वरिष्ठ कवि और चिन्तक लाल्टू जी ने यह लेख इस नोट के साथ भेजा था
_____________________
भोपाल से एक पत्रिका आती है 'गर्भनाल'।
_____________________
भोपाल से एक पत्रिका आती है 'गर्भनाल'।
उनके लिए बीच-बीच में लिखता रहा हूँ। मैंने देखा है कि बड़े-बड़े लोग लिखते हैं उनके लिए।
यह आलेख संपादक जी नहीं छाप सकते, उन्होंने बड़ी विनम्रता से लिखा है कि उन्हें पहले दो पैरा ठीक नहीं लग रहे। उनका निर्देश है कि मैं कोई पहले का उदाहरण लूँ। मैं उनकी दिक्कत समझता हूँ। बदकिस्मती मेरी है कि मेरा हाजमा पहले से ही काफी बिगड़ा हुआ है, उसे और बिगाड़ नहीं सकता।
-लाल्टू
____________________
____________________
जे
एन यू के छात्र उमर खालिद ने हाल में कोलकाता में भारतीय संघ के भवन में छत्तीसगढ़ की
समस्याओं पर व्याख्यान दिया। सभागार के बाहर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी ए बी
वी पी के कार्यकर्त्ता विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इसकी वजह से ट्रैफिक में कुछ समस्याएँ
हो रही थीं। एक बस में किसी सवारी ने पूछा, यहाँ
क्या हो रहा है। किसी दूसरे ने जवाब दिया, अरे
वह उमर खालिद है न, जिसने देशद्रोही नारे लगाए थे,
वह
आया हुआ है। किसी तीसरे ने कहा, अरे उसेे अभी
तक गिरफ्तार नहीं किया। एक युवा स्त्री ने कहा कि आपलोग क्या कह रहे हैं,
आपको
पता नहीं कि यह सब झूठ है। जाली वीडियो दिखलाकर यह झूठ फैलाया गया था। तो कई लोग चिल्ला
उठे कि इसे पीट कर गाड़ी से उतार दो।
इस
घटना में एक तर्कशीलता है जो आधुनिक पूँजीवाद और सामंती समाज की गड्ड-मड्ड
संस्कृति से निकलती है। कई लोग हैं जो इस बात के प्रति उदासीन हैं कि हमारे समाज में
कई लोगों को या तो उमर खालिद से या उसके मुसलमान नाम से नफ़रत है,
पर
वे हम आप जैसे भले और सचेत भी दिखना चाहते हैं, तो
वे कहेंगे कि यह सब आधुनिकता की वजह से, अंग्रेज़ों
की वजह से,
औपनिवेशिक
शासन की वजह से है। यानी कि उस दिन उस वक्त बस में उस युवा स्त्री को एक बुज़ुर्ग ने
सँभाल न लिया होता तो उसकी पिटाई और पता नहीं जो कुछ भी हो सकने की संभावना थी,
उसे
भूल जाएँ और अंग्रेज़ों को कोस लें तो सब ठीक दिखने लगेगा। जिस तर्कशीलता के साथ मैं
अपने मित्रों की आलोचना कर रहा हूँ, यह भी आधुनिकता
से ही आई है। ऐसी अलग-अलग युक्तियों में से हम कोई एक पक्ष
चुनते हैं और उसे अपने तर्कों के साथ आगे बढ़ाते हैं। मित्रों को लगता है कि वे ठीक
हैं,
मुझे
लगता है कि मैं ठीक हूँ। अक्सर दोनों पक्षों में से कोई एक ही सही होता है,
पर
यह ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा हो और अगर हो भी तो पूरी तरह यानी सौ फीसद सही हो। अपने
पक्ष की सीमाओं को समझने में हमें लंबा समय लग सकता है और कभी-कभी
तो हम उसे कभी नहीं समझ सकते।
कुछ
साल पहले का एक उदाहरण लें। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्
(एन
सी ई आर टी)
की
2006 में
तैयार की गई ग्यारहवीं की राजनीति-शास्त्र की
पाठ्य-पुस्तक
में कोई तीस कार्टून डाले गए। इसके पीछे मासूम सा तर्क था कि बच्चे कार्टून का मजा
लेते हुए पाठ के विषय-वस्तु में रुचि लेने लगेंगे। वैसे तो
यह सही बात है और इस तरह के शैक्षणिक प्रयोग पिछली सदी के आखिरी दशकों में दुनिया भर
में हुए हैं। किताब में एक अध्याय भारत के संविधान पर था और यह समझाने के लिए कि संविधान
के लिखे जाने में तक़रीबन तीन साल लग गए, प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट
शंकर का
1949 में
छपा एक कार्टून डाला गया था। इसमें दिखलाया गया था कि भारत की जनता एक गोल चक्कर के
बाहर अधीरता से इंतज़ार कर रही है कि संविधान जल्दी तैयार हो और अखाड़े में संविधान
लिखने वाली समिति के अध्यक्ष आंबेडकर एक घोंघे पर बैठे हुए हैं। पीछे से उन दिनों की
कार्यकारी सरकार के प्रमुख जवाहरलाल नेहरु एक चाबुक लेकर खड़े हैं कि घोंघे को जल्दी
दौड़ाया जाए। जाहिर है इस कार्टून के पीछे अंग्रेज़ी का "स्नेल'स पेस"
(घोंघे
की चाल)
वाला
मुहावरा था,
कि
भई अब कामकाज की गति बढ़ाओ, कब तक लोग इंतज़ार
करेंगे। इस कार्टून पर 2010 से पहले कुछ,
और
जल्दी ही बड़ी तादाद में, लोगों ने आपत्ति
जतानी शुरु की।
2012 तक
ऐसा लगने लगा कि भारतीय बौद्धिक समाज दलित और गैर-दलित,
दो
तबकों में बँट गया है। दलितों और गैर-दलितों के बीच
बृहत्तर समाज में जो संकट का संबंध है, वह बौद्धिकों
में तीखी बहस बन कर सामने आ गया। दलित और गैर-दलित
चिंतकों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ता चला। अखबारों में, टी
वी चैनलों पर जम कर बहस हुई। एन सी ई आर टी की पाठ्य-पुस्तक
समिति के सदस्य जागरुक और सचेत लोग थे, बाकी समाज के
लिए पथ-प्रदर्शक
थे,
फिर
भी बहस चली। इसके एक दशक पहले प्रेमचंद की कहानियों पर भी ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों
के साथ हुआ था।
आखिर
कार्टून में पाठ को बेहतर ढंग से पढ़ाए जाने के अलावा और क्या पक्ष हो सकता था?
कल्पना
कीजिए कि देश के एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। अध्यापक पाठ के मुताबिक
समझा रहे हैं कि देश का संविधान कैसे बना। बच्चे पाठ में बनी तस्वीरों की तरह शर्ट
निकर के साथ टाई पहने हो भी सकते हैं। मान लें कि कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि
के बच्चे हैं। ईमानदारी से हम मौजूदा स्थिति के बारे में सोचें तो हम देख सकते हैं
कि अांबेडकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह
इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अांबेडकर के
ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है।
प्रताड़ित
जन की प्रतिक्रिया कैसी होती है, विश्व इतिहास
में इसके बेशुमार उदाहरण हैं। साठ के दशक में, जब
अमेरिका में काली चमड़ी के लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर
था,
जिसमें
कई गोरे लोग भी शामिल थे,
प्रसिद्ध
अफ्रो-अमेरिकी
कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः
लीरॉय जोन्स)
ने
लिखाः-
'ब्लैक
डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।'
कोई
भी इस हिंसक कविता को सभ्य अभिव्यक्ति नहीं कहेगा। सिर्फ जाति नहीं,
आर्थिक
वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। अभी हाल तक कोलकाता शहर में
दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं
- 'आदिम
हिंस्र मानविकतार आमि यदि केऊ होई, स्वजन हारानो
श्मशाने तोदेर चिता आमि तूलबोई।' बराका की हिंसात्मक
अभिव्यक्ति आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरे लोगों के समाज ने
इसका विरोध किया या नहीं, इसका कोई दस्तावेज
नहीं है,
पर
अफ्रो-अमेरिकी
स्त्रियों ने प्रतिवाद किया, यह इतिहास है।
एलिस वाकर ने तो इस पर कहानी, उपन्यास तक
लिखे
- उनके
उपन्यास
'मिरीडियन'
में
यह दिखलाया गया है कि किस तरह काले लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने आई एक गोरी लड़की
का एक काला युवक ग़लत फायदा उठाता है।
बहरहाल
हमें गैरतार्किक लगती स्थितियों तक कोई कैसे पहुँचता है, इस
पर बेशुमार साहित्य लिखा गया है। 1949 में ही एक अफ्रो-अमेरिकी
कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा थाः- ह्वाट हैपेन्स
टू अ ड्रीम डिफर्ड? दरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता
है?
/ क्या
वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या
वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें
सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा
कुरकुरा बन जाता है....? शायद
उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है / या
फिर वह विस्फोट बन फूटता है?
प्रसिद्ध
इतिहास लेखक हावर्ड ज़िन ने अपनी किताब में एक अमेरिकी कहावत का ज़िक्र किया है,
'ग़रीब
की आह हमेशा न्याय-संगत हो, यह
ज़रूरी नहीं;
पर
अगर तुम उसे सुनोगे नहीं, तो तुम जान
ही नहीं पाओगे कि न्याय क्या है।'
तो
हम कैसे तय करें कि सही और ग़लत क्या है। सच यह है कि हममें से बहुत सारे लोग कभी नहीं
जान पाएँगे कि दो विरोधी धारणाओं में से सही क्या हो सकता है। जीवन की तमाम प्रताड़नाएँ
और असुरक्षाएँ हमारी इंसानियत को थोड़ा-थोड़ा कर खाती
रहती हैं,
और
हममें से कई इसे इस हद तक खो बैठते हैं कि हम वापस पूरे इंसान नहीं बन सकते हैं। अच्छी
बात यह है कि हममें से अधिकतर लोग इस बीमारी से निदान पा सकते हैं। वक्त के साथ इंसान
में सहनशीलता और विरोधी धारणाओं के साथ जीने की क्षमता बढ़ी है। पिछली सदी के बीच के
दशकों तक यह माना जाता था कि तर्कशीलता ही हमें सही राह पर ले जा सकती है। पर यह स्पष्ट
होता गया कि विरोधी धारणाओं के अपने-अपने तर्क होते
हैं और तर्कशील सोच हमें सही या ग़लत दोनों तरह के निष्कर्षों पर ले जा सकती है। मेरी
अपनी तर्कशीलता मुझे बतलाती है कि राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता
या इंसान को इंसान से बाँटने वाले सिद्धांत मानसिक बीमारियाँ हैं। पर औरों की तर्कशीलता
उन्हें यह नहीं,
बल्कि
इसके विपरीत भी बतला सकती है। बीसवीं सदी के आखिर में यह दिखने लगा कि सिर्फ तर्कशीलता
नहीं,
बल्कि
भावनात्मकता भी सत्य की ओर जाने का एक रास्ता है। जाहिर है कि भावनात्मक होना भी अक्सर
हमें ग़लत दिशा में भी धकेलता है, पर कम से कम
इतना तो कहा जा सकता है कि भावनात्मकता के साथ हम विरोधी विचारों के लोगों के साथ इंसानी
रिश्ते बनाने के काबिल हो सकते हैं और उनकी सोच को जगह देने के काबिल होते हैं और मिलजुलकर
आगे बढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। असमंजस की स्थिति में समझदारी यह है कि हम उसकी सुनें
जो उत्पीड़ित है। बाद में यह निर्णय ग़लत भी निकले तो उससे घबराना नहीं चाहिए,
आज
तक सामाजिक-राजनैतिक
अखाड़ों में जिन निर्णयों को सही माना जाता रहा है, उनमें
से अधिकतर बाद में ग़लत साबित हुए हैं।
जिसे
आम तौर पर आधुनिकता कहा जाता है, सत्रहवीं सदी
के बाद से यूरोप में प्रबोधन-काल
(इनलाइटेनमेंट)
से
आए वैचारिक बदलावों के उस समूह में आधुनिक वैज्ञानिक तर्कशीलता पर जोर बढ़ता रहा। आधुनिक
विज्ञान की यह ताकत भी है और कमजोरी भी कि इसमें सिद्धांतत:
भावनात्मकता
के लिए कोई जगह नहीं है। पर वैज्ञानिक तो आखिर इंसान है, इंसान
सामाजिक प्राणी है, इसलिए विज्ञान के पेशे में वे सारे पूर्वग्रह
मौजूद हैं,
जो
वर्ग,
जाति,
लिंग
आदि आधारित भेदभावों से भरे बृहत्तर समाज में है। इसलिए अगर हमारी सोच सिर्फ वैज्ञानिक
तर्कशीलता पर आधारित हो और हम भावनात्मक रुप से विज्ञान के पेशे की सीमाओं को नहीं
पहचान पाते,
तो
हम सामाजिक पूर्वग्रहों से कभी मुक्त नहीं हो पाएँगे। यह विरोधाभास सा लगता है,
क्योंकि
भावनात्मकता से रहित विज्ञान से यह अपेक्षा होती है कि वह हमें सामाजिक पूर्वग्रहों
से ऊपर ले जाए,
पर
ऐसा होता नहीं है। दरअस्ल बौद्धिक कर्म करने वालों की अलग-अलग
जमातों में वैज्ञानिक ही संभवत: सबसे अधिक संरक्षणशील
होते हैं। इसलिए दुनिया भर में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि उच्च-स्तर
पर विज्ञान और तकनीकी शिक्षा लेने वालों को जहाँ तक हो सके समाज-शास्त्र
और मानविकी
(अदब
समेत)
भी
पढ़ाया जाए। बगैर पर्याप्त भावनात्मक विकास के एक वैज्ञानिक महज एक मशीन है।
यूरोपी
आधुनिकता और इसकी तर्कशीलता से जो और बातें आई है, उनमें
आधुनिक
'राष्ट्र'
की
धारणा प्रमुख है। यह एक ऐसी अजीब धारणा है, जो
हमें अपने ही अंदर दुश्मन ढूँढने को कहती है। जो भी मुख्यधारा की भाषा,
संस्कृति,
मजहब
का नहीं है,
वह
मेरा दुश्मन है। राष्ट्र की यह धारणा हमारी इंसानियत को बड़ी तेजी से खत्म करती है।
यह कहा जा सकता है कि आज समूची दुनिया में हर मुल्क के लोग इस आधुनिक बीमारी से ग्रस्त
हैं। इसलिए एक मुल्क का नागरिक दूसरे मुल्क के नागरिकों के साथ भावनात्मक रुप से नहीं
जुड़ पाता,
यहाँ
तक कि अपने ही मुल्क में अल्पसंख्यकों से हम भावनात्मक रुप से नहीं जुड़ पाते। एक दूसरे
को मार कर अपने मृत को शहीद और दूसरे को दुश्मन कहते हैं, जबकि
सच यह है कि मरने वाले तो मर जाते हैं, उनके बच्चे
अनाथ हो जाते हैं। लगता ऐसा है कि लोग भावनात्मकता में बह जा रहे हैं,
पर
दरअस्ल होता यह है कि राष्ट्र आधारित तर्कशीलता हमारे भावनात्मक अस्तित्व को खा चुकी
होती है। इसका फायदा उठाकर मुनाफाखोर पूँजीपति और फिरकापरस्त राजनैतिक गुटबंदियाँ अपना
स्वार्थ सिद्ध करती हैं। सरकारें जनता को भूखी और ग़रीबी की हालत में रखे अरबों-खरबों
के शस्त्र खरीद कर जंग की तैयारी और दमन-तंत्र को मजबूत
करती हैं।
इतना
तो कहा ही जा सकता है कि सामाजिक सह-अस्तित्व का
मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी क्या और कितनी है,
हम
यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति
की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैं, उनको
झेलने की ताकत हममें हो, इसकी कोशिश
हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता।
इसलिए आधुनिकता के उन पक्षों को जो हमें सत्ता और समाज पर सवाल खड़े करने की ताकत देते
हैं,
उनको
पहचानने,
जानने
और अपनाने की ज़रूरत है। इस प्रतिरोधी प्रवृत्ति का भी एक भावनात्मक पक्ष है, जिसे हमें मजबूत करना होगा। उमर खालिद
इसी प्रतिरोधी प्रवृत्ति का नायक है, और बस में भरी
भीड़ की हिंसक मानसिकता के खिलाफ खड़ी होती युवा स्त्री भी।
________
________
लाल्टू
संपर्क : laltu10@gmail.com
असल में गर्भनाल के सर्वेसर्वा राज्य शासन के कर्मचारी हैं व अपनी पत्नी के नाम से पति्रका चलाते हैं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख !
जवाब देंहटाएंहिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
चिंतन व विचारशील प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएं