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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

भगत सिंह पर विनोद मिश्र



भगत सिंह के आलेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' पर यह भूमिका कामरेड विनोद मिश्र ने समकालीन प्रकाशन द्वारा इसी नाम से प्रकाशित पुस्तिका में की है, जो न केवल इस किताब, बल्कि भगत सिंह के वैचारिक विकास को समझने में भी मदद करती है. पूरी पुस्तिका हमने ई-बुक के रूप में तैयार कर दी है, और आप उसे यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं.

मैं नास्तिक क्यों हूँ - ई बुक 


नौजवानों के क्रांतिकारी मानस के प्रकाश स्तम्भ

मृत्यु के समय भगत सिंह सिर्फ २३ वर्ष के थे. इस छोटे से कार्यकाल में और इतनी कम उम्र में राष्ट्रीय गतिविधियां  संगठित करने के साथ-साथ उन्होंने तमाम विषयों पर इतना कुछ पढ़ा व लिखा कि सोचकर अचम्भा होता है.

क्रूर अँगरेज़ शासकों ने इस प्रखर मस्तिष्क को, जिसकी लोकप्रियता उस समय आसमान छू रही थी, ख़त्म कर देने में ही अपनी खैरियत समझी और इतिहास गवाह है कि गाँधी-इरविन समझौते में जनमत को ठुकराते हुए गाँधी ने भगत सिंह की फाँसी रद्द करवाने को पूर्व शर्त बनाने से इनकार कर दिया.

भगत सिंह की लोकप्रियता गाँधी के नेतृत्व के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर उभर रही थी. अधिकृत कांग्रेस का इतिहास खुद बताता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात थी भगत सिंह का क्रांतिकारी से मार्क्सवादी बनने की ओर संक्रमण. अंग्रेजों व् कांग्रेसी नेतृत्व के बीच भगत सिंह की फांसी को लेकर मौन सहमति का यही मूल आधार था.

क्रांतिकारी आतंकवादी धारा, जिस पर आरम्भ में तीव्र हिन्दू धार्मिक भावनाओं का असर था, क्रमशः मार्क्सवाद में परिवर्तित हो गई, भगत सिंह इस संक्रमण के प्रतीक पुरुष थे और उन्हीं के साथ यह धारा भी ख़त्म हो गई.


अराजकतावाद से मार्क्सवाद की ओर

भगत सिंह ने पश्चिम से आने वाले तमाम प्रगतिशील विचारों का गहन अध्ययन किया. भारतीय समाज की तमाम समस्याओं पर, चाहे वह अछूतों के प्रति ब्राह्मणवाद का नजरिया हो, सांप्रदायिकता का रुझान हो या भारतीय संघ का स्वरूप, भगत सिंह ने अपने विचार प्रकट किये थे. शुरूआती दिनों में उन पर अराजकतावादी दर्शन व् उसके सिरमौर बाकुनिन का गहरा असर नज़र आता है, मई १९२८ से ‘किरती’ नामक पंजाबी पत्रिका में भगत सिंह ने अराजकतावाद पर एक लेखमाला शुरू की जो अगस्त तक चलती रही. इसमें धर्म व ईश्वर, राज्य व निजी संपत्ति को दुनिया से पूरी तरह ख़त्म कर देने की अराजकतावादी घोषणाओं से भगत सिंह काफी प्रभावित नज़र आते हैं.

इस दौर में वे धर्म और भगवान को मनुष्य की अज्ञानता, भय व आत्मविश्वास के अभाव की उपज मानते हैं. और बाकुनिन की किताब ‘ईश्वर और राज्य’, जिसमें ईश्वर को जम कर लताड़ा गया है, की काफी प्रशंसा करते हैं. लेकिन ५-६ अक्टूबर १९३० के उनके लेख ‘मैं नास्तिक क्यूं हूँ’ में धर्म और ईश्वर के बारे में उनकी सोच पर मार्क्सवाद की मज़बूत झलक दिखाई देती है.

धर्म को जिन अर्थों में मार्क्स ने ‘जनता की अफीम’ कहा था, उसका सारतत्व हम यहाँ भगत सिंह में पाते हैं. भगत सिंह कहते हैं – “जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे तथा यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक तरफ फेंक देना चाहिए और ऐसे सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं”, और भौतिकवादी दर्शन पर इसी अविचल आस्था के साथ वे हँसते-हँसते फाँसी चढ़ जाते हैं.

राजसत्ता के विषय में अराजकतावादियों व साम्यवादियों के बीच मतभेद के सवाल से भगत सिंह अनभिग्य न थे. अराजकतावाद पर अपने लेख में वे इस बात का ज़िक्र करते हैं कि साम्यवाद का अंतिम आदर्श भी राजसत्ता का विलोप है. फिर भी उनकी सहानूभूति हर तरह की राजसत्ता को खारिज़ करने की अराजकतावादी विचारधारा की ओर है. अराजकतावादियों का विचार था कि राजसत्ता की धारणा ख़त्म होने पर ही मनुष्य की मुक्ति का कोई मतलब हो सकता है. बाद के दिनों में भगत सिंह सर्वहारा की प्रभुसत्ता के पक्ष में खड़े होते हैं. निचली अदालत में क्रान्ति के बारे में अपने विचार स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा “क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अंततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों में उत्पन्न होने वाली बर्बादी से बचा सके.”
निजी सम्पति के विलोप से की अराजकतावादी अवधारणा से मुक्त होकर वे यह भी समझने लगे थे कि सर्वहारा क्रांति और समाजवाद के रास्ते से ही निजी मिल्कियत का विलोप संभव होगा.

असेंबली पर बम फेंकने की प्रेरणा भगत सिंह को वस्तुतः अराजकतावादियों से ही मिली, विश्व भर के अराजकतावादियों का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं, “इधर यूरोप में भी अंधेर चल रहा था, पुलिस और सरकार के साथ इन अराजकतावादियों का झगड़ा बढ़ गया, अंत में एक दिन कैलेंट नाम के नवयुवक ने असेंबली में बम फेंक दिया – उसने बड़ी बुलंद आवाज़ में स्पष्टीकरण देते हुए कहा, “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रुरत होती है”. एक वर्ष बाद, ८ अप्रैल १९२९ को भगत सिंह ने इसी घटना की भारत में पुनरावृति की. लेकिन जहाँ कैलेंट के लिए वह सिर्फ प्रतिशोधात्मक कार्यवाही थी, वहीँ भगत सिंह के यह राजनीतिक प्रतिवाद था.         

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी भूमिका विनोद शुक्ल की ! धार्मिकता से मार्क्सवाद में संक्रमण को सुन्दर ढंग से रेखांकित करती है !

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  2. भगतसिंह इसलिए भी अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्‍मन थे क्‍योंकि वे सिर्फ विद्रोह या क्रांति नहीं कर रहे थे बल्कि यह सब वे एक विचार और स्‍वप्‍न के साथ कर रहे थे। उनके पास एक दृष्टि थी और वही साम्राज्‍यवादियों, उपनिवेशवादियों की ऑंख की किरकिरी थी।

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