- शमशाद इलाही अंसारी
पश्चिमी अफ्रीकी
देश माली में फ्रांस जैसी यूरोपीय महाशक्ति इन दिनों इस्लामी कट्टरपंथियों के
सफाया अभियान में जुटी हुई है. कुछ हथियारबंद दाढ़ी वाले पग्गड़धारियों ने गत ८-१० माह से वहां
अपनी गतिविधियाँ बढ़ा दी थी कभी वह मध्यकालीन सूफी मज़ारों की कब्रे राजधानी
टिम्बकटू में तोड़ कर खबरों में आते तो कभी देश के अधिकतर भाग पर कब्ज़े की तथाकथित
ख़बरों से दुनियाभर के प्रचार माध्यमो में जगह बनाते. यह कारोबार एक ख़ास तरह का
जनमनस तैयार करने के लिए पिछले साल के
आख़िरी छह महीनो से बहुत कायदे-करीने से लगातार किया जा रहा था. आखिरकार फ़्रांस ने
अपने नाटो मित्रो, अमेरिकी युद्धपोतो और कनैडियन सैन्य माल वाहक युद्धक विमान की
मदद से माली पर चढाई कर दी. दुनिया को पहले ही बताया जा चुका था कि वहां इस्लामी कठमुल्लों की बढ़ती ताकत से अफ्रीकी महाद्वीप पर
कितनी बड़ी अस्थिरता पैदा होने वाली थी? लिहाजा जनता की मांग और दुनिया की भलाई के
लिए समाजवादी राष्ट्रपति के नेतृत्व में फ्रांस को यह फ़ौजी कार्यवाही करने के लिए
मजबूर होना पड़ा. इस युद्ध में अभी तक सैंकड़ों लोगों की जाने गयी है और लाखो लोग
बेघर हो चुके है.
दुनिया के सभी
युद्धों का एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है, मानव इतिहास में कोई ऐसा युद्ध खोजना
मुश्किल है जिसका कोई राजनीतिक अर्थशास्त्र न हो. आखिर फ्रांस को अपनी सरहद से
हजारो किलोमीटर दूर इस अपेक्षाकृत गरीब मुल्क से क्या खतरा था कि वह उसके खिलाफ
युद्ध में कूद पड़ा? आइये इन खतरों की पड़ताल की जाए और यह जानने की कोशिश की जाए कि
युद्धों का असल कारण आखिर क्या होता है ?
१९७३ के ‘आयल शाक’
(खनिज तेल की कीमतों में भारी उभार) के बाद फ्रांस ने ऊर्जा के वैकल्पिक उपाए
खोजने का निर्णय किया और पाया कि परमाणु उर्जा खनिज तेल का सबसे अच्छा साफ़ सुथरा
और सस्ता विकल्प है जिसके परिणामस्वरूप ५६ परमाणु ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना की
गयी. आज फ्रांस में कुल ५९ परमाणु ऊर्जा केंद्र है जो उसकी कुल ऊर्जा जरूरतों का
८० प्रतिशत हिस्सा वहन करती है. इस प्रकार फ्रांस परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र
में दुनिया का सबसे पहला देश है जिसकी निर्भरता तेल पर सबसे कम है. वह परमाणु
ऊर्जा का न केवल अपने देश में खपत के सिलसिले में अव्वल है बल्कि वह परमाणु ऊर्जा
का सबसे बड़ा निर्यातक देश भी है. ब्रिटेन की अधिकतर ऊर्जा संबंधी जरूरतों को
फ्रांस ही पूरा करता है. फ्रांस की परमाणु उर्जा का उत्पादन, प्रबंधन और बिक्री
आदि में सबसे बड़ा काम ‘अरेवा’ नाम की
कंपनी करती है जो सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है जिसकी सकल संपत्ति करीब नौ अरब
यूरो है,इसके कामगारों की संख्या पचास हजार के आस पास है. अरेवा और ई डी ऍफ़ के
अतिरिक्त फ़्रांस में कोई दर्जन भर कम्पनियां ऐसी है जो परमाणु ऊर्जा संबंधी कामों
से जुडी है जिनका व्यापार अरबो डालरों का है.
आज पूरी दुनिया
में करीब ४३६ परमाणु ऊर्जा केंद्र कार्यरत है, दुनिया में सर्वाधिक औसत विकास दर से बढ़ते हुए इस व्यापार के चलते कोई ५२१ नए
परमाणु केंद्र पूरी दुनिया में कहीं न कही बनाये जा रहे है जो अगले १० वर्षो में
काम करना शुरू कर देंगे. आई ए ई ए की एक रिपोर्ट के अनुसार २००३ में दुनिया भर में १६७४२ टेरा वाट हावर्स बिजली का
उत्पादन हुआ जिसका ३९.९% कोयला जला कर, १९.२% प्राकृतिक गैस,१६.३ पानी से और १५.७
% परमाणु से पैदा की गयी. मात्र ०.४% बिजली सूरज और हवा से उत्तपन हुई, अगले २५
वर्षो में यह आंकड़े पूरी तरह बदल जायेंगे और परमाणु ऊर्जा विश्व की ऊर्जा संबंधी
जरूरतों को पूरा करने में प्रथम स्थान ले लेगी.
उपरोक्त
पृष्ठभूमि के साथ ही अब इसके अगले क्रम को भी समझ लेना चाहिए. परमाणु ऊर्जा बनाने
के लिए दो बुनियादी चीजों की आवश्यकता है
पहला है उन्नत तकनीक और दूसरे कच्चा माल. फ्रांस सहित प्रथम विश्व के अन्य देशो
में तकनीक की कोई समस्या नहीं है अगर कोई बाधा है तो वह है कच्चे माल की यानि
प्राकृतिक संसाधनों की. परमाणु ऊर्जा के लिए युरेनियम की जरुरत होती है और कुदरत
अपने इस खजाने को सभी देशो को नहीं देती. दुनिया में युरेनियम के प्राप्य भंडार
करीब ५.५ मीलियन टन है जिसमे आस्ट्रेलिया,कजाखिस्तान,कनैडा के पास सबसे अधिक जखीरे
मौजूद हैं. यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि ३००० टन कोयले को फूंकने से जितनी
ऊर्जा प्राप्त होती है वह एक किलोग्राम
युरेनियम २३५ से प्राप्त की जाती है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत २००७ में १३८ डालर प्रति पाउंड थी
(३०४,१५२ डालर प्रति टन). जाहिर है आस्ट्रेलिया और कनैडा से युरेनियम खरीद कर
परमाणु बिजली बनाकर मुनाफा नहीं कमाया जा सकता इसीलिए फ्रांस की अरेवा कंपनी
अफ्रीका के अपने पूर्व उपनिवेशी देशो में खनिज सम्पदा खोजने और उनकी खदानों को
विकसित करने के कारोबार में संलग्न है. मनचाही खदानों के ढूँढने,उनके खनिज उत्पाद को निर्यात करने, खदानों पर बसे लोगो को मनमर्जी
से विस्थापित करने जैसे कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए अक्सर मन माफिक सरकारों
की जरुरत होती है.
पूरे अफ्रीकी
देशो के इतिहास पर अगर नज़र डाल कर देखे तब यही पायेंगे कि अफ्रीका सभी
साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए एक पसंदीदा क्षेत्र रहा है. इन शक्तियों को यहाँ
बसे लोगो में कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही हां अफ्रीका की ज़मीन में छिपे दुनिया भर
के अपार खदानों में सभी का ध्यान अपनी और खींचा है चाहे अमेरिका हो या चीन सभी
देशो को अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए जिन प्राकृतिक संसाधनों की जरुरत है वह सब
अफ्रीका के पास है. कच्चा तेल, लौह, अयस्क, कोयला, सोना, हीरा आदि खनिजों के भंडार
यहाँ मौजूद है. इसी श्रखंला में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी युरेनियम भी जुड़ गया है
नाईज़र,माली, सेनेगल, अल्जीरिया से होती हुई साहेल वादी में युरेनियम सहित एनी कई
खनिजो के अपार भंडार मिले है जिसका दोहन करना फ्रांस की अरेवा कंपनी का काम है.
माली का पडौसी देश नाईज़र युरेनियम उत्पादन में दुनिया में छठा स्थान रखता है. २०१०
में दुनिया भर में ५३,६६३ टन युरेनियम का उत्पादन हुआ जिसका ४१९८ टन हिस्सा नाईज़र
से आया. अरेवा की खदाने नाईज़र, माली और सेनेगल में मौजूद है जिसकी सहायता राकगेट
नामक कनैडियन खदान कंपनी भी करती है.
- अरेवा को पिछले दिनों यहाँ एक बड़ी सफलता हाथ लगी.नाईज़र स्थित, माली सरहद के नज़दीक उसे इमोरारेन खदान मिली जिसमे प्रतिवर्ष ५००० टन (करीब १.५२ अरब डालर मूल्य) युरेनियम का अगले ३५ सालों (मौजूदा कीमतों के अनुसार लगभग ५३.२० अरब डालर) तक उत्पादन किया जा सकता है. इमोरारेन खदान को इसी वर्ष आरंभ होना था लेकिन स्थानीय असंतोष और अन्य राजनीतिक कारणों के चलते इसे अगले साल तक के लिए टाल दिया गया है. नाईज़र में अरेवा की खदानों की गतिविधियों का जनता पर भारी असर पड़ा है जिसका विरोध दिन बा दिन बढ़ता जा रहा है. जब स्थानीय नागरिको को यह पता चला कि खदानों के कारण वहां के पानी में रेडियशन की मात्रा अत्यधिक बढ़ गयी और लोग कैंसर जैसी बीमारियो का सामना करने लगे तब उन्होने संगठित विरोध करना शुरू किया जिसके चलते पिछले वर्ष अरेवा कंपनी के प्रबंधक एम ए लौवेर्गन को नाईज़र से भागना पड़ा. इस आन्दोलन का असर माली और सेनेगल पर भी पड़ने लगा और लोग संगठित होकर इन खदानों का विरोध करने लगे.
माली की अंदरुनी
राजनीतिक स्थितियां भी पिछले दिनों कई संकटों से दो चार हुई. मौजूदा राजनीतिक
नेतृत्व यूरोपीय हितों की पूर्ती करके अपने पेट भरता रहा और देश की राजनीतिक
समस्याओं का जवाब दमन और जनविरोधी नीतियों से ही देता रहा जिसके लिए उसे हथियार और
धन पश्चिमी ताकतों से प्राप्त होते रहे. माली का तुआरेग आन्दोलन एक ऐसा ही जन
जातियों का आन्दोलन है जो देश की आज़ादी के बाद से ही अपनी मांगो के लिए प्रयासरत
है ताकि उन्हें देश के संसाधनों के बंटवारे में उनका हक़, जनवादी अधिकार और सत्ता में
हिस्सेदारी मिल सके. १९६० के दशक से चl रहा यह आन्दोलन अफ्रीकी महाद्वीप के
सर्वाधिक पुराने आंदोलनों में गिना जाता है जिसकी जडें नाईज़र तक में फ़ैली हुई है.
लीबिया के पुर्व शासक गद्दाफी से समर्थन प्राप्त इस आन्दोलन के माली हकुमत के साथ
१९९५ में शान्ति समझौते में गद्दाफी का बहुत बड़ा हाथ था लेकिन उसकी मृत्यु के बाद
लीबिया सेना के हथियारों का एक बड़ा हिस्सा इस्लामी लड़ाकुओ के हाथ लग गया जिससे
माली की सत्तारूढ़ सरकार, तुआरेग ताकतों और इस्लामी लड़ाकुओं के बीच शक्ति संतुलन ही बिगड़ गया. हथियारों के बल पर
टिम्बकटू में इस्लामी लड़ाकुओं ने वो कहर मचाया जो तुआरेग आन्दोलनकारी पिछले ५०
सालो में न कर सके.
फ़्रांस की सरकार
और अफ्रीकी खदानों में उसके हितों के रक्षको को इस अव्यवस्था में अपनी रोटी सकने
का इससे अच्छा अवसर और कौन दे सकता था ? उनका इस समस्या के समाधान से कोई लेना देना न पहले था; न अब है, और न भविष्य में
होगा. फ्रांस के लिए इस इलाके (साहिल वादी) का महत्व उतना ही है जितना अमेरिकी
कम्पनियों के लिए ईराक के तेल से था. अगर अमेरिकी कम्पनियां अपने फायदे के लिए
ईराक को तबाह और बर्बाद कर सकती है तो फ्रांस के सैनिक माली में घुस कर पडौसी नाईज़र
और सेनेगल को फूलों की भेंट देने नहीं गए है. वे इन देशो में फ्रांसीसी खदानों से
खनन और उसके निर्बाध्य निर्यात को सुनिश्चित कराने वहां पहुंचे है जिसके खिलाफ
वहां लगातार जन आक्रोष बढ़ रहा था. दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा के शिखर पर बैठा
फ्रांस अपनी धरती से एक किलो युरेनियम भी पैदा नहीं करता. फ्रांस का परमाणु ऊर्जा
उद्योग पूर्णत: आयातित युरेनियम पर निर्भर है.
भविष्य में
परमाणु ऊर्जा के प्रयोग पर लगातार बढ़ती निर्भरता युरेनियम की खोज और उसके उत्तखनन
को और अधिक महत्व देता दिखाई पड़ा रहा है. आई ए ई ए के अनुसार २०१० में दुनिया के विभिन्न देशों ने युरेनियम की खोज और
उसके संसाधनों के विकास पर २ अरब डालर से अधिक खर्च किया है. मात्र २००८ और २०१०
के बीच युरेनियम के उत्पादन में २५% वृद्धि दर्ज हुई . २०१२ में ८१९४८ टन युरेनियम
का इस्तेमाल किया गया. अमेरिका ने २००५ में २२,३९७ टन जो कि दुनिया का ३३% है
प्रयोग किया इस युरेनियम का मात्र ८३५ टन का उत्पादन घरेलू था जबकि २१,५६२ टन
विदेशो से खरीदा गया था, फ़्रांस ने १०,४३१ टन युरेनियम इस्तेमाल किया जो दुनिया
में प्रयुक्त हुए युरेनियम का १५% है लेकिन इसमे एक ग्राम युरेनियम भी घरेलू
उत्पादित नहीं था.
उपरोक्त अध्ययन
के पसेमंज़र में पाठकों को यह समझाना अब आसान होगा कि माली में फ्रांस के साथ अन्य
यूरीपीय देशो की फ़ौजी कार्यवाही शुद्ध रूप से एक साम्राज्यवादी एजेंडे का रद्दे
अमल है जिसे आजकल जनता की सुरक्षा के नाम पर अंजाम दिया जा रहा है. इन सैन्य कार्यक्रमों का अर्थ दूसरे देशो के खनिज संसाधनों पर कब्ज़ा
करना है और साथ ही इन देशो में पनप रहे जनवादी राष्ट्रीय मुक्ति से सच्चे आंदोलनों
का गला घोंटना भी है. फ्रांस जिसने मानव जाति को १७८९ की क्रान्ति के बाद आजादी के
नए मूल्य दिए आज उसका समाजवादी नेतृत्व अपने कथित राष्ट्रीय हितो को सामने रखते
हुए दूसरे देशो की सार्वभौमिकता, स्वतंत्रता और जनांदोलनो को कुचलने के लिए अपनी
सैन्य शक्ति का प्रयोग कर रहा है. उसके इस अतिक्रमण पर विश्व समुदाय ने मानो
स्वीकृति प्रदान की हो. अमेरिका अपने हितो के लिए ईराक अफगानिस्तान में जाए, चीन
सूडान, लीबिया, बर्मा,पाकिस्तान,
अल्जीरिया में कुण्डली लगाए तो
भारत कभी माल द्वीप,श्रीलंका ,नेपाल को धमकाए या फ्रांस माली में अपनी फौजे
भेजे, इन सब प्रश्नों पर विश्व जनमत को न केवल गुमराह किया जा रहा है बल्कि उसे
चुप्पी साधने के टोन टोटके कराये जा रहे है.
हम एक ऐसी दुनिया
में जी रहे है जिसमे प्राकृतिक संसाधनों के जायज़ प्रयोग पर कोई जन आधारित नीति अभी
तक नहीं बनी है. यह सिर्फ उद्दण्ड ताकतवरो
का युग है जिसमे हर देश ने अपनी अपनी ताकत के बूते पर अपने देश अथवा अपने देश की
सीमाओं से बाहर दूसरे देशो के प्राकृतिक
संसाधनों पर धन/नीति-करार/ भय के आधार पर
कब्ज़ा किया हुआ है. इस प्राकृतिक लूट के कारोबार में में दुनिया भर के खून चूसू नेतृत्व की चांदी ही चांदी है. वह खुद
को बेच कर अपने देश के संसाधनों को कौड़ियो के भाव अपने देश के बाहर के व्यापारियों
को बेच सकता है. भारत के छत्तीस गढ़ और उडीसा में पोस्को कम्पनी के विरोध को इसी
नज़रिए से साफ़ देखा जा सकता है. दुनिया में मानवजाति की बराबरी, उसके संसाधनों पर
बराबर के हक़ की जरुरत जितनी आज है उतनी पहले कभी महसूस नहीं की गयी. इन्ही
प्रश्नों पर दो विश्व युद्ध पहले हो चुके
है, लेकिन अभी तीसरा नहीं होगा यह कोई
नहीं कह सकता.
क्या बात है | 'जनपक्ष' को हम लोग इसीलिए जानते हैं | शमशाद भाई ने हमारे सामने दुनिया की उस तस्वीर को रख दिया है ,जो बहुत भयावह है , और जिसे हर किसी को जानना और समझना चाहिए| जाहिर है , अफ्रीका में , जहाँ पर ऐसी बहुमूल्य धातुओं की भरमार है , यह मार और लूट सबसे अधिक पडी है | मैं एक जगह पढ़ रहा था , कि जिस हीरे और सोने पर दुनिया इतराती फिरती है , उसके लिए अफ्रीकी महाद्वीप में जितना रक्तपात मचाया गया है , वह अकल्नीय है |
जवाब देंहटाएंलेख बहुत तार्किक और तथ्यों के साथ लिखा है | सो साथ में बधाई भी |
अकल्पनीय पढ़ें
जवाब देंहटाएंबहुत जानकारी मिली . शमशाद भाई का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदुनियां तीसरे विश्वयुद्ध की कगार पर बैठी है जिसे तलने का कोई उपाय नहीं दिख रहा है ! वे सभी कारण प्रकट हो रहे हैं जो पिछले विश्वयुद्धों के लिए जिम्मेदार थे ! पूंजीवादी मुनाफाखोरी का आधार सस्ता श्रम और सस्ता कच्चा माल ही है जिनकी लूट जारी है और अब अपना विद्धान्सक रूप धारण कर रही है !
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार लेख है, वैश्विक परिदृश्य को समझाने के लिए इससे बड़ी मदद मिलेगी !शुक्रिया !
आपके पूरे लेख में नार्थ माली अर्थात अज़ावाद की स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले तुवारेग विद्रोहियों के संगठन CNRDR का कहीं कोई जिक्र नहीं है भाई ! मज़े की बात ये है इन्ही तुवारेग विद्रोहियों ने फ़्रांस समर्थित सेना का स्वागत क्यूँ किया ?
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक लेख शम्स भाई... इसे तो मैं सेव करके रखूँगा... युद्ध के पीछे की राजनीति और अर्थशास्त्र को बखूबी ब्यान किया है आपने...!
जवाब देंहटाएंबेहद ज्ञानवर्धक लेख शम्स भाई... इसे तो मैं सेव करके रखूँगा... युद्ध के पीछे की राजनीति और अर्थशास्त्र को बखूबी ब्यान किया है आपने...!
जवाब देंहटाएंशमशाद भाई ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परतें उधेड़ कर जो नग्न यथार्थ प्रस्तुत किया है, वह एक बहुत बड़ी हकीकत है... सलाम शमशाद भाई को... शुक्रिया जनपक्ष...
जवाब देंहटाएंjaankaariparak, aankh khol dene vaalaa lekh!
जवाब देंहटाएंसभी प्रबुद्ध पाठको की टिप्पणियों के लिए मैं अपना आभार व्यक्त करता हूँ, संतोष भाई के प्रश्नों पर मैं यही कहना चाहूँगा कि माली की लोकल राजनीति एक अलग विषय है वहां तीन प्रमुख सत्ता के दावेदारों का जिक्र किया भी है ,विद्रोही गुट द्वारा स्वागत करना वहां की स्थानीय मजबूरी है मेरा मूल उद्देश्य युरेनियम को लेकर फ्रांस की बढ़ रही चिंताओं को लेकर है और उसके कथित समाजवादी चरित्र से बहती हुई साम्राज्यवादी बयार को चिन्हित करना था. आप सभी का स्नेह मिला ..तसल्ली हुई कि मेहनत कामयाब हुई. एक बार फिर आप सभी का धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत खोजपूर्ण लेख आपने लिखा है। इसके बारे थोड़ा बहुत पढ़ा तो मैंने भी था मगर आपने बहुत concisely पूरी बात रख दी है। मैं जो बात पढ़ते हुए महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कमेन्ट करूंगा वह भी आखिर में आपने लिख दी है। वह है, अमरीका, चीन और भारत अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका और एशिया की खनिज सम्पदा को लूटने की योजना बना रहे हैं। बहुत अच्छा लेख है...कई बार लगता है कि तीसरे विश्व युद्ध के बाद शायद किसी नए समाज कि कल्पना की जा सकती है। आपने इस ओर भी इंगित कर दिया है। आपको बधाई इतना अच्छा लेख लिखने के लिए। पता नहीं आप इतना समय कहाँ पा जाते हैं।
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