पिछले दिनों मैंने फेसबुक पर यह लिखा था कि हम पूँजीवाद की आलोचना तो बहुत अच्छी प्रस्तुत करते हैं लेकिन विकल्प के सवाल पर अक्सर बात नहीं होती. उसी बहस को लेकर हमें कुछ मित्रों के लेख मिले हैं. उस कड़ी में पहला लेख साथी मयंक तिवारी का. हालांकि इस आलेख में भी आप देखेंगे कि जोर इस पूंजीवादी सिस्टम की आलोचना पर ही अधिक है. समाधान वाले पक्ष को सैद्धांतिक बातों और घोषणाओं से ही निबटा दिया गया है. असली सवाल उस वैकल्पिक व्यवस्था का एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करने का है. फिर भी बहस शुरू तो होती है..आगे इसे चलाना और किसी गंभीर मुकाम तक पहुंचाना आप सबकी जिम्मेवारी है.
इक्कीसवीं शताब्दी का भारत :
समस्याएँ और समाधान
प्रत्येक व्यक्ति अपने अतीत की त्रुटियों से शिक्षा ग्रहण करके वर्तमान को बेहतर बनाने के प्रयास करता है और उन्हीं प्रयासों के आधार पर उज्जवल भविष्य की रचना का स्वप्न देखता है। इस तथ्य पर यदि किसी राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में विचार करें, तो व्यक्तियों का समूह होने के कारण उस पर भी यह बात अक्षरशः लागू होती है। भारत गौरवशाली परम्पराओं का देश है, जिसने वर्षों से विदेशी आततायियों के आक्रमणों को झेलने के बाद यदि अपने अस्तित्व को कायम रखा है, तो निःसन्देह इसकी सभ्यता और संस्कृति सराहनीय है। लगभग दो सौ वर्षों की लम्बी और नारकीय ब्रिटिश गुलामी झेलने के बाद और लाखों बलिदानियों का रक्त-स्नान करने के बाद भारत अपनी खोयी हुई सम्प्रभुता को पुनः प्राप्त करने में सफल रहा। किन्तु ज्वलन्त प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी खोई हुई सम्प्रभुता और अखण्डता को कायम रख सकेगा? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिये हमें अपनी वर्तमान दशा और दिशा पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा।
भारत लगभग एक अरब आबादी वाला राष्ट्र है। जिसकी 40 प्रतिशत से भी अधिक जनता गरीबी-रेखा के नीचे जीवन यापन करती है अर्थात अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्णतः अक्षम है। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के बाद से ही उत्पादन के साधनों पर मुट्ठी भर थैलीशाहों के कब्जे की व्यवस्था लागू की गयी। आज भी 80 प्रतिशत भूमि पर 20 प्रतिशत भूस्वामी काबिज़ है और 80 प्रतिशत किसान 20 प्रतिशत भूमि जोत रहे हैं। इस आर्थिक असमानता को बदस्तूर बनाये रखते हुए सभी सरकारों ने लोकतन्त्र के नाम पर चुनाव का धोखा-धड़ी पर टिका घिनौना खेल खेला, जिसका शिकार भारत का गरीब तबका हुआ।
आज जब हम इक्कीसवीं शताब्दी से मात्र 13 महीनों की दूरी पर खड़े हैं, भारत की दुर्दशा के लिये यदि कोई सर्वाधिक दोषी है, तो वह है यहाँ की राजनीति। हमारा लोकतन्त्र वस्तुतः धनतन्त्र है और नीति केवल वोट की राजनीति बन चुकी है। नेता जी के दर्शन केवल चुनाव के मौसम में ही होते हैं। इधर चुनाव समाप्त, उधर नेता जी दीन-दुनिया से बेखबर अपनी धन-पिपासा मिटाने और अपनी अगली कई पीढ़ियों के लिये सम्पत्ति संचित करने के एक-सूत्री कार्यक्रम के क्रियान्वयन में लीन हो जाते हैं। आज तक सभी सरकारों ने देश को भरपूर लूटा और देश की जनता की खून-पसीने की कमाई राजनेताओं के स्विस बैंकों के गुप्त खातों में जमा होती रही। भारत अन्दर से खोखला होता रहा और बाहर से ऐसी चमक-दमक प्रदर्शित की गयी कि आम आदमी चकाचैंध हो गया। क्या कारण है कि इतने विशाल प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार के बावजूद और साथ ही साथ तमाम देशी-विदेशी कर्ज़ों और अनुदानों के बाद भी भारत विकसित नहीं हो सका? क्या इसका एक मात्र कारण बढ़ती जनसंख्या है? नहीं, कत्तई नहीं। क्योंकि देश की सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा असमान वितरण के कारण चन्द औद्योगिक घरानों के शिकन्जों में कैद है। यदि सम्पत्ति का समान वितरण किया जाय, तो देश में प्रति व्यक्ति आय कई गुना बढ़ सकती है। हमारी पंचवर्षीय योजनाएँ पाँच तो क्या दस वर्षों में भी पूरी नहीं होती। हाँ, कागज़ी खानापूर्ति ज़रूर कर दी जाती है। इन सब की दोषी यहाँ की भ्रष्ट नौकरशाही है।
दुनिया 1990 में प्रारम्भ हुई आर्थिक मन्दी की चपेट में है। दक्षिण कोरिया और इण्डोनेशिया इसके ताज़ा-तरीन शिकार हैं। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की त्रुटिपूर्ण आर्थिक नीतियों का ही कमाल है, जो भारत पर विकसित पूँजीवादी राष्ट्रों का शिकंजा कसता जा रहा है और यहाँ की अर्थ-व्यवस्था तेजी़ से ऋण-जाल में फँसती जा रही है। भारत प्रति वर्ष जितना कर्ज़ लेता है, उससे कहीं ज़्यादा पुराने कर्ज़ों का ब्याज चुकता करता है। परिणाम सामने है। आज देश पर 1 लाख 61 हजार 427 करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज़ तथा 7 लाख 18 हजार 299 करोड़ रुपये का घरेलू कर्ज़ है और विदेशी कर्ज़ पर ब्याज 4150 करोड़ रुपये तथा घरेलू कर्ज़ पर ब्याज 61550 करोड़ रुपये का अदा किया जा रहा है। यह बयान 1 दिसम्बर 98 को राज्य सभा में वित्तमन्त्री यशवन्त सिनहा ने दिया।
सत्तर के दशक में विकसित राष्ट्रों की ओर पूँजी का जो बहाव 5 बिलियन डालर प्रति वर्ष था, वह वर्तमान समय में 36 गुना बढ़ कर 175 बिलियन डालर प्रति वर्ष हो गया। भारत की उदारीकरण नीति तेजी से भारत को आर्थिक गुलामी की ओर ढकेल रही है। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण वास्तव में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की ज़बरदस्त साजिश है, जिससे वह विश्व को नयी बेड़ियों में बाँध लेना चाहता है। एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की जगह अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और शेयर-मार्केट द्वारा त्वरित विदेशी मुद्रा के हमले के लिये देश के दरवाजे़ खोल दिये हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा-कोष तथा विश्व-बैंक के अधिकारियों के लिये बन रही कोठियाँ एक दिन रेजीडेन्सी का काम करेंगी। नयी आर्थिक नीतियों में निजीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त खतरनाक है, किन्तु वैश्वीकरण इससे कहीं ज़्यादा खतरनाक है। क्योंकि प्रत्येक विदेशी कम्पनी कम से कम 10.15 देशी कम्पनियों का भक्षण अवश्य करेगी, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारम्भिक दिनों में हुआ था। वास्तव में पूँजी का बढ़ता कसाव और केन्द्रीकरण ही गरीबी का सबसे बड़ा कारण है। अपनी इन्हीं आर्थिक नीतियों का कुपरिणाम दक्षिण कोरिया और इण्डोनेशिया जैसे देश भुगत रहे है। निःसन्देह अब बारी भारत की है।
प्रतिद्वन्द्वी सोवियत-संघ के खण्डित हो जाने के कारण अमेरिका एक ध्रुवीय विश्व बनाने के चक्कर में है। उसे रंच-मात्र विरोध भी असह्य है और किसी प्रकार का विरोध निकट भविष्य में पुंजीभूत होता नहीं दिखता है। यूरोपीय देश ‘यूरो’ मुद्रा चलाने के चक्कर में हैं। अभी तक विश्व पूँजीवाद की उत्पादन-पद्धति को आर्थिक मन्दी से मुक्ति दो बार हुए विश्व-युद्धों ने दिलायी है। भारत और पाकिस्तान सहित सभी राष्ट्र अन्धराष्ट्रवाद और बहुसंख्यक आबादी के युद्धोन्माद अर्थात् फासिज्म की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाले 13 महीनों में फासिस्ट प्रवृत्तियों का नंगा नाच और बढ़ेगा। अभी तक मुसलमानों को अपना शत्रु नम्बर एक घोषित करने वाले संघ-परिवार ने अब ईसाइयों को विदेशी कह कर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया है। वे साम्प्रदायिकता की अपनी आँधी और बढ़ाते जायेंगे। आर्थिक मन्दी के चलते अमीरों के इस्तेमाल में आनेवाली उपभोक्ता सामग्रियों - कार, फ्रीज, एयरकण्डीशन, वाशिंग मशीन, टी0वी0, कम्प्यूटर आदि के दाम निरन्तर गिर रहे हैं. वहीं नब्बे प्रतिशत जनता की आबादी के लिये किसी तरह जीने-खाने के लिये आवश्यक सामग्रियों आलू, प्याज, नमक, तेल आदि के दाम जमाखोरी के कुचक्र के चलते अकस्मात ही आसमान चूमने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भी आगामी शताब्दी में गरीबों की हड्डी निचोड़ लेने वाला वर्ग जारी रखेगा। निजीकरण के परिणाम-स्वरूप प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स की कल्याणकारी राज्य के जन-संघर्षों के दबाव के परिणामस्वरूप जो भी अंशतः जन-हित में लागू किया जा रहा था, वह भी नेस्तनाबूद किया जा चुका है।
चिकित्सा तथा शिक्षा मध्यम वर्ग के नीचे की आम जनता के लिये अनुपलब्ध होती जा रही है। यह प्रवृत्ति आम जनता को कीड़े-मकोडे़ की तरह मरने और पशुओं की तरह निरक्षर जीवन जीने के लिये आने वाले वर्षों में भी बाध्य करती रहेगी। पुलिस-प्रशासन और न्याय-व्यवस्था के चक्के रिश्वत और सिफारिश पहुँचा सकने में सक्षम लोगों की स्वार्थ-सेवा में आज भी हिल रहे हैं, कल भी इनकी गति बदस्तूर न्याय की देवी की बार-बार हत्या करती रहेगी। आने वाला कल का भारत गुण्डो, स्मगलरों, जातिवादी नेताओं, कमीशनखोर अफसरों की राज-सत्ता अर्थात् मुनाफाखोरों के ताण्डव में झुलसने वाला भारत ही होगा। किसान कर्ज के फन्दे में जकड़ कर और बड़ी संख्या में आत्महत्याएँ करेंगे। नारी बार-बार अपमानित की जायेगी तथा कंगालों की टोलियाँ नमक-रोटी की तलाश में दर-दर भटकती रहेंगी।
भारत
इस उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा भू-भाग है। कई राष्ट्रीयताएँ (कश्मीर और पूर्वोत्तर के
सातों राज्य) मुक्ति के लिये संघर्षरत हैं। केन्द्र सरकार नेहरू-काल से ही
राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का दमन ही करती आयी है। यह समस्या भी
आतंकवाद के रूप में पड़ोसियों की कृपा से जटिलतर होती जा रही है। इसका समाधान भी
वर्तमान सत्ता के अन्धराष्ट्रवादी दृष्टिकोण से असम्भव है। ऐटम बम ने भारत को
सैनिक रूप से सक्षम किया है तो आर्थिक रूप से कमज़ोर। समस्या समाज की चेतना की
क्षितिज के विस्तार की भी है। गत पचास वर्षों में धीरे-धीरे करके परम्परागत
संयुक्त परिवार नष्ट हो चुका है। परिवार के मुखिया के स्थान का स्वामित्व अधिक
कमाने वाले के हाथों में खिसक चुका है। संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर इस
संक्रमण ने समाज की सामूहिकता की चेतना को क्षरित किया है। व्यक्ति अधिक स्वार्थी
होता चला जा रहा है। ऐसे में सामाजिक संगठन, वर्गीय संगठन तथा परस्पर सरोकार के
विनाश से व्यक्तिवाद पनप चुका है। जब तक व्यक्ति अपने दायित्व-बोध की अनुभूति के
अनुरूप आचरण आरम्भ नहीं करेगा, मनोरथ मात्र कल्पना ही रहेंगी। सामूहिक हितों के लिये
सक्रियता की भावना निकट भविष्य में भी क्षीण ही दिखायी देती है। संक्षेप में कहें, तो आज की सारी समस्याएँ और
घनीभूत होकर आने वाले दशक में भारतीय समाज के ताने-बाने को और भी जर्जर करती चली
जायेंगी। व्यक्ति अलगाव का शिकार होकर और भी असहाय महसूस करता जायेगा।
समाज
में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने वाली शक्तियाँ देश के कोने-कोने में विभिन्न नामों
से सक्रिय तो हैं, किन्तु
उनके बीच एकजुटता की प्रक्रिया अभी आरम्भ भी नहीं हो सकी है। क्रान्तिकारी नेतृत्व
विचारधारात्मक प्रश्नों से लेकर गतिविधियों तक के धरातल पर दूर-दूर तक जन-सामान्य
से एकरूप नहीं हो सका है। जिसके चलते भारतीय क्रान्ति की सम्भावना आगामी कई वर्षों
तक घूमित ही दिखायी देती है। आने वाला कल सूर्योदय के पूर्व के सघन अन्धकार की तरह
अत्यन्त विषाक्त होगा। इसके पश्चात ही इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग तीसरे दशक तक
आर्थिक मन्दी का संकट हल हो सकेगा। तब तक या तो तीसरा विश्वयुद्ध विश्व-क्रान्ति
की श्रृंखला-अभिक्रिया को प्रारम्भ कर चुकेगा अथवा स्वतः-स्फूर्त विद्रोह संगठित
होते-होते जन-विरोधी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का समाजवादी काया-कल्प कर
डालेंगे। अन्धेरा घना होना अपने-आप में सूर्योदय की तैयारी है। प्रसव की वेदना
नवीन शिशु की किलकारियों की पूर्वानुभूति है। समाज संक्रमण की छटपटाहट झेल रहा है।
आसुरी शक्तियों का नंगा नाच अनन्त काल तक चलना असम्भव है।
इतिहास का अन्त नहीं होता। अगली पीढ़ी अपने से पिछली पीढ़ी की तुलना में अधिक प्रबल, सक्षम तथा मेधावी होती है। मनुष्य बर्बर कबीलाई समाज से सतत युद्धरत सामन्ती समाज की घृणित विलासिता और जंजीरों से जकड़े गुलाम से, बसाये गये भूदासों तक का सफर करता हुआ बीसवीं सदी के अन्त तक पूँजी और श्रम के महाभारत की तैयारी तक आ पहुँचा है।
डंकल का डंक कभी तो चूर-चूर किया ही
जायेगा।
धरती फिर करवट बदलेगी, फिर इतिहास बढ़ेगा।
माटी का बेटा जल्दी ही, हक के लिए लड़ेगा।।
नहीं कहानी खत्म हो रही है डंकल के
साथ।
पूँजी की देवी के सिर से भी उतरेगा
ताज।।
महाबली मानव ने अपने इरादों के सहारे चाँद-सितारों को फ़तह किया है। जब तक अन्याय, अत्याचार, जुल्म व शोषण जारी रहेगा, जीवन के द्वन्द्व का दूसरा पक्ष - प्रतिरोध भी निरन्तर चलता रहेगा - कभी तेज, कभी मद्धिम। वर्ग-युद्ध तब तक जारी रहेगा, जब तक शोषणकारी शक्तियाँ नेस्तनाबूद नहीं कर दी जाती। अन्तिम विजय श्रम की, न्याय की, सामूहिकता की, संवेदना की, रचना की, विकास की होगी। प्रतिगामी पक्ष की पराजय इतिहास का बार-बार दुहराया गया तथ्य है। आने वाला कल भी इसका अपवाद नहीं होगा।
नूर की एक किरण जुल्म प’ भारी होगी।
रात उनकी ही सही सुबह हमारी होगी।।
अशोक जी ! आपने अपनी प्रस्तावना में ही मेरी बात कह दी है ! खैर, इस पहल का स्वागत है !
जवाब देंहटाएं"आज जब हम इक्कीसवीं शताब्दी से मात्र 13 महीनों की दूरी पर खड़े हैं" और " आने वाले 13 महीनों में फासिस्ट प्रवृत्तियों का नंगा नाच और बढ़ेगा।" की स्वीकृति बताती है कि ये पुराना लेख है. क्योंकि बात डंकल से आगे बढ़ गयी है और एल पी जी अब दूसरे दौर में चला गया है, जहां छोटे-छोटे, कभी स्वतःस्फूर्त और कभी संगठित प्रतिरोध उसके विजय रथ के सामने ब्रेकर बन रहे हैं. दूसरे दुनिया के पैमाने पर भी वाम झुकाव वाले आन्दोलनों का बढाव हुआ है. नए हालातों में यह विश्लेषण और बढ़िया हो सकता था, ऐसा मुझे लगता है. फिर भी लेखक मित्र बधाई के हकदार हैं.
जवाब देंहटाएं"सामूहिक हितों के लिये सक्रियता की भावना निकट भविष्य में भी क्षीण ही दिखायी देती है। संक्षेप में कहें, तो आज की सारी समस्याएँ और घनीभूत होकर आने वाले दशक में भारतीय समाज के ताने-बाने को और भी जर्जर करती चली जायेंगी। व्यक्ति अलगाव का शिकार होकर और भी असहाय महसूस करता जायेगा।
जवाब देंहटाएंसमाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने वाली शक्तियाँ देश के कोने-कोने में विभिन्न नामों से सक्रिय तो हैं, किन्तु उनके बीच एकजुटता की प्रक्रिया अभी आरम्भ भी नहीं हो सकी है। क्रान्तिकारी नेतृत्व विचारधारात्मक प्रश्नों से लेकर गतिविधियों तक के धरातल पर दूर-दूर तक जन-सामान्य से एकरूप नहीं हो सका है। जिसके चलते भारतीय क्रान्ति की सम्भावना आगामी कई वर्षों तक घूमित ही दिखायी देती है। आने वाला कल सूर्योदय के पूर्व के सघन अन्धकार की तरह अत्यन्त विषाक्त होगा। इसके पश्चात ही इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग तीसरे दशक तक आर्थिक मन्दी का संकट हल हो सकेगा। तब तक या तो तीसरा विश्वयुद्ध विश्व-क्रान्ति की श्रृंखला-अभिक्रिया को प्रारम्भ कर चुकेगा अथवा स्वतः-स्फूर्त विद्रोह संगठित होते-होते जन-विरोधी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का समाजवादी काया-कल्प कर डालेंगे। अन्धेरा घना होना अपने-आप में सूर्योदय की तैयारी है। प्रसव की वेदना नवीन शिशु की किलकारियों की पूर्वानुभूति है। समाज संक्रमण की छटपटाहट झेल रहा है। आसुरी शक्तियों का नंगा नाच अनन्त काल तक चलना असम्भव है।
इतिहास का अन्त नहीं होता।"