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सोमवार, 6 मई 2013

आस्कर’– फ़िल्म के पुरस्कार या विदेश नीति के हथियार


 रामजी तिवारी ने पिछले दिनों फिल्म समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण काम किये हैं. खासतौर से हालीवुड की चर्चित तथा पुरस्कृत फिल्मों की जो राजनीतिक समीक्षा उन्होंने प्रस्तुत की है, वह  सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के हथियार के रूप में हालीवुड की भूमिका की गहरी पड़ताल है. हाल  ही में आई उनकी पुस्तक  आस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे'  हिंदी सिनेमा लेखन की एक विशिष्ट उपलब्धि है.
'इसी क्रम में उनका यह आलेख इस वर्ष की आस्कर विजेता फिल्म 'आर्गो' पर केन्द्रित है. समयांतर में प्रकाशित इस लेख को हम जनपक्ष पर भी प्रस्तुत कर रहे हैं.   




‘आस्कर’ पुरस्कारों को लेकर अपने देश में ‘मोह और भ्रम’ से आगे बढ़कर ‘पागलपन’ की स्थिति बनती दिखाई दे रही है , और जो इधर के वर्षों में काफी बढ़ गयी है | ‘स्लमडाग मिलेनियेर’ फिल्म को ही लीजिये | उसे भारत में इस तरह से प्रचारित किया गया , गोया वह कोई भारतीय फिल्म हो , या वह भारतीय समाज को प्रतिविम्बित ही करती हो | वही ‘पागलपन’ इस साल भी ‘लाइफ आफ पाई’ के लिए दिखाया गया | खैर .... पुरस्कारों की घोषणा हुयी , और उम्मीद के मुताबिक़ ही ‘आर्गो’ फिल्म को इससे नवाजा गया | स्वतंत्र प्रेक्षक इस बात को पहले ही मान चुके थे , कि इस बार ‘आर्गो’ या ‘जीरो डार्क थर्टी’ में से ही किसी एक फिल्म को आस्कर दिया जाएगा | कारण साफ़ था | ‘आर्गो’ ईरान में घटित 1979 की इस्लामी क्रांति के दौरान अमेरिकी राजनयिकों के बंधक बनाये जाने , और उनमे से 6 को सी.आई.ए. के गुप्त मिशन के द्वारा छुड़ा लिए जाने की घटना पर आधारित है , जबकि ‘जीरो डार्क थर्टी’ ओसामा बिन लादेन की खोज और उसके पाकिस्तान में मारे जाने की घटना को दिखाती है | जाहिर है , ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्मों में चुनाव के दौरान उस फिल्म के हाथ में बाजी लगी , जिसमें अमेरिका अपने भविष्य की संभावनाएं देखता है | इन अर्थों में एक दशक पहले की अपेक्षा , चार दशक पहले की घटनाओं में गोते लगाने को अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए |

हैरानी की बात यही है , कि एक तरफ जहाँ दुनिया में इन पुरस्कारों को लेकर ‘मोह और भ्रम’ का यह वातावरण बना हुआ है , वहीँ दूसरी तरफ हालीवुड का फिल्म उद्योग इन पुरस्कारों के माध्यम से अमेरिकी विदेश नीति के हथियार के रूप में काम करता है | इस साल के पुरस्कारों से यह बात और स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है , कि साम्राज्यवादी और विस्तारवादी देशों की नीतियाँ अपने हिसाब से कलाओं को भी नियंत्रित करती हैं , और जिन कलाओं-विधाओं के ऊपर उस समाज को दिग्दर्शित करने की जिम्मेदारी आयत होती है , वही कलाएं और विधाएं उन विस्तारवादी नीतियों के हाथों में खेलने लगती हैं | अन्यथा अकादमी के सामने दो बेहतरीन फिल्मों  - ‘लिंकन’ और ‘ला मिजरेबल्स’ - का विकल्प तो था ही , जिनके आधार पर वह अपने चेहरे को चमका सकती थी , लेकिन उसने अपने इतिहास को दुरुस्त करने के बजाय , पूर्व की भाति ही इन फिल्मों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया | तो आईये पहले यह जानने की कोशिश करते हैं , कि इस साल की आस्कर विजेता फिल्म ‘आर्गो’ आखिर दिखाती क्या है , और अंततः इस फिल्म से कौन सा सन्देश ध्वनित होता है ?

‘बेन अफलेक’ द्वारा निर्देशित यह फिल्म ‘आर्गो’ ईरान में इस्लामी क्रांति के दौरान हुयी उस ‘वास्तविक घटना’ को लेकर बनाई गयी है , जिसमें 4 नव. 1979 को एक अतिवादी मुस्लिम गिरोह द्वारा अमेरिकी दूतावास पर हमला किया जाता है , और दूतावास के 60 से अधिक कर्मचारियों को बंधक बना लिया जाता है | संयोगवश इनमे से 6 लोग किसी तरह से भागकर बगल के कनाडाई दूतावास में छिप जाते हैं | इन्ही 6 लोगों को सी.आई.ए. एक गुप्त मिशन के सहारे ईरान से सुरक्षित निकालने की योजना बनाती है | योजना के अनुसार एक ‘विज्ञान-फैंटेसी फिल्म’ बनाने वाली कम्पनी के रूप में सी.आई.ए. के अधिकारी यह कहते हुए ईरान में दाखिल होते हैं , कि उन्होंने इस देश को अपनी फिल्म की लोकेशन के लिए चुना है | बाद में कनाडाई दूतावास में छिपे उन सभी 6 लोगों को कनाडा का फर्जी पासपोर्ट देकर , फिल्म बनाने वाली उसी कंपनी का सहयोगी दिखा दिया जाता है | और एक नाटकीय अंदाज में 28 जन. 1980 को उन्हें सुरक्षित निकाल भी लिया जाता है | जाहिर है कि यह फिल्म उस मानसिकता को ध्यान में रखकर बनाई गयी है , जिसमें अमेरिकी लोग अपने आपको ‘हीरो’ जैसे दिखाना चाहते हैं |

फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए ऐतिहासिक पात्रों और टी.वी. दृश्यों का भरपूर प्रयोग किया गया है | जाहिर है ‘थ्रिलर’ फिल्मों को दिखाने में हालीवुड के पास अपनी महारत तो है ही | और इस फिल्म में जब ऐतिहासकिता के साथ उसे जोड़ा गया है , तो वह और अपीलिंग बन गया है | लेकिन इसी चक्कर में फिल्म एक-पक्षीय और प्रोपेगंडा-फिल्म की तरह से बन गयी है | इसमें ईरानी लोगों को असभ्य दिखाया गया है , और ऐतिहासिक संदर्भो की अपनी व्याख्या की गयी है | यह फिल्म न सिर्फ सी.आई.ए. को महिमामंडित करती है , वरन उस समूचे परिदृश्य को नजरअंदाज भी करती है , जिसमे यह घटना घटी थी | फिल्म कनाडा और न्यूजीलैंड के राजनयिकों द्वारा निभाई गयी भूमिका को भी महत्वहीन बनाने का काम करती है , जबकि ऐसा माना जाता है , कि उन 6 व्यक्तियों की रिहाई का मूल विचार कनाडा का ही था | तभी तो फिल्म को देखने के बाद कनाडा ने अपनी क्रुद्ध प्रतिक्रया दी | उसके अनुसार ‘यह फिल्म सी.आई.ए. के लिए लिखी गयी है , और हमारी भूमिका को महत्वहीन बनाती है |’ इन आपत्तियों के बाद इस फिल्म में कनाडा के लिए भी कुछ जोड़ा गया | वहीँ न्यूजीलैंड की आपत्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है , कि फिल्म को आस्कर दिए जाने के बाद 12 मार्च 2013 को वहां की प्रतिनिधि सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया , कि ‘इस फिल्म के सहारे हमारे राजनयिकों की मेहनत और साहस को कमतर करने का प्रयास किया गया है |’

लेकिन सबसे तीखी प्रतिक्रया ईरान द्वारा दिखाई गयी | उसका कहना था , कि इस फिल्म में ईरान के पक्ष को बिलकुल भी नहीं दिखाया गया है और ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है | ईरान का यह भी मानना है , कि इसे पुरस्कृत करके हालीवुड ने अमेरिकी प्रचार युद्ध को ही पोषित किया है | इस फिल्म को लेकर आपत्तियां और भी हैं , जिसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और एकपक्षीय बनाने की बात शामिल है | लेकिन इन आपत्तियों से आगे बढ़कर उन मूल बिन्दुओं की तरफ नजर दौडाना उचित होगा , जिन्हें ध्यान में रखकर हालीवुड ने इस फिल्म को पुरस्कृत किया है | और जाहिर है , कि ऐसा करने के लिए उस समूचे परिदृश्य को समझना आवश्यक हो जाता है |

शीत युद्ध के दौर में गुप्तचर संस्थाओं की मदद से महाशक्तियों ने विभिन्न देशों में तख्तापलट कराया था | 1953 का ईरान हमारे सामने इसी उदाहरण के रूप में है | जब अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. और ब्रिटिश गुप्तचर संस्था एम.आई. 6 ने मिलकर डा. मोहम्मद मुसद्देह की जनता द्वारा चुनी गयी लोकप्रिय सरकार को सत्ताच्युत कर दिया गया था, और अपने पसंद के ‘शाह’ की सरकार को सत्तासीन | डा. मोहम्मद मुसद्देह उन साम्राज्यवादी ताकतों की आँखों में इसलिए खटक रहे थे , क्योंकि उन्होंने अपने देश की तेल संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था | उनकी जगह पर जब ‘शाह’ को सत्ता मिली , तो वे उन साम्राज्यवादी शक्तियों की गोद में बैठ गए , जो ईरान को दोनो हाथों से लूट रही थी | लगभग तीन दशकों तक ईरान में अमेरिकी समर्थित ‘शाह’ की सरकार चलती रही | इस दौरान अमेरिकी तेल कंपनियों को ईरान में तेल उत्पादन की खुली छूट मिली गयी थी , और वहाँ के पाकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूटा जा रहा था | उधर ईरानी जनता तमाम तरह के कष्टों को झेल रही थी | ‘शाह’ अपने देश में लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे थे , और कुल मिलाकर लोगों के बीच यह धारणा बन गयी थी , कि ईरान की इस बदहाली की जिम्मेदारी अमेरिकी हस्तक्षेप और लूट के कारण पैदा हुयी है | 1967 और 1973 के अरब-ईजराईल संघर्ष में भी ईरान इसी वजह से किनारे खड़ा रहा , जबकि वह युद्ध पूरे क्षेत्र में फैला हुआ था | ऐसे में वहां अयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रान्ति हो गयी , और ‘शाह’ को देश छोड़कर अमेरिका भागना पड़ा | इसी अफरातफरी और अमेरिका विरोधी माहौल में 4 नव. 1979 को एक इस्लामिक गुट द्वारा अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया गया , और साठ से अधिक लोगों को बंधक भी बना लिया गया था |

आरम्भ में उस इस्लामिक गुट की मंशा एक तात्कालिक मांग और प्रदर्शन तक ही सीमित थी  , और जिसे अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा हतोत्साहित भी किया जाता रहा , क्योकि उससे ईरान की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही थी | लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगा , और अमेरिका द्वारा ईरान को अस्थिर करने की कोशिशे की जाने लगी , इस्लामिक नेतृत्व वाली ईरानी सरकार का रवैया भी बदलने लगा | वह उस पूरी घटना को अपनी सरकार को मजबूती प्रदान करने के लिए इस्तेमाल करने लगी , और अमेरिका के सामने कुछ ऐसी मांगे रखी गयी , जिनसे दुनिया भर में ईरान की गिरती हुयी छवि को बचाया जा सके | एक – ‘शाह’ को ईरान को सौंपा जाए | दो – अमेरिका ईरान में हुए 1953 के तख्तापलट के लिए माफ़ी मांगे | और तीन – ईरान की अमेरिका में जब्त और संचित राशि को लौटाया जाए | जाहिर है , कि ये मांगे अयातुल्लाह को सूट करती थी , और इससे अपने देश में उनकी पकड़ मजबूत भी होने लगी थी | एक लम्बी और थका देने वाली वार्ता के परिणामस्वरूप अंततः इन बंधकों को 444 दिनों बाद 20 जन.1981 को रिहा किया गया , जिसकी मध्यस्थता अल्जीरिया ने की थी | बदले में अमेरिका ने ईरान की कुछ संपत्ति को तो लौटाया ही , साथ ही साथ दुनिया को यह आश्वासन भी दिया , कि वह भविष्य में उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा | इस पूरे बंधक संकट में दो बड़ी घटनाएं और हुयी थी | एक - जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है , कि 6 कर्मचारियों को एक गुप्त अभियान के तहत छुड़ा लिया गया था , जिसमे कनेडियन दूतावास की बड़ी भूमिका थी |  और दो – 24 अप्रैल 1980 को एक दूसरा गुप्त सैन्य-अभियान असफल भी हो गया था , और जिसमें अमेरिका के आठ सैनिक मारे गए थे |

फिल्म को देखने और उसके वास्तविक ऐतिहासिक परिदृश्य को समझ लेने के बाद शायद ‘आस्कर पुरस्कारों’ की इस राजनीति को समझा जा सकता है | पहली बात तो यह कि ‘आर्गो’ उस समूचे परिदृश्य को नहीं पकडती , वरन चयनित तरीके से अपने ख़ास हितों की घटनाओं को पकड़ कर आगे बढ़ती है | दूसरे , वह जिन चयनित घटनाओं को पकडती भी है ,उन्हें भी तोड़-मरोड़कर पेश करती है | और तीसरे यह कि , इसका परिणाम यह होता है , कि उस समूचे परिदृश्य की समझ लगभग उलट सी जाती है | क्योंकि जिस सी.आई.ए. की वजह से ईरान में तख्तापलट होता है , और जिसके सहयोग से एक भ्रष्ट व्यवस्था को तीन दशक तक ईरानी लोगों पर थोपा जाता है , वही सी.आई.ए. इस फिल्म में हीरो की भूमिका में आ जाती है | वहीँ दूसरी तरफ , उन कठिन दिनों को झेलने वाला ईरानी समाज खलनायक बन जाता है | और इन सबसे बढ़कर यह भी , कि इसके द्वारा अमेरिका ने ईरान पर एक तरह का ‘कूटनीतिक हमला’ भी किया है | आज अमेरिका की नजर ईरान पर है , और समूचे खाड़ी-क्षेत्र में वही एक ऐसा देश है , जो अमेरिकी नीतियों को चुनौती देता आया है | संयुक्त राष्ट्र-संघ और यूरोपीय संघ के साथ मिलकर अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधो के सारे हथियार आजमा लिए हैं | अब इस फिल्म के सहारे सांस्कृतिक मोर्चे पर दुनिया भर में यह भ्रम फैलाया जा रहा है , कि ईरानी लोग असभ्य होते हैं , इसलिए उन्हें सबक सिखाया ही जाना चाहिए , और यह सबक ‘छल, बल और कल’ किसी भी तरीके से सिखाया जा सकता है | हालीवुड फिल्म उद्योग ने इस ‘आस्कर पुरस्कार’ के द्वारा अमेरिकी विदेश नीति के इन्हीं लक्ष्यों को संरक्षित किया है , न कि कला का सम्मान |

अमेरिका का प्रत्येक उद्योग इसी तरह से संचालित होता है , गोया दुनिया की सारी जिम्मेदारी उन्ही के ऊपर आयत होती हो | हालीवुड भी इससे अछूता नहीं है | वहां की फिल्मों में पूरी दुनिया को देखने का चलन बहुत पुराना है | वे इसे अपनी जिम्मेदारी भी मानते हैं | लेकिन जब उस दुनियावी दखल में अमेरिकी भूमिका की बात आती है , तो उनकी फिल्मे मौन साध लेती हैं | और जब कोई फिल्म यह साहस दिखाती है , तो उसे किनारे कर दिया जाता है | ‘आस्कर’ पुरस्कारों के 85 वर्षों की समूची सूची इस बात की गवाही देती है , कि उसने किस तरह से उन फिल्मों को किनारे किया है , जिनमे अमेरिका की दुनियावी दखल का खुलासा होता है | और साथ ही साथ यह भी , कि किस तरह से उन फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है , जिन्होंने बदनाम अमेरिकी चेहरे को चमकाने का काम किया है | एक सवाल यहाँ यह खड़ा हो सकता है , कि आप अमेरिकी फिल्म उद्योग से यह अपेक्षा ही क्यों करते हैं , कि वह अपने देशहित को छोड़कर एक निष्पक्ष नजरिये का प्रदर्शन करे | उसका फिल्म उद्योग यदि अपने देश के चेहरे को चमकाता है , तो इसमें गलत क्या है ?  बिलकुल .... इसमें कुछ भी गलत नहीं है |  लेकिन दुनिया भर में यह ‘मोह और भ्रम’ क्यों पाया जाता है , कि ये पुरस्कार श्रेष्ठ फिल्मों को प्रदान किये जाते हैं , और भारत जैसे देशों में टी.वी.चैनलों पर लाइव दिखाकर , तथा समाचार पत्रों में उनकी खबरे पाटकर यह ‘पागलपन’ क्यों दिखाया जाता है ? यह ठीक है , कि अमेरिका में बनने वाली फिल्म अमेरिकी दृष्टि से ही निर्मित होगी , लेकिन यदि वह दृष्टि ‘इतिहास के निरस्तीकरण’ और ‘फिल्म द्वारा पुनर्लेखन’ तक पहुँच जाए , तो उसे बेनकाब किया जाना चाहिए | ऐसे में यह जरूरी है , कि हालीवुड फिल्म उद्योग के इस खेल को न सिर्फ समझा जाए , जो वह ‘आस्कर’ के माध्यम से खेलती आयी है , वरन उसे ख़ारिज भी किया जाए | ‘आर्गो’ नामक फिल्म इसी खेल का हिस्सा है , और इसलिए इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए |
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रामजी तिवारी
कवितायें, संस्मरण लेख तथा फिल्म समीक्षाएं प्रकाशित
मो.न. 09450546312



   

                         


5 टिप्‍पणियां:

  1. भारत जैसे देशों में टी.वी.चैनलों पर लाइव दिखाकर , तथा समाचार पत्रों में उनकी खबरे पाटकर यह ‘पागलपन’ क्यों दिखाया जाता है ?
    यानी आप इसके बहिस्कार की बात करते है...जबकि मुझे एक और पागलपन नजर आ रहा है...की जिस सभ्यता और संस्था की आपने पूरे लगन से ''आलोचना'' (समीक्षा नहीं) की आपने उस पर एक किताब भी लिख दी...क्या ये पागलपन और मोह. भ्रम की पराकाष्टा नहीं है??

    बाकी लेख अच्छा है..थोडा निष्पक्ष नहीं लगता...आप समीक्षा करते तो बेहतर होता...शायद आप पिछले साल की फिल्म के बारे में भूल गए.

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  2. रामजी भाई का आस्कर श्रृंखला पर आलेख पढ़ कर यह स्पष्ट हो गया है कि इस कठपुतली को अमरीकी मानसिकता कैसे नचाती है. कहना न होगा कि इस साल की आस्कर विजेता फिल्म 'आर्गो' भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है. रही बात हम भारतीयों की तो हम तो विदेशी ठप्पे के पीछे बरसों से पागल रहते आये हैं. आस्कर पाने के लिए भारतीय फिल्मकार जितना पागल हुए रहते हैं अगर उतना ही ध्यान बेहतर फिल्मों के निर्माण पर दें तो शायद कायाकल्प हो जाए. बेहतर आलेख के लिए रामजी तिवारी को शुभकामनाएं एवं जन पक्ष का आभार.

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  3. रामजी तिवारी की फिल्मों की सनाझ आश्चर्यजनक है.वह प्रतिरोध के सिनेमा के समर्थक हैं.ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त करने वाली फिल्म आर्गो की बहुत तीखी आलोचना की गयी है.इस लेख में इस तथ्य को उजागर किया गया है कि एक सच्ची राजनीतिक घटना को किस प्रकार फिल्म में अमेरिकी दृष्टिकोण से तोड़ मरोड़ कर दिखाया गया है.

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