2008 में बराक ओबामा का यूएसए का राष्ट्रपति चुना
जाना निश्चित ही एक ऐतिहासिक क्षण था. 20 जनवरी 2009 को ओबामा के शपथ ग्रहण समारोह (इनऑगरेशन
सेरेमनी) का सीधा प्रसारण इन पंक्तियों के लेखक ने यूएसए के सुदूर उत्तर-पूर्वी
राज्य मेन के एक शहर में बहुत सारे गोरों के साथ मिलकर देखा था और सबने ओबामा के
सम्मान में खड़े होकर तालियाँ बजाई थीं. गौरतलब है कि मेन की जनसँख्या में कालों का
प्रतिशत पूरे देश (लगभग साढ़े बारह फ़ीसदी) की बनिस्बत बेहद (एक फ़ीसदी से भी कम) कम
है. इस राज्य के बारे में मशहूर अमेरिकी लेखिका बारबरा एरेनराइक की मज़ेदार टिप्पणी
है- “व्हेन यू गिव व्हाईट पीपल अ होल
स्टेट टू देम्सेल्व्स, दे ट्रीट ईच अदर रिअल नाइस.” हाँ, ‘रेशियल डाइवर्सिटी’ की
नीति के तहत कुछ सोमालियाई शरणार्थियों को वहाँ
बसाने के प्रयास सरकार ने ज़रूर किए हैं. तो इसके बाद सारे ‘रिअल नाइस’
लोगों ने मान लिया गया था कि अमेरिकी समाज
अब एक ‘पोस्ट-रेशियल’ समाज बन गया है.
इस ‘पोस्ट-रेशियल’
समाज की असलियत तो विभिन्न आँकड़ों के द्वारा जब-तब सामने आती रहती है- चाहे वह अमेरिकी जेलों में बंदियों की संख्या
में, ऋण पर लिए घरों की कुर्की (फ़ोरक्लोजर) की संख्या में, पढ़ाई छोड़ देने वाले
बच्चों की संख्या में या हालिया महामंदी में अपना रोज़गार खो चुके लोगों की तादाद
में कालों के अत्यधिक अनुपात की बात हो या पारिवारिक आय या संपत्ति में कालों और
गोरों के बीच के बड़े फासले का मामला हो. वैसे दबी ज़बान में इन बातों के लिए कालों
की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है. मगर हमारी ‘पुण्यभूमि’
में तो हमारे अपने सामाजिक डार्विनवादी दबी ज़बान में नहीं बल्कि गला फाड़-फाडकर
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को खारिज करते हैं या दलितों, मुसलमानों और हाशिए पर पड़े
अन्य समूहों की अंतर्जात/अनुवांशिक अक्षमता की बात करते हैं.
जिस तरह फिरकापरस्त समूह हमारे देश में ‘मुसलमानों की आबादी के बेहिसाब बढ़ने’ और ‘एक दिन उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक हो जाने’ का काल्पनिक भय लंबे समय से दिखाते आ रहे हैं, कुछ उसी प्रकार का डर यूएसए की बहुसंख्यक श्वेत आबादी के मन में भी बिठाया गया है. अमेरिकी लेखक एक्टिविस्ट रैंडी शॉ के अनुसार यह डर ओबामा के राष्ट्रपति निर्वाचित होने और पुनर्निर्वाचित होने के बाद कुछ और बढ़ गया प्रतीत होता है- बंदूकों की बिक्री बढ़ गई है और रिपब्लिकन नेता खुले आम कह रहे हैं कि लैटिनो आबादी अमेरिकी मूल्यों के लिए खतरा है. ‘वहाँ’ और ‘यहाँ’ में समानताएँ और भी हैं, जैसे ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ अर्थात सुरक्षा/कानूनी एजेंसियों द्वारा किसी व्यक्ति को उसके धर्म/जाति/नस्ल के आधार पर शक के घेरे में लाना, गैरकानूनी ढंग से गिरफ्तार करना, प्रताड़ित करना इत्यादि.
26 फ़रवरी 2012 की शाम को फ्लोरिडा राज्य के सैनफोर्ड शहर में ट्रेवॉन मार्टिन नामक 17 वर्षीय अफ्रीकी-अमेरिकी किशोरवयीन लड़का इस रेशियल प्रोफाइलिंग का शिकार बना जब जॉर्ज ज़िमरमन नामक व्यक्ति ने अपनी निजी बन्दूक से उस पर गोली चला दी. ट्रेवॉन मार्टिन जिस गेटेड कम्युनिटी (वह रिहाइशी कालोनी जहाँ बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित हो) में अपने पिता से मिलने आया था जॉर्ज ज़िमरमन वहाँ नेबरहुड वॉच (रिहाइशी इलाकों की चौकसी करने वाला नागरिकों एक संगठित समूह) का समन्वयक था. ट्रेवॉन के बस्ते से मारिउआना बरामद होने पर उसे स्कूल से निलंबित किया जा चुका था, मगर आम तौर पर उसे एक शांत स्वभाव वाला लड़का बताया जाता है जो कभी किसी प्रकार की हिंसक घटना में लिप्त नहीं रहा और उस रात भी वह निहत्था था. हूडी (पीछे टोपी लगी हुई कमीज़ या जैकेट) पहने हुए एक काले टीनएजर को देखकर ज़िमरमन ने पुलिस को फोन कर संदिग्ध व्यक्ति देखे जाने की सूचना दी. प्रेस की रिपोर्टों के अनुसार हाल में ज़िमरमन ने जितने भी फोन पुलिस को किए थे वे सब उस रिहाइशी इलाके में घूमते पाए गए काले लोगों की ‘संदिग्ध व्यक्ति’ के तौर पर सूचना देने की खातिर किए थे. उस शाम फोन करने पर पुलिस ने उसे ‘संदिग्ध व्यक्ति’ का पीछा न करने की हिदायत दी जो ज़िमरमन ने नहीं मानी. ज़िमरमन का कहना है कि ट्रेवॉन ने उस पर हमला किया, दोनों में संघर्ष हुआ और ज़िमरमन की गन छीनने की कोशिश में ट्रेवॉन को गोली लग गई. अपना पक्ष रखने के लिए ट्रेवॉन मार्टिन जीवित नहीं है, मगर ज़िमरमन की कहानी अविश्वसनीय लगती है. वहीं मुक़दमे में गवाही देने वाली ट्रेवॉन की एक दोस्त के अनुसार ट्रेवॉन ने फोन पर उसे बताया था कि उसका पीछा किया जा रहा है. सच्चाई जो भी हो मगर इन तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़िमरमन पुलिस की हिदायत के खिलाफ जाकर ट्रेवॉन का पीछा कर रहा था, ज़िमरमन के पास हथियार था और ट्रेवॉन निहत्था था और ज़िमरमन का हिंसक अतीत है जो ट्रेवॉन का नहीं था.
घटना की रात गिरफ्तार किए जाने के बाद ज़िमरमन से पूछ-ताछ की गई और फिर उसे छोड़ दिया गया. सैनफोर्ड के पुलिस चीफ का कहना था कि सुबूतों के अभाव के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा और फ्लोरिडा और अन्य राज्यों के कुख्यात ‘स्टैंड योर ग्राउंड’ क़ानून के अनुसार उसे आत्मरक्षा के लिए किसी पर जानलेवा प्रहार करने का हक था. इसका देश भर में विरोध होना शुरू हुआ और लोग सड़कों पर उतर आए. ड्रीम डिफेंडर्स नामक युवाओं के एक समूह ने ट्रेवॉन के लिए इन्साफ की माँग उठाते हुए डेटोना शहर से सैनफोर्ड शहर तक चालीस मील लंबा मार्च किया और पुलिस स्टेशन के सामने पहुँच कर धरना दिया. आख़िरकार छह हफ़्तों बाद स्थानीय पुलिस ने ज़िमरमन पर सेकण्ड डिग्री मर्डर (गैर-इरादतन हत्या) का गुनाह दर्ज किया. यहाँ महाराष्ट्र का खैरलांजी बरबस याद आ जाता है जब 2006 में हुए इस नृशंस हत्याकांड को रफा-दफा करने की कोशिशों के खिलाफ दलित जनता को सड़कों पर उतरना पड़ा था.
यूएसए की न्याय-व्यवस्था में निहित नस्ली पूर्वाग्रह फिर एक बार सामने आ गया जब मुक़दमे में 13 जुलाई 2013 को छह व्यक्तियों (जिनमें पाँच श्वेत महिलाएं थीं और एक लैटिनो महिला थी) की जूरी ने ज़िमरमन को निर्दोष करार दे दिया. इस पूरे मुक़दमे में इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि यहाँ नस्ल को मुद्दा नहीं बनाया जाए. ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहाँ दलितों के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं के जातीय पहलू को दबाने की भरसक कोशिशें की जाती हैं. मामला दर्ज हो भी जाए तो प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़ एक्ट के प्रावधानों को दूर रखकर उसे आम फौजदारी मामला बताया जाता है, या इस एक्ट के प्रावधान लागू कर भी दिए गए तो कुछ समय बाद हटा दिए जाते हैं. ‘पोस्ट-रेशियल’ समाज और ‘पोस्ट-एट्रोसिटी’ समाज नस्ल/जाति को मुद्दा न बनने देने में बिलकुल एक जैसी बेशर्मी दिखाते हैं.
इस मुक़दमे के फैसले के खिलाफ न्यूयोंर्क, लॉस एंजिलिस, शिकागो, अटलैंटा, डिट्रॉइट और अन्य कई शहरों में भारी प्रदर्शन हुए. यूएसए के अग्रणी नागरी अधिकार संगठन एनएएसीपी (नैशनल असोसिएशन फॉर अडवांसमेंट ऑफ़ कलर्ड पीपल) ने डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस से माँग की है कि जॉर्ज ज़िमरमन के खिलाफ ट्रेवॉन मार्टिन के नागरी अधिकारों के हनन का मामला दर्ज किया जाए. इस माँग को लेकर चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में अब तक पन्द्रह लाख से भी ज्यादा लोग दस्तखत कर चुके हैं.
यहाँ दिलचस्प बात यह है कि स्वयं ज़िमरमन की वल्दियत विशुद्ध ‘एंग्लो-सैक्सन’ नहीं है जबकि उसे देखने से यह बात समझ में नहीं आती. मगर जैसे ब्राम्हणवादी होने के लिए ब्राम्हण होना ज़रूरी नहीं वैसे ही नस्लवादी होने के लिए ‘प्योर व्हाईट ब्लड’ की आवश्यकता नहीं. मिसाल के तौर पर, यूएसए में रहने वाले अधिकाँश भारतीय (या, दक्षिण एशियाई) लोग अफ्रीकी-अमेरिकियों को लेकर खासे पूर्वाग्रहग्रस्त होते हैं और आपसी बातचीत में उनके लिए ‘कल्लू’, ‘जामुन’ या ‘श्यामलाल’ जैसे अनादरपूर्ण विशेषणों का प्रयोग करते हैं. वहाँ हम जैसे ‘ब्राउन’ लोग नस्लवाद की दुहाई तभी देते हैं जब वैसा व्यवहार हमारे साथ होता है – अपने देस की जाति-व्यवस्था के अनुरूप परदेस में हम ‘ब्राउनों’ ने अपने-आप को सामाजिक सोपानक्रम में ‘व्हाइट्स’ से नीचे और ‘ब्लैक्स’ से ऊपर मान लिया है.
विकट संयोग है कि इसी महीने (अगस्त) की 28वीं तारीख को डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ऐतिहासिक भाषण ‘आइ हैव ए ड्रीम’ के पचास साल पूरे होने वाले हैं. पिछली सदी में यूएसए के नागरी अधिकार आंदोलन का यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षण था जिसमें डॉ. किंग ने नस्लवाद खत्म करने का आवाहन किया था. उसके बाद की आधी सदी में यूएसए में कालों के लिए बहुत कुछ बदला है मगर काफी कुछ ऐसा है जिसे बदला जाना शेष है. ट्रेवॉन मार्टिन का मामला यही दर्शाता है कि नागरी अधिकारों का और सामाजिक न्याय का संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ है.
(समयांतर, अगस्त 2013 से साभार)
Really liked the article, especially the author's sarcastic comparison about 'post racial' and 'post atrocity' societies. I did have an idea that Indians who go there definitely consider them closer to whites and hate African-Americans but did not know that they have also developed special derogatory terms for them.
जवाब देंहटाएंsubhash gatade
भारतीय परिप्रेक्ष्य में अमरीकी समाज में व्याप्त नस्ली भावना पर एक सार्थक लेख |
जवाब देंहटाएं