अभी हाल में


विजेट आपके ब्लॉग पर

रविवार, 11 जनवरी 2015

निनाद : शार्ली एब्दा पर हमला और उस पर उठे सवाल


(अपने नियमित कालम निनाद में इस बार कुलदीप कुमार ने शार्ली एब्दो पर हुए हमले पर टिप्पणी की है)




फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दॉ पर हुए आतंकवादी हमले की जितनी भी भर्त्सना की जाए
, वह कम ही होगी। लेकिन इस हमले के कारण उठे मुद्दे बहुत जटिल हैं, और उनसे पत्रिका और उसके शहीद कार्टूनिस्टों के साथ एकजुटता दिखाते हुए भी इस सरलीकृत नारे द्वारा नहीं निपटा जा सकता कि मैं भी शार्ली हूँ। हम भारत में रहने वालों के लिए तो इस जघन्य हत्याकांड से उपजे सवालों के जवाब खोजना और भी अधिक कठिन है क्योंकि भारतीय समाज हर दृष्टि से एक बहुलतावादी समाज है जहां का राज्य अपने आपको धर्मनिरपेक्ष मानते हुए भी सर्वधर्म समभाव की नीति पर चलने की कोशिश करता है और इस कोशिश में अक्सर सभी धर्मों के कट्टरपंथियों के प्रति समभावयानी समान  नरमी के साथ पेश आता है। इस नरमी का सबसे पहला शिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही होती है। हमारे देश में  विभिन्न धार्मिक समुदाय ही नहीं बल्कि विभिन्न क्षेत्रीय, जातीय और राजनीतिक समुदाय भी अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ खड़े नजर आते हैं। इनमें कांग्रेसी भी हैं और संघी भी, समाजवादी भी हैं और कम्युनिस्ट भी। आज जो लोग शार्ली एब्दॉ की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में खड़े हैं, वे ही बीते हुए कल में अपने देश में स्वतंत्र अभिव्यक्ति को कुचलते नजर आ रहे थे और आने वाले कल में भी आएंगे। लोग भूले नहीं हैं कि 2012 में संसद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, एआईएडीएमके और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया जैसे अनेक राजनीतिक दलों ने 28 अगस्त, 1949 को शंकर्स वीकलीमें प्रकाशित शंकर के एक कार्टून को एनसीईआरटी की एक पाठ्यपुस्तक में शामिल किए जाने पर कैसा जबर्दस्त हंगामा किया था। आरोप था कि कार्टून में दलित नेता एवं विचारक बाबा भीमराव अंबेडकर का अपमान किया गया है। मायावती ने तो यह मांग तक कर डाली थी कि पुस्तक तैयार करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जाएँ। सीपीआई के डी राजा भी अपना मार्क्सवादी क्रोध प्रकट करने में किसी से पीछे नहीं थे। मजे की बात यह है कि जब यह कार्टून छपा था तब किसी को भी उस पर कोई आपत्ति नहीं थी। न अंबेडकर को और न ही उनके अनुयायियों को। शोचनीय हकीकत यह है कि देश में असहिष्णुता का माहौल बनाने में सभी शामिल हैं। यहाँ गांधीवादी भी नाटक रुकवाते हैं और संघी भी कला प्रदर्शनियों में तोड़फोड़ करते हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल की विधानसभा खुशवंत सिंह के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करती है क्योंकि उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को घटिया उपन्यासकार कह दिया था।

लेकिन फ्रांस इस मामले में हमसे बहुत अलग है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता को ढुलमुल तरीके से नहीं
, सख्ती के साथ लागू किया जाता है। स्कूलों या किसी भी अन्य सार्वजनिक स्थल पर किसी भी धर्म के अनुयायी को अपने धार्मिक चिह्न प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं है। ईसाई छात्र या छात्रा भी अपने गले में क्रॉस वाली चेन नहीं पहन सकते। फ्रांस में राज्य सर्व धर्म समभाव के रास्ते पर नहीं, धर्म के साथ पूर्ण विच्छेद के रास्ते पर चलता है। इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को वहाँ परम मूल्य माना जाता है। हमारे संविधान में जिस तरह उस पर विवेकसम्मत या मुनासिब बंदिश लगाने का प्रावधान है, वहाँ वैसा नहीं है। लेकिन इस ऐतिहासिक तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि फ्रांसीसी क्रांति के समय, जब समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों का झण्डा बुलंद किया गया, फ्रांस लगभग पूरी तरह से ईसाई देश था। लेकिन आज वहाँ कि लगभग एक-चौथाई आबादी गैर-ईसाई है और उनमें भी मुस्लिम बहुसंख्या में हैं। ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं का विस्तार करने का प्रयास नफरत की अभिव्यक्ति तक न ले जाए।

शार्ली एब्दॉ पर कुछ साल पहले भी हमला हुआ था
, लेकिन उससे जुड़े पत्रकारों और कार्टूनिस्टों ने इससे हार नहीं मानी। उनके असाधारण साहस और मूल्यों के प्रति निष्ठा को सलाम करना और उनसे प्रेरणा लेना हम सब का कर्तव्य है ताकि आतंकवाद को परास्त किया जा सके। लेकिन इसके साथ ही इस घटना से सबक लेना भी हमारा कर्तव्य है। किसी भी बहुलतावादी समाज  में दूसरों की भावनाओं का खयाल रखते हुए कैसे अपनी बात कही जाए, इस पर सभी को सोचने की जरूरत है। इसके साथ ही संभवतः अनेक देशों में फैले व्यापक मुस्लिम समुदाय को भी सोचना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में ईशनिंदा के बारे में उसे अपना रवैया बदलने की जरूरत है या नहीं।

मुस्लिम सूफी संत भी रसूल-ए-इस्लाम (अल्लाह की ओर से इस्लाम का संदेश लाने वाले) हजरत मुहम्मद का नाम लेने में बहुत सतर्क रहे हैं। प्रसिद्ध उर्दू कवि अली सरदार जाफरी ने अपनी  पुस्तक
कबीर बानी में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए फारसी की एक कहावत भी उद्धृत की है और बताया है कि मुसलमानों के बीच सर्वमान्य उसूल यह है कि “बा-खुदा दीवाना बाश ओ, बा-मुहम्मद होशियार यानी खुदा के साथ तो दीवानापन कर सकते हो पर मुहम्मद का नाम लेते वक्त सतर्क रहो)। मुसलमानों की अपने रसूल के प्रति सम्मान, श्रद्धा और भक्ति इतनी अधिक है कि शायद गैर-मुस्लिम लोग उसका अंदाज भी नहीं लगा सकते। उनकी नजर में वह आदर्श मानव थे और हर मुसलमान का यह कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में उनकी हर बात की नकल करने की कोशिश करे। किसी परिस्थितिविशेष में हजरत मुहम्मद ने जिस तरह का आचरण किया था, वह हर मुसलमान के लिए अनुकरणीय है। मुसलमानों की अपने पैगंबर के प्रति इतनी श्रद्धा है कि बहुत-से उनकी चाल-ढाल के बारे में मिलने वाले विवरणों के आधार पर अपनी चाल-ढाल भी वैसी ही बनाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए वे हजरत मुहम्मद को लेकर अतिशय संवेदनशील हैं। राजनीतिक दल, और अब आतंकवादी भी, इस संवेदनशीलता का फायदा उठाते हैं। 1980 के दशक के आरंभ में कर्नाटक के एक अखबार में एक कहानी छपी थी जिसमें एक चरवाहे का नाम मुहम्मद था। इसे पैगंबर का अपमान माना गया और वहाँ दंगे भड़क उठे।
इस्लाम मूर्तिपूजा का निषेध करता है। संभवतः हजरत मुहम्मद को आशंका थी कि कहीं उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी उनकी मूर्ति या चित्र बनाकर उसके प्रति श्रद्धा प्रदर्शित न करने लगें क्योंकि वह भी एक प्रकार की मूर्तिपूजा ही होगी। इसलिए उन्होंने अपना किसी भी तरह का चित्र बनाने से मना कर दिया। लेकिन यह मनाही केवल उन्हीं पर लागू होनी चाहिए जो उन्हें अल्लाह का रसूल मानते हैं। जो नहीं मानते, उन पर क्यों लागू की जाए। लेकिन इस समय स्थिति यह है कि इसे सभी पर लागू किया जाता है। पाकिस्तान जैसे कई इस्लामी देशों में ईशनिंदा के बारे में इतने कड़े कानून लागू हैं जिनके तहत किसी को भी मौत की सजा सुनाई जा सकती है। यदि किसी ने सजा पाये हुए व्यक्ति के प्रति सहानुभूति भी प्रकट कर दी, उसे अदालत नहीं बल्कि समाज ही मौत के घाट उतार देता है। पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर के साथ यही हुआ था। सऊदी अरब में पिछले दिनों एक युवा ब्लॉगर को दस साल की कैद और एक हजार कोड़ों की सजा सुनाई गई है। यह अलग बात है कि अपने जीवन में हजरत मुहम्मद बेहद सहनशील थे। उन्हें गालियां दी गईं, उन पर पत्थर फेंके गए और जानलेवा हमले किए गए, लेकिन वे धैर्य के साथ अपना संदेश प्रचारित करते गए। उन्होंने अपनी निंदा करने वालों से न बदला लिया और न अपने अनुयायियों से बदला लेने को कहा।
लेकिन कुछ लोग भारत को भी पाकिस्तान जैसा देश बनाना चाहते हैं। जब कुछ साल डेनमार्क के एक अखबार ने हजरत मुहम्मद के बारे में कुछ आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित किए थे, तब भी उस पर हमले हुए थे। उस समय बहुजन समाज पार्टी की सरकार में मंत्री याक़ूब कुरैशी ने उस व्यक्ति को 51 करोड़ रुपये का ईनाम देने की घोषणा की थी जो डेनिश कार्टूनिस्ट कुर्ट वेस्टरगार्ड की हत्या कर दे। ये सज्जन आज भी विधायक हैं और इन्होंने फिर शार्ली एब्दॉ के पत्रकारों की सामूहिक हत्या करने वालों के लिए ऐसा ही ईनाम घोषित किया है। एक समय मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवेसी भी तसलीमा नसरीन का सिर कलम किए जाने का आह्वान कर रहे थे। सोचने की जरूरत है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।


3 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भारतीय मूल की फ्रेंच पत्रकार बैजू नरवने की तारीफ़ इसी आधार पर की थी कि उसने बाकी आडियंस को यह विस्तारपूर्वक बताने की कोशिश की थी कि फ़्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानी क्या है , उसने तो यहाँ तक कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जरा सी पाबंदी भी उसे पूरी तरह से खत्म करने जरिया बन जाती है | वोल्टेयर के देश के लोग इसे स्वीकार नही कर सकते , वहाँ इस आजादी के लिए लम्बे अमय तक संघर्ष का इतिहास है | किसी भी प्रकार की रिसीवड नालेज को प्र्श्नेय मानों और किसी भी प्रकार का कलेक्टिव इन्सल्ट की अवधारणा पर विश्वास मत करो | यही बात वह जोर देकर बता रहीं थी कि वहाँ बुर्के से लेकर क्रास पहनने तक पाबंदी है | बुर्के के खिलाफ लड़ाई के बारे में उनका कहना था कि यह एक फेमिनिस्ट आन्दोलन का परिणाम था , धार्मिक आज़ादी के सवाल पर इंसानी बराबरी को तरजीह देना इसके मूल में था .........फ्रांस की अदालतों में ऐसी तमाम पाबंदियां को चैलेन्ज किया गया लेकिन कोर्ट ने पाबंदियों के पक्ष में फैसला किया था ........इसलिए हम जैसे सेकुलरिज्म को मिट्टी का लोंदा समझने वाले देश में इसका मर्म ठीक ठीक नहीं समझा जा सकता....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सही बात है। संतुलित व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की अवधारणा को मज़हबी/नियंत्रणवादी कूप के अंदर बैठकर समझ पाना आसान नहीं है।

      हटाएं
  2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन मर्यादा का भी ख्याल रखना चाहिए।धार्मिक आलोचना जो किसी अच्छे उद्देश्य से की गई हो,के प्रति इस तरह की असहिष्णुता ठीक 👌 नहीं है।शार्ली एब्दो पर हुए हमले की कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए।

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…