठेले|

' नरम जीभ से पर्वत झेलने ' की वाहवाही में वह बिम्ब ओझल हो जाता है जो इस अद्भुत संकल्पना को संभव बनाता है .दशरथ मांझी भी याद आ सकते हैं और एक बेहद ऐन्द्रिक घनीभूत इमेज भी साकार हो सकती है.शमशेर और केदार दोनों अपने आग्रहों में इतने अकुंठ इसलिए थे कि उनके पास वह संतुलित दृष्टि थी.'पंख और पतवार' की भूमिका में केदार जी ने कलात्मकता को लेकर प्रगतिवादी खेमे के पूर्वाग्रहों पर बड़ी कठोर बातें कही हैं.कलात्मकता भी मानव के युगों के संघर्ष का अर्जन है ,यह 'खरी खरी' कहने वाले केदार जी ही 'हे मेरी तुम'जैसा कवता संग्रह लिख सकते थे.प्रगतिवादी आलोचना जब इसी एकांगी दृष्टि से घिरी थी तो केदार जी पर 'फौर्मलिस्ट' होने के आरोप लगाए गए .अब यह मजेदार था,एक खेमा आरोप लगा रहा था कला रहित नारेबाजी का,दूसरा कह रहा था कि वे 'फौर्मलिस्ट' हैं .एक बार फिर शमशेर को पढ़िए (और साथ में इस दोस्ती पर रश्क भी कीजिये!),"ऐसा जान पड़ता है कि हिन्दी के कुछ प्रौढ़ और आधुनिक आलोचक और साहित्यिक ,केदारनाथ अग्रवाल को 'फौर्मलिस्ट' कवि मानते हैं.अर्थात रूपप्रकारनिष्ठ ...मैं समझता हूँ कि इस धारणा को सुलझाना जरूरी है ...ऊपरी रूपप्रकार की स्थूल योजना पर अतिरिक्त ध्यान देना ,बल्कि उसमें उलझ जाना ,या उसी के फेर में ज्यादा रहना -यह एक तरह का रूपप्रकारवाद है....दूसरे प्रकार का रूपप्रकारवाद है -कला(कृति)की आतंरिक रूप-योजना पर 'रूप योजना के लिए' बल देना.इसमें भी कवि अपनी भावनाओं को किसी विशिष्ट 'क्लासिक'या रायज समसामयिक पैटर्न पर बांधता है.जबकि उसकी अपनी भावनाओं का अपना वैशिष्ट्य ,प्रखर या स्वतन्त्र रूप से ,पिचले या समसामयिक अन्य कलाकारों के वैशिष्ट्य से काफी अलग नहीं हो चुका होता-तब इस प्रकार का रूपप्रकारवाद प्रस्तुत होता है.अगर उद्देश्य अपनी भावनाओं को 'कल्चर' करने, अधिक अर्थपूर्ण और गहरा करने अर्थात अपनी ही जमीन पर उठाने और अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों से ही समृद्ध करने का है तो कालान्तर में यह दूसरे प्रकार का रूपप्रकारवाद कवि के व्यक्तित्व में अन्तर्निहित हो जाएगा;विलीन हो जाएगा.जैसा कि सभी महाकवियों के यहाँ देखा जा सकता है."(बल मेरा)

बहुत स्पष्ट है कि जिस दूसरी कोटि की बात हो रही है वह केदारनाथ अग्रवाल हैं.

वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्‍यार है।
अब यहाँ कविता(अंश) की कोई व्याख्या नहीं बल्कि केदार जी की यह पंक्तयां जोड़ लीजिये ,"मानसिक प्रक्रिया को कवि के व्यक्तित्व से परे समझना भूल होगी.वैसे ही कवि के व्यक्तित्व को भी आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से निर्लिप्त मानना भूल होगी ."('युग की गंगा' की भूमिका से )'मैंने उसको जब जब देखा लोहा देखा' जैसी पंक्तियाँ व्यक्तित्व में रूप योजना के अन्तर्निहित हो जाने बाद ही निकलती हैं.

अच्छा ,वह पहली कोटि कौनसी थी जिसका जिक्र शमशेर कर रहे थे ?आगे पढ़िए और देखिये कि प्रगति-प्रयोग का यह बेबनाव का द्वंद्व किसने निर्णित किया,"आधुनिक हिन्दी कविता का चौथे-पांचवे दशक का 'प्रयोगवाद'वस्तुतः रूपप्रकारवादी दृष्टिकोण ही प्रस्तुत करता है....प्रयोगवादी काव्य की मुख्य विशेषता या तत्कालीन आकर्षण अगर रूपप्रकारवाद न होता ,तो निश्चय ही 'प्रयोगवाद'प्रगतिशील काव्यधारा को कई गुना और प्रभावित करता,कई गुना अधिक पुष्ट करता ."(ऐसी ट्रेजेडी है नीच !)

अर्थात,अब मुझे कहने दीजिये,केदार जी का दूसरे सप्तक में शामिल न होने का 'दो टूक' फैसला उनके पूर्वाग्रहों के कारण नहीं था बल्कि यह प्रयोगवादी खेमे का पूर्वाग्रह था जो केदारनाथ अग्रवाल को 'समायोजित' करने में असफल रहा . (हां हंत !)

रूपप्रकार पर असाधारण अधिकार ही कवि को रूपप्रकार से मुक्ति देता है.केदारनाथ अग्रवाल इसी मुक्ति के कवि हैं.नयी कविता के आत्मसंघर्ष में मुक्तिबोध इसी मुक्ति को प्राप्त करते हैं और प्रयोगवाद का अधूरापन भी इसी ऐतिहासिक सबक से हमें रू-ब-रू कराता है .

क्या कहा आपने?मेरा बयान दम्भपूर्ण आप्ति से ग्रस्त है?नहीं,नहीं ,मेरी क्या मजाल,मैं तो शमशेर को उद्धृत कर रहा था.याद है ना आपको,हमने एक कल्पना को अंत के लिए सुरक्षित रखा था ,आइये,शमशेर के साथ वह कल्पना करें,"ज़रा देर के लिए हिन्दी आलोचना जगत कल्पना करे कि ये तीनों कवि दूसरे सप्तक में शामिल हैं.फ़ौरन प्रयोगवादी कवता के विवाद हॉल में तीन खिड़कियाँ और खुल जाती हैं और झाँक कर गौर से देखते हैं तो -व्यक्तित्व की खोज के तीन रास्ते और हाँ,ये रास्ते और रास्तों से अलग हैं जरूर -मगर प्रयोगवादी दौर के रास्ते हैं ये भी.इनको छोड़ देने से प्रयोगवादी युग का नक्शा अधूरा रह जाता हैबल्की बहुत भ्रामक हो जाता है.इतनी बात तो आईने की तरह स्पष्ट है."

यह आइना शीतकालोत्तर साहित्यिक दृष्टि के लिए रास्ता दिखाता है.इसी रास्ते केदारनाथ अग्रवाल की कविता की सही व्याख्या संभव है.